Tuesday, October 14, 2014
ओशो रजनीश का दर्शन क्या है । इसको एक शब्द में कहा जा सकता है – ध्यान और केवल ध्यान । तुम्हारी जो स्वाभाविक स्थिति है उसे आप स्वीकार भाव में जीओ । कैसे जीवन में अवेयर होकर जीया जा सकता है । यह जरुरी नहीं है कि सुख ही सुख आएं जीवन में । जैसा भी है ठीक है । ध्यान करने से परिवर्तन आता है । ऐसा नहीं है कि प्रवचन सुन लेने से परिवर्तन आता है । सुनने से परिवर्तन नहीं आता । अपनी क्षमताओं में वृदिध करना और जीवन में एकरुपता व सरलता लाने का प्रयास करना चाहिए । प्रयासों से ही पाजिटिव स्थिति आ सकती है । यह जरुरी नहीं है कि कुछ खास किया जाए । ओशो रजनीश ने वही बातें कहीं है जो पहले भी कई सदगुरु कह चुके है । हां, कहने का तरीका नया है । जो भी काम किया जाए उसके लिए यह भाव हो – यह काम तो मेरी स्वीकृति से हो रहा है । हर व्यक्ति में क्षमताएं होती हैं लेकिन मन के डांवाडोल होने के कारण कठिनाईयां आ जाती हैं । मन बुदिध पर हावी हो जाता है । मन को कंट्रोल में करने के बाद ही अच्छे और सुन्दर कार्य किए जा सकते हैं । आत्म विश्वास की कमी होने के कारण ही ऐसा होता है । अपने पर पूरा विश्वास न करके मन हावी हो जाता है और वह भी कभी स्थाई नहीं रहता । तुम क्या करना चाहते हो, यह जानना है तो मन को कंट्रोल में करना होगा । एकाग्रता की कमी से ही शक्तियां बंट जाती है । संकल्पशक्ति कीकमी से साहस में कमी आती है । ऐसा क्यों होता है, यह समझना होगा और मन के डांवाडोल होने के कारणों को जानना होगा । कई बार अपने पर शक होने लगता है । एक घबराहट पैदा होती है । जीवन की राह में कितने मकाम हैं मालूम नहीं पडता । सुस्ती चिडचिडापन, समय एवं धन की बर्बादी , सहजता व क्षमा दान न होना बहुत ही डर जाता है इंसांन । केवल आत्मविश्वास ही इन सब भय के कारणों पर विजय दिला सकता है । कई बार दूसरों की बातें सुनकर हम समझ लेते हैं कि हमारा किया गया कार्य गलत है । हमारा सोचा हुआ विचार गलत है । तब यह संदेह और बढ जाता है जब दस आदमियों में से सभी हमारे विचार के खिलाफ हो जाते हैं । तब लगता है कहीं मै। गलत तो नहीं । New हर कोई दोहरे मापदण्ड में जीता है चाहे वह लडका हो या लडकी । एक तरफ तो वे चाहते हैं कि अपनी बात मनवाकर यह शो किया जाए कि मेरा सोचना और करना ठीक है और दूसरे का सोचा हुआ या किया हुआ कार्य गलत है । लडकियां हो या लडके दूसरों के सामने समझौतावादी नीति अपनाते हैं, दूसरे के सामने आदर्शवाद । यह खूबी महिलाओं में ज्यादा होती है । यह अजीब दास्तां है कि एक स्त्री जब मां बनती है तो वह अपने पुत्र से बेहद प्रेम करती है । 9 माह तक अपने गर्भ में रखकर अपना भोजन खिलाती है और तब मां का खून पुत्र का खून बन जाता है । मां अपने बच्चे को पालती पोसी है और उसके प्रति बंध जाती है । बच्चा बडा होता है, मां का प्यार धीरे धीरे कम होता जाता है । जब बच्चा बडा हो जाता है तो वह अपने बच्चे को डांटती भी है, कभी कभी पीट भी लेती है और प्यार भी करती है । बच्चे की आयु के लिए ईश्वर से प्रार्थना भी करती है । बच्चा धीरे धीरे बडा होता है तो वह अपने बच्चे से बहुत सी आशाएं रखती है ।वह चाहती है कि उस से जो कहा जाए वह वैसा ही करे । उसे जिस चीज से रोका जाए उसमें वह बिल्कुल भी रुचि न ले । लेकिन होता है विपरीत । जब तक बच्चा छोटा होता है वह अपनी मां का हर कहा मानता है । लेकिन जैसे जैसे उसकी बुदिध का विकास होता है बच्चा अपनी समझ के मुताबिक काम करता है । तब स्थिति विडम्बनापूर्ण होती है । मां अपने पक्ष में और पुत्र अपने पक्ष में बात करते हैं । तब मां अपने बेटे से गुस्सा करने लगती है । तब बच्चा भी मां का चेहरा देखकर गुस्सा करने लगता है । वह मां का कहना तो मानना चाहता है किन्तु अपनी समझ के मुताबिक भी चलना चाहता है । दोनों के विचार अलग अलग होने पर स्थिति खराब हो जाती है । मां सोचती है बेटा बदल गया । बेटा भूल गया है मां के प्रति सेवा कर्तव्य । बेटा सोचना है मां बदल गई है । पहले कितना स्नेह करती थी कितना ध्यान रखती थी और अब नफरत । दोनों के बीच दोहरे व्यवहार की स्थिति चलती रहती है । कभी प्यार कभी नफरत । मां अपने बेट की शादी भी करना चाहती है और वो भी अपनी मर्जी से । बेटा अपनी मर्जी चाहता है । विचारों में टकराव । तत्पश्चात एक पक्ष बात मान जाता है । पुत्र का विवाह हो जाता है । अब प्रेम की यात्रा आगे बढती है । पुत्र अपनी पत्नी से प्रेम करने लगता है । मां इस सत्य को स्वीकार नहीं कर पाती ।वह अपने क्त्यों द्वारा बाधा उत्पन्न करती है । पत्नी इसको स्वीकार नहीं कर पाती । फलत सास बहू का झगडा शुरु होता है । 13.10.2014 अपने को जीतना ही सही मायने में सफलता है । बाकी की सभी एवार्ड, प्रमाण पत्र और प्रशसा पत्र बेकार है । अपने पर विजय पा ली समझों सब कुछ पा लिया । लेकिन ये एक आसान काम नहीं है । बल्कि ये कहना होगा कि ये एक मुश्किल काम है । मुश्किल इसलिए कि इस बारे में कभी सोचा ही नहीं । मैंने भी नहीं सोचा कभी । जीवन में संतोष चाहिए, सुख् चाहिए, खुशी चाहिए तो अपने को खुश कर लो, अपने से राजी हो जाओ – सब कुछ मिल जाएगा । अपने को जीतने का मतलब है कि अपने बीच इतनी क्षमताएं पा लेना कि कहीं कोई विरोध न हो । हम जैसा चाहें वैसा ही हो । यह तभी होगा जब हम अपने को समझ्ने के लिए थोडा टाइम निकालेंगे । हर किसी के लिए थोडा थोडा टाइम निकाल लेते है लेकिन अपने लिए नहीं । छोटे छोटे संकल्प किया करो और छोटी छोटी साधना भी । बडे संकल्प करते है। कामयाब नही हो पाते । --- थोडा सा किसी ने विरोध कर दिया और हम नाराज होकर बैठ जाते हैं । सोच ही नेगेटिव हो जाती है । नाराज होकर, गलत बोलकर, कांमेंट करके आज तक किसी का दिल जीता गया है या अपने को शांति मिली है । नहीं,बल्कि ज्यादा कसूरवार हो जाते है। । हो सके तो न विरोध करो और न ही विरोध करने पर नाराज होकर बैठ जाओ । ये भी एक प्रवचन लग रहा है आपको । लेकिन प्रयास करो, बार बार करो, एक दिन सफल भी हो जाते हैं । --- नये माहौल के बीच व्यक्ति अपने बीच परिवर्तन महसूस करता है । कभी तो उसे नया वातावरण अच्छा लगता है और कभी बुरा । लेकिन जैसे जैसे नयापन खत्म होता है व्यक्ति उस माहौल में अपने आप को ढाल लेता है और खुश रहने लगता है और जो ऐसा नहीं करते हैं वे दुखी रहते है। । इसी तरह किसी को एक दिन कुछ ज्यादा काम करना पड जाए तो वह रोने लगता है और जब काम न करना पडे तो वह खुश रहता है । ये क्या बात हुई । काम करने पर खुश होना चाहिए और काम न होने पर रोना चाहिए । लेकिन ------ हम कामचोर हो गये हैं । हां ये दूसरी बात है कि किसी किसी में काम करने की क्षमता कम होती है । लेकिन ऐसा नहीं है कि किसी में काम करने की क्षमता भी नहीं है ।
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