Wednesday, June 30, 2010

कई बार हमें ऐसे शब्‍द सुनने को मिलते हैं, जिन्‍हें सुनकर हमें लगता है जैसे हमारा अपमान हो रहा है, हमारे स्‍वाभिमान पर चोट पहुंच रही है । हम झुंझला उठते हैं, चेहरे पर आवेग छा जाता है और हृदय में एक कसक उठती है । क्‍या शब्‍दों का मुकाबला शब्‍दों से किया जा सकता है ? यदि हम भी उसी प्रकार कडे और तीखे शब्‍दों से प्रहार करें तो क्‍या हम अपने हृदय की उस चोट पर मलहम लगा सकते हैं ? दो विचार हो सकते हैं । अपने प्रति साक्षी भाव पैदा कर लें । शब्‍दों को साक्षी भाव से सुनें और अंत समय तक सुनें । अथवा प्रतिरोध करें, प्रतिशोध के लिए अपने को तैयार रखें ?
शायद मध्‍य मार्ग अपनाना उचित होगा । साक्षी भाव रखते हुए अपने प्रति ईमानदार होते हुए स्‍पष्‍टीकरण करना ही ठीक है ।
हम लोग दोहरी मानसिकता में जीते हैं । किसी के प्रति हमारी कैसी भावना है, यदि इस पर ध्‍यानपूर्वक गौर करें तो पायेंगे कि हमारा व्‍यवहार दोहरा है । ऊपर से कुछ और भीतर से कुछ और । प्राय ऊपर से अच्‍छा और भीतर से बुरा । इसके कई कारण हो सकते हैं । एक तो यह है कि हमें भय होता है कि यदि हमने अपने मन के विचार प्रकट कर दिए तो दूसरा नाराज हो जाएगा, दूसरा नाराज न हो जाए, इसलिए अच्‍छा वाला रुप दिखाते हैं, बुरा वाला छुपा लेते हैं । दूसरा कारण है – हमारा अंहकार ।
सुन्‍दरता की क्‍या कोई सीमा होती है ? यदि कोई सुन्‍दरता हमारे हृदय को भा जाती है और हम कह उठते हैं कि सुन्‍दर है । लेकिन उसी सुन्‍दर के सामने उससे भी सुन्‍दर प्रस्‍तुत कर दें तो ? वह सुन्‍दर नहीं रह जाता । यानि सुन्‍दरता की कोई सीमा नहीं होती । और सच्‍ची बात तो यह है कि कोई सुन्‍दरता होती ही नहीं है, यह तो हमारे देखने का दृष्टिकोण है अर्थात मानो तो सुन्‍दर है, न मानो तो नहीं है । जो जैसा है वह सुन्‍दर है, मान लें तो ठीक ही है । कोई कम सुन्‍दर नहीं है, कोई ज्‍यादा सुन्‍दर नहीं है, यह सब मन का खेल है । मन डांवाडोल होता है । वास्‍तविकता में सुन्‍दरता चेहरे पर कम, हृदय में ज्‍यादा होती है और उस सुन्‍दरता को जानने के लिए हृदय के तल पर जीना होगा ।
मैंने सुना है हम जिसके प्रति सच्‍चा प्रेम रख्रते हैं, वह चीज हमें मिल जाती है । वह चीज प्रेम के सेतू से हमारे बीच तक पहुंच ही जाती है । हम कैसी नैचर पसन्‍द करते हैं, कैसी जॉब पसन्‍द करते हैं, हम किस व्‍यक्ति का साथ चाहते हैं, ये सब मिल जाता है यदि हम उसको पाने के लिए अपने को एकाग्रचित कर लेते हैं । कई लोगों के बोलने का अंदाज बहुत सुन्‍दर होता है । बोलने में एक सरलता, मिठास जो मन को छू लेती है । शब्‍दों का चयन और संयमसे धीरे धीरे बोलना अच्‍छा लगता है । ऐसा बोला जाना कि दूसरों को लगे कि बात सुन्‍दर है ।
हम दस व्‍यक्तियों से बात कर लें । उनसे पूछें – क्‍या आप खुश, उन्‍मुक्‍त हृदय से प्रेम पूर्ण होना चाहते हैं ? जवाब मिलेगा हां, हां, क्‍यों नहीं । लेकिन हम उनमें से यही सवाल अलग अलग व्‍यक्ति से मिलकर पूछें तो उनके जवाब में यह भी शामिल होगा मैं प्रेमपूर्ण तो होना चाहता हूं लेकिन ये पास बैठे नौ व्‍यक्ति क्‍या सोंचेगे ? हर व्‍यक्ति अपनों से ही भयभीत है । कैसी दुविधा है । कैसी विडम्‍बना है । क्‍या आप प्रेमपूर्ण नहीं होना चाहते ? एक बार सोचिए । क्‍या हमारे प्रति भी कोई प्रेमपूर्ण है – देखिए । जीवन एक सुन्‍दर गीत बन जाएगा ।
जीवन में सुख भी हैं, दुख भी हैं तो कोई सोचने का विषय ही नहीं । बेवजह सुख पाने के चक्‍कर में दुख को ही न ले बैठे ? हां, यह दूसरी बात है कि दुख को भी स्‍वीकार करने की स्थिति हमारे बीच कितनी है ? कहीं हम दुख से एकदम घबरा तो नहीं जाते ? ऐसा अक्‍सर हो जाता है कि हम क्षणिक दुख से इतने विचलित हो उठते हैं कि लगता है सारा जीवन ही दुख है । यह सही नहीं है । ऐसा देखा गया है कि जब हम किसी से मिलते हैं तो दूसरे को मिलकर बहुत खुश होते हैं । दूसरे के व्‍यक्तित्‍व से प्रभावित भी होते हैं, लेकिन हम ध्‍यान से मनन करें तो पता चलता है कि वह आकषर्ण्‍ ज्‍यादा देर तक नहीं रहता है, और जब यह आकर्षण, आसक्ति समाप्‍त हो जाती है, पुन एक पीडा का वातावरण उत्‍पन्‍न कर लेते हैं हम लोग । जबकि जो है, वह है । जिस व्‍यक्ति से हम प्रभावित हुए, फ्‍रि वह प्रभाव खत्‍म भी हुआ तो यह सब परिवर्तन हमारे बीच ही होते हैं, वह व्‍यक्ति तो जैसा है, वैसा ही है । खोज तो हमें अपने भीतर करनी होगी ङ दरअसल, हर व्‍यक्ति में गुणों का, दोषों का समावेश होता है । देखना यह है कि हम कब गुण देखते हैं और कब दोष ?
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हमारे समाज ने बहुत से रिश्‍ते दिए हैं , पिता का, मां का, बहन का, भाई का, पत्‍नी का,पति का --- सैकडों रिश्‍ते दिए हैं लेकिन इतने रिश्‍तों के बावजूद भी एक रिश्‍ता नहीं दिया है प्रेम का रिश्‍ता । प्रेम का रिश्‍ता उतना ही जरुरी है जितना हमारा जीवन जरुरी है । यदि प्रेम का रिश्‍ता है तो पिर सब कुछ ठीक हो जाने के बाद रिश्‍तो को कुछ भी नाम दें और प्रेम के रिश्‍ते को कोई दूसरा नाम न ही दें तो अच्‍छा है ङ लेकिन होता है उलटा ही । हम प्रेम के रिश्‍ते पर रोक लगा देते हैं । दूसरे रिश्‍ते बनाते हैं । फ्‍रि प्रेम ढूढंते हैं लेकिन मिलती है एक घृणा । एक द्वंद, एक तनाव । यदि कोई प्रेमपूर्ण होना भी चाहता है तो उस पर कई बंदिशें लगा दी जाती हैं । फलत प्रेम का दीप जलने से पहले ही बुझ जाता है । हम किसी से मिलते हैं तो समाज कहता है कि पहले रिश्‍ता बताओ । प्रेम का रिश्‍ता है तो बात समझ में नहीं आएगी समाज के । तो क्‍या हम लोगों को खुश करने के लिए प्रेम करना छोड दें ? प्रेम का नाता, प्रेम और प्रेम करना भूल जाएं ? नहीं । जहां प्रेम मिलता है, उसके प्रति पूरी तरह समर्पण होना ही उचित है ।

---- क्‍या ऐसा अनुभव नहीं होता कि हम जो जीवन जी रहे हैं, वह हृदय के तल पर न जीकर बुदिध से जीते हैं ? प्रेम भी करते हैं तो बौदिधक स्‍तर पर । अथवा एक अनायास प्रेम का अहसास होता है, हृदय के तल पर लेकिन हम उसे बुदिध के बल पर जांचते हैं । क्‍या यह उचित है ? नहीं । दरअसल इस स्थिति के पीछे कुछ कारण हाते हैं । सबसे बडा कारण है हमारा डर । हम इतने भयभीत हो गए हैं कि हमेशा भविष्‍य में रहकर जीते हैं । समझते हैं कि सुख अभी नहीं है, कल होगा । यदि कल को भूलकर आज के क्षणों में जीवन को उसकी परिपूर्णता में जीएं तो उचित नहीं होगा ? लेकिन ऐसा भी तो लगता है कि रात भी होने वाली है, यह दिन का उजाला स्‍थायी भी तो नहीं । कहीं ऐसा न हो कि हम दिन के उजाले के इतने अभयस्‍त हो जाएं कि भूल ही जाएं कि दिन के बाद रात होती है । यदि हमने इसे ध्‍यान में न रखा तो रात होने पर उजाले के खो जाने की पीडा होगी । यह समझना ही होगा कि दिन के बाद रात आती है । यह स्‍मरण हो कि रात के बाद दिन आने वाला है तो रात भी आसानी से कट सकती है । कुछ भी स्‍थायी नहीं । दिन के बाद रात, सुख के बाद दुख, रात के बाद दिन, दुख के बाद सुख यह चक्र है और यूं ही चलता है और यूं ही चलता रहेगा ।
जो कुछ भी होता है, ईश्‍वर की कृपा से होता है । जो कुछ घट रहा है वह उसी की मर्जी से हो रहा है । सफलता और असफलता का होना एक नियत नियम है । लेकिन हमें अपने कर्तव्‍यों, कार्यों के प्रति जागरुक रहना परम आवश्‍यक है । प्रयास करते रहना चाहिए । अपनी शक्तियों को केन्‍द्रीत करना चाहिए । हमारे किये गये कार्यों का फल अवश्‍य मिलता है, वह फल जल्‍दी भी मिल सकता है और देरी से भी, लेकिन मिलता अवश्‍य है । अगर कभी निराशा का भाव हो तो देखना चाहिए कि ऐसा क्‍यों है ? अपनी शक्तियों का सही उपयोग क्‍यों नहीं हो पा रहा है ? कार्यालय, दुकान या बिजनैस के बाद हम स्‍वतंत्र हैं । कुछ भी सोच समझकर अपनी योग्‍यताओं के अनुसार कोई भी रचनात्‍मक काम कर सकते हैं ।

किसी व्‍यक्ति के संस्‍कार वातावरण और समय पर ही बनते हैं । लेकिन व्‍यक्ति के संस्‍कार पिछले जन्‍मों पर भी आधारित होते हैं । किसी व्‍यक्ति का धार्मिक होना पिछले जन्‍मों का योग हो सकता है । धार्मिक होने के सभी सूत्रों को समझा तो जा सकता है, एक कोशिश और लगन से किन्‍तु वास्‍तव में धार्मिक होना पूर्व लक्षित, जन्‍मजात होता है । दूसरी ओर, यह भी सच है कि धार्मिक होने के लिए किसी जन्‍म से तो शुरुआत करनी ही होगी । अगर धार्मिक होने की शुरुआत इस जन्‍म से शुरु की जाए तो सम्‍भव है कि धर्म की यात्रा का दूसरा सोपान अगले जन्‍म में आरम्‍भ हो ? तब हो सकता है हम कहें, पिछले जन्‍मों का योग है ।

मैंने सुना है जब हम बहुत खुश होते हैं अथवा सुखी होते हैं तो हमें सारा संसार सुखी और खुश दिखता है, और जब हम दुखी होते हैं तो पाते हैं कि हमें सारा संसार दुखी है । लेकिन ध्‍यान से देखें तो पाते हैं कि जब हम खुश होते हैं तो सभी दुखी लगते हैं और जब हम दुखी होते हैं तो सभी लोग सुखी नजर आते हैं – कुछ अलग सा नहीं लग रहा ?

विचार तो यह भी होना चाहिए कि हमें दूसरों के मामलों पर बिल्‍कुल विचार नहीं करना है । बस एक ऐसा भाव हो, विचार हो, यह मेरी मौज है, वह तुम्‍हारी मौज है, वह उसकी मौज हो सकती है । मैं क्‍या कर सकता हूं, मुझ्‍े तो कृष्‍ण भी अच्‍छे लगते हैं, तुम्‍हें महात्‍मा बुदध अच्‍छे लगते होंगे, उसे कबीर अच्‍छे लगते होंगे, मुझे बुद्व या कबीर से क्‍या लेना, अपने बीच ही ध्‍यान होता है ।
हम जो कुछ करना चाहते हैं, उसके बारे में दो विचार हो सकते हैं – एक तो यह है कि हम उस बारे में सोचें ही नहीं । दूसरा इसके विपरीत । यानि गहराई में जाओ, ध्‍यान करो, अपने प्रति एक अलग छवि हो, बीच की स्थिति किसी भी भांति उचित नहीं । छोड दो अथवा पकड लो ।

जीवन में उसकी परिपूर्णता में जीन के लिए कुछ आधारभूत नियम व सिद्धात तो होने ही चाहिए । जीवन को कैसे जीना है, उसे किस रुप में देखना और समझना है, अथवा जीवन के प्रति क्‍या रुख हो ? अगर जीवन को सही मायने में जीना है तो साहसपूर्ण तरीके से जीना होगा, केवल भय और दुखी मन से जीवन को नहीं जिया जा सकता । तो पहली बात तो यह हुई कि जीवन के प्रति जो डर है, उसे समझना है । भय पर विचार कर उस पर विजय पानी होगी । जीवन को जागकर जीन के लिए एक दृढ प्रतीज्ञा करनी होगी । जागकर जीने का मतलब है जो हमारा मन कहता है वही करना होगा और यह तभी होगा जब हम अपने समय का सदुपयोग करेंगे । समय का सदुपयोग इस प्रकार किया जाए कि वह सभी कार्य पूरे हो जाएं, जिन्‍हें हम करना चाहते हैं । यदि जीवन को जागकर जीने का निश्‍चय कर ही लिया है तो बाहरी बातों को ज्‍यादा महत्‍व नहीं देना होगा । कहने का सार यह है कि बाहरी लोगों से कम मुलाकात की जाए और अपने टारगेट की ओर ज्‍यादा ध्‍यान दिया जाए । दरअसल हम लोग फालतू की फार्मेलिटी में अपना बहुत सा समय नष्‍ट कर देते हैं और अंत में पाते हैं समय की बर्बादी के साथ साथ अपनी रचनात्‍मक शक्ति की कमी । जीवन को जागकर जीना, और वही कार्य करना जो हृदय कहता है । कई कार्य करने होंगे । चाहे वह मामला पढाई लिखाई का हो, खेलकूद का,योग ध्‍यान का या अपने शौक पूरे करने का, पूरी तरह सक्रिय होना होगा, इसके लिए जरुरी है कि शरीर स्‍वस्‍थ हो और शरीर तभी स्‍वस्‍थ होगा, जब हम अपने शरीर पर ध्‍यान देंगे यानि खान पान और योग की ओर ध्‍यान । ध्‍यान रखें जरुरत से ज्‍यादा खाना शरीर के लिए हमेशा नुकसानदायक होता है । कम खानेवाला मरता नहीं है, ज्‍यादा खाने वाला पहले मरता है ।

जीवन में यदि सफलता मिलती है तो जीवन के प्रति एक उत्‍साह बना रहता है और यदि असफलता मिलती है तो जीवन के प्रति निराशा । जीवन में सफलता मिलती रहे, इसके लिए जरुरी है कि हमारे पास आय के ज्‍यादा साधन हों ताकि हम अपनी जरुरतों को पूरा कर सकें । जीवन की जरुरतों को पूरा करने के लिए आय का अधिक होना जरुरी है और आय तभी ज्‍यादा होगी जब हम अच्‍छी नौकरी या बिजनैस करेंगे और अच्‍छी नौकरी या बिजनैस तभी होगाक जब उसे पाने के लिए प्रयास करेंगे और प्रयास करने के लिए अपनी योग्‍यताओं को बढाना होगा और योग्‍यताओं को बढाने के लिए मेहनत करनी होगी । शैक्षणिक योग्‍यताओं में वृदिध मेहनत करने पर ही होगी ।
किसी खास क्षेत्र में पूरी गहनता से अध्‍ययन किया जाए तो फ्‍रि बाद में उसके प्रति जो जिज्ञासा या उत्‍सुकता बनी रहती है, वह समाप्‍त भी हो जाती है । अगर सुस्‍ती करने का जी है तो पूरे मन से सुस्‍ती कर ली जाए तो पिर सुस्‍ती करने को भी जी नहीं चाहेगा । इसी प्रकार किसी और विशेष विषय में हम पढना चाहते हैं, चाहते हैं किसी से बातचीत करना, सोना चाहते हैं, मेहनत करना चाहते हैं, प्रेम करना चाहते हैं, यानि कुछ भी – पूरी उन्‍मुक्‍तता से कर ली जाए तो फ्‍रि उसके प्रति बेकार का रुझान अथवा ध्‍यान नहीं जाता है । इसी को पूर्ण ध्‍यान भी कहा जा सकता है । देखते रहो, साक्षी भाव से, एक दिन ध्‍यान घट जाएगा । लेकिन यह तभी होगा जब समाज के बंधनों को आडे नहीं आने दिया जाएगा ।

Sunday, June 27, 2010

गुस्‍सा करने से कुछ न होगा । आपसी सहयोग एवं सामन्‍जस्‍य की स्थिति से ही लाभ है । दूसरों का अपराध क्षमायोग्‍य हो तो तुरन्‍त क्षमा कर देना चाहिए और गुस्‍सा शांत करने का एक ही तरीका है चुप हो जाना । मैंने सुना है दिन रात की मेहनत एक न एक दिन अवश्‍य काम आती है । पढनेलिखने से आदमी योग्‍य बन जाता है । पढने लिखने का उददेश्‍य मात्र नौकरी पाना अथवा डिग्री लेना ही नहीं है, बल्कि योग्‍य इंसान बनना भी है । मित्रों का दायरा सीमित रखना ही अच्‍छा है ।ज्‍यादा लोगों से मिलने पर अंतत- मन अशांत ही होता है और सोचने समझने की शक्ति पर बुरा असर पडता है । यदि हम कम लोगों से मिलेंगे तो मन शांत होगा और मन शांत होगा तो अच्‍छा सोचने की ताकत मिलती है ।मुस्‍कराता चेहरा आपको सफलता दिलाता है । अमीर कौन है ? क्‍या केवल ढेर सारे पैसे रखनेवाला व्‍यक्ति अमीर होता है ? नहीं । अमीर होने के लिए तीन गुणों का होना आवश्‍यक है । एक, वह मानसिक रुप से स्‍वथ्‍य होना चाहिए, दूसरा शारीरिक रुप से तन्‍दरुस्‍त होना, तीसरे, आर्थिक रुप से सम्‍पन्‍न होना । इन तीनों से पूर्ण व्‍यक्ति ही अमीर हो सकता है । केवल पैसे वाले व्‍यक्ति को अमीर नहीं कह सकते ।
एक बाति नोट करने वाली है । हंसने से मुस्‍कराना ज्‍यादा बेहतर है । मुस्‍कराने की कीमत निस्‍संदेह हंसने से बहुत अधिक है । बार बार प्रयास करने पर सफलता मिलती है सच है गरीबी कोई ईश्‍वरीय देन नहीं है । अपने प्रयासों और दृढनिश्‍चयी व्‍यक्त्वि को मजबूत बनाकर गरीबी से ऊपर उठा जा सकता है । धनी बनने के लिए अपने चित्‍त में शंका और त्‍यागना परम आवश्‍यक है । तुच्‍छ और हीन विचारों वाला व्‍यक्ति कभी उन्‍नति नहीं कर सकता । अपने विचारों को साहसपूर्ण कार्यो के लिए लगाना चाहिए । एक विचार है मानसिक शांति के बारे में । सेल्‍फ सेटिसफेक्‍शन के लिए एक दो बातों को ध्‍यान में रखना जरुरी है । हमें उतना ही काम करना चाहिए जितना हम करना चाहते हैं, जितनी हमारी इच्‍छा है । तभी मानसिक शांति मिलती है । वास्‍तव में सच्‍ची शांति है कम इच्‍छाओं में । बिल्‍कुल खाली बैठे रहना भी मानसिक अशांति का एक कारण है । इसलिए अपने को हमेशा बिजी रखना चाहिए । इसलिए साधारण बनना और बनाना चाहिए । अपने बीच सहनशीलता,विनम्रता, आकर्षण, ईमानदारी, मेहनत की भावना जैसे गुणों को कूट कूट कर भर लेना चाहिए । यदि आपको गुस्‍सा आता है तो एक ही समाधान है – चुप हो जाएं । कसूर तुम्‍हारा है या किसी और का, अपना ही मान लो । कुछ नहीं बिगडेगा, बल्कि झगडा भी नहीं होगा । हमारी छवि भी खराब होने से बच जाएगी ।
अच्‍छी पुस्‍तकों की एक छोटी सी लाइब्रेरी आपके पास हैं तो मन प्रसन्‍न रहता है । अच्‍छी पुस्‍तकें मानसिक संतोष देती हैं और आपकी उन्‍नति में सहायक होती है । कोई भी काम शांत मन से किया जाए तो कोई परेशानी नहीं होती, वरना तो हर काम झंझाल हो जाता है ।
जरुरत से ज्‍यादा खाना हमेशा नुकसान देता है । हम देखते हैं कि लोगों के पेट बाहर निकले होते हैं अथवा मोटापे से पीडित होते है। । उनके दुखों का कारण यही है कि उन्‍होंने अपने खाने पीने पर ध्‍यान नहीं दिया । बिना भूख के तो कभी खाना ही नहीं चाहिए । और यह भी ध्‍यान में रखना चाहिए कि हम खा क्‍या रहे हैं ? खटटा और तला हुआ, ज्‍यादा नमक मिर्च की चीजें खाना मतलब अपना नुकसान । यदि अपना स्‍वस्‍थ बनाए रखना है तो खानपान पर ध्‍यान देना परम आवश्‍यक है ।
हर एक व्‍यक्ति की अपनी मंजिल होती है, अपने रास्‍ते होते हैं, अपने विचार होते हैं, अपने सोचने का एक तरीका होता है, अपना दृष्टिकोण होता है । लेकिन हम लोग दूसरों के विचारों को सुनसुन कर अपने विचारों को कमजोर बना लेते हैं और एक विरोधाभास की स्थिति पैदा कर लेते हैं और चिन्‍ता के सागर में डूब जाते हैं, परेशानी में पड जाते हैं, चिडचिडे, क्रोधी और ईर्ष्‍यालू बन जाते हैं । हां, यदि अपना विचार मजबूत है तो
कोई ऐसी बात नहीं है कि हमें अपने टारगेट से कोई डिगा सके । अपने विचारों पर भी विचार करते रहना चाहिए । जल्‍दबाजी में किये गये कार्य अपूर्ण और गलत ही होते हैं ।

यदि कोई समस्‍या है तो उसका हल भी हमें पता होता है लेकिन होता यह है कि हम अपनी समस्‍या का हल दूसरों से पूछते हैं लेकिन अन्तिम निर्णय तो हमारा ही होता है और यदि अंतिम निर्णय अपना है तो शायद दूसरों से पूछने की जरुरत नहीं । दूसरों की सलाह का महत्‍व नहीं है । यदि कोई अपना सुझाव देता है तो कोई बुरा नहीं । लेकिन अपना विचार शो करने की जरुरत क्‍या है ? दूसरों की सुनो । अपनी बात गुप्‍त रखो । यदि कोई मांगने पर भी अपने विचार नहीं देता है तो क्‍या हुआ, हमारे अपने विचार तो हैं ही ।
यदि हम अपने बीच नेगेटिव विचार रखते हैं, अपनी असफलता की कहानी कहते रहते हैं, तो हम कैसे सफल हो सकते हैं ? जब हम ही अपने को असफल कह रहे हैं तो दूसरा हमें कैसे सफल कह सकता है ? कैसे कोई दूसरा हमारा उत्‍साह बढा सकता है ? दुनिया को तो यह दस्‍तुर है कि वह कुछ न कुछ बोलती ही रहती है, दूसरों के बीच गलतियां कमियां निकालती ही रहती है । साहस बढाना या उत्‍साहित करना दुनिया का काम नहीं है । अगर एक आध साहस बढाता भी है तो बडी बात नहीं । इसलिए स्‍पष्‍ट है कि जो कुछ बनना है, स्‍वयं ही बनना है । दुनिया की परवाह करना छोडना होगा । दुनिया का क्‍या है बोलती रहेगी तब तक जब तक हम असफल हैं । जिस दिन सफल हो गए, दुनिया बोलना छोड देगी, टोकना छोड देगी, हत्‍तोत्‍साहित करना छोड देगी । अपना काम करते रहना चाहिए ।

जीवन में अच्‍छी इंगलिश के सफलता का मिलना थोडा मुश्किल है । कोई भी क्षेत्र हो, सर्विस का या बिजनैस का, इंगलिश अच्‍छी होनी चाहिए । अपनी इंगलिश अच्‍छी करने के लिए रोजाना अध्‍ययन करना चाहिए ।

न ही चेहरा इतना खिला हो कि भददा लगे और न ही इतना बुझा बुझा हो कि चेहरे पर एक बनावटीपन हो । मध्‍यमार्ग अपनाना ही ठीक है । न इतना ज्‍यादा बोलें कि दूसरों को बुरा लगे और न ही इतना कम बोलें कि दूसरा बोर हो जाए । नये नये लोगों से मिलने पर काफी कुछ सीखा जा सकता है । चुस्‍त, खुश और मेहनती और पढे लिखे लोगों से मुलाकात करते रहना चाहिए , जीवन में सफलता का रहस्‍य समझ् में आने लगता है ।
नदी का यह किनारा आह भर कर कहता है मुझे पूरा विश्‍वास है कि संसार का सारा सुख उस पार है । इधर नदी का दूसरा किनारा लम्‍बी सांस खींचकर कहता है कि जिन्‍दगी का असली सुख जिसे कहा जाता है वह इस पार नहीं, उस पार है ।

Saturday, June 26, 2010

तनावग्रस्‍त व्‍यक्ति दूसरों की भावनाओं का बिल्‍कुल भी ख्‍याल नहीं रखता है । किस बात से दुख पहुंचता है और किससे सुख, वह बेखबर रहता है । सिर्फ ध्‍यान की रास्‍त है । ध्‍यान के लाभ बहुत हैं जैसे शरीर,मन और आत्‍मा बलवान बने, जैसा चाहो वैसा बनो, आंतरिक व बाहरी संतोष का आरम्‍भ होता है और दुखों में कमी होती है । समझ् का विकास होता है और समस्‍याओं का हल भी होता है और यदि मेडिटेशन नहीं किया तो जीवन में उदासी और कमजोरी बढती है, व्‍यक्ति वास्‍तविकताओं से दूर होता है । एकाग्रता की कमी है ज्‍यादातर सभी व्‍यक्तियों में । तभी तो व्‍यक्ति दुखी है । बिना ध्‍यान के मूड खराब रहता है, सब कुछ बेकार सा लगता है । व्‍यक्ति चाहता है कि दूसरा बार बार प्रेरणा दे । ध्‍यान हो सकता है, शुरु में कम लेकिन बाद में धीरे धीरे बढ सकता है । संकल्‍प और प्रयास तो करना ही होगा । शुरु में सफलता नहीं मिलेगी, लेकिन पुन- शुरु करना चाहिए । ध्‍यान होगा तो सभी छोटी छोटी इच्‍छाएं पूर्ण होंगी जैसे पढाई,कम बोलना, संतोष, खानपान पर नियंत्रण । क्‍या तुम्‍हें भी लगता है कि सर्वप्रथम ध्‍यान अपने पर देना चाहिए ? पहले अपने को कोमल फूल सा बनाना होगा तभी तो दूसरे तुम्‍हारी खूशबू सुंघकर तुम्‍हारे पास आयेंगे । अपने से जुडना है तो मौन में होने का प्रयास करें । बोलो कम सुनो ज्‍यादा । मौन में ही हम सत्‍य को जान सकते हैं ।

अपने बीच एक अलग व्‍य‍क्तित्‍व रखना बेहद आवश्‍यक है, जो किसी की नकल न हो । जो काम आज तक नहीं हुआ है, वह अब हो सकता है । सफलता पाओ, चाहे अपने तरीके से ही । कहा जाता है कि बहसबाजी से दूर रहना ही बेहतर होता है । बात को संक्षेप में कहना अथवा कम बोलना ठीक होता है । जिन्‍दगी में सुख पाना है तो आलस छोडना होगा । अपनी इच्‍छाशक्ति को मजबूत बनाना चाहिए । शरीर को स्‍वस्‍थ रखना और बलवान बनाना जरुरी है । कठिन परिश्रम करने की आदत तो डालनी ही होगी, वरना सफलता से काफी दूर रहोगे । प्रतिदिन एक्‍सरसाइज अथवा योगा के लिए थोडा टाइम निकला जा सकता है । हां, खाने पीने की चीजों के बारे में सर्तकता बेहद जरुरी है । फालतू लोगों की सहमतियां छोड देनी चाहिए । उनकी बातों को सुनें जरुर लेकिन ध्‍यान नहीं देना चाहिए । उनकी निन्‍दा अथवा प्रशंसा की परवाह नहीं करनी चाहिए । बिना मांगे न तो सलाह लेनी चाहिए और न ही देनी चाहिए । बहुत से लोग बिना मांगे अपनी सलाह देने को आतुर रहते हैं, चाहे वह जानकार हो या नहीं । अपने विचार से काम लेना चाहिए । दूसरों के भरोसे रहना ठीक नहीं । दृढ इच्‍छाशक्ति वाला व्‍यक्ति बुरे मौसम का रोना नहीं रोता और न ही बुरे दिनों की कहानियां सुनाता है । अपनी चिन्‍ता को बढा चौडा कर कहना मूर्खता है ।
नेगेटिव विचार हमारी उपयोगी शक्ति को समाप्‍त कर देते हैं ङ

अपने अंर्तमन से बात करनी चाहिए । अपनी कमजोरियों, गल्तियों और भूलों को जानने का प्रयास करना चाहिए । अगर हम यह सोंचे कि यदि अन्‍य लोग उन्‍नति कर गए तो हम क्‍यों नहीं कर सकते, तो जीवन में उत्‍साह का संचार हो सकता है । प्रयत्‍न और परिणाम लगातार होने जरुरी हैं ।
यदि हमारा यह विचार है कि भविष्‍य में मैं हमेशा प्रसन्‍न रहूंगा और दूसरों को भी प्रसन्‍न रखूंगा तो जिन्‍दगी का रुप ही बदल जाता है । यह कोई बहुत कठिन कार्य नहीं है ।
केवल इच्‍छा करने से कुछ नहीं होता । रात को सोते समय अपने विचारों को देखना चाहिए । एक बात और, यदि हम रात को ही निश्‍चय कर लें कि मुझे सुबह 5 बजे उठना है, हम देखेंगे कि सुबह 5 बजे उठ जाते हैं । श्रेष्‍ठ व्‍यक्तियों के जीवन में क्‍या क्‍या है, देखना चाहिए । आदते एक दिन में न बनती हैं और न ही एक दिन में बदली जा सकती है, आदतें धीरे धीरे बनायी जाती हैं और आदते धीरे धीरे बदली भी जा सकती हैं । जीवन में असफलता भी मिलती है । असफलता के कारण खोजने चाहिएं यह देखना चाहिए कि मैंने अपनी एकाग्रता को किन्‍हीं कारणों से कम तो नहीं कर लिया ? जीवन में परेशानियों का सामना सभी को करना पडता है चाहे वह राम हो या नेपोलियन या शिवाजी । यदि जीवन का एक ढंग अनुकूल नहीं है तो उसे बदलने में कुछ भी बुरा नहीं है । अपनी सूझबुझ्‍ से अस्थिर दशा को बदला जा सकता है । यदि हम दूसरों का उत्‍साह बढाते हैं तो अपना उत्‍साह स्‍वयं ही बढता जाता है ।
एक निश्चित समय पर पहुंचकर कार्य आरम्‍भ कर देना शुभ लक्षण है । किसी भी कार्य को नियमित रुप से करने के लिए ठीक समय पर पहुंचकर कार्य शुरु कर देना चाहिए, मूड अपने आप ठीक हो जाता है । कार्य करते समय भूल हो सकती है, ज्‍यादा देर तक पछतावा करना ठीक नहीं । छोटे छोटे विरोधों को वंश में कर लेने से आत्‍मविश्‍वास जागृत होता है ।
शायद यह बात सच न लगे परन्‍तु एक शराबी के सामने भी एक आदर्श रहता है । सख्‍त से सख्‍त सर्दी हो या रात का भयानक सन्‍नाट कोई भी कारण उसे उसके निश्‍चय से पीछे नहीं हटा सकता । स्‍पष्‍ट है कि उसकी दृढशक्ति मजबूत है । अपना फैसला स्‍वयं करना चाहिए, निर्णय किसी दूसरे पर नहीं सौंपना चाहिए । दूसरों की सुनते रहे तो कहीं के भी न रहोगे । जो अच्‍छा लगता है, वहीं करना चाहिए ।

कई बार हम फालतू की फारमेलिटी में अपना बहुत सा समय और रुपया नष्‍ट कर डालते हैं । कहीं दूसरे को बुरा तो नहीं लग करहा, ऐसा अच्‍छा नहीं लगेगा, लोग क्‍या कहेंगे – कितनी झूठी और बेकार शान है । झूठी शान को ही अपना असली धन समझे बैठे हैं । दिल में कुछ और बाहर कुछ ।
इसके साथ ही यह लिखना भी जरुरी है कि सेविंग की भावना परम आवश्‍यक है । कुछ न कुछ बचत करते ही रखना चाहिए । सेविंग की भावना अच्‍छे भविष्‍य के लिए बहुत जरुरी है । क्‍या हम अपना अच्‍छा भविष्‍य नहीं चाहते ?
अच्‍छा होगा यदि हम अपने गुप्‍त राज किसी से भी न कहें । इससे दूसरा हमारी कमजोरी को पहचान लेता है और उसका गलत फायदा भी उठा सकता है । अपने बारे में कम से कम बोलना चाहिए और यह तभी हो सकता है जब हमारी नैचर में यह होगा और हमारी सुनने की आदत भी हो । जीवन को स्‍वीकार भाव से जीने से संतोष का भाव उत्‍पन्‍न होने लगता है । जीवन में सुख दुख तो आते ही रहते हैं । होना तो यह चाहिए कि मैं ऐसा चाहता हूं और ऐसा ही है, मैं ऐसा ही चाहता था यानि दुख में भी जीत और सुख में भी जीत । अपनी बुराई को दुखना भी बहुत बडी बात है और उसके प्रति जागरुक होना उससे भी बडी बात है । जीवन में संतोष हो, इसके लिए आवश्‍यक है कि जीवन के प्रति आशापूर्ण दृष्टिकोण हो ।

नए सिरे से सोचना होगा । पुराना तरीका छोडना होगा । हम देखते हैं कि हमारा आत्‍मविश्‍वास कभी कभी इतना बढ जाता है कि लगता है हम सब कुछ कर सकते हैं । हमारी जो महत्‍वाकाक्षाएं हैं वह सब पूरी हो सकती है । लेकिन कभी कभी जीवन एक बोझ् लगता है, आत्‍मविश्‍वास गिर जाता है । दरअसल वह आत्‍मविश्‍वास नहीं है । आत्‍मविश्‍वास गिरने वाली चीज नहीं होती है । वह आत्‍मविश्‍वास नहीं कुछ और है जो बार बार गिर जाता है । शायद वह मन है ।
हम बहुत सी बाते करते है।, मुझे बहुत पढना है्, लेकिन पढने में मन नहीं लगता । मुझे कम बोलना है लेकिन ज्‍यादा बोल जाते हैं । वास्‍तव में हमारे बीच इच्‍छाशक्ति की कमी है जो हमें वह नहीं करने देती जो हम करना चाहते हैं । यदि हम वास्‍तव में जो करना चाहते हैं वह कर लेते है। बाकी सब बहाने हैं । हमारा मुंह और हमारे बस में नहीं ? ज्‍यादा बोल जाते हैं । प्रत्‍येक गलती के लिए जिम्‍मेदार व्‍यक्ति स्‍वयं होता है । देखना होगा कि हमारे रास्‍ते में रुकावट डालने वाले कौन कौन से तत्‍व है ? उन पर विचार करना चाहिए ।
समय बहुत कीमती है । समय का सही इस्‍तेमाल करना चाहिए । दैनिक कार्यों को इस प्रकार टाइम टेबल बनाकर करें कि ऐसा न लगे कि आज भी समय बर्बाद कर दिया ।

हमें जीवन के सभी रंगो से परिचित होना चाहिए । जिस प्रकार एक अभिनेता अभिनय कर वैसा ही पात्र बन जाता है जो उसे करना है, उसी प्रकार हमें भी जीवन में अभिनय करना चाहिए । वह पात्र चाहे पुत्र को हो या प्रेमी का, मित्र का हो या सामान्‍य व्‍यक्ति का ।लेकिन इतना जरुर है कि अभिनय वास्‍तविक हो । उस पात्र में इस प्रकार खो जाएं मानो सत्‍य हो । बनावटी जीवन जीने में नुकसान ज्‍यादा है । अच्‍छा होगा यदि सादा और सादा जीवन जीने की भावना हो । स्‍पष्‍ट हो चुका है कि कम बोलना और केवल सुनने पर ध्‍यान देना ठीक है । लोगों के प्रति अनावश्‍यक आकर्षण भी ठीक नहीं है । अपनी इच्‍छाओं को सीमित दायरे में रखना ही बेहतर है । इ च्‍छाओं का क्‍या है जितना बढाना चाहोगे, बढती जाएंगी । तब तक नहीं रुकेगीं जब तक हम नहीं चाहेंगे । इच्‍छाओं पर नियंत्रण रखो और देखेंगे कि चित भी शांत रहेगा और हम प्रसन्‍न भी ।
सम्‍भव है कि हमें सफलता नहीं मिल रही है । बार बार उपेक्षा का शिकार होना पड रहा है । परेशान रहते हैं हम । लेकिन इस मुश्किल दौर में घबराना नहीं चाहिए । अपने टारगेट पर निगाह रखें, जल्‍दी ही सफलता के द्वार खुलेगें । असफलता पर निराश होना मूर्खता ही तो है ।
कुछ बाते जिन पर ध्‍यान रखना सुन्‍दर होगा - दूसरों के प्रति पाजिटिव भावना रखें । लोकप्रियता की सोच मन से जितनी जल्‍दी निकाल दो अच्‍छा है । अंहकार का त्‍याग आज ही कर दो । गुस्‍सा न करे तो बेहतर । जैसा कोई सामनेवाला पेश आए, वैसा ही पेश आएं । विचार केवल मांगने पर ही दें । भला किया, भूल जाओ । आलोचना एक सीमा तक ही अपना कर्तव्‍य समझकर । कहीं आलोचना बुराई न बन जाए ।
हर दुख का कारण हमारी चिन्‍ता है । और चिन्‍ता एक ऐसी बीमारी है जिसे मनुष्‍य स्‍वयं ही पैदा करता है । चिन्‍ता करने से सभी काम खराब होते हैं । अपना दुख सभी से न कहें । सुख है या दुख अपने तक ही सीमित रखना चाहिए । जहां तक हो सके दूसरों का उत्‍साह बढाना चाहिए, उनकी तारीफ करना ही अच्‍छा है । बात करते समय चेहरा मुस्‍कुराता हुआ होना चाहिए । कोशिश करें हमेशा चुस्‍त और तरो ताजा रहें ।
यदि हम पाजिटिव सोचते हैं तो सभी काम पूरे होते हैं । काम करने में जी लगता है, दूसरों को भी अच्‍छा लगता है । जो काम भी करना है, खुशी खुशी करना ही ठीक है । नेगेटिव विचार आते हैं तो उन्‍हें किसी के सामने शो नहीं करना चाहिए । याद रखें जब हम स्‍वयं ही अपने को असफल कहेंगे तो हमें कौन सफल कहेगा ?

इस संसार में बहुंत से लोग पैदा होते हैं, वे इस तरह जीते हैं उनपर विचार करने पर केवल दुख ही होता है । ब‍च्‍चे पैदा करते करते, रो रोकर जीकर, कोल्‍हू के बैल की तरह जीकर मर जाते हैं और छोड जाते हैं अपने पीछे एक गला सडा परिवार जो गरीबी और दरिद्रता के चुंगल में फंसा रहता है । लेकिन हमें निश्‍चय करना होगा कि हम कुछ अलग तरीके से जीने का प्रयास करेंगे । हम साधारण नहीं विशेष बनेंगे । हम कुछ करके दिखाएंगे ।
किसी भी प्रतियोगिता परीक्षा में सफलता प्राप्‍त करने के लिए एकजुट होकर मेहनत करना आवश्‍यक है । यदि दो तीन वर्ष लगातार मेहनत की जाए तो इच्छित एग्‍जाम में सफलता मिलना मुश्किल नहीं । किसी भी काम में सफलता पानी है तो उस कार्य में खो जाएं । उस काम के बारे में नेगेटिव विचार भुल जाएं । यदि उस विशेष काम में कोई नुक्‍ताचीनी की अथवा नेगेटिव विचार सोचे तो समझ् लीजिए, हमने उस कार्य को पूर्ण करने की आधी शक्ति खो दी है ।
बहुत से सवाल है जिनपर विचार करना है और जब हम ध्‍यान करने का विचार करते हैं तो हम इस बात का अहसास करते हैं कि जब भी हम ध्‍यान करने की कोशिश करतजे हैं तो हम सफल नहीं हो पाते । क्‍या क्‍या कारण है कि हम ध्‍यान करना चाहते है लेकिन कर नहीं पाते ? मैं कौन हूं ? इस प्रश्‍न का उत्‍तर आसान नहीं । हमारे भीतर ऐसी बहुत सी कमियां या कमजोरियां होती है जो हम दूसरों को दिखाने में , दूसरों के सामने उन्‍हें बताने में कतराते हैं, केवल दूसरों के सामने ही नहीं, अपने सामने भी । हमारे भीतर इतना साहस नहीं है कि हम अपनी बात को स्‍पष्‍ट और स्‍वीकार भाव से कह सकें ।
भले ही हम सभी संसार में रहते हैं लेकिन कहीं न कहीं हर व्‍यक्ति निराशा के दौर से गुजर रहा है । जीवन में आनन्‍द की कमी महसूस होती है । कारण एक ही है और वह है ध्‍यान की कमी । हम लोग संसार की ऐसी दौड में भागे जा रहे हैं, जिसका हमें पता ही नहीं है कि हम चाहते क्‍या है ? सिर्फ एक दौड, दौड हो रही है । दौड चलती रहेगी और हमारा काम सिर्फ चलना है । क्‍या इस दौड का कहीं अंत है ? हमने अपनी शक्तियों को बांट रखा है और स्‍व का अर्थ निकालनेवाले स्‍वार्थी हो गये है और जब तक स्‍वार्थ की भावना है, ध्‍यान में नहीं जा सकते और ध्‍यान में नहीं जाते तो एकाग्रता नहीं बन पायेगी । मन का भटकना, डांवाडोल होना, मन का बार बार बदलना स्‍वाभाविक सा लगता है । यही जानना है, क्‍यों मन भटकता है ? क्‍यों हमारा मन बार बार बदलता रहता है ? कभी हम बहुत गुस्‍सा करते हैं और कभी बहुत प्रेम करते हैं, हंसते हैं, गाते हैं । जो आज अच्‍छा लगता है, कल उससे नफरत हो जाती है । तब हम भूल जाते हैं कि जीवन आनन्‍द भी है । अपने को सही और दूसरों को गलत मानने के लिए आदमी पागल हो जाता है । उसके बीच अंहकार की ज्‍वाला भडकने लगती है जो अपने को तो जलाती ही है, आसपास के लोगों को भी जला देती है । बाद में जब इसका अहसास होता है तो वह पश्‍चाताप करता है । लेकिन कई बार इसका अहसास कर उस स्थिति को नये य्‍प में नया मोड देते हैं । संसारिक मोह माया और यह दौड, यदि इसमें कुछ भी नहीं तो यह केवल एक झूठी दौड है, तब हम इस दौड की ओर क्‍यों भागते हैं ? क्‍यों नहीं रोक लेते अपने को, नष्‍ट करने से । ध्‍यान यानि मेडिटेशन जीवन का एक नियम होना चाहिए । ध्‍यान एक घठना है । ध्‍यान तो जीवन का एक रुप है और ध्‍यान में जाकर ही हम अपनी शक्तियों को पहचान सकते हैं और हम जान सकते हैं कि मैं कौन हूं और हम जो चाहते हैं वह केवल ध्‍यान के रास्‍कते से ही जाना जा सकता है कि मैं कौन हूं और क्‍या हो सकता हूं ।

अक्‍सर देखा गया है कि हम वे कृत्‍य करते हैं जो हम चाहते नहीं थे । बीते हुए क्षणों में खो जाना, पुराने समय को बार बार याद करना और व्‍यथित होना हमारी स्‍वाभाविक कमजोरी बन गई है और भविष्‍य की कल्‍पना ने तो हमें इस कदर डूबो दिया है कि हम अपने वर्तमान को भी भूला दिया है । वर्तमान के क्षणों में हम अपना जीवन सुन्‍दर बना सकते हैं लेकिन भविष्‍य की कल्‍पना और बीते समय की याद हमें वर्तमान से वंचित कर देती है । भविष्‍य जो आया नहीं और बीता समय बीत चुका है, जो आएगा नहीं । कितनी अजीब बात है कि हम वर्तमान के क्षणों में, मौन में अपनी शक्तियों को पहचान नहीं पाते, या पहचानना नहीं चाहते । पाते हैं अपने बीच एक अकेलापन, एक खालीपन । अपने बीच हम इतना अधूरापन महसूस करते हैं कि बार बार हमें लगताक है कि हम अपनी शक्तियों को क्‍यों नष्‍ट करते जा रहे हैं । आखिर कब तक जीवन को यूं ही नष्‍ट करते रहेंगे ? आत्‍मा परमात्‍मा, ईश्‍वर कुछ भी कह लीजिए, स्‍वर्ग नरक, धर्म यह सब क्‍या हैं, यह जानने की इतनी जरुरत नहीं है जितना यह जानना जरुरी है कि मैं कौन हूं ? उस परम शक्ति को स्‍वीकार करते हुए जिसे हर व्‍यक्ति ने समय समय पर अनुभव किया है । हमारे बीच एक ऐसी आग आरम्‍भ हो जाए जो हमारे नकली रुप को नष्‍ट कर दे और जब हमारा झूठा रुप नष्‍ट हो जाएगा तब स्‍पष्‍ट होगा हमारा वास्‍तविक रुप । तब हम जान सकेंगे कि मैं कौन हूं । हम देखते हैं कि जो समय बीत गया है, हम उसकी याद में परेशान होते है, यह जानते हुए कि वह वक्‍त चला गया है और अब वह समय वापस नहीं आएगा । लेकिन स्‍वाभाविक कमजोरी के लिए हम बीत क्षणों को याद करके अपने को पीडित करते हैं । यह ठीक नहीं है । भविष्‍य की कल्‍पनाओं में खो कर अपने बीच निषेध्‍यात्‍मक विचार सोचकर हम अपनी वर्तमान अवस्‍था को खडित कर देते हैं । भूल जाते हैं कि वर्तमान में वह कुछ नहीं हो रहा है जो हमने सोचा था या जो हम सोच रहे हैं । सोचने से क्‍या कभी वहीं होता है ? शायद नहीं । हमारे कर्म ही बताते हैं कि वास्‍वतविकता क्‍या है । इस विषय पर गौर करना ही होगा कि हम अपनी वास्‍तविक शक्तियों को पहचानें । अपनी शक्तियों को नष्‍ट न होने दें । ओशो ने कहा है अपने बीच बिखराव न लांए और जानें कि मैं कौन हूं, यह सवाल बार बार पूछा जाए । अन्‍त में उत्‍तर जरुर मिल जाएगा । क्‍या मैं वही हूं जो दिखता हूं । क्‍या मैं वही हूं जो होना चाहता हूं ? क्‍या मैं वहीं हूं जो करता भी वही हूं और जो सोचता भी वही हूं ? क्‍या मैं स्‍वीकार का भाव रखता हूं ? क्‍या मैं स्‍वीकार करता हूं कि जो मैं हूं, वास्‍तव में वही हूं । मैं कौन हूं जब तक यह पता नहीं चलेगा, तब तक हम अपने को स्‍वीकार नहीं कर सकते । जब तक अपने को स्‍वीकार नहीं करते, अपने को अंधेरे में रखेंगे, अपने को पीडित करेंगे और सम्‍भव है दूसरे के जीवन में भी बाधा उत्‍पन्‍न करेंगे स्‍वीकार भाव से जीना ही जीवन का एक सच्‍चा रुप है । लेकिन हम स्‍वीकार भाव नहीं रखते । यदि हम दुख को भी स्‍वीकार कर लें तो हो सकता है कि जो एक संकटपूण्र स्थिति हमारे बीच आ जाती है वह दूर हो जाए और वह दूर हो ही जाएगी । जीवन बुरा नहीं होता, जीवन तो बुरा बनाया जाता है । मैं कौन हूं, इसे जाने बिना सत्‍य नहीं जाना जा सकता । हर इंसान के बीच अंनन्‍त शक्तियां होती है लेकिन इंसान अपनी शक्तियों का 15 प्रतिशत भी प्रयोग नहीं करता । --- तनाव छा जाता है खासतौर से निकटतम सगे संबंधियों के साथ् रहकर । हमें तनाव उन लोगों के कारण नहीं उत्‍पन्‍न होता जो हमसे दूर होते हैं। जब यह पता चल जाए तो प्रश्‍न उठता है कि क्‍या निकटता गलत है ? यदि किसी के साथ भी निकटता न रखी जाए तो क्‍या तनाव नहीं होगा ? दरअसल हमारे बीच तभी तनाव उत्‍पन्‍न होता है जब हम स्‍वयं किसी न किसी तनावग्रस्‍त व्‍यक्ति के सम्‍पर्क में आते हैं । तनावग्रस्‍त व्‍यक्ति के व्‍यवहार और बातों से हमारे बीच भी प्रभाव होता है । तो क्‍या तनावग्रस्‍त व्‍यक्ति से बातचीत करना छोड देना चाहिए ?
एक तरीका है उसकी समस्‍या को हम सुनें एव ध्‍यानपूर्वक अध्‍ययन करें । तनाव में कुछ भी नहीं सूझता । क्‍या किया जाए और क्‍या न किसी जाए । छोटे छोटे वाक्‍या पर अपने बीच डर पैदा हो जाता है । डर के कारण भी तनाव पैदा होता है । तनाव में नींद नहीं आती है । खाना पीना अच्‍छा नहीं लगता और कामकाज करने को भी जी नहीं चाहता । अवेयर रहना जरुरी है । चिन्‍ता को स्‍वीकार करो, उसके साथ बहो । उस पर निगरानी रखो, पर उससे तथास्‍थ रहो । महसूस करो जैसे कि तुम्‍हें कोई बैचेनी नहीं है । धीमी गति से, सामान्‍य ढंग से सांस लो । साक्षी भाव रखो । पाजिटिव सोच से तनाव तुरन्‍त दूर हो जाता है और नेगेटिव सोच से तनाव आता है । तनाव में नींद नहीं आती है, भयानक ख्‍याल उठते हैं और एक बैचेनी का आरम्‍भ होता है । अच्‍छे विचार और की गई संकल्‍पशक्तियां बेकार न होने दें । तनाव में मन में चल रहे विचार तेजी से चलते बदलते रहते हैं । तनाव में किसी से बातचीत करने को भी जी नहीं चाहता, हंसने का तो प्रश्‍न ही नहीं ।
तनाव में हम लोग कितना सोच बैठते हैं और हमें ऐसा लगता है कि हम किसी भी प्रकार से सुखी नहीं रह सकते । हम सोचते हैं कि मां बाप अपनी बात मनवाना चाहते हैं और पत्‍नी अपनी । बाद में बच्‍चे अपनी बात मनवाना चाहते हैं । हर पत्‍नी चाहती है कि उसका पति उसकी इच्‍छाओं के अनुसार काम करे और पति चाहता है कि पत्‍नी उसके अनुसार सोचे, उसकी किसी भी बात का विरोध न करें । यह इच्‍छा सभी में होती है लेकिन मां बाप और पत्‍नी या पति में कुछ ज्‍यादा ही । पति भी कई बार सिनेमा की दुनिया में खोकर आदर्श पत्‍नी की खोज करने लगता है ।
हम क्‍यों भूल जाते हैं कि कोई किसी को पूरी तरह से खुश नहीं रख सकता, दूसरे को संतुष्‍ट नहीं कर सकता है । न पति, न पत्‍नी, न मां बाप – कोई भी किसी को संतोष नहीं दे सकता । तनाव में घिर जाने से और उससे निकलने का एक स्‍टीक रास्‍ता यही है कि हम आराम करें । अपने शरीर को पूरी तरह ढीला छोडकर लेट जाएं और जो हमसे नाराज होता है, गुस्‍सा करता है या जली कटी सुनाता है, उसको सुने, केवल सुने और अनदेखा कर दें ।

ज्‍यादातर लोगों में विचारों का द्वंद्व चलता रहता है और वह भी निरन्‍तर । कभी कभी विचारों की धक्‍कम धकका इतनी होती है कि एकदम घबराहट पैदा होने लगती है । कभी बीते हुए समय को याद करते हुए, कभी आज को याद करते हुए और कभी भविष्‍य की कल्‍पनाओं को लेकर । हालांकि वक्‍त विचारों की तेजी को कम कर देता है लेकिन विचार तो चलते ही रहते हैं ।विचार तो नेगेटिव भी चलते हैं और पाजिटिव भी । अगर हम उन चलते हुए विचारों को लिखना शरु कर दें तो हम देखेंगे कि ऐसा धाराप्रवाह कचरा बह रहा है जिसे देखकर स्‍वयं ही दुख होगा । यह दुख कई बार समय बीतने पर दिखता है । कई बार तो अपने पर विचार करते करते दिमाग घूम जाता है । एक ही व्‍यक्ति के प्रति कभी उत्‍साह पैदा हो जाता है तो कभी उसी व्‍यक्ति के प्रति निराशा । माता पिता के प्रति, भाई बहन के प्रति, पति पत्‍नी के बीच और मि’त्रों के बीच कभी कभी इतना द्वंद्व छा जाता है कि सभी एक दूसरे को काटने को दौडते हैं, एक दूसरे के प्रति आरोप लगाते है और भला बुरा कहते हैं लेकिन जल्‍दी ही वही सब एक दूसरे के प्रति प्रेम प्रकट करते है और हंसने गाने लगते हैं । अजीब हैं हम लोग । लिखी गई पंक्तियों से एक बात तो स्‍पष्‍ट है कि जितनी धारणा रखी जाएगी, पूरी न होने पर कष्‍ट होगा । ऐसा लगता है कोई भी आदमी न बुरा होता है और न अच्‍छा । दोनों होता है अच्‍छा भी और बुरा भी या यूं कह लीजिए न अच्‍छा होता है और न बुरा, यह सब तो अपने देखने का नजरिया है या यूं कह लीजिए वक्‍त वक्‍त की बात है । अपने मन में किसी के प्रति गुस्‍सा है तो उसके प्रति नफरत पैदा होपने लगती है चाहे कुछ ही देर पहले उसके प्रति प्रेमपूर्वक बने हुए थे । लगता है यह क्रम तो चलता ही रहेगा ।


शादी से पहले और शादी के बाद आदमी के जीवन में बहुत बडा परिवर्तन आ जाता है । शादी से पहले लडका लडकी सपनों की दुनिया में होते हैं और बाद में उन सपनों से जागता है । शादी के बाद बहुत सी मुसीबतों का सामना करना पडता है, कई तनावों से गुजरता पडता है जिसका पहले से अहसास नहीं होता । कभी कभी तो ऐसा लगता है मानो विवाह करके बहुत बडी गलती कर दी है ।
विवाह से पूर्व एक परिवार में बैठे सभी परिवारजन मिलजुलकर खाना खा रहे हैं, एक साथ खेल रहे हैं, हंसी मजाक कर रहे हैं । घर में कमाने वाला मुख्‍य सदस्‍य पिता है और घर में काम करने के लिए मां । पिता अपने बच्‍चों को प्‍यार करता है, पढाता है, लिखाता है । मां तरह तरह के खाने बनाकर फरमाईश पूरी करती है । गलती करने पर मां अपने बच्‍चे को डांटती भी है । धीरे धीरे वह परिवार फलता फूलता है । छोटा मकान बडा मकान बनता है, छोटे बच्‍चे बडे हो जाते हैं और मां बाप बूढे । बडे होकर बच्‍चे भी काम धंधे या नौकरी पर लगते हैं‍ । घर की आय बढ जाती है और सुख सुविधाएं भी । सब मिलजुलकर खर्चा चलाते हैं । पिर बच्‍चों की शादी की बात की जाती है । लडकी की शादी हुई तो वह दूसरे घर चली जाती है और लडकों की शादी हुई तो बहूएं घर में आने लगती हैं । चारों ओर चहल पहल होती है जो ज्‍यादा देर तक नहीं रहती । खुशी का वातावरण धीरे धीरे फीकी खुशी का रुप लेने लगता है पिर फीकी खुशियां उदासी का रुप ले लेती हैं और उदासी का वातावरण धीरे धीरे तनाव का रुप लेने लगता है और तनाव का रुप बिखराव का रुप धारण करने लगता है । सभी अपने को समझदार समझने लगते हैं और अपनी प्रमुखता चाहते हैं लेकिन सभी ऐसा चाहेंगे तो यह कैसे संम्‍भव है, अतत परिवार टूटने लगता है और और परिवार टूट जाता है ।

क्‍या कारण हैं, परिवार टूटने के । क्‍यों टूट जाता है यह भरा भरा परिवार – शादी के बाद क्‍यों नहीं एक हो पाता । क्‍या विवाह एक जहर है जो परिवार को बिखराव की ओर ले जाता है । क्‍या शादी के परिणामस्‍वरुंप ही खुशियों का वातावरण बैचेनी, असंतोष,अविश्‍वास और तनाव में बदलने लगता है । क्‍या विवाह के बाद बच्‍चे बदल जाते हैं । क्‍या घर का माहौल बहूओं के आने के कारण खराब होता है । क्‍या बच्‍चों के विवाह के बाद मां बाप बदल जाते हैं । विवाह के बाद रिश्‍तो की डोर कमजोर क्‍यों हो जाती है । क्‍या विवाह के बाद ही समस्‍याएं आती हैं जिनका कोई समाधान नहीं निकलता । यह तमाम सवाल है जिनका आज तक किसी ने संतोषजनक जवाब नहीं दिया है । लेकिन इतना सच है कि तनाव का वह वातावरण अवश्‍य छा जाता है जो विवाह के पूर्व नहीं था । मैने इस मामले में काफी गहराई से सोचने का प्रयास ।किया है । मैंने पाया है कि यह तनाव का वातावरण प्राय’ सभी घरों में बन ही जाता है । कारण अलग अलग हो सकते हैं, कोई भी स्थिति परिस्थिति हो सकती है और यह तनाव जरुरी नहीं है कि शादी के तुरन्‍त बाद साफ प्रकट होता हो । धीरे धीरे भी हो सकता है । लेकिन तनाव का प्रकट होना धीरे धीरे स्‍पष्‍ट होने लगता है । उस खुशी के वातावरण से लेकर उस तनाव के वातावरण के बीच की दूरी को एक शब्‍द में बताया जाए तो यही कहा जा सकता है कि वह यात्रा है अंहकार की । इस अंहकार की यात्रा में परिवार के सदस्‍यों के अपने अपने अंहकार टकराते हैं, रोजाना टकराते हैं और जोर जोर से टकराते हैं जिनका परिणाम है तनाव एवं विखराव । मजेदार बात तो यह है कि कोई भी नहीं चाहता कि परिवार में तनाव हो, बिखराव हो, सब चाहते हैं कि घर में शांति हो। चूंकि यह बिखराव व तनाव बच्‍चों के विवाह के बाद स्‍पष्‍ट होता है लेकिन दोष थोप दिया जाता है घर की बहू पर । चूंकि घर में पहले के सदस्‍यों को बोलने की पूरी आजादी होती है और नई बहू को कम,इसलिए घर के पहले वाले सदस्‍य अपनी बात मनवाने के लिए जोर देते हैं । दूसरी ओर बहू भी एकदम से दूसरे घर को अपना घर नहीं समझ्‍ती है, वह चाहकर भी अपने को अजनबी सा महसूस करती है । अपनी परेशानियों को खुलकर नहीं कह पाती । यदि वह बोलती भी है तो बहुत ही धीमा जो दूसरों को सुनाई नहीं देता और यदि बहू जोर से प्रभावशाली तरीके से अपनी बात कहती है तो उसकी बात का विरोध किया जाता है । ऐसे में नई बहू दो रास्‍ते अपनाती है – उस तनाव और अंहकार की जंग में खप जाना अथवा प्रेमपूर्वक रहकर सही समय का इंतजार करना । अक्‍सर घर की नई बहू पहला तरीका ही अपनाती है और वह भी बडी चतुरता के साथ । अपने पति के कंधों पर बंदूक रखकर अहंकार की जंग में शामिल हो जाती है । झूठ सच, कर्तव्‍य और हर प्रकार के ताम झाम तरीकों से वह घर में अपना स्‍थान उंचा बनाने का प्रयास करती है । इस तनाव और अंहकार की लडाई में अंत नहीं होता सिर्फ एक समझौता होता है और उस समझौते के अनुसार एक पक्ष को वह घर छोडकर जाना होता है । तब लडाई बन्‍द होती है । यह लडाई विवाह के बाद आरम्‍भ होकर समझौते पर जाकर खत्‍म होती है, यह समझौता कब होगा जो निर्भर करता है मां बाप पर या नवविवाहित जोडे पर ।
आप अपनी धारणों को तोडते रहें और दूसरों की धारणों को भी । धारणा तोडने का यह अर्थ नहीं होता कि आप लोगों का अपमान करना शुरू कर दें । अपमान करना और अपनी बात को नये िसरे से कहना, दोनों में अंतर है । मान लीजिए आप अपनी पत्‍नी के लिए कोई उपहार लेकर आते हैं, आपकी पत्‍नी खुश हो जाती है । उसके मन में आपके प्रति एक धारणा बन गई कि आप हर बार उसके लिए उपहार लेकर आएंगे । और यह धारणा तब टूट जाती है जब आप उसके लिए कोई उपहार नहीं लाते । यानि आपका दिया गया उपहार भी कलेश का एक कारण बन गया । जैसे आपने उपहार न लाकर कोई गुनाह कर दिया हो । यदि आपने पहले से ही उपहार न दिया होता तो शायद कोई कलेश न होता, तब एक धारणा थी कि आप उपहार देते ही नहीं है । ठीक दूसरे पहलू को देखते हुए न किसी के प्रति कोई धारणा रखनी चाहिए वरना वही कलेश वाली हालत आप पैदा कर देंगे । आप धीरे धीरे धारणा रखना बन्‍द करें और धीरे धीरे धारणा तोडना शुरु करें, आपके जीवन से तनाव कम होना शुरु हो जाएगा 1 आपके बनाए हुए झूठे महल बनने से पहले ही टूट जाएं तो बेहतर 1
दूसरों पर बहुत ज्‍यादा निर्भरता छोडनी चाहिए । जितनी ज्‍यादा निर्भरता होती है उतना ज्‍यादा दुख होता है । तनाव के बढने का एक कारण यह भी है कि हम अपने बीच कभी भी एक संतोष नहीं पैदा होने देते हैं । अपने शरीर और दिमाग से हमेशा पूरे समय तक काम लेते रहते हैं । शरीर को तो थोडा बहुत आराम रात को सोकर मिल ही जाता है लेकिन दिमाग का चलना तो 24 घंटे चलता रहता है और उस चलने के दौर में हम भी मन के तल पर जीकर चलते हैं । मन तो चचंल होता है, फ्री डॉग, परेशान करता है, दुख देता है् तनाव देता है । कभी दिमाग में अच्‍छा और कभी बुरा अर्थ देते रहते हैं । आज किसी को अगर कहा जाए कि तुम एक घटा मौन रहो, अपने शरीर को मत हिलाओ, न खांसी करो, आंखे बंद कर लो और अपने मन को देखो ।चलते, दौडते,भागते मन को, विचारो को देखो, कैसे कैसे विचार चल रहे हैं, चले जा रहे हैं । एक विचार आता है, पिर दूसरा,तीसरा हजारो ।लेकिन यह असंम्‍भव सा लगता है । जब हम अपने दिमाग को आराम नहीं देते तो चैन कैसे आएगा । यह तो ऐसे ही है कोई एक मशीन को 24 घंटे लगातार चलाया जाए । अगर एक मशीन लगातार चलती रहे तो वह गर्म हो जाती है, जब तक गर्म है तो भी चल सकता है, लेकिन एक ऐसी स्‍टेज भी आती है जब उस गर्म मशीन खराब हो जाती है । ठीक इसी प्रकार इंसान के साथ भी है । जब इंसान को गुस्‍सा आने लगे तो समझो मशीन गर्म हो गई है और तनाव में घिरने लगो तो समझो मशीन से धुआं निकल रहा है, अगर तब भी मस्तिष्‍क को आराम न दिया तो वही हालत हो सकती है जेसे हम मशीन के टूटने या खराब होने की आशंका पर ।
इच्‍छा चाहे पत्‍नी की हो या पति की, मांबाप की हो या भाई बहन की या मित्र बंधु की, पूरी न होने की दशा में पीडा होती है। दूसरों की बात तो दूर खुद व्‍यक्ति अपने बीच कई इच्‍छाएं पैदा कर लेता है और बात में जब कपूरी नहीं हो पाती तो दुखी होता है । यह इच्‍छा ही तो है कि हम सोचते हैं कि हमसे हर कोई अच्‍छा बोले, कोई घटिया बात न करे । यदि ऐसा न हो तो दुख होता है । जो है उसे स्‍वीकार कर लें अथवा अपने को बदल लें, दूसरे को बदलता आसान नहीं ।



आजकल जो विवाह होते है उनमें ज्‍यादातर दिखावा और ऊची ऊची बातें की जाती हैं। लेकिन जब सच्‍चाई सामने आती है तो सपनों को महल टूट जाता है । विवाह के 6 महीने बाद ही जो पति पत्‍नी अपनी अपनी कमियों को बहुत ही खूबी के साथ छिपाते हैं, खुलकर सामने आने लगती हैं और प्रेम का नशा जल्‍दी ही उतर जाता है । तब दोनों एक दूसरे को ताना देते हैं । जहां प्रेम की कसमें खायी गई थीं, वहां जहर वाली बातें कर करके जीवन को नर्क बना लिया जाता है और ऐसे में पति भी और पत्‍नी भी कहते हैं विवाह से पहले सब ठीक था । नहीं, यह सब विवाह के बाद प्रकट हो जाता है, इसलिए विवाह गलत कहा जाता है । विवाह गलत नहीं होता, व्‍यक्ति गलत होता है । यह आरोपों प्रत्‍यारोपों का शीत युद्व तब तक चलता रहता है जब तक दूसरे से सुख की इच्‍छा करते रहेंगे । दूसरे से केवल प्रेम,सुख की कल्‍पना एक भूल है, अपने को अंधेरे में रखने जैसा, यानि एक मूर्खता ।



हम क्‍या कर रहे हैं ? यानि हमारी क्‍या क्षमताएं है । सुबह से रात तक लगभग 18 घंटे होते हैं हमारे पास । इस दौरान हम अपनी शक्ति को कहां कहां लगाते हैं, इसपर विचार करना होगा । ध्‍यान से देखने पर पता चलता है कि हम अपना ज्‍यादातर समय यूहीं बेकार में नष्‍ट कर देते हैं जिसका कोई ठोस आधार नहीं होता । ज्‍यादातर लोग बिना टाइम टेबल बनाकर अपना जीवन व्‍यतीत कर देते हैं ।
आप कितना ही कोशिश कर लें, आप दूसरों के अनुसार नहीं चल सकते । आप दूसरे के हिसाब से तभी चल सकते है जब पहले आपकी स्‍वयं की सहमति होगी क्‍योंकि हर कदम में अन्तिम निर्णय तो अपना ही होता है । आप जिददी व्‍यक्ति से कभी भी प्रेम नहीं कर सकते ।हां, जिद और संकल्‍पशक्ति एक से लगते हैं लेकिन वास्‍तव में दोनों में बेहद अंतर होता है । जिद का अर्थ है ऐसा निश्‍चय जिसका संबंध दूसरे से जुडा होता है प्रत्‍यक्ष या अप्रत्‍यक्ष । जैसे यह एक जिद है कि कोई अपने बीच इस बात का निश्‍चय कर ले कि मैं फलां फलां के साथ तब तक बात नहीं करता जब तक कि पहले वह मुझ्‍ से आकर बात नहीं करता । संकल्‍प में एक निश्‍चय तो है लेकिन वह रचनात्‍मक होता है जैसे कोई यह संकल्‍प ले कि मैं अगले एक वर्ष तक कोई मूवी नहीं देखूंगा । जिद अक्‍सर कष्‍ट देती है और संकल्‍प आत्‍मविश्‍वास । जिद करनेवाला प्रत्‍यक्ष या अप्रत्‍यक्ष बाद में अवश्‍य ही नुकसान में रहता है और पश्‍चाताप होता है उसे लगता है कि जिद एक मूर्खता है ।
जब आदमी खुद ही परेशान होता है तब उसे सब कुछ बुरा लगता है, सभी बुरे लगते हैं, वे भी जिन्‍हें थोडी देर पहले ही अच्‍छा कहा गया था यह सब अपने अंसतोष का ही परिणाम है और असंतोष के आलम में जो भी निर्णय लिया जाता है वह स्‍वयं के लिए दुखदायक तो होता ही है दूसरे को भी कभी कभी परेशान कर देता है और यह सब असंतोष आता है अपने अंहकार की वजह से । आदमी इस बात का अंह भी करता है कि उसके बीच कोई अवगुण या कमी नहीं है , कोई बुराई नहीं है । अंहकारी व्‍यक्ति ही कहता है कि दूसरे लोग अंहकार करते है । यह सब बकवास बन्‍द होनी चाहिए । कोई किसी के लिए कुछ नहीं करता है, व्‍यक्ति अपने लिए ही कुछ कर ले यही काफी है । जब व्‍यक्ति अपने लिए कुछ करने लगता है तो उसे दूसरों की आवश्‍यकता नहीं होती और तब उसे दूसरों से प्रेम मिलता है । आवश्‍यकता है हम अपने असंतोष को पहचानें । दूसरों को दोष देना छोडे, और केवल मौन में जीएं । बोलते बोलते भी मौन में रहा जा सकता है ।लेकिन दूसरे में अविश्‍वास का अर्थ ही है कि हम अपने में विश्‍वास नहीं रखते । व्‍यक्ति केवल अपना प्रतिबिंब देखतो है ।

Sunday, June 20, 2010

ऐसा लगता है मानो चारों ओर असंतोष और तनाव बढता जा रहा है । दिन में 100 चेहरे देखने के बाद लगता है मानो 90 चेहरे उदास हैं । पहले दो अनजान जनों के बीच तनाव होता था लेकिन अब तो परिवारजनों में भी तनाव होने लगा है । छोटी छोटी बात पर । सभी अपने अधिकारों के‍ लिए लड रहे हैं, अपने कर्तव्‍यों से विमुख होकर । क्‍या मुख्‍य कारण है तनाव का ? क्‍यों बढता जा रहा है असंतोष का जहर ? पवित्र रिश्‍तों में प्रेम की जगह अविश्‍वास भरता जा रहा है । मेरा मानना है इसका मुख्‍य कारण अंहकार है । मैं ठीक तू गलत, इस धारणा ने सहनशीलता, प्रेम के वातावरण को बिगाड दिया है । अध्‍याधिक महत्‍वकाक्षाएं भी एक कारण बन गई हैं तनाव के लिए । और ज्‍यादा पाने की इच्‍छा ने ही हमें भूला दिया है कि सात्विक जीवन भी एक जीवन है।
आगामी दस वर्षों में क्‍या होगा, इसकी कल्‍पना करना आसान नहीं । लेकिन भीड और भीड ने वातावरण दूषित कर दिया है । मंहगाई की मार ने भी घर घर में तनाव बढा दिया है । अपराध बढ रहे हैं, भ्रष्‍टाचार बढ रहा है्, ज्‍यादा पाने की इच्‍छाएं बढ रही हैं, परिणाम तनाव बढता जा रहा है । एक ओर भूख से तडपते लोग और दूसरी ओर शराब और शबाब के नशे में डूबे अमीर लोग । सामाजिक संबंधों पर प्रश्‍नचिन्‍ह, और रानीति में व्‍यप्‍त भ्रष्‍टाचार । बढती बीमारियां, दुर्घटनाएं,प्राकृतिक आपदाएं ।

आदमी भीड में तनावग्रस्‍त होगा और अकेले में अकेलापन काटता है, परिणाम तनाव । सिगरेट शराब,नशीले पदार्थ पिर तनाव । संयुक्‍त परिवार व्‍यवस्‍था टूटती जा रही है, रिश्‍तो में कूटनीति, धर्म की आड में कुकर्म । देर रात तक जागना, देर सबेर उठना । शोर बढना, नींद न आने की बीमारी ।

कौन बचेगा इस तनाव से, इस असंतोष से ? शायद कोई नहीं बचेगा । हां, हो सकता है कुछ लोगों में तनाव का प्रतिशत कम हो । जेसे जैसे समझ का विकास होता है, तनाव कम होता है । तनाव को कम किया जा सकता है यदि हम अपनी मानसिक और शारीरिक व्‍यस्‍ततओं को कम करें । आजकल अपने शरीर और मन से इतना काम लिया जाता है कि उसे ठीक से आराम भी नही मिल पाता। शरीर और मन की मशीन इतनी ज्‍यादा गर्म हो जाती है कि वह तनाव का रुप धारण कर लेती है । यह तनाव पहले शहरों में और बाद में गांवों में भी पहुंचेगा । तनाव में व्‍यक्ति या तो कुछ नहीं खाता अथवा जरुरत से ज्‍यादा खाता है‍ । परिणाम आलस और कामचोर होने की भावना । तनाव का एक कारण अत्‍याधिक भावुकता भी है । हर वि्षय पर सोचना, कल्‍पना करते रहना और नेगेटिव सोच तनावग्रस्‍त बना देती है ।
तनाव आता है उसे आने दें, उसे स्‍वीकार कर लें और निर्णय 2 घंटे बाद लें, गुस्‍सा तुरन्‍त न करें, देखेंगे तनाव गायब हो गया ।
अपना अनुभ्‍।व ही सबसे बडा सच है । अनुभव ही बताते हैं जीवन का दृष्टिकोण । क्‍या सच है और क्‍या झूठ है, केवल अपने देखने का नजरिया होता है । बार बार कोशिश करने के बाद ही सत्‍य को जाना जाता है । अनुभव कडवे भी होते हैं और मीठे भी । अनुभव को जाना जाता है मौन के क्षणों में । क्‍या जरुरी है जीवन में, क्‍या पाना है ? क्‍या खोज करनी है ? हमारे जीवन का मकसद क्‍या है ? जीवन को जीना, जिन्‍दगी का मकसद क्‍या है ? पाना, और ज्‍यादा पाना, और ज्‍यादा, और ज्‍यादा । क्‍यों ? बस यूं ही, दूसरे भाग रहे हैं, इसलिए दौड जारी है । सोए सोए जी रहे हैं हम ।
ऐसे बहुत से काम है जो हम कर सकते हैं लेकिन करते नहीं हैं । इसका एक ही कारण है और वह है हमारी सुस्‍ती । हम अपनी ढुलमुल नीति द्वारा कई रचनात्‍मक कार्यों को होने से बचा लेते हैं । मैंने राजीव गांधी की लगन व निष्‍ठा को देखा है, वह समय के पाबंद होकर चलते थे ।
ध्‍यान यानि मेडिटेशन हर नजर से उपयोगी और लाभप्रद होता है । कुछ लाभ इस प्रकार हैं – मन निर्मल और शांत होता है, पढाई में ज्‍यादा रुचि पैदा होती है, शारीरिक और मानसिक रुप से स्‍वास्‍थ्‍य बनता है, दुख और परेशानी कम होते हैं , बातचीत की कला का विकास होता है, नेगेटिव विचार समाप्‍त होते हैं, आत्‍मविश्‍वास और दृढशक्ति में विकास होता है, जीवन में सफलता के अवसर मिलते हैं, नया सोचने की शक्ति मिलती है, सुन्‍दर जीवन का आरम्‍भ होता है ।
मैंने एक जगह पढा था जो अच्‍छा लगा -
ज्ञान प्रा‍प्ति के लिए अध्‍ययन करें, सुख प्राप्ति के लिए व्‍यवसाय, संतोष प्राप्ति के लिए परोपकार, ईश्‍वर प्राप्ति के‍ लिए प्रार्थना, स्‍वास्‍थ्‍य प्राप्ति के लिए व्‍यायाम – समय का सदुपयोग करें ।
यदि सुख है तो यही है, अभी है । ध्‍यान से तो क्षमताएं बढती हैं । गांधी जी ने एक जगह लिखा था – मैं समय को देखकर बदलता रहा । जीवन में कोई एक सिदधात नहीं अपनाया, जो ठीक लगा वही किया । तनाव का एक कारण यह भी है कि जबहम सबको खुश करने की इच्‍छा रखते हैं, लोकप्रिय बनने की कोशिश करते हैं । हमारे कर्म ही बता देते हैं कि हमारा धर्म क्‍या है । यदि जानना है तो अपने कर्मों को जानो । हम क्‍या हैं और क्‍या होना चाहते हैं, यह सब हमारे कर्म बता देते हैं ।

हर बात को फील करो माइंड नहीं । समय के अनुसार चलो, हंसी मजाक करो, उडाओ नहीं । कसूरवार के कसूर को बताओ । अगर नहीं बताते हैं तो आप बडे कसूरवार हो जाते हैं । दोस्‍ती की निगाह से देखे, दूसरा स्‍वयं आपकी दोस्‍ती चाहेगा । हां, मित्रों का दायरा सीमित रखना ही बेहतर । आप जब भी दूसरों से विनम्रता और मित्रता के भाव से मिलते हैं तो अवश्‍य ही आपको मानसिक संतोष मिलेगा । जो वक्‍त की कद्र नहीं करते हैं, वक्‍त उनकी कद्र नहीं करता है, मैंने सुना है जो अपना समय बर्बाद करता है, वक्‍त उन्‍हें बर्बाद कर देता है । अपने समय को अपने लिए लगाने पर प्राथमिकता देनी चाहिए वरना बेकार में कितना ही समय नष्‍ट कर लें अन्‍त में पाते हैं निराशा ।
मैंने सुना है यदि हम अपने जीवन के बारे में सिर्फ सोचते हैं तो हमारा जीवन दुख बन सकता है और यदि हम जीवन को देखते हैं, अनुभव करते हैं तो जीवन सुख बन सकता है । जितना गहरे में सोचेंगे, उतने ही अंधरे में बढते जाएंगे ।

Saturday, June 19, 2010

अंहकार क्‍या है ? सीधे सीधे शब्‍दों में इसका अर्थ है तू गलत, मैं ठीक । बस यही एक सूत्र है । जिसने इस सूत्र को अपना लिया समझ लो उसने अंहकार की लडाई में तनाव की लडाई में, बिखराव की लडाई में अपनी कमर कस ली है । यह एक ऐसा सूत्र है जिसे अपनाकर कोई भी तनावमुक्‍त नहीं हो सकता । यदि इस सूत्र को न अपनाया जाए और यह सूत्र अपनाया जाए कि वह ठीक हो सकता है ? शायद मैं गलत हूं – थोडा इंतजार करते हैं, सही समय का इंतजार करते हैं । लेकिन यह सूत्र हम नहीं अपनाते हैं । घर का कोई भी सदस्‍य नहीं अपनाता है । किसी भी घर के परिवार में कोई भी अपने को नहीं बदलता, सोचते हैं दूसरा बदल जाए । सभी अंहकार की लडाई लडते हैं ।
लडाई का एक दूसरा कारण है रुढिवादिता और आधुनिकता का भ्रम । इस विषय में भी कोई ठीक सी बात, स्थिति स्‍पष्‍अ नहीं हो पाती । इसका प्रारम्भिक रुप विवाह से पहले वह परिवार और सदस्‍य देख लेते हैं लेकिन विवाह के बाद सभी अपने अधिकारों की मांग तो करते हैं लेकिन कर्तव्‍य का पालन नहीं करना चाहते । कौन ठीक है और कौन गलत, इस बात का फैसला हो ही नहीं पाता । सभी अपने अपने तर्क प्रस्‍तुत करते हैं । तीसरा कारण भी है जो आर्थिक है । अपने कमाए हुए पैसे को हर व्‍यक्ति अपनी मर्जी से खर्च करना चाहता है । घर के बजट में वह अपना शेयर कम से कम देना चाहता है । इस सोच का ही परिणाम है कि सभी चेहरों पर अविश्‍वास के बादल छाने लगते हैं । अविश्‍वास के मंडराते बादल एक दिन खुलकर बरसने लगते हैं । इस प्रकार परिवार का आर्थिक अभाव भी लडाई झगडे और तनाव का कारण बनता है । ज्‍यादा इच्‍छाएं और कम आय । बस, यही कारण है कि अंसंतोष बढता है । इस प्रकार अंहकार ही वह अवगुण है और समपर्ण ही वह गुण है जिससे परिवार टूटता है अथवा बनता है । चूंकि समपर्ण भाव तो लुप्‍त होता जा रहा है, इसलिए तनाव बनता जा रहा है ।
इस प्रकार इतना तो स्‍पष्‍ट हो चुका है कि जेसे जैसे उस परिवार में एक दूसरे के बीच अपने अपने अधिकारों और कर्तव्‍यों के नाम पर झगडा होता है, तनाव बढ जाता है और बच्‍चों के विवाह के बाद या नई बहू के घर में आने से तनाव और ज्‍यादा स्‍पष्‍ट और खुलकर सामने आ जाता है ।
अब प्रश्‍न उठता है कि इस तनाव से कैसे मुक्‍त हुआ जाए ? ऐसा क्‍या क्‍या किया जाए जिससे तनाव का रुप विकराल न हो और जहां तक सम्‍भव हो समय मिलजुलकर खुशियों सहित बीते ? एक, हम धीरज से काम लें । कोई भी समस्‍या सामनेआए, उस पर खुलकर और ठंडे दिमाग से विचार करें और विचार ऐसा करें कि समस्‍या का हल पाजिटिव हो । एक पक्‍का निश्‍चय करना होगा कि मुझे हरसमभव प्रयत्‍न से समस्‍या का हल पाजिटिव ही निकालना है । इस प्रकार यदि हम सोच लें तो वहीं हो जाता है जैसा हम सोचते हैं ।
दूसरा, जब सामनेवाला गरम हो तो खुद ठंडे हो जाओ, यानि चुप हो जाएं । किसी भी बात को न कहें जब तक कि प्रश्‍न न पूछा जाए । बिना मांगे सलाह न देते रहें । यदि झूठे आरोप भी लगें तो शांत मन से सुनते रहे और एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल दें । देखा जाता है कि कई बार एक आदमी को बहुत गुस्‍सा आ जाता है तो वह खूब चिल्‍लाता है और झूठे आरोप भी लगाता है ।
यदि खुद चुप हो जाएं तो दूसरे का गुस्‍सा जल्‍दी की शांत हो जाता है और अगर हमने उसके गुस्‍से में बोलना आरम्‍भ कर दिया तो उसे हमारा बोलना आग में घी के बराबर लगेगा । इसलिए मैने इस बात को बहुत ही व्‍यावहारिक देखा है कि एक आदमी की बात को हम ध्‍यानपूर्वक सुनते रहें और किसी प्रकार का विरोध न प्रकट करें तो वह जल्‍दी ही अपने को शर्मिदा महसूस करने लगता है और यदि उसके गुस्‍सा करने के बाद हम थोडा सा मुस्‍करा दें तो वह बहुत ही छोटा हो जाता है और हम बडे ।
तीसरे, जहां विवाद हो, दीर्घकालीन विवाद हो तो आपस में मिलकर बात स्‍पष्‍ट कर लेना ज्‍यादा ठीक रहता है । सभी अपनी स्‍पष्‍ट स्‍पष्‍ट राय बता दें और जो उचित हो , जो समाधान हो, वही करें । मान लीजिए घर में नवविवाहित दम्‍पत्ति को लेकर झगडा होता है तो बात को स्‍पष्‍ट करते हुए जरुरत है कि कोई विद्वेष या गिलेशिकवे की नौबत आए अथवा परिवारजनों के बीच अविश्‍वास की दीवार खडी होनी शुरु हो जाए उससे पहले ही अलग हो जाना चाहिए ताकि बाद में मधुर संबंध भी बने रहें । इधर नवदम्‍पत्ति को दी एक चैलेंज मिलेगा कि कैसे चलाते हैं घर और घर के खर्चे । क्‍या क्‍या कर्तव्‍य हैं और क्‍या क्‍या अधिकार । इस बारे में मेरी पक्‍की राय है कि मांबाप से झगडा हो या अविश्‍वास, उससे पहले ही राजीनामे से अलग अलग हो जाना चाहिए । बाद में संबंध सामान्‍य हो जाते हैं ।
चौथे, ज्‍यादा से ज्‍यादा देने की भावना होनी चाहिए । देने पर ही बहुत कुछ मिलता है । चालाक होने पर इतना कम लाभ मिलता है कि अपार लाभ से व्‍यक्ति वंचित हो जाता है । जीवन को स्‍वीकार भाव से जीने से ही जीवन के प्रति संतोष उत्‍पन्‍न हो सकता है । पांचवे, अपने को हमेशा रचनात्‍मक कार्यो में व्‍यस्‍त रखना चाहिए । कोई भी काम करो । पढने का, लिखने का, पेंटिंग में, सिलाई बुनाई में, बागवानी में, खेल, झाडू बरतन, समाज सेवा कुछ भी ताकि वह सभी कार्य रचनात्‍मक बनकर नम्रता जैसा गुण पा सकें । धर्म में रुचि लेकर भी ईश्‍वर में विश्‍वास रखा जा सकता है ताकि सदमार्ग प्राप्‍त हो । छठे, यह सोचना होगा कि जीवन में सुख दुख तो एक सच्‍चाइ्र है । कल सुख था तो अब बारी है दुख की । यदि अब बारी है दुख की तो जल्‍दी ही सुख आनेवाला है । यह भावना ही दुख को बहुत कम कर देती है, झगडे को कम कर देती है । यदि यह सोचें कि झगडे तो हर घर में होते हैं मेरे घर में हो रहे हैं, कोई नई बात नहीं । झगडे शुरु होते हैं बाद में खत्‍म भी हो जाते हैं, सम्‍भव है यह सोच भी तनाव कम कर दे । अब मैं इस समस्‍या के दूसरे पहलू पर आता हूं । मान लिया जाए कि नवदम्‍पत्ति ने अपने बीच एकता का परिचय देकर परिवार से अलग रहने की सोच ली है और रहने भी लगे तो यह समझना भंयकर भूल होगी कि अब वह अंहकार की लडाई होगी ।होगी और जरुर होगी । अब उसका रुप बदला हुआ होगा । अब वह लडाई दो जनों के बीच होगी । कभी सिददांतों को लेकर, अपनी बात को जोर देकर, रुठकर, आर्थिक रुप से , ऐसी ऐसी समस्‍याएं आएंगी जिनपर तनावग्रस्‍त होना स्‍वाभाविक ही । एक ही रास्‍ता है, उन सभी सूत्रों को अपने जीवन में उतार ले जिनका जिक्र किया है, तनाव कम हो सकता है ।

Friday, June 18, 2010

शादी से पहले और शादी के बाद आदमी के जीवन में बहुत बडा परिवर्तन आ जाता है । शादी से पहले लडका लडकी सपनों की दुनिया में होते हैं और बाद में उन सपनों से जागता है । शादी के बाद बहुत सी मुसीबतों का सामना करना पडता है, कई तनावों से गुजरता पडता है जिसका पहले से अहसास नहीं होता । कभी कभी तो ऐसा लगता है मानो विवाह करके बहुत बडी गलती कर दी है ।
विवाह से पूर्व एक परिवार में बैठे सभी परिवारजन मिलजुलकर खाना खा रहे हैं, एक साथ खेल रहे हैं, हंसी मजाक कर रहे हैं । घर में कमाने वाला मुख्‍य सदस्‍य पिता है और घर में काम करने के लिए मां । पिता अपने बच्‍चों को प्‍यार करता है, पढाता है, लिखाता है । मां तरह तरह के खाने बनाकर फरमाईश पूरी करती है । गलती करने पर मां अपने बच्‍चे को डांटती भी है । धीरे धीरे वह परिवार फलता फूलता है । छोटा मकान बडा मकान बनता है, छोटे बच्‍चे बडे हो जाते हैं और मां बाप बूढे । बडे होकर बच्‍चे भी काम धंधे या नौकरी पर लगते हैं‍ । घर की आय बढ जाती है और सुख सुविधाएं भी । सब मिलजुलकर खर्चा चलाते हैं । पिर बच्‍चों की शादी की बात की जाती है । लडकी की शादी हुई तो वह दूसरे घर चली जाती है और लडकों की शादी हुई तो बहूएं घर में आने लगती हैं । चारों ओर चहल पहल होती है जो ज्‍यादा देर तक नहीं रहती । खुशी का वातावरण धीरे धीरे फीकी खुशी का रुप लेने लगता है पिर फीकी खुशियां उदासी का रुप ले लेती हैं और उदासी का वातावरण धीरे धीरे तनाव का रुप लेने लगता है और तनाव का रुप बिखराव का रुप धारण करने लगता है । सभी अपने को समझदार समझने लगते हैं और अपनी प्रमुखता चाहते हैं लेकिन सभी ऐसा चाहेंगे तो यह कैसे संम्‍भव है, अतत परिवार टूटने लगता है और और परिवार टूट जाता है ।

क्‍या कारण हैं, परिवार टूटने के । क्‍यों टूट जाता है यह भरा भरा परिवार – शादी के बाद क्‍यों नहीं एक हो पाता । क्‍या विवाह एक जहर है जो परिवार को बिखराव की ओर ले जाता है । क्‍या शादी के परिणामस्‍वरुंप ही खुशियों का वातावरण बैचेनी, असंतोष,अविश्‍वास और तनाव में बदलने लगता है । क्‍या विवाह के बाद बच्‍चे बदल जाते हैं । क्‍या घर का माहौल बहूओं के आने के कारण खराब होता है । क्‍या बच्‍चों के विवाह के बाद मां बाप बदल जाते हैं । विवाह के बाद रिश्‍तो की डोर कमजोर क्‍यों हो जाती है । क्‍या विवाह के बाद ही समस्‍याएं आती हैं जिनका कोई समाधान नहीं निकलता । यह तमाम सवाल है जिनका आज तक किसी ने संतोषजनक जवाब नहीं दिया है । लेकिन इतना सच है कि तनाव का वह वातावरण अवश्‍य छा जाता है जो विवाह के पूर्व नहीं था । मैने इस मामले में काफी गहराई से सोचने का प्रयास ।किया है । मैंने पाया है कि यह तनाव का वातावरण प्राय’ सभी घरों में बन ही जाता है । कारण अलग अलग हो सकते हैं, कोई भी स्थिति परिस्थिति हो सकती है और यह तनाव जरुरी नहीं है कि शादी के तुरन्‍त बाद साफ प्रकट होता हो । धीरे धीरे भी हो सकता है । लेकिन तनाव का प्रकट होना धीरे धीरे स्‍पष्‍ट होने लगता है । उस खुशी के वातावरण से लेकर उस तनाव के वातावरण के बीच की दूरी को एक शब्‍द में बताया जाए तो यही कहा जा सकता है कि वह यात्रा है अंहकार की । इस अंहकार की यात्रा में परिवार के सदस्‍यों के अपने अपने अंहकार टकराते हैं, रोजाना टकराते हैं और जोर जोर से टकराते हैं जिनका परिणाम है तनाव एवं विखराव । मजेदार बात तो यह है कि कोई भी नहीं चाहता कि परिवार में तनाव हो, बिखराव हो, सब चाहते हैं कि घर में शांति हो। चूंकि यह बिखराव व तनाव बच्‍चों के विवाह के बाद स्‍पष्‍ट होता है लेकिन दोष थोप दिया जाता है घर की बहू पर । चूंकि घर में पहले के सदस्‍यों को बोलने की पूरी आजादी होती है और नई बहू को कम,इसलिए घर के पहले वाले सदस्‍य अपनी बात मनवाने के लिए जोर देते हैं । दूसरी ओर बहू भी एकदम से दूसरे घर को अपना घर नहीं समझ्‍ती है, वह चाहकर भी अपने को अजनबी सा महसूस करती है । अपनी परेशानियों को खुलकर नहीं कह पाती । यदि वह बोलती भी है तो बहुत ही धीमा जो दूसरों को सुनाई नहीं देता और यदि बहू जोर से प्रभावशाली तरीके से अपनी बात कहती है तो उसकी बात का विरोध किया जाता है । ऐसे में नई बहू दो रास्‍ते अपनाती है – उस तनाव और अंहकार की जंग में खप जाना अथवा प्रेमपूर्वक रहकर सही समय का इंतजार करना । अक्‍सर घर की नई बहू पहला तरीका ही अपनाती है और वह भी बडी चतुरता के साथ । अपने पति के कंधों पर बंदूक रखकर अहंकार की जंग में शामिल हो जाती है । झूठ सच, कर्तव्‍य और हर प्रकार के ताम झाम तरीकों से वह घर में अपना स्‍थान उंचा बनाने का प्रयास करती है । इस तनाव और अंहकार की लडाई में अंत नहीं होता सिर्फ एक समझौता होता है और उस समझौते के अनुसार एक पक्ष को वह घर छोडकर जाना होता है । तब लडाई बन्‍द होती है । यह लडाई विवाह के बाद आरम्‍भ होकर समझौते पर जाकर खत्‍म होती है, यह समझौता कब होगा जो निर्भर करता है मां बाप पर या नवविवाहित जोडे पर ।
तनाव में हम लोग कितना सोच बैठते हैं और हमें ऐसा लगता है कि हम किसी भी प्रकार से सुखी नहीं रह सकते । हम सोचते हैं कि मां बाप अपनी बात मनवाना चाहते हैं और पत्‍नी अपनी । बाद में बच्‍चे अपनी बात मनवाना चाहते हैं । हर पत्‍नी चाहती है कि उसका पति उसकी इच्‍छाओं के अनुसार काम करे और पति चाहता है कि पत्‍नी उसके अनुसार सोचे, उसकी किसी भी बात का विरोध न करें । यह इच्‍छा सभी में होती है लेकिन मां बाप और पत्‍नी या पति में कुछ ज्‍यादा ही । पति भी कई बार सिनेमा की दुनिया में खोकर आदर्श पत्‍नी की खोज करने लगता है ।
हम क्‍यों भूल जाते हैं कि कोई किसी को पूरी तरह से खुश नहीं रख सकता, दूसरे को संतुष्‍ट नहीं कर सकता है । न पति, न पत्‍नी, न मां बाप – कोई भी किसी को संतोष नहीं दे सकता । तनाव में घिर जाने से और उससे निकलने का एक स्‍टीक रास्‍ता यही है कि हम आराम करें । अपने शरीर को पूरी तरह ढीला छोडकर लेट जाएं और जो हमसे नाराज होता है, गुस्‍सा करता है या जली कटी सुनाता है, उसको सुने, केवल सुने और अनदेखा कर दें ।
आप अपनी धारणों को तोडते रहें और दूसरों की धारणों को भी । धारणा तोडने का यह अर्थ नहीं होता कि आप लोगों का अपमान करना शुरू कर दें । अपमान करना और अपनी बात को नये िसरे से कहना, दोनों में अंतर है । मान लीजिए आप अपनी पत्‍नी के लिए कोई उपहार लेकर आते हैं, आपकी पत्‍नी खुश हो जाती है । उसके मन में आपके प्रति एक धारणा बन गई कि आप हर बार उसके लिए उपहार लेकर आएंगे । और यह धारणा तब टूट जाती है जब आप उसके लिए कोई उपहार नहीं लाते । यानि आपका दिया गया उपहार भी कलेश का एक कारण बन गया । जैसे आपने उपहार न लाकर कोई गुनाह कर दिया हो । यदि आपने पहले से ही उपहार न दिया होता तो शायद कोई कलेश न होता, तब एक धारणा थी कि आप उपहार देते ही नहीं है । ठीक दूसरे पहलू को देखते हुए न किसी के प्रति कोई धारणा रखनी चाहिए वरना वही कलेश वाली हालत आप पैदा कर देंगे । आप धीरे धीरे धारणा रखना बन्‍द करें और धीरे धीरे धारणा तोडना शुरु करें, आपके जीवन से तनाव कम होना शुरु हो जाएगा 1 आपके बनाए हुए झूठे महल बनने से पहले ही टूट जाएं तो बेहतर 1

Thursday, June 17, 2010

दूसरों पर बहुत ज्‍यादा निर्भरता छोडनी चाहिए । जितनी ज्‍यादा निर्भरता होती है उतना ज्‍यादा दुख होता है । तनाव के बढने का एक कारण यह भी है कि हम अपने बीच कभी भी एक संतोष नहीं पैदा होने देते हैं । अपने शरीर और दिमाग से हमेशा पूरे समय तक काम लेते रहते हैं । शरीर को तो थोडा बहुत आराम रात को सोकर मिल ही जाता है लेकिन दिमाग का चलना तो 24 घंटे चलता रहता है और उस चलने के दौर में हम भी मन के तल पर जीकर चलते हैं । मन तो चचंल होता है, फ्री डॉग, परेशान करता है, दुख देता है् तनाव देता है । कभी दिमाग में अच्‍छा और कभी बुरा अर्थ देते रहते हैं । आज किसी को अगर कहा जाए कि तुम एक घटा मौन रहो, अपने शरीर को मत हिलाओ, न खांसी करो, आंखे बंद कर लो और अपने मन को देखो ।चलते, दौडते,भागते मन को, विचारो को देखो, कैसे कैसे विचार चल रहे हैं, चले जा रहे हैं । एक विचार आता है, पिर दूसरा,तीसरा हजारो ।लेकिन यह असंम्‍भव सा लगता है । जब हम अपने दिमाग को आराम नहीं देते तो चैन कैसे आएगा । यह तो ऐसे ही है कोई एक मशीन को 24 घंटे लगातार चलाया जाए । अगर एक मशीन लगातार चलती रहे तो वह गर्म हो जाती है, जब तक गर्म है तो भी चल सकता है, लेकिन एक ऐसी स्‍टेज भी आती है जब उस गर्म मशीन खराब हो जाती है । ठीक इसी प्रकार इंसान के साथ भी है । जब इंसान को गुस्‍सा आने लगे तो समझो मशीन गर्म हो गई है और तनाव में घिरने लगो तो समझो मशीन से धुआं निकल रहा है, अगर तब भी मस्तिष्‍क को आराम न दिया तो वही हालत हो सकती है जेसे हम मशीन के टूटने या खराब होने की आशंका पर ।
हम क्‍या कर रहे हैं ? यानि हमारी क्‍या क्षमताएं है । सुबह से रात तक लगभग 18 घंटे होते हैं हमारे पास । इस दौरान हम अपनी शक्ति को कहां कहां लगाते हैं, इसपर विचार करना होगा । ध्‍यान से देखने पर पता चलता है कि हम अपना ज्‍यादातर समय यूहीं बेकार में नष्‍ट कर देते हैं जिसका कोई ठोस आधार नहीं होता । ज्‍यादातर लोग बिना टाइम टेबल बनाकर अपना जीवन व्‍यतीत कर देते हैं ।
आजकल जो विवाह होते है उनमें ज्‍यादातर दिखावा और ऊची ऊची बातें की जाती हैं। लेकिन जब सच्‍चाई सामने आती है तो सपनों को महल टूट जाता है । विवाह के 6 महीने बाद ही जो पति पत्‍नी अपनी अपनी कमियों को बहुत ही खूबी के साथ छिपाते हैं, खुलकर सामने आने लगती हैं और प्रेम का नशा जल्‍दी ही उतर जाता है । तब दोनों एक दूसरे को ताना देते हैं । जहां प्रेम की कसमें खायी गई थीं, वहां जहर वाली बातें कर करके जीवन को नर्क बना लिया जाता है और ऐसे में पति भी और पत्‍नी भी कहते हैं विवाह से पहले सब ठीक था । नहीं, यह सब विवाह के बाद प्रकट हो जाता है, इसलिए विवाह गलत कहा जाता है । विवाह गलत नहीं होता, व्‍यक्ति गलत होता है । यह आरोपों प्रत्‍यारोपों का शीत युद्व तब तक चलता रहता है जब तक दूसरे से सुख की इच्‍छा करते रहेंगे । दूसरे से केवल प्रेम,सुख की कल्‍पना एक भूल है, अपने को अंधेरे में रखने जैसा, यानि एक मूर्खता ।
इच्‍छा चाहे पत्‍नी की हो या पति की, मांबाप की हो या भाई बहन की या मित्र बंधु की, पूरी न होने की दशा में पीडा होती है। दूसरों की बात तो दूर खुद व्‍यक्ति अपने बीच कई इच्‍छाएं पैदा कर लेता है और बात में जब कपूरी नहीं हो पाती तो दुखी होता है । यह इच्‍छा ही तो है कि हम सोचते हैं कि हमसे हर कोई अच्‍छा बोले, कोई घटिया बात न करे । यदि ऐसा न हो तो दुख होता है । जो है उसे स्‍वीकार कर लें अथवा अपने को बदल लें, दूसरे को बदलता आसान नहीं ।
आप कितना ही कोशिश कर लें, आप दूसरों के अनुसार नहीं चल सकते । आप दूसरे के हिसाब से तभी चल सकते है जब पहले आपकी स्‍वयं की सहमति होगी क्‍योंकि हर कदम में अन्तिम निर्णय तो अपना ही होता है । आप जिददी व्‍यक्ति से कभी भी प्रेम नहीं कर सकते ।हां, जिद और संकल्‍पशक्ति एक से लगते हैं लेकिन वास्‍तव में दोनों में बेहद अंतर होता है । जिद का अर्थ है ऐसा निश्‍चय जिसका संबंध दूसरे से जुडा होता है प्रत्‍यक्ष या अप्रत्‍यक्ष । जैसे यह एक जिद है कि कोई अपने बीच इस बात का निश्‍चय कर ले कि मैं फलां फलां के साथ तब तक बात नहीं करता जब तक कि पहले वह मुझ्‍ से आकर बात नहीं करता । संकल्‍प में एक निश्‍चय तो है लेकिन वह रचनात्‍मक होता है जैसे कोई यह संकल्‍प ले कि मैं अगले एक वर्ष तक कोई मूवी नहीं देखूंगा । जिद अक्‍सर कष्‍ट देती है और संकल्‍प आत्‍मविश्‍वास । जिद करनेवाला प्रत्‍यक्ष या अप्रत्‍यक्ष बाद में अवश्‍य ही नुकसान में रहता है और पश्‍चाताप होता है उसे लगता है कि जिद एक मूर्खता है ।
जब आदमी खुद ही परेशान होता है तब उसे सब कुछ बुरा लगता है, सभी बुरे लगते हैं, वे भी जिन्‍हें थोडी देर पहले ही अच्‍छा कहा गया था यह सब अपने अंसतोष का ही परिणाम है और असंतोष के आलम में जो भी निर्णय लिया जाता है वह स्‍वयं के लिए दुखदायक तो होता ही है दूसरे को भी कभी कभी परेशान कर देता है और यह सब असंतोष आता है अपने अंहकार की वजह से । आदमी इस बात का अंह भी करता है कि उसके बीच कोई अवगुण या कमी नहीं है , कोई बुराई नहीं है । अंहकारी व्‍यक्ति ही कहता है कि दूसरे लोग अंहकार करते है । यह सब बकवास बन्‍द होनी चाहिए । कोई किसी के लिए कुछ नहीं करता है, व्‍यक्ति अपने लिए ही कुछ कर ले यही काफी है । जब व्‍यक्ति अपने लिए कुछ करने लगता है तो उसे दूसरों की आवश्‍यकता नहीं होती और तब उसे दूसरों से प्रेम मिलता है । आवश्‍यकता है हम अपने असंतोष को पहचानें । दूसरों को दोष देना छोडे, और केवल मौन में जीएं । बोलते बोलते भी मौन में रहा जा सकता है ।लेकिन दूसरे में अविश्‍वास का अर्थ ही है कि हम अपने में विश्‍वास नहीं रखते । व्‍यक्ति केवल अपना प्रतिबिंब देखतो है ।

Tuesday, June 8, 2010

फालतू की फार्मेलिटी छोड देने में ही भलाई है । जो आत्‍मा कहती है, वहीं करें । असफलता पर सबक मिलेगा और सफलता पर नया मार्ग । सभी निर्णय स्‍वयं करो । यदि एक ढंग अनुकुल नहीं है तो उसे बदलने में कोई बुराई नहीं । दूसरों के उत्‍साह को बढाना चाहिए, अपना उत्‍साह स्‍वयं ही बढने लगता है । आपका ज्‍यादा समय कहां गुजरता है देखें और जानें क्‍यों, इसको भी देखें । आशा रखें, सफलता और असफलता तो जीवन के सच हैं । अच्‍छे काम करें तो बुराई अपने आप समाप्‍त हो जाती है । लगन सच्‍ची है तो काम पूरा भी होगा, बाकी सभी बहाने हैं । स्थिति कैसी भी हो, स्‍वीकार कर लेने के भाव से सफलता मिलने लगती है । मैं ऐसा चाहता हूं, ऐसा है, ऐसा ही चाहता था – जीवन जैसा है, सुन्‍दर है, यह भाव मन को शांत करता है । परिवर्तन बताने की जरूरत नहीं पडती, दिखते हैं । प्‍यार और स्‍नेह से सभी काम हो सकते हैं । सादा ही ठीक है,अभिनय कीजिए । हमेशा चुस्‍त रहें ।
असफल हो गये क्‍या, पुन: कोशिश करें । विचार मांगने पर ही दें और दूसरे की बात को ध्‍यान से सुने, दूसरा क्‍या कह रहा है । काम कर रहे हो, तो काम को खुशी खुशी करो, वरना न ही करो तो अच्‍छा है । अपनी असफलता की कहानी न दोहराए । जब तुम ही अपने को असफल कहते हो तो दूसरा कैसे कोई तुम्‍हें सफल कह सकता है ।
अपने को हमेशा बिजी रखो, जरूरत से ज्‍यादा सीरियस रहना ठीक नहीं । अपने बारे में कम बोला जाए तो ठीक है और सच्‍ची शांति तो अपने भीतर है, बाहरी इच्‍छाएं कम से कम रखें तो बेहतर ।

Sunday, June 6, 2010

कडी मेहनत करने के बाद ही वित्‍तीय स्थिति सुधारी जा सकती है । जीवन में ठीक से जीना है तो फाइनेशियल पोजिशन उत्‍तर होना जरूरी है । कितने घंटे सोना चाहिए, निश्चित नहीं है । जब नींद आ जाए, सो जाओ । जब तक न आए, जागते रहो, इस बारे में कितने बज गए है, सीमा न बांधों । प्रश्‍नों को उत्‍तर दें और केवल प्रश्‍न करें । पश्‍ताताप से मन पवित्र हो जाता है । गुस्‍सा करने से कुछ न होगा । आपसी सहयोग और समन्‍यवय की स्थिति से ही लाभ है । दूसरों को क्षमा कर दें । दिन रात की मेहनत एक दिन जरूर काम आती है । अपनी बात कहना आसान है, बजाए दूसरों की बात को सुनने के । दूसरों की बात सुनना भी एक गुण है । अपनी बात को शब्‍दों में कहकर दूसरे को समझा देना भी एक गुण है । बेकार की भूमिका बांधने और इधर उधर की बात करना अच्‍छा नहीं है । किसी एक काम पर विजय पानी है तो उस काम में पाजिटिव सोचना होगा । यदि नुक्‍ताचीनी की, नेगेटिव विचार सोचे तो समझ लीजिए उस काम को पूरा करने की आधी शक्ति हमने खो दी । विद्धान सुकरात ने कहा है भगवान ने हमें दो कान, दो आंखें और एक मुंह दिया है ताकि हम ज्‍यादा सुने, ज्‍यादा देखें, लेकिन बोले कम ।
असमय की हंसी का परिणाम बुरा होता है । ईश्‍वर और विश्‍वास एक ही सिक्‍के के दो पहलू हैं । श्रद्धा के बिना कुछ भी सम्‍भव नहीं है । जीवन एक उत्‍सव है, इसलिए शान से जीओ । आप बिल्‍कुल ठीक कह रहे हैं, यह सोच भी सफलता देती है । हम सब कुछ जानते हुए भी कुछ नहीं जानते । आशा रखें, न कि अभिलाषा । अधिक घनिष्‍ठता ही घृणा की जन्‍मदात्री है । सच्‍चा सुख बाहर से नहीं मिलता, अपने अन्‍दर से ही मिलता है । विचित्र बात है कि सुख की अभिलाषा ही दुख का एक अंश है । चिता मूर्दों को जलाती है और चिन्‍ता जिन्‍दों को । काम की अधिकता नहीं अनियमिता आदमी को मारती है । समस्‍त गलतियों की तह में अभिमान होता है । अपने विचारों को अपना जेलखाना न बनाओं । जो आज अच्‍छा लगता है शायद कल अच्‍छा न लगे । समय बदले, आप भी बदलो ।
अविश्‍वास धीमी आत्‍महत्‍या ही तो है । मान देने से मान मिलता है । सफलता हो या असफलता श्रेय हमें ही है । उतावलापन, चिन्‍ता और हीनभावना वास्‍वविक आनन्‍द के दुश्‍मन हैं । कुछ भी मुश्किल नहीं, बस अपना उत्‍साह न गिराएं । दुनिया में रहो, अपने भीतर दुनिया को मत रहने दों । पैसा हाथ में रखो, दिल में नहीं । जब तुम ही अपने को असफल कहते हो तो कौन तुम्‍हें सफल कह सकता है । शुरू हुआ है तो अन्‍त भी होगा ।
अपनी इच्‍छाओं को सीमित रखना ही बेहतर है, तभी आगे बढें । आप असफल नहीं है, आप बेकार और छोटे नहीं हैं, यू आर समथिंग । बस अपनी शारीरिक बनावट को सुन्‍दर बनाएं रखें और प्‍लीज अपना पेट आगे बढने न दें । किसी भी क्षेत्र में सफलता पानी है तो उसमें जुट जाना आवश्‍यक है, बार बार प्रक्टिस करनी चाहिए । काम से मत हारों, मन को डांवाडोल मन होने दों । दिन काटना, गुजारा करना, जीवन बिताना घटिया विचार हैं । जीवन में सुख पाना है तो आलस छोडना होगा । बिना मांगी सलाह से बचिए और बिना मांगे सलाह दे भी नहीं । हमारे देश में सलाह देने का बहुत रिवाज है । यदि सलाह लेनी भी है तो किसी विशेषज्ञ की सलाह लें । वैसे अपने विचारों से चलें तो बेहतर है । आप अपना आगे बढते रहें । अपनी योजना पर काम करते रहें । जो तुम चाहते हो, वहीं हो सकता है, और वही होगा । जो कुछ करना है स्‍वयं ही करना है, कोई दूसरा तो क्षणिक मदद कर सकता है । बहसबाजी से दूर रहना ही बेहतर । अपने बीच एक अलग व्‍यक्तिव रखना जरूरी है, जो काम आज तक नहीं हुआ है, वह अब हो सकता है । प्‍लान बनाकर कार्य करना सरल एवं उत्‍तम है । सबसे बडी आवश्‍यकता आपका कैरियर है ।
आप सफल होना चाहते हैं मगर रास्‍ता समझ में नहीं आता । आप अपने करने और समझने की क्षमता को बढाएं । जब तक खूब मेहनत करने की आदत नहीं डालेंगे, अपने कार्यों और कर्तव्‍यों के प्रति जागरूक नहीं रहा जाएगा , तब तक हम सफल नहीं हो सकते । हमें अत्‍याधिक मेहनत में अपना विश्‍वास दिखाना होगा । काम में खो जाएं । दूसरे साक्षी भाव रखें । लगातार साक्षी भाव बनाए रखें, मात्र तीन महीने में ही समूल परिवर्तन दिखने लगेगा । कोई लाभ नहीं यदि हम अपना मूल्‍यवान समय बेकार की निराशापूर्ण बातों में बिता देते हैं । अपने आप को समझना जरूरी है, अपनी इच्‍छा शक्ति को दृढ करना जरूरी है । कोई चीज कैसी है, हमारा दृष्टिकोण बताता है । जो भी करो, इस भाव से कि यह कार्य मेरी स्‍वीकृति से हो रहा है । मेरी आत्‍मा ने स्‍वीकृति दी है इस काम को करने के लिए । सफल व्‍यक्ति के चेहरे पर तो एक स्‍वाभाविक चमक होती है । आदमी चाहे कितना ही डल हो लेकिन अपनी मेहनत और लगन से अपने बीच शुभ परिवर्तन ला सकता है ।
एक कार्य में असफलता, कारण खोजिए, सफलता मिलेगी । कम बोलिए, लेकिन अच्‍छा बोलिए, हंसमुख रहें, बदतमीज नहीं । भावना का फल जरूर मिलता है । व्‍यक्तिव का निर्माण विचारों द्धारा ही होता है । अपनी बिसात से परे जीना मूर्खता है । योग्‍यता से अधिक महत्‍वाकांक्षा प्रभावशाली है । प्रशंसा कीजिए, दुनिया आपकी जेब में । लोग कहते हैं न बोलनेवाला भी बहुत कुछ कह जाता है । भटके हुए अर्जुन भी तुम हो और रास्‍ता दिखाने वाले कृष्‍ण भी ।
अपनी बात को संक्षेप में कहना ही बेहतर ।
आपत्ति में आदमी स्‍वयं को और दूसरों को पहचान लेता है । पालने से लेकर कब्र तक ज्ञान प्राप्‍त करते रहो । असंतोष पराजय का दूसरा नाम ही तो है । दूसरों में दोष ढूढंना भी एक दोष है । बडा बनने के लिए लगन और मेहनत भी जरूरी है । आदमी चाहे तो अपने भीतर समूल परिवर्तन ला सकता है । जैसा सोचोगे, वैसा ही होगा । दुनिया तो कुछ न कुछ कहती ही रहती है ज्‍यादा परवाह न करों ।
कोई भी कार्य करें लेकिन ध्‍यानपूर्वक करें । पूरी तरह खो जाएं तो वह काम गलत हो ही नहीं सकता । कोई भी काम पूरी जागरूकता से किया जाए तो काम का परिणाम ठीक ही होता है । अगर हम निरन्‍तर परिश्रम करने की आदत डाल लें तो हम अपना उज्‍जवल भविष्‍य बना सकते हैं ।
जिन्‍दगी का सबसे बडा विष सन्‍देह है । न कुछ छोडना है और न कुछ पाने की इच्‍छा करनी है, जो है ठीक है, जैसा है स्‍वीकार है, किसी प्रकार का विरोध नहीं, दुख के बाद सुख और सुख के बाद दुख, चक्र यू ही चलता रहता है । विरोध करने, बुरा मानने, लडने झगडने गुस्‍सा करने और शिकायत करने से कुछ न होगा – जब हम ऐसा सोचने लगते हैं तो दुख सुख से ऊपर उठकर शांत होने लगते हैं, शांति का भास होने लगता है ।
हम अपने जीवनकाल में जो भी काम करते हैं उनका शीघ्र प्रभाव हमारे ऊपर पडता है । हमारे अनुभव खुशी से भरे भी हो सकते हैं और गम से भरे भी । यदि हम प्रसन्‍न हैं, अपने जीवन में एक संतोष की झलक पाते हैं, हमें ऐसा प्रतीत होता है जीवन सत्‍य,शिव सुन्‍दर है तब हम कह सकते हैं कि हम समय का सदुपयोग कर रहे हैं । यदि हम बडे ब‍डे पद पा भी लें और खूब मान सम्‍मान भी हो लेकिन हम अपने अन्‍दर से संतोष का अनुभव न करें, हृदय में एक तृष्‍णा हो तो हम कह सकते हैं हम समय का सदुपयोग नहीं कर रहे हैं ।

दूसरे क्‍या सोचते हैं और कैसा सोचते हैं, यह सोचना उनका काम है । कोई तुम्‍हें छोटा समझे या बडा । क्‍या फर्क पडता है । विरोध पैदा ही न करो । कोई भगवान कहे तो कहो मुझे तो ज्ञान नहीं, यह सोचना तुम्‍हारा काम है । कोई शैतान कहे तो कहा मुझे तो ज्ञान नहीं, यह सोचना तुम्‍हारा है । वह मत समझ लो जो दूसरा कोई कहें । भगवान जो करता है अच्‍छा करता है । हर काम में कहीं न कहीं अच्‍छाई होती है ।
हमारी अंतर्रात्‍मा बता देती है कि क्‍या ठीक है और क्‍या गलत । हमें क्‍या करना चाहिए और क्‍या नहीं करना चाहिए ।
यदि हम चाहें तो अच्‍छा जीवन जी सकते हैं । साफ सुथरा रहना, तमीजदार व शिक्षित होना । यह सब अपने बस में है । शरीर को योगा व ध्‍यान द्धारा सुडौल व स्‍वस्‍थपूर्ण बनाया जा सकता है, जरूरत है संकल्‍प की, इच्‍छाशक्ति की । अपने प्रति एक उत्‍साह बनाए रखना जरूरी है वरना बोझिल मन से कुछ भी कर पाना सम्‍भव नहीं ।
यह सत्‍य है कि हमारा जो विचार बन गया है, उस पर भी एक बार विचार कर लेना चाहिए ।
जितना हमारा वेतन है, उसमें हमारा गुजारा हो सकता है । बस अपने भागते मन को समझाना होगा । उसे रोकना होगा । उन चीजों के लिए जो हमारे लिए बहुत जरूरी नहीं हैं । एक एक रूपया खोजपूर्ण अर्थात सोच समझकर खर्च करना चाहिए और इसके साथ ही ज्‍यादा कमाई के एिल कोशिश आरम्‍भ कर देनी चाहिए । हम देखते हैं कि हमारे ज्‍यादातर खर्चे गैरजरूरी होते हैं । वास्‍तविक खुशी तो अपने अन्‍दर है । बाहरी सामान खरीदने से या बाहर का बहुत कुछ खा लेने से खुशी नहीं मिलती । खुशी की शुरूआत अपने अन्‍दर से ही शुरू होती है और खुशी की समाप्ति भी अपने से ही होती है । बाहरी कारण तो क्षणिक हैं ।
हमारी हंसी उडाकर किसी को खुशी मिलती है या किसी को हंसी आती है तो स्‍वीकार कर लीजिए 1 यह बुरा नहीं है । अच्‍छा है । लेकिन हमें किसी की हंसी नहीं उडानी चाहिए । चुटकुला सुना है, हंसो । समझ में नहीं आया, तो भी हंसो । हमें भी चुटकुले सुनाने चाहिए । कोई नहीं हंसता है तो हमें स्‍वयं हंसना चाहिए । खुलकर । यही राज है खुशमिजाज रहने का । एक दिन यह बात आम हो जाएगी । हम सबसे ज्‍यादा खुशनसीब हो सकते हैं ।