Friday, August 22, 2014

ज्‍यादातर लोगों में विचारों का द्वंद्व चलता रहता है और वह भी निरन्‍तर । कभी कभी विचारों की धक्‍कम धकका इतनी होती है कि एकदम घबराहट पैदा होने लगती है । कभी बीते हुए समय को याद करते हुए, कभी आज को याद करते हुए और कभी भविष्‍य की कल्‍पनाओं को लेकर । हालांकि वक्‍त विचारों की तेजी को कम कर देता है लेकिन विचार तो चलते ही रहते हैं ।विचार तो नेगेटिव भी चलते हैं और पाजिटिव भी । अगर हम उन चलते हुए विचारों को लिखना शरु कर दें तो हम देखेंगे कि ऐसा धाराप्रवाह कचरा बह रहा है जिसे देखकर स्‍वयं ही दुख होगा । यह दुख कई बार समय बीतने पर दिखता है । कई बार तो अपने पर विचार करते करते दिमाग घूम जाता है । एक ही व्‍यक्ति के प्रति कभी उत्‍साह पैदा हो जाता है तो कभी उसी व्‍यक्ति के प्रति निराशा । माता पिता के प्रति, भाई बहन के प्रति, पति पत्‍नी के बीच और मि’त्रों के बीच कभी कभी इतना द्वंद्व छा जाता है कि सभी एक दूसरे को काटने को दौडते हैं, एक दूसरे के प्रति आरोप लगाते है और भला बुरा कहते हैं लेकिन जल्‍दी ही वही सब एक दूसरे के प्रति प्रेम प्रकट करते है और हंसने गाने लगते हैं । अजीब हैं हम लोग । लिखी गई पंक्तियों से एक बात तो स्‍पष्‍ट है कि जितनी धारणा रखी जाएगी, पूरी न होने पर कष्‍ट होगा । ऐसा लगता है कोई भी आदमी न बुरा होता है और न अच्‍छा । दोनों होता है अच्‍छा भी और बुरा भी या यूं कह लीजिए न अच्‍छा होता है और न बुरा, यह सब तो अपने देखने का नजरिया है या यूं कह लीजिए वक्‍त वक्‍त की बात है । अपने मन में किसी के प्रति गुस्‍सा है तो उसके प्रति नफरत पैदा होने लगती है चाहे कुछ ही देर पहले उसके प्रति प्रेमपूर्वक बने हुए थे । लगता है यह क्रम तो चलता ही रहेगा ।
आत्‍मविश्‍वास ही सब कुछ है । हम जो कुछ भी देखते हैं, अपना विश्‍वास देखते हैं,अपना विश्‍वास ही बताते हैं । प्रकाश है, नहीं दिखता, हवा है, लेकिन दिखती नहीं । इसी प्रकार भगवान है, दिखता नहीं । हम विश्‍वास को भगवान कहें तो भी ठीक है । चीज एक ही है । नजरिया है भगवान और विश्‍वास को देखने का । हम उसे भगवान कहकर पुकारते हैं या विश्‍वास । चूंकि ऐसा कहना है कि अपने पर विश्‍वास रखो, अर्थात भगवान पर विश्‍वास रखो । क्‍योंकि भगवान और विश्‍वास एक ही सिक्‍के के दो पहलू हैं, एक ही लाठी के दो किनारे हैं । लीेकिन सिक्‍का एक ही है, लाठी एक ही है । लेकिन एक बात है दोनों में से एक को मानना होगा । जब एक को माना जाएगा तो दूसरा स्‍वयं ही आ जाएगा । हम भगवान को माने तो विश्‍वास आ जाए और विश्‍वास को माने तो भगवान आ जाएगा । हम ऐसा तो नहीं कह सकते कि मैं लाठी का एक सिरा ही उठाकर दिखा सकता हूं । एक उठाएंगे, तो दूसरा स्‍वयं ही चला आएगा । दूसरे को उठाने की जरुरत नहीं पडती । हम सिक्‍के के एक पहलू को नहीं उठा सकते । दोनों साथ साथ उठ जाएंगे । यही अर्थ है भगवान को जानने का ।
अब दूसरी बात, यह विश्‍वास अथवा भगवान हम कहां खोजें ? चूंकि ये चीजें दिखती नहीं है, मानना पडता है, विश्‍वास रखना पडता है । जैसे हवा, प्रकाश या ईश्‍वर । विश्‍वास भी दिखता नहीं है, मानना पडता है । हम यह भगवान या ईश्‍वर कहीं भी देख सकते हैं, किसी भी रुप में देख सकते हैं । इन्‍सान में भी, राम में भी, कृष्‍ण में भी, अपने माता पिता में भी, गुरु में भी, बच्‍चें में भी । यह हम पर निर्भर है कि हम अपना विश्‍वास या भगवान किसमें और किस रुप में देखते हैं । इसके बाद हमारी शंका दूर हो जाएगी, तब आनन्‍द का भाव होगा ।

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सफलता पाने के लिए किसी विशेष व्‍यक्ति पर अपनी आजादी को खत्‍म करना पडता है । उसका सहयोग मिलता है, खुशी होती है । लेकिन बाद में हमें भी उसको सहयोग कदेना पडता है, चाहे अपना मन न हो । स्‍पष्‍ट है कि खुशियां पाने के लिए अपनी कुछ खुशियों की कुर्बानी देनी पडती है ।

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हमें इस बात का ध्‍यान रखना चाहिए कि हमारी प्रत्‍येक सफलता या असफलता के पीछे वास्‍तविक हकदार हम ही हैं । शायद यह बात प्रत्‍यक्ष में पता न लगे कि दोष या धन्‍यावाद किसका है, लेकिन ध्‍यान से गौर करने पर पता चलता है कि कहीं न कहीं शुरुआत या अंत हमने ही किया था । यदि किसी के प्रति अथवा हमारे प्रति कोई चाहत रखता है तो उसकी सफलता का श्रेय अपने को ही देना चाहिए । यदि कोई हमसे नफरत करता है तो इस असफलता के दोषी भी हम ही हैं । हम में ही कोई कमी घर बनाए हुए है जिसके कारण सामने वाला हमसे नफरत करता है अथवा गुस्‍सा करता है । इस बात को ध्‍यान से समझना होगा ।
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हम विश्‍व के सबसे अधिक प्रसन्‍न व्‍यक्ति है । हम में किसी चीज की कमी नहीं है । हम प्रत्‍येक क्षेत्र में सफलता पा सकते हैं, यदि वास्‍तव में चाहते हों । इधर हमारी चाहत बनी, उधर हम सफल हुए । खो जाना है । सब स्‍वीकार करना है । निर्विचार । आलोचना और टोकना छोड दीजिए । जो हो रहा है, ठीक हो रहा है । हंसना रोना, गाना, खाना पीना, सुख दुख सब स्‍वीकार कर लीजिए ।

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वर्तमान को देखकर जिया जाए तो दुख पर विजय है – यही संन्‍यास है । यहीं विजय है्, यही आनन्‍द है , यही सुख है । बीते समय की बार बार चर्चा करना अथवा भविष्‍य के बारे में योजनाएं ही बनाते रहना, दुखों का कारण है । अगरक आज के क्षणों को सुन्‍दर से सुन्‍दर बिताया जहाएगा, कल भी अच्‍छा होगा । सबको खुशियां बांटो, खुशियां हमारे जीवन में उसी रफतार से लौटकर आ जाएंगी ।
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जो बात हम करते नहीं हैं, वह कहते क्‍यों हैं ? उपदेश देना आसान है, लेकिन खुद भी तो कुछ करना होगा ?
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यह सत्‍य है कि हमारा जो विचार बन गया है, उस पर भी एक बार विचार कर लेना चाहिए ।
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हमारी हंसी उडाकर किसी को खुशी मिलती है या किसी को हंसी आती है तो स्‍वीकार कर लीजिए । यह बुरा नहीं है । अच्‍छा है । लेकिन हमें किसी की हंसी नहीं उडानी चाहिए । चुटकुला सुना है, हंसो । समझ में नहीं आया, तो भी हंसो । हमें भी चुटकुले सुनाने चाहिए । कोई नहीं हंसता तो हमें स्‍वयं हंसना चाहिए । खुलकर । यही राज है खुशमिजाज रहने का । एक दिन यह बात आम हो जाएगी । हम सबसे अधिक खुशनसीब हो सकते हैं ।

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यदि हम चाहें तो अच्‍छा जीवन जी सकते हैं । साफ सुथरा रहना, तमीजदार व शिक्षित होना । यह सब अपने बस में है । शरीर को योग व ध्‍यान द्वारा सुडौल व स्‍वस्‍थ बनाया जा सकता है । जरुरत है संकल्‍प की । अपने प्रति एक उत्‍साह बनाए रखना जरुरी है वरना बोझिल मन से कुछ भी कर पाना सम्‍भव नहीं ।
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जितना हमारा वेतन है, उसमें हमारा गुजारा हो सकता है । अपने भागते मन को समझाना होगा । उन चीजों के लिए जो जरुरी नहीं हैं । एक एक रुपया खोजपूर्ण अर्थात सोच समझकर खर्च करना चाहिए और इसके साथ ही ज्‍यादा कमाई के लिए कोशिश आरम्‍भ कर देनी चाहिए । हम देखते हैं कि हमारे ज्‍यादात्‍तर खर्चे लापरवाही से होते हैं ।
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वास्‍तविक खुशी तो हमारे भीतर हैं । खुशी की शुरुआत अपने अन्‍दर से ही शुरु होती है और समाप्ति भी अपने अन्‍दर से ही होती है ।

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हमारे मां बाप यदि शिक्षित और अमीर हों तो अपने बच्‍चों को अच्‍छे संस्‍कार दे सकते हैं और सही विकास का मार्गदर्शन भी । जहां बच्‍चों के विकास में हर चीज समय पर होना जरुरी है वहां बच्‍चों की रुचि का ध्‍यान रखना भी आवश्‍यक है । पढाई के साथ साथ खेंलकूद, कला, हॉबी पर ध्‍यान देना जरुरी है, बाद में नौकरी, कारोबार या विवाह आदि के बारे में सोचना चाहिए ।
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यदि हम अपने बडों का कहा मानते हैं, चाहे वह गलत ही क्‍यों न हो, चाहे वह हमारी आत्‍मा को अच्‍छा न भी लगे, सब मान लें तो वे बहुत खुश रहते हैं और यदि उनके कथन को स्‍वीकार नहीं करते हैं, अपने विचारों को कहते हैं, अपने में एक आत्‍मविश्‍वास की झलक दिखाते हैं तो हम गलत हो जाते हैं । यदि दूसरों का कहा मानते रहते हैं तो हम शीघ्र ही बडों की नजरों में प्रिय हो जाते हैं । जब भी वे जैसा भी चाहें, वैसा ही करें । चाहे हम अपना काम छोड दें । इस प्रकार देखा गया है कि सारा समय सेवा करते रहें, आदर की भावना रखते रहें तो ठीक समझा जाता है किन्‍तु एक बार भी हम उनकी सेवा करने में, उनका कहा मानने में असमर्थ हो जाते हैं तो सारा किया समाप्‍त हो जाता है ।इसी प्रकार यदि हम किसी के लिए कुछ भी नहीं करते हैं, समय पर कर देते हैं तो हमारी खूब तारीफ होती है, हम प्रिय हो जाते हैं । समाज की व्‍यवस्‍थाएं इतनी जडवत हैं कि उनको याद करते ही एक गुस्‍से का अहसास होता है । लडकी के लिए कई बाधाएं हैं, कई अभिशाप हैं । लडकी का मोटी होना, पतली होना, ठिगनी होना, लम्‍बी होना, आंखों पर चश्‍मा होना, बालों का सफेद होना, अनपढ होना आदि अयोग्‍याएं मानी जाती हैं । जब‍कि लडकों पर यह नियम पूरी तरह लागू नहीं होता । यहां तक कि लडकी की मोटी आवाज भी एक अवगुण माना जाता है, हमेशा एक मनोवैज्ञानिक दबाव डाला जाता है । खुलकर हंसना, खांसना, छींकना, खुजली करना, चलना, बोलना भी घोर अशोभनीय माने जाते हैं । अपने स्‍वतंत्र विचार कहना , अपना स्‍पष्‍टीकरण बताना भी दोष माने जाते हैं, जबकि इन बातों का लडके पर कोई अंकुश नहीं है ।
छोटी छोटी गलतफहमियों की वजह से ही झगडे होते हैं । धारणा यही रहती है कि मेरा कोई कसूर नहीं है । लेकिन होता है इसके विपरीत । सामान्‍य परिस्थितियों में भी स्थिति असाधारण रुप ले लेती है, जिसका परिणाम होता है तनाव । ऐसा हो, वैसा हो, ऐसा न हो, वैसा न हो, इस तरह की सोच से ही दुख का आरम्‍भ होता है । खुशी का माहौल नहीं रह जाता । ---- बुरा मानने का सवाल ही पैदा नहीं होता, मैं क्‍यों बुरा मानूं, बुरा मानने से केवल नुकसान ही होता है, यह समझ ही तनाव की स्थिति से हमें निकाल सकती है । एक समझ की भावना ही जीवन में रुपातंरण ला देती है । उतावलापन और बडप्‍पन तकलीफदायक है । संयम का वातावरण तूफान नहीं लाता । निर्णय शक्ति का क्षीण होना एक अवगुण है । जो निर्णय लेना है, शीघ्र ही लिया जाना चाहिए
। जितनी देर लगा दी जाती है, अपने को एक ऐसी स्थिति में खडा कर दिया जाता है, जहां मात्र अंसंतुलन होता है । ****
यदि कोई गलती करता है तो उसे माफ करना ही श्रेयष्‍कर होगा । कोई अपनी गलती नहीं मानता तो न माने, क्‍योंकि हम भी गलत कदम उठाने लगे तो हम भी कसूरवार हो जाते हैं । तब हममें और उसमें कोई फर्क नहीं रह जाता । अत यदि हम सच्‍चे हैं तो हमें अवश्‍य संतोष होगा । सत्‍य हमेशा प्रतिफलित होता है, चाहे देर से ही । अपनी आत्‍मा शांत और सच्‍ची होगी तभी आनन्‍द का अनुभव होगा । अपराध भावना से जीना बेकार है । माफ कर देना और गुस्‍सा न करना दूसरे पर विजय पा लेने के सूत्र हैं ।

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जीवन परिवर्तनशील है । पल पल में बदलता रहता है । जीवन के पल अच्‍छे भी रहते हैं और बुरे भी । कोई व्‍यक्ति अपना जीवन कैसे सुन्‍दर बना सकता है । यदि आर्थिक स्थिति अच्‍छी है और जीवन के प्रति एक स्‍नेह है तो जीवन सुन्‍दर होगा । जीवन तब भी सुन्‍दर होगा जब अपने समय को सुन्‍दर कार्यों में लगाया जाता है । वे सभी कार्य किए जाएं जिससे एक खुशी मिलती है । सुन्‍दर हंसमुख नैचर के साथ साथ विचारों में एकरुपता एवं दृढता होना जरुरी है । यह संकल्‍पशीलता से ही आती है । मन में एक संकल्‍प होना चाहिए कि मेरा जीवन सुन्‍दर है । एक एक सीढी बढना है, पिर सब कार्य पूरे होने लगते हैं ।
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यह ख्‍याल तो बार बार आता है कि अच्‍छे शरीर के लिए जहां अच्‍छी खुराक खाना जरुरी है, वहां व्‍यायाम करना जरुरी है और व्‍यायाम के लिए डायनिमिक मेडिटेशन भी अच्‍छा है । यह मेडिटेशन शरीर को चुस्‍त, ताजा तो बनाता ही है, मानसिक शांति के लिए महत्‍वपूर्ण है । आंखों के लिए भी अच्‍छा है । जब चित्‍त शांत रहता है तो सभी कार्य आसानी से किए जा सकते हैं ।
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यदि दो जने आपस में बहस करने लगें, लडने लगे तो एक को चुप हो जाना चाहिए । चूंकि दूसरा चुप होने को तैयार नहीं है, इसलिए खुद ही चुप हो जाना चाहिए । सिर्फ अपनी बात को मनवाने के लिए बार बार जोर डालना ठीक नहीं है । संक्षेप शब्‍दों में भी नहीं समझ में आने वाली बात को किया जा सकता है । यदि इस बात की चिन्‍ता नहीं की जाती तो आनेवाले जीवन में कई मुश्किलें आ सकती हैं । मुश्किलें तो हर तरह से आएंगी ही, इसको समझना है । अगर हम उन मुश्किलों को समझ लेते हैं तो मुश्किलें रह ही नहीं जाती । विवाह के बाद तो कई मुश्किलें आती हैं, उन सब पर भी विचार कर लेना चाहिए । विवाह के बाद केवल सुख की सेज ही नहीं, कांटों का हार भी है । दोनों साथ साथ हैं । यदि अपनी हार और दूसरे की जीत है तो क्‍या हम ऐसा नहीं मान सकते कि मेरी जीत उसकी भी जीत ?
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कई बार हम बहुत उदास हो जाते हैं, एक निराशा का अनुभव करते हैं । कई बार बहुत खुश हो जाते है, एक आशा का अनुभव करते हैं । निराशा के क्षणों में जीवन को एक दुख मान लेते हैं । सोचते हैं हमारा जीवन बेकार है, दूसरों का अच्‍छा है । कभी कभी खुशी के क्षणों को पाकर अपना जीवन सुन्‍दर महसूस करते हैं, दूसरों के जीवन को बेकार व दुखपूर्ण मान लेते हैं । वास्‍तव में यह दोनों विचार सत्‍य हैं और असत्‍य भी हैं । सत्‍य इसलिए है कि यह सब स्‍वाभाविक है । असत्‍य इसलिए कि सब सत्‍य नहीं होता । हम जब तक दूसरों से अपना कम्‍पैरिजन करेंगे, जीवन में एक रुपता को महसूस नहीं कर सकेंगे । कभी दूसरों को अच्‍छा मानकर और अपने को बेकार मानकर चलने पर और इसी प्रकार दूसरों को बेकार मानकर अपने को अच्‍छा मानकर चलेंगें तो दोहरे मापदण्‍ड की स्थिति अवश्‍य ही उत्‍पन्‍न होगी । जीवन के बदलते रुपों को स्‍वीकार भाव से जीने पर ही दोहरेपन के अनुभव से दूर हो सकेंगे ।
कोई हमारी आलोचना करता है तो हमें बुरा नहीं मानना चाहिए बल्कि विचार करना चाहिए । यदि दूसरे की की गई आलोचना अथवा शिकायत उचित है तो धन्‍यावाद देना चाहिए । मन ही मन परिवर्तन ले आना चाहिए । कोई बात मत करना । और अगर उसकी बात गलत है, उसकी शिकायत या आलोचना गलत है तो हमें कोई प्रभाव नहीं होना चाहिए । उसको कहने दो । यह उसका सोचना या कहना है, हमारा नहीं । इसलिए बुरा मानने या नाराज होने का प्रश्‍न ही नहीं ।
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क्‍या कभी कोई ऐसा भी करता है जो वह करना नहीं चाहता । वह जानता भी हो कि यह करना ठीक नहीं है । पल पल में उसे इसका होश हो कि यह सब ठीक नहीं कर रहा है, उसे वह सब करना चाहिए जो वह नहीं कर रहा है, यह भी जानता हो ? तब, यह सब जानते हुए भी, उसे क्‍या कहें हम ?
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यदि किसी को कुछ बताया जाए तो दूसरा हमारी बात सुनने के लिए बिल्‍कुल तैयार नहीं होगा । हमारी बात को तोड मरोड देगा, काट देगा । इसी तरह यदि कोई व्‍यक्ति हमको कोई बात बताता है तो हम उसकी बात नहीं सुनेंगे, बात को अनसूना कर देंगे, शायद मजाक भी उडाएं । लेकिन बातों के महत्‍व को तभी जाना जा सकता है जब कोई एक विशेष विषय पर पूछा जाए । यानि हम यदि किसी को जीवन के प्रति जो दृष्टिकोण है, बताते रहे, व्‍याख्‍या करते रहें, दूसरा नहीं सुनेगा, सुननेवाला केवल अपनी बात से ही प्रभावित रहेगा । यदि कोई हमसे पूछता है तभी बताना चाहिए । तब वह हमारी बात सुनेगा भी । इसी प्रकार यदि हमाको कुछ बताया जाए, हम नहीं सुनते, हम पूछेंगे, दूसरा बताएगा, तब हम भी सुनने के लिए राजी हो जाएंगे ।
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मन की शांति और आत्‍मसंतुषटी के लिए दिन में एक बार अवश्‍य मौन भाव से उसे स्‍मरण करना चाहिए । इससे अहसास होगा कि जीवन में संतोष व आनन्‍द है । इसके लिए जरुरी है कि जीवन के प्रति प्रेम हो । प्रेम से तात्‍पर्य मोह नहीं है । किसी के प्रति मोह रखना खतरनाक साबित हो सकता है । प्रेमपूर्ण होना जरुरी है, सभी के लिए । वह प्रेम जो आत्‍म उपलब्धि से उत्‍पन्‍न होता है । जो हृदय से स्‍वयं ही उजागर होता है । प्रार्थना तभी घटती है जब हम भगवान के साथ चलने को तैयार हो जाते हैं ।

दो तीन बातें – अपने को अधिक महत्‍व देना चाहिए, समय कीमती है, जो काम करना है, उसे खुशी खुशी करना चाहिए । टाइम टेबल बनाकर काम करना ठीक रहता है । समय का सदुपयोग इस प्रकार किया जाए कि सभी काम पूरे हो जाएं और चेहरे पर एक संतोष हो । सभी काम करो लेकिन किसी एक के लिए ज्‍यादा वक्‍त दिया तो दूसरे काम रुक जाएंगे । जिस समय जो काम करने का समय हो, वही करें । अपना कर्म पूरी लगन के साथ किया जाए तो परेशानी का सवाल ही नहीं पैदा होता ।
कुछ लोग अच्‍छे होते हैं और कुछ लोग अच्‍छे नहीं होते हैं । यह भी सच है कि यह हमारे देखने का नजरिया है । हम देखते हैं कि लडकियों में ज्‍यादा सहजता,सरलता है, बनिस्‍बत लडकों के । हमें देखना होगा कि हम कैसे हैं, हमारा व्‍यक्तित्‍व कैसा है ? व्‍यक्तित्‍व एक ही होना चाहिए । दोनों होना ठीक नहीं । साफ पानी में गन्‍दा पानी मिला दो या गन्‍दे पानी में साफ पानी, कोई फर्क नहीं पडता – परिणाम गंदा ही हैं ।
अगर यह कहा जाए कि कम बोलने वाले अच्‍छे हैं, यह सोचना गलत होगा । यह ठीक भी नहीं कहा जा सकता । सुन्‍दर खिला हुआ चेहरा, हंसता हंसाता चेहरा सबको अच्‍छा लगता है, गम्‍भीर चेहरा कैसे सुन्‍दर हो सकता है ? अगर यह कहा जाए कि हंसो उस समय जब हंसना उचित हो । गम्‍भीर उसस समय रहो, जब जरुरत हो – यही ठीक है । यह भी सोचने पर ही निर्भर है ।
याद रखो – सारी बातें एक खास व्‍यक्ति के लिए नहीं होती । अलग अलग बातें अलग अलग लोगों के लिए होती हैं । हम गलती से सभी बातें अपने लिए समझ बैठते है। । इसलिए ध्‍यानपूर्णक समझना जरुरी है । समझ का ऊंचे स्‍तर पर होना जरुरी है ।

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जीवन को ऐसे जिओ जैसे जीवन एक नाटक है और हम अभिनय कर रहे हैं । एक अभिनय, एक झूठ है सब कुछ । पल पल का जीना । तब दुख का सवाल ही पैदा नहीं होता । ऐसा कुछ भी नहीं जिसकी वजह से उत्‍तेजना हो । जरुरी है समझ हो । एक बार समझ में आ जाए तो सब कुछ मिल जाता है । क्‍या चीज अच्‍छी है और क्‍या बुरी, क्‍या जरुरी है और क्‍या नहीं, समझ आ जाता है, दोहरी स्थिति रह ही नहीं जाती ।

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जीवन का अनुभव देखा होगा आपने । कई बार मांगने से कुछ नहीं मिलता और कई बार बिना मांगे ही बहुत कुछ मिल जाता है । तब कोई मांग न रखते हुए ही जीआ जाए तो कैसा रहेगा ? सुना है सफलता ही असफलता की सीढी है । जब तक किसी एक कार्य के प्रति सफलता प्राप्‍त नहीं हुई है तब तक सफलता प्राप्‍त करने के लिए एक उत्‍सुकता बनी रहती है, एक इंतजार होता है । किन्‍तु क्‍या हम नहीं महसूस करतेू कि सफलता मिल जाने पर कोई उत्‍साह नहीं रह जाता है । ऐसा लगने लगता है जैसे कुछ हुआ ही न हो । ऐसा लगता है कि जैसे सफलता की वह उत्‍तेजना, उत्‍साह है ही नहीं जो सफलता पाने से पहले था । तब यह क्‍या है ? क्‍या हम सफलता पाने की कामना छोड दें ? यह भी बहुत विडम्‍बनापूर्ण होगा । तब मान लीजिए, हम उनके प्रति बहुत प्रेम प्रदर्शित करते हैं, उन्‍हें बहुत चाहते हैं, उनके व्‍यक्त्वि से प्रभावित होते हैं, लेकिन जब उनके निकट आते हैं तो क्‍या वह प्रेम, वह आकर्षण, वह उत्‍साह रह जाता है ? नहीं । ****
हम लोग हमेशा ईश्‍वर से कुछ न कुछ मांगते ही रहते हैं । ईश्‍वर कितना ही दे दे, कम लगता है । दूसरों के क्षणिक आराम को देखकर ईर्ष्‍या से भर जाते हैं । हमेशा आगे आने वाले समय में सुख मिल जाने की कल्‍पना करते हैं । लेकिन क्‍या ऐसा होता है ? जितना हमें मिला है, उसका आभास किया है ? जितना भगवान ने दिया है उसका धन्‍यवाद किया ? कभी ईश्‍वर को धन्‍यवाद के भाव से याद किया है ? कभी झूम झूम कर नाचा है ? कभी अहो भाव से निकला – तेरा लाख लाख शुक्र । मैं बहुत ही प्रसन्‍न हूं ।

कभी कभी भय से पीडित होकर मानसिक तनाव से ग्रस्‍त हो जाना, जीवन के उतार चढाव का ही एक रुप तो है । अपने को समझने का असफल प्रयास किया जाता है । मन का डर न जाने कितनी कोरी कल्‍पनाओं का जाल बुन लेता है, इस पर कभी विचार किया है ? भयग्रस्‍त व्‍यक्ति किस प्रकार अपनी शक्तियों को खो देता है, अपना विकास होने पर एक बंदिश लगा देता है, जबकि भय निर्मूल है । एक खौफ और संशक्ति वातावरण क्‍यों आ जाता है ? अगर हम चाहें भय से छुटकारा पा सकते हैं ? हां, यदि धन्‍यवाद का भाव हो । एक पूजा का भाव हो, जो है जैसा है, स्‍वीकार है । ऐसा ही होना था, ऐसा ही हो रहा है । धीरे धीरे भय समाप्‍त होने लगेगा । जो हो भी नहीं रहा है, हुआ भी नहीं है, मात्र होने की कल्‍पना से भयग्रस्‍त होकर वर्तमान के सुन्‍दर पलों को नष्‍ट करना कहां तक सार्थक है ? जो होगा, वह होगा, लेकिन यह क्‍यों भय किया जाता है कि जो आप सोच रहे हैं, वही होगा – क्‍या मालूम वैसा न हो ?

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यदि हमारे बीच शैक्षिक योग्‍यताएं कम हैं तो निराश नहीं होना चाहिए । अपने बीच आत्‍मविश्‍वास को जागृत करके हम सफलता पा सकते हैं । बस आशा और विश्‍वास की यात्रा जारी रहनी चाहिए । ****
भविष्‍य की सुरक्षा की भावना और भय की भावना में क्‍या अन्‍तर है ? क्‍या इसको आसानी से समझा जा सकता है ? शायद नहीं । भविष्‍य की सुरक्षा का लबादा ओढकर कहीं हम भय की भावना से तो नहीं जी रहे ? कल का क्‍या भरोसा, हम रहें न रहें, यह सोच रहे या न रहे, तब वर्तमान के क्षणों में आनन्‍द क्‍यों नहीं आ पाते ? अगर हम अपने बीते हुए समय पर सूक्ष्‍म दृष्टि से विचार करें तो पायेंगे कि हम हमेशा ही भविष्‍य की सुरक्षा से ही जीते रहे हैं, हमेशा भविष्‍य की सुरक्षा ने हमें भयभीत बना दिया है और हम वर्तमान के क्षणों को पूर्णत वंचित हो जाते हैं ।

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दूसरों से प्रश्‍न पूछना भी एक कला है । अपनी बात में एक ऐसा आकर्षण हो कि दूसरा बात को समझे, न कि मुंह चिढाकर हमें ही जलीकटी सुना दे । दूसरों से प्रश्‍न पूछकर, अपनी जिज्ञासा प्रकट करके उसके मन को टटोलें । हो सकता है जीवन के सत्‍य से परिचित हो सको । प्रश्‍न पूछना बुरा नहीं है लेकिन गलत ढंग से पूछा गया प्रश्‍न बुरा है ।

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दौड कितनी भी दौड ली जाए, अन्‍त में पायेंगे एक ठहराव । रुको । और आगे नहीं । कुछ नहीं । अब और ज्‍यादा दौडा नहीं जाता । अब आराम चाहिए । शांति और संतोष चाहिए । अब ऊंचे ऊंचे महल नहीं सादापन चाहिए । जो जैसा है ठीक है । सुन्‍दर है । अब कोई इच्‍छा नहीं है । सब कुछ मिल गया है । अब मस्तिष्‍क को आराम देना है । सभी सुखों का रास्‍ता मिल गया है जो अपने अन्‍दर से शुरु होता है । अब धीरे धीरे चलने को जी चाहता है । अब भागने की चाह नहीं है । सादे विचार, बातचीत,खाना पीना,पहनना,मधुर व धीमी गति से ।
व्‍यक्ति जो सोचता है वैसा ही होता है, जरुरी नहीं । जो नहीं सोचा होता है वह भी हो जाता है । तब सोचने लगता है कि यह तो मैंने सोचा ही नहीं था । किसी से साधारण सी मित्रता शुरु होती है कोई ज्‍यादा रुचि भी नहीं लेते है । किन्‍तु एकाएक कुछ घटनाक्रम के साथ समय बदलता है । जिसपर हम सोचने लगते हैं । भावनाओं के आगे सचमुच बुद्वि बिल्‍कुल काम नहीं करती । कह सकते हैं प्रेम के आगे किसी का कोई बल नहीं चलता । यह कैसे और कैसे हो जाता है इसको समझना आसान नहीं लगता । अपने को सम्‍भाल पाना मुश्किल । दो मिनट के लिए बुदिध को पीछे हटाकर देखें तो क्‍या देखेंगे ? भावनाओं को समझकर एक विचार की दृष्टि देखें तो हृदय के तल पर क्‍या निकलता है ? क्‍या स्‍नेह और प्रेम की धारा में बुदिध, समाज को ताक पर रख दिया जाता है ? अपने पुराने सिदधांतों पर सन्‍देह और उन्‍हें तोडा मरोडा जा सकता है ? वैसे एक प्रश्‍न तो उठता ही होगा क्‍यों करता है कोई किसी के लिए इतना ? कैसे करने लग जाता है ? क्‍या व्‍यक्ति खुद कर सकता है ऐसा ? यदि आदमी खुद चाहे तो क्‍या ऐसा कर सकता है ? उत्‍तर एक ही होगा – नहीं, कदापि नहीं ।
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दूसरों का व्‍यवहार और हावभाव देखकर हमको प्रेरणा मिलती है । मन में उच्‍च व्‍यक्त्वि की सफलता के बारे में जिज्ञासा पैदा होती है । वैसा ही अपनाने को चित चाहता है । यह भी सच है कि कुछ चेहरे नकली होते है । अन्‍दर का खोखलापन शीघ्र प्रकट होने लगता है । एक सीखने की भावना होनी चाहिए, नकल की नहीं । न ईष्‍या की न तडप की । जीवन तो जीने के लिए है । निराशा के वातावरण में निर्णय नहीं लेना चाहिए । हृदय में संतोष एवं उत्‍साह का भाव उत्‍पन्‍न कर बात करनी चाहिए । दूसरों की आंखों में आंखे डालकर देखो और बात करो । एक आत्‍मसंतोष और प्रेमपूर्ण होने का आभास होगा । गांधी ने लिखा है सही और संयमपूर्ण बातचीत करने के लिए अल्‍पभाषी होना जरुरी है ।
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यह कोई प्रवचन नहीं है । सीधी सी बात है । दो बातें ध्‍यान में रखनी चाहिए । एक, दूसरे के बारे में कभी भी बुरे विचार न रखें । दूसरा, यह कभी भी न सोचें कि जीवन समाप्‍त हो गया है । आज और अभी जो कुछ है, वही सच है । जो होना है वह होना ही है, तब चिन्‍ता क्‍यों ? जीना है जीओ, आज और अभी । हंसते हंसते जीना है । ****
जैसे कोई किसी को दुख नहीं दे सकता वैसे ही कोई किसी को सुख भी नहीं दे सकता । सुख दुख का आधार अपने अन्‍दर से ही शुरु होता है और अपने अन्‍दर से ही खत्‍म होता है । यदि जीवन में दुख व कठिनाईयां हैं तो उनका कारण हम ही हैं और यदि जीवन में सुख व खुशियां हैं तो कारण हम ही हैं ।बस, अपनी शक्तियों को तीव्र बनाने का प्रयास होना चाहिए । लेकिन तुमने देखा होगा जब जीवन में खुशियां आती हैं तो उनका श्रेय हम अपने को देते हैं और जब जीवन में दुख आते हैं तो उनका कारण दूसरों पर थोप देते हैं । अपने को एकाग्रचित करना होगा । टोटल एक जगह होना होगा । अपनी शक्तियों को विसर्जित नहीं करना चाहिए । इधर उधर बांटना नहीं है । एक जगह एकत्र करना होगा । लडना भी नहीं है । लडने से कोई हल नहीं होगा । हां, प्रयास करना चाहिए बार बार ।

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जो भी उलझन है उसे देखने की कोशिश करो । मूड आफ हो जाता है, पढाई और काम में जी नहीं लगता, गुस्‍सा आ जाता है, सफलता नहीं मिलती है, चारों ओर निराशा लगती है, सफलता नहीं मिलती, ध्‍यान करने को जी नहीं चाहता या उस ओर ज्‍यादा ध्‍यान जाता है जो शुभ नहीं है, तब एक ही उपाय है – देखो । साक्षी भाव से और ध्‍यानपूर्वक । मन और अपनी इन्दिरयों को शांत और एकरुपता में देखकर । तब हम पाएंगे एक ऐसी तस्‍वीर जो होनी तो चाहिए किन्‍तु है नहीं । बिल्‍कुल शांत होकर देखना है, जागकर देखना है । धीरे धीरे सभी उलझने गायब होने लगेगीं । यदि लडने की कोशिश न हो तो उचित है । यदि चित शांत है तो बाहरी दौ्ड की जरुरत समाप्‍त होने लगती है ।
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जिन्‍दगी को सुन्‍दर तो हम बना सकते हैं । किसी और की नहीं बल्कि अपनी ही । तब देर क्‍यों ? क्‍या सोच रहे हैं ? क्‍या सुख कल मिलेगा ? नहीं । जिन्‍दगी के प्रत्‍येक पल को धन्‍यवाद के भाव से जीओ । पूरे उत्‍साह और उन्‍मुक्‍तता से । मामला बातचीत का हो या अन्‍य कोई, पढाई का हो या कामकाज का, हर पल को खुशी खुशी जीना है । जीवन के सभी रसों से वाकिफ होना है । देखना होगा कि हम में वह सब कुछ करने की क्षमता है जो दूसरों में है । प्रत्‍येक व्‍यक्ति में स्‍वामी बनने की क्षमता है यानि स्‍वयं का मालिक । बस संकल्‍प और साधना से गुजरना होगा । प्रत्‍येक पल जागरुक होकर जीना होगा ।
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ओशो रजनीश ने लिखा है – मैं जीवन के सभी रहस्‍य तुम्‍हें बता सकता हूं, तुम जीवन के सभी रहस्‍यों को जान सकते हो, लेकिन उनका प्रयोग करना, उनकी खोज करना तुम्‍हें ही होगा । केवल जीवन के रहस्‍यों को ही जान लेना काफी न होगा, उनको प्रयोग करना या जानना तुम्‍हारा काम है । इसलिए अपने को जानिए । हम अनुभव करेंगे कि जीवन में कोई समस्‍या नहीं होती है जिसकी वजह से परेशान होना पडे । अगर यह कहा जाए कि सभी समस्‍याओं को सुलझा लिया तो थोडा अजीब लगेगा, लेकिन हम कहें कि हमने अनुभव किया है कि मैं अपना मार्गदर्शक स्‍वयं बनने के लिए तैयार हूं, यदि कोई समस्‍या है तो उसका समाधान भी है । यदि समस्‍या उत्‍पन्‍न होती है तो उसका समाधान तुरन्‍त खोजा जा सकता है । परेशानी या चिन्‍ता का सवाल ही खत्‍म हो जाता है । अपने को जीना है अपने बीच अकेले रहकर । अपने माहौल में जीना है, सुन्‍दर जीवन बनाकर ।
हर व्‍यक्ति में कई गुण होते हैं, अच्‍छे रुप होते हैं, अच्‍छी समझ होती है । लेकिन हमें ध्‍यान रखना चाहिए कि हर व्‍यक्ति में अवगुण भी होते हैं, समझ की कमी भी होती है । अब देखना यह है कि हम अपने बीच कितना सुन्‍दर रुप देख पाते हैं ? हर कोई गलती भी करता है और हर कोई पश्‍चाताप भी । तभी तो कहते हैं हर व्‍यक्ति के अन्‍दर एक सॉफट कार्नर होता है, जो भावनामय है ।
**** आज हमारा समाज प्रगति के पथ पर बढता जा रहा है । समाज में जीवन जीने की शैली बदल रही है, लेकिन जयशंकर प्रसाद की अबला वहीं की वहीं है । उसकी जिम्‍मेदारी व कर्तव्‍य में जरुर परिवर्तन आये हैं किन्‍तु उसके प्रति असहनीय बोल प्रताडना व अत्‍याचार जस के तस हैं । विवाह से पहले मां बाप के संरक्षण में स्‍वावलम्‍बी लडकी के जीवन में अवश्‍य मूलभूत परिवर्तन दिखते हैं । वह जब विवाह के बाद अपने ससुराल पहुंचती है तब उसकी स्थिति वे पर पानी की बूंदों की भांति थिरकती है – कभी ससुराल वालो के दबाव में और कभी पति के दबाव में । मन मुटाव, विचारों का अनमेल होना, स्‍वभावच की विचित्रिता तो चलती है किन्‍तु प्रताडना व दुर्व्‍यवहार की कद से पार सीमा की स्थिति में क्‍या किया जाए ? अब सवाल यह है कि परिवार में सास ससुर, ननद देवर का व्‍यवहार नववधु के प्रति कटुता या व्‍यंग्‍यपूर्ण हो तो ऐसी स्थिति में क्‍लह तो होगा ही । किन्‍तु माना जाता है कि पति की समझदारी, सूझबूझ, आपसी समझौते की भावना आदि ऐसे रास्‍ते हैं जिनसे समस्‍यों का समाधान हो सकता है । किन्‍तु उसके बावजूद भी स्थिति गम्‍भीर हो जाती है तो पति पत्‍नी अलग रहकर अपनी डगमगाती जिन्‍दगी को संवार लेते हैं और बाद में थोडे समय बाद थोडे बहुत संशय के मध्‍य दुबारा से लडकी का ससुराल में आना जाना शुरु हो जाता है । किन्‍तु कई बार लडकी की किस्‍मत का पास बहुत ही उलटा हो जाता है । सुसराल के सभी सदस्‍यों के साथ साथ पति भी उनके साथ मिल जाता है । वह सात फेरों और कस्‍मे वादे भूलकर यही आदेश देने लगे – जो मेरी मां कहती है वह ठीक है और बाकी सब गलत । तब लडकी अजीब संशय में डूब जाती है । बात बात में मेरी मां, मेरी बहन, मेरे पिता कहकर अपनी पत्‍नी का अपमान करते रहने से लडकी के मन में एक किनकर्तव्‍यविमुढ की स्थिति बन जाती है । लडका अपने कर्तव्‍यों से दूर होकर मस्‍त हो जाता है । ऐसे में परिवार और विवाहित जीवन में तनाव और क्‍लेश आ जाता है । ऐसे में मासूम बच्‍चे की स्थिति का अंदाज नहीं लगाया जा सकता । नौकरी और घर की की दौड में वह भला अपने बच्‍चे की क्‍या देखभाल करेगी ? ऐसे में परिवार के लोग उस मासूम की क्‍या देखभाल करेंगे ? यदि पति भी अपने बच्‍चे के लिए अपने कर्तव्‍यों के प्रति बेरुख हो जाए तो वह स्‍त्री क्‍या करे ? कहां जाए ? क्‍या यूं ही जिन्‍दगी को तनाव और क्‍लेश के वातावरण में सहती रहे ? क्‍या वह आत्‍महत्‍या कर लें ?

क्‍या आपके आप इस समस्‍या का उत्‍तर है ?
मंजू की कलम से




एक दूसरे को समझने व समझाने से ही सभी समस्‍याओं का हल मिल सकता है । एक पक्ष अपने प्रभावशाली व्‍यक्तित्‍व द्वारा, एक अच्‍छे एवं प्रभावशाली तरीके से दूसरे को समझाए तो समस्‍यां का समाधान निकल सकता है । आपसकी एकता ही आपके कष्‍टों का, रुकावटों को दूर कर सकती है और आप सफलता पा सकते हैं । पति पत्‍नी के बीच एकता है तो कोई उन्‍हें तोड नहीं सकता । तोडने के लिए लोग आयेंगे । वे लोग कोई भी हो सकते है। । रिश्‍ते नाते, मित्र संबंधी । यदि अपने बीच ही सन्‍देह का भाव होगा तो जीवन की यात्रा कठिन हो जाएगी ।

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यह कैसे हो सकता है कि कोई आपसे हंसी मजाक करे और आपके स्‍वाभिमान पर चोट हो जाए ? यह कैसे हो सकता है कि एक बात अकेले में की जाए तो गलत नहीं है और यदि वह बात दूसरों के सामने की जाए तो आपका अपमान हो जाएगा, आपके स्‍वाभिमान पर चोट हो जाएगी ? क्‍यों जोड लेते है। हम अपने को दूसरों से ? क्‍यों इतनी परवाह करते हैं दूसरों की ? छोडों इन बातों को । बस, अपने बीच प्रेमपूर्ण भावना होनी चाहिए । दूसरे क्‍या सोचते है।, बेवकूफ हैं, उन्‍हें सोचने दो । हां, एक दूसरे को समझ दे सकते है।, अपने विचार बता सकते हैं ।
आप अवश्‍य ही उन लोगों का ज्‍यादा सम्‍मान करते हैं जो अपनी बात प्रभावपूर्ण ढंग से करते हैं, लेकिन रोब नहीं जमाते, जिद नहीं करते । आपको अवश्‍य ही उन लोगों से नफरत होगी जो अपनी जिद के बल पर सबक सिखाने की कोशिश में लगे रहते हैं । स्‍वाभाविक है कि आप उन लोगों को प्रेम नहीं कर पाते, बल्कि कभी कभी तो आपके मन में भी दूसरे को सबक सिखाने की भावना उठती होगी ? जो आपके लिए त्‍याग करता है, आप उससे भी बडा त्‍याग करने के लिए तैयार रहते हैं ।
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आग और पानी भी अपनी विशेषताए लि‍ए हुए हैं । आग का सही इस्‍तेमाल किया तो लाभ ही लाभ । आग से रोटी बनती है, जिससे हमें जीवन मिलता है । आग की गरमाहट से सर्द शरीर को राहत मिलती है । लेकिन आग का दुरुपयोग किया तो हानि ही हानि । आग के प्रति असावधानी हमें जला देती है । हमारे जीवन को समाप्‍त करने की दक्षता रखती है ।
पानी की विशेषता भी अनोखी है । प्‍यासे के लिए पानी ही जीवन है । पानी का दुरुपयोग सर्वनाश है । बाढ की स्थिति में पानी जीवन को कष्‍ट देता है ।
करंट भी अपनी अनोखी विशेषताएं लिए हुए है । ठीक से उपयोग किया तो हजारों कार्यों में उपयोगी होता है । ऊर्जा का रचनात्‍मक पक्ष है । लेकिन करंट का गलत प्रयोग, करंट के प्रति असावधानी मौत का द्वार खोल देता है । इसी प्रकार जीवन की ऊर्जा के भी दो पक्ष हैं । लोग ऊपर से कुछ और विचार रखते हैं और भीतर से कुछ और । वह विचार चाहे अपने प्रति हो या किसी दूसरे के प्रति । ऐसे कई उदाहरण हैं जिन्‍हें जानकर हम कह सकते हैं कि हम दोहरे मापदण्‍ड के शिकार हो रहे हैं । वास्‍तव में ऊपर से कुछ और भीतर से कुछ होने का एक ही कारण है और वह है झूठी प्रतिष्‍ठा । साधु लोग तो कहतेू हैं कि यह मात्र झूठी प्रतिष्‍ठा है । लेकिन हम लोगों की समझ से यह बात दूर है । झूठी प्रतिष्‍ठा के
चक्‍कर में हम फंसते ही जा रहे हैं और यह फंसना और भी अच्‍छा लगता रहा है । हम इस प्रतिष्‍ठा को पाने के लिए ही झूठ बोलते हैं । इसे झूठ कह लो या दो विचार से चलना । बाहर कुछ और भीतर कुछ । यह भी देखा गया है कि व्‍यक्ति विशेष के लिए वैसा ही बनना पडता है । जैसे कोई दोस्‍त बहुत उम्‍मीद और उत्‍साह से हमारे पास आता है तो हम न चाहकर भी हंसते हैं, मुस्‍कराते हैं, बातें करते हैं, चाहे अन्‍दर से मन कितना ही इस सबके विपरीत हो । लेकिन झूठी प्रतिष्‍ठा के लिए करना पडता है यह सोचकर कि कही दोस्‍त को बुरा न लग जाए ।
हम लोग अपने बच्‍चे को एक खास स्‍कूल में दाखिल कराने के लिए एडी चोटी एक कर देते हैं । लेकिन दूसरी ओर स्‍कूल प्रशासन को गाली भी देते हैं । फीस के खर्च, पढाई लिखाई के खर्च और परेशानियों से भी घबराते हैं, लेकिन ऊपरी तौर पर स्‍कूल की तारीफ करना नहीं भूलते ।
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हमें अपने सामाजिक जीवन में कई लोगों से मिलना होता है । हम देखते हैं कि कुछ लोगों के बातचीत करने का अंदाज इतना सुन्‍दर होता है कि शीघ्र ही वह दूसरों की निगाहों में छा जाते हैं । लेकिन साथ ही साथ हमारे हाव भाव ऐसे नहीं होने चाहिए जिससे दूसरे पर बुरा प्रभाव हो । बातचीत करते समय हमें इस बात का विशेष रुप से ध्‍यान रखना चाहिए । कई लोगों की बुरी आदत होती है कि वे बातें करते समय अपनी आंखों को कटका मटकाकर बात करेंगे । कई लोग अपने हाथों को बार बार ऊपर नीचे इस प्रकार घुमाते रहेंगे मानो बात जुबान से नहीं हाथों से हो रही हो । कई लोग दूसरों से बात करते समय या बात सुनते समय अपने पैरों को जमीन पर बजाते रहेंगे । यह सब अशोभनीय है । कई लोग बात को ध्‍यान से नहीं सुनते बल्कि अपनी धुन में गीत गुनगुनाते रहेंगे अथवा अपना ध्‍यान आसपास की चीजों को देखने में खो जाएंगे, जब उनका ध्‍यान हटाया जाए तो वे तुरन्‍त कह उठेंगे – हां, क्‍या कह रहे थे तुम ? इससे स्‍वाभाविक रुप से दूसरे पर बुरा असर होता है । हमें बातचीत करते समय अथवा बात सुनते समय इस बात का विशेष ध्‍यान रखना चाहिए कि कहीं हमारे हावभाव किसी को भददे तो नहीं लग रहे हैं ? बातचीत करते समय एकाएक जोर से अटठास लगाना, खुजली करते रहना, नाक में उगली देते रहना, अशोभनीय है ।
अकेलेपन में विचार तेजी से चलते हैं । बुरे भी, अच्‍छे भी । बुरे ज्‍यादा अच्‍छे कम । दुख को स्‍वीकार करना भी एक वरदान जैसा ही तो है ।
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झगडे की जड ज्‍यादा बोलना तो नहीं , जरा सोचिए ।
सत्‍य बोला नहीं जाता जिया जाता है ।
माफ करना सबसे बडा गुण है । क्‍या आपमें यह गुण है ? यदि नहीं तो जरा सोचिए । एक साथ सबको खुश नहीं रखा जा सकता । एक खुश है तो हो सकता है कि दूसरा खुश न हो ।
हर व्‍यक्ति अच्‍छा बनने का प्रयास करता है, अपने लिए भी और दूसरों के लिए भी । इसके लिए वह कई कार्य करता है । उसके प्रयास पूरी तरह सफल नहीं भी होते हैं और वह उन कार्यों को पूरा नहीं कर पाता है जिन्‍हें वह पूरा करना चाहता है । एक बार असफलता मिलने पर निराश हो जाता है किन्‍तु फ्‍रि प्रयास करता है । वह धीरे धीरे सफलता की ओर बढता है । सबल व्‍यक्त्वि के लिए बहुत से प्रयास करने पडते हैं । सफलता का राज है द्वढ संकल्‍प और असफलता का कारण है – मन की चंचलता या निर्बलता ।

जब तक पति पत्‍नी के बीच विश्‍वास नहीं होगा, जीवन में टकराव होते रहेंगे । समपर्ण की भावना ही दोनों को एक कर सकती है । युवतियों को अपने पति के परिवारजनों के प्रति रुचि लेनी चाहिए । यह सच है कि हमारे समाज की कुछ इस प्रकार संरचना है कि स्‍त्री को ज्‍यादा जिम्‍मेदारियां दी जाती हैं । यदि वह अपनी जिम्‍मेदारियों को पूरा कर लेती है तो उसे बहुत सम्‍मान मिलता है ।


यह अजीब दास्‍तां है कि एक स्‍त्री जब मां बनती है तो वह अपने पुत्र से बेहद प्रेम करती है । नौ माह तक अपने गर्भ में रखकर अपना भोजन खिलाती है और तब मां का खून पुत्र का खून बन जाता है । मां अपने बच्‍चे को पालती पोसती है और उसके प्रति बंध जाती है । बच्‍चा बडा हो जाता है । मां का प्‍यार धीरे धीरे कम होता जाता है । बच्‍चा बडा हो ता है तो मां अपने बच्‍चे को डांटती भी है । पीटती भी है और प्‍यार भी करती है । बच्‍चे की बडी आयु के लिए ईश्‍वर से प्रार्थना भी करती है । बच्‍चा धीरे धीरे बडा होता है तो वह अपने बच्‍चे से बहुत सी आशाएं रखती है । वह चाहती है कि उसे जो कहा जाए, वह वैसा ही करे । उसे जिस चीज से रोका जाए उसमें वह चीज में कोई रुचि न ले । लेकिन होता है विपरीत । जब तक बच्‍चा छोटा होता है वह अपनी मां का हर कहा मानता है । लेकिन जैसे जैसे उसकी बुदिध का विकास होता है, बच्‍चा अपनी समझ के मुताबिक काम करता है । तब स्थिति विडम्‍बनापूर्ण हो जाती है । मां अपने में पक्ष में और पुत्र अपने पक्ष में तर्क देते हैं । तब मां अपने बच्‍चे से नफरत करने लगती है । तब मां का नफरतभरा चेहरा देखकर बच्‍चा भी अपने बीच विवदास्‍पद स्थिति पाता है । वह मां का कहना मानना तो चाहता है किन्‍कतु अपनी समझ के मुताबिक भी चलना चाहता है । जब दोनों के विचार भिन्‍न होते हैं तो स्थिति बदतर होती जाती है । तब मां सोचती है – बेटा बदल गया है । बेटा भूल गया है मां के प्रति अपने फर्ज को । इधर बेटा सोचता है – मां बदल गई है । पहले कितना प्‍यार करती थी, कितना चाहती थी, अब इतनी नफरत । मां सोचती है बेटा बदल गया है । मां एक दोहरेपन के भाव में व्‍यवहार करती है, इधर बेटा भी । मां बेट की शादी भी करना चाहती है, लेकिन अपनी मर्जी के अनुसार । बेटा अपनी मर्जी चाहता है । पुन विचारों का तकराव । तत्‍पश्‍चात एक पक्ष बात को मान लेता है । पुत्र का विवाह हो जाता है । अब प्रेम की यात्रा आगे बढती है । पुत्र अपनी पत्‍नी से प्रेम करता है । मां इस सत्‍य को स्‍वीकार नहीं कर पाती । वह अपने भावों द्वारा बाधा उत्‍पन्‍न करती है । पत्‍नी यह सब स्‍वीकार नहीं कर पाती । फलत सास बहू में झगडा शुरु हो जाता है । ****


दो व्‍यक्तियों के संबंध अवश्‍य ही विषाद रुप उत्‍पन्‍न करते हैं । यदि दोनों ही इस सत्‍य को स्‍वीकार कर चलें तो दुख व विषाद की मात्रा कुछ कम हो सकती है । संबंधों की जितनी ज्‍यादा प्रगाढता होगी, जितनी ज्‍यादा निकटता होगी उतने ही ज्‍यादा संबंध कटुता से भरे होंगे । जहां दो व्‍यक्तियों के बीच निकट संबंध होने पर अधिक प्रेम, अधिक सहयोग,अधिक अपनापन दिखता है, वह कटुता भी उसी मात्रा में होती है । खूनी रिश्‍तों के बीच भी कटुता पैदा होती है । संबंध कृत्रिमता से भरे भी होते हैं । संबंधों का अर्थ है एक समझौता । सबंधों की प्रगाढता के बीच कोई स्‍थायित्‍व नहीं होता, कोई गारन्‍टी नहीं होती । स्‍थायी कहे जानेवाले संबंध भी एक ही झटके में टूटकर बिखर जाते हैं । एक ही पल में प्रेम घृणा में बदल जाती है और घृणा प्रेम में । संबंधों के बीच एक ही चीज महत्‍वपूर्ण होती है और वह है स्‍वार्थपरता । हर कोई कहीं न कहीं आधारिक रुप से स्‍वार्थी होता है । यह दूसरी बात है कि स्‍वार्थ में गुणवता और मात्रा में अंतर हो । दो व्‍यक्तियों के बीच जो संबंध हैं हो सकता है उनमें फर्ज, करुणा के नाम देकर संबंधों की पवित्रता को बनाए रखने के लिए प्रयास करता हो व दूसरा भले ही कम समझकर संबंधों को जारी रखता हो लेकिन इतना तो स्‍पष्‍अ है कि ऐसे संबंध एक ही झटके में टूटने की भी क्षमता रखते हैं । भले ही प्रंत्‍यक्ष रुप से संबंध न टूटें । संबंधों के बीच दीवारे और दरारे आ जाती हैं । पवित्रता और प्रेम का दावा करने वाला भी अपवित्रता और घृणा से भर उठता है । क्‍या संबंधों की प्रगाढता हमेशा दुखदायी होती है ? क्‍या हर संबंध के बीच स्‍वार्थपरता होती है ? क्‍या संबंधों के बीच से निस्‍वार्थ भावना उत्‍पन्‍न नहीं हो सकती ? क्‍या संबंधों में प्रेम और घृणा दोनों ही तत्‍व नहीं होते ? यह कैसे किस तरह कहा जा सकता है कि संबंध स्‍वार्थपरता से भरे हुए होते हैं ? क्‍या संबंध नहीं होने चाहिए ? स्‍वच्‍छ भावना से प्रेरित संबंध कैसे बनाए जा सकते हैं ? बहुत से प्रश्‍न हैं जिनका उत्‍तर खोजना होगा हर किसी को । *****


पहले आकषर्ण, फ्‍रि बातचीत,फ्‍रि मुलाकातोंका सिलसिला और फ्‍रि बढता प्रेम और उसके बाद मधुर यादें और फ्‍रि मस्तिष्‍क में एक चित्र और फ्‍रि ह्दय में याद और फ्‍रि ह्दय में एक चित्र और फ्‍रि जीवनभर एक होने की कल्‍पना । जीवन भर साथ रहने का अर्थ है – विवाह । यानि प्रेम विवाह । यह सब होता है स्‍वाभाविक और निरन्‍तर । विवाह के लिए निर्णय अपना होते हुए भी मां बाप का निर्णय जरुरी समझा जाता है । उनकी स्‍वीकृति मिली तो सब कुछ, किन्‍तु उनकी स्‍वीकृति न होने पर एक प्रश्‍नचिन्‍ह खडा हो जाता है । अब क्‍या करें । जिद । अपनी बात पर अटल रहकर । मनाने की भरपूर कोशिश । हर तरह के प्रयास । आखिरी दम तक । बाहरी सभी झूठी मान्‍यताओं का कडा विरोध । संघर्ष । अपनी सामाजिक मर्यादा के बीच । एक एक सीढी और फ्‍रि मंजिल पर । दो तरीके हैं – एक एक सीढी चढेंगे या फ्‍रि लिफट के रास्‍ते से । एक दो मिनट में ही मंजिल पर । हां, लिफट की लाइट नहीं जानी चाहिए । एक एक सीढी चढने से देर भले ही हो, लेकिन मंजिल पर अवश्‍य पहुंचा जा सकता है । हां, पावों में भी दम होना चाहिए । अपने अन्‍दर साहस होना चाहिए ।


समझ की कमी और अंहकार



पारिवारिक झ्‍गडे होते हैं समझ की कमी और अंहकार की वजह से । समझ्‍ की कमी जहां झगडे का कारण्‍ बनता है वहां अंहकार उस झ्‍गडे को और आगे बढाता है । एक के कहे गए कुछ शब्‍द पसन्‍द नहीं आते दूसरा तुरन्‍त झगडा करने पर उतारु हो जाता है । सभी अपने को दोष न देकर दूसरे को दोषी मानते हैं । जब तक जीवन में ध्‍यान नहीं घटता ऐसी स्थिति बनी रहती है । अत- जरुरत है ध्‍यान की । यदि ध्‍यान और मौन में रहने का प्रयास किया जाए तो हम अंहकार और परेशानी से दूर हो सकते हैं ।

बच्‍चे कहना नहीं मानते



अनुभव बताता है कि कोई भी किसी की भी बात सुनने को तैयार नहीं होता । हर व्‍यक्ति अपने को बेहद समझदार समझता है । कुछ लोग तो अपने को प्रक्टिकल होने का दावा करते हैं । वैसे यह सत्‍य है कि जहां दावा किया जाता है वहां कहीं न कहीं कमजोरी अवश्‍य होती है । हर व्‍यक्ति  गलतियों से भरा होता है और वह तभी दूसरे की बात मानने को तैयार होता है जब पहले उसे कुछ महत्‍व दिया जाए अथवा उसकी सोच का समर्थन किया जाए । बिना जरुरत के किसी को कोई सलाह दी जाए तो वह उसका महत्‍व नहीं समझता । यहीं कारण है कि बच्‍चे हमारा कहना नहीं मानते । माता पिता अपना अनुभव थोपते रहते है । बच्‍चे अपने अनुभव से सीखना चाहते हैं । होना तो यह चाहिए कि व्‍यक्ति जीवन की सभी अच्‍छी और महत्‍व की बातों को सुने और पढे और समय आने पर उनका उपयोग करे । लेकिन ज्‍यादातर लोग जब सिर पर आ पडती है तब उन बातों का हल खोजते हैं । कई लोग तो अपना नुकसान करके सीखते है ।

बदलाव बुरा नहीं होता



परिस्थितियां आदमी को बदलती रहती हैं । जो आज ठीक लग रहता है हो सकता है कल गलत लगे और इसी प्रकार जो आज गलत लग रहा है हो सकता है कल ठीक लगे । बदलाव बुरा नहीं होता लेकिन बदलाव रचनात्‍मक होना चाहिए । कई बार हम लोग देखते हैं कि कई बार परिस्थितिवश लोग उलटी सोच में नाकारात्‍मक सोच वाले बन जाते है और नकारात्‍मक सोच से व्‍यक्ति का अपना ज्‍यादा नुकसान होता है दूसरे का कम ।

जीवन में सत्‍य क्‍या है



एक बात जो देखी गई है वह यह है कि यदि व्‍यक्ति का मन कमजोर है तो सब कुछ रंगहीन दिखता है । अपनी हिम्‍मत हारने पर बडे बडे पद, प्रसिदधि और बडे बडे मकान, सुविधाएं सारहीन हो जाती है । ऐसा लगता है मानो सुख और खुशी जिसे हम अपना समझते हैं, वह मात्र अपने मन का पाजिटिव खेल है, इससे ज्‍यादा कुछ नहीं । नेगेटिव होना पाजिटिव होना एक खेल है इससे ज्‍यादा कुछ नहीं । जीवन में सत्‍य क्‍या है । जीवन में जिस प्रकार नेगेटिविटी बढती जा रही है उसे देखकर तो ऐसा ही लगता है आदमी जितनी बडी छलांग लगाता है, रुपया कमाता है सब व्‍यर्थ हो जाता है यदि जीवन के यथार्थ को सही मायने में नहीं जाना ।