देखा जाता है कि बहू नये घर में आते ही अपने को बंधन में महसूस करती है । उसे बार बार लगता है कि यह मेरा घर नहीं है । उसे अपने मां बाप का घर ही अपना घर लगता है । ऐसे में यदि नए घर में जब तक हंसी खुशी का माहौल रहता है, वह खुश रहती है और जब थोडा सा किसी गलती पर डांट दिया जाता है तो उसकी सहनशीलता का दिवाला निकल जाता है । वह गुस्से में आ जाती है और घर में बवाल खडा कर देती है । न ठीक से बात करना, न खाना पीना, न हंसना हंसाना, वह जैसे घर में अपनी प्रधानता स्थापित करना चाहती है । वह भूल जाती है कि मेरे मां बाप भी तो मुझे डांटते थे, इन्होंने डांट दिया तो क्या हुआ । मेरी नई बहू स्वीकार नहीं कर पाती । यहीं से शुरु होता है पारिवारिक झगडा । पत्नी छोटी छोटी बात को पति के सामने नमक मिर्च लगाकर करती है, पति पहले तो अनदेखा करता है और झगडों पर समझ के लिए प्रेरित करता है । यदि लडके ने मां बाप का पक्ष लिया तो कहानी और भी बिगड जाती है । तब बहू कहती है अत्याचार हो रहा है, मैं दहेज कम लायी, दहेज की मांग की जा रही है, ये मुझे मार डालेंगे । हजारो शिकायतें । वह बहू जब मायके जाती है तो खूब बढा चढाकर कर अपना छोटा सा दुख अपने मां बाप को लम्बा चौडा करके बताती है । लडकी के मां बाप भी अपनी बेटी को सिखाते पढाते हैं कि तुम्हें क्या करना चाहिए । यह बचकानापन है । तभी तो कहते हैं विवाह कोई गुडडे गुडडी का खेल नहीं है । एक जिम्मेवादी है । दो परिवारों की आपसी समझ या नासमझ का परिणाम भुगतना ही पडता है ।
इसलिए मेरा मानना है कि युवतियों को विवाह के लिए हां कहने से पहले यह सोच लेना चाहिए कि वह किसी दूसरे माहौल में जा रही है जहां अपने को एडजस्ट करना जरुरी है भले ही उसे अपनी मजबूरी मान ले । अपने व्यक्त्वि में कुछ ऐसे गुण लाने होंगे जो उसके अपने पक्ष में जाते हो । उसे नये माहौल में ढलना ही होता है । उसे नये घर की परम्पराओं को सहज स्वीकार करना ही होता है । ये है समाज के नियम, समाज की व्यवस्था, जो कटु हैं किन्तु सत्य हैं ।
Tuesday, August 10, 2010
स्त्री स्वयं ही अपनी शत्रु है । वह अपने को पूर्ण नहीं समझती है । वह पुरुष वर्ग के प्रति हमेशा सन्देह की नजर रखती है और बिना पुरुष के अपने को अधूरा समझती है । ऐतिहासिक नजर से देखाजाए तो पता चलता है कि पुरुष वर्ग ने स्त्री वर्ग को हमेशा दबाकर ही रखा है । उस पर हमेशा अत्याचार ही किए हैं । सती प्रथा, बाल विवाह, कन्या वध, विधवा का बंदिश भरा जीवन, पुरुषों का स्त्री को भोग की वस्तु समझना, दहेज प्रथा, वेश्यावृति और स्त्री की खरीद फरोत आदि हजारों तरीकों से दबाया गया । स्त्री की शिक्षा, आर्थिक साधन, समाज में स्थान, प्रगति के अवसर ऐसा कुछ भी नहीं किया गया जिससे स्त्री अपने प्रति न्याय कर सके । शायद यही कारण हैं कि आज भी स्त्री डरी हुई है । परदा प्रथा और बलात्कार जैसी बुराईयां भी स्त्रियों के बारे में हैं । लेकिन मजेदार बात तो यह है कि स्त्रियों की दशा गिराने में पुरुष वर्ग का हाथ है तो स्त्रियों को ऊंचा उठाने में भी पुरुषों का हाथ होता रहा है । अपने आप उठना उनके लिए कठिन रहा है । यही कारण है कि पुरुष ने हमेशा स्त्री की दुर्बलता का लाभ उठाया है । लेकिन स्त्री सिर्फ यही याद रखती है कि पुरुष ने नीचे गिराया लेकिन वह भूल जाती है कि पुरुष ही उसे ऊपर उठाता रहा है ।
फ्रि भी यह संसार चलताहै और चलता ही रहेगा । बिना स्त्री के पुरुष अधूरा है और बिना पुरुष के स्त्री । क्योंकि स्त्री और पुरुष का जन्म दोनों के संगम से ही होता है । दोनों के बीच की यह कशमकश चलती रहेगी । फ्रि भी स्त्री पुरुष के प्रति और पुरुष स्त्री के प्रति आसक्त ही रहेंगे । दोनों एक दूसरे से प्रेम भी करते हैं और नफरत भी । दूसरी बात, चारों ओर एक ऐसी राजनीति चल रही है जिस देखकर बहुत ही अचरज होता है । प्रत्येक परिवार में, समाज में और प्रत्येक देश में हर स्तर पर हर कोई एक दूसरे से राजनीति खेल रहा है । जो जितनी कुशलता से राजनीति खेलता है वह उतना ही कामयाब रहता है ।
फ्रि भी यह संसार चलताहै और चलता ही रहेगा । बिना स्त्री के पुरुष अधूरा है और बिना पुरुष के स्त्री । क्योंकि स्त्री और पुरुष का जन्म दोनों के संगम से ही होता है । दोनों के बीच की यह कशमकश चलती रहेगी । फ्रि भी स्त्री पुरुष के प्रति और पुरुष स्त्री के प्रति आसक्त ही रहेंगे । दोनों एक दूसरे से प्रेम भी करते हैं और नफरत भी । दूसरी बात, चारों ओर एक ऐसी राजनीति चल रही है जिस देखकर बहुत ही अचरज होता है । प्रत्येक परिवार में, समाज में और प्रत्येक देश में हर स्तर पर हर कोई एक दूसरे से राजनीति खेल रहा है । जो जितनी कुशलता से राजनीति खेलता है वह उतना ही कामयाब रहता है ।
Sunday, August 8, 2010
एक राज की बात बताऊं ? जब आपको लगे कि आप दूसरों की नजरों में असफल हो रहे हैं या दूसरों में प्रिय नहीं हो रहे हैं तो तैयार हो जाइए और कुशल कूटनीति से काम लेने की सोच लीजिए । दूसरों के हृदयों में एक सफल व्यक्त्वि की छाप छोडने के लिए पहला सूत्र है अपने को रिजर्व रखो और इतना ज्यादा रिजर्व रखो कि दूसरा आपसे मिलने के लिए लालायित हो उठे । दूसरा मीठी मीठी बातें कीजिए, उसकी तारीख कीजिए यानि झूनझूना दीजिए । जैसे किसी बच्चे को मनाने के लिए झूनझूना दिया जाता है । खुब तारीफ करें । सभी खुश । ----- तुम ठीक कह रहे हो । देखेंगे आपके घर परिवार, मित्र बंधु,अधिकारी, आपके ग्राहक, आपके साथी सभी खुश हैं । अपने व्यक्त्वि को बदल डालो और ढल जाओ समय के साथ । अपना सिर्फ अपने तक रखो । अपने दुखडे मत बताओं क्योंकि किसी के पास इतना समय नहीं है कि वह तुम्हारा दुखडा सुने । हां, दूसरों के दुखों में साहनुभूति दें और उत्साह बढाएं । आप जल्दी ही लोगों में प्रिय हो जाएंगे ।
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मै देखता हूं कि जीत उसी की होती है जो आरोप लगाता है । उसका पलडा भारी ही रहता है जो दूसरे पर आरोप लगाता रहे । तब दूसरे का पलडा हल्का हो जात है जो केवल सुनता रहता है । यदि मैं आरोप सुनता रहता हूं अपनी बुराईयों को सहता रहता हूं तो धीरे धीरे दूसरे के दिल में मेरे पेति एक असफल व्यक्त्वि की छवि सी हो जाएगी । आप कभी भी न मानें कि आपमें कोई कमी है । जो कमी है दूसरे में है । पत्नी पर जीत पानी है तो पत्नी को डांटते रहें, उसकी कमियां निकालते रहें और यदि आपने ऐसा नहीं किया तो आपकी पत्नी आपकी कमियां निकालती रहेगी और आपको डांटती रहेगी ।
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आप अपनी बातों के बल पर किसी को प्रेमपूर्ण नहीं बना सकते । यदि बना भी लिया तो वह स्थायी रुप में नहीं रहेगा । स्थायी रुप से प्रेमपूर्वक होना है तो स्वयं अपने बीच परिवर्तन लाना होगा । दूसरा मात्र तो साधन है, साध्य तो व्यक्ति स्वयं ही है । सारे संसार को बदलने से बेहतर है अपने को बदल लेना ।
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मै देखता हूं कि जीत उसी की होती है जो आरोप लगाता है । उसका पलडा भारी ही रहता है जो दूसरे पर आरोप लगाता रहे । तब दूसरे का पलडा हल्का हो जात है जो केवल सुनता रहता है । यदि मैं आरोप सुनता रहता हूं अपनी बुराईयों को सहता रहता हूं तो धीरे धीरे दूसरे के दिल में मेरे पेति एक असफल व्यक्त्वि की छवि सी हो जाएगी । आप कभी भी न मानें कि आपमें कोई कमी है । जो कमी है दूसरे में है । पत्नी पर जीत पानी है तो पत्नी को डांटते रहें, उसकी कमियां निकालते रहें और यदि आपने ऐसा नहीं किया तो आपकी पत्नी आपकी कमियां निकालती रहेगी और आपको डांटती रहेगी ।
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आप अपनी बातों के बल पर किसी को प्रेमपूर्ण नहीं बना सकते । यदि बना भी लिया तो वह स्थायी रुप में नहीं रहेगा । स्थायी रुप से प्रेमपूर्वक होना है तो स्वयं अपने बीच परिवर्तन लाना होगा । दूसरा मात्र तो साधन है, साध्य तो व्यक्ति स्वयं ही है । सारे संसार को बदलने से बेहतर है अपने को बदल लेना ।
जीवन में भी अजीब विडम्बनाएं हैं । थोडी थोडी देर बाद विचार बदलते रहते हैं, धारणाएं बदलती रहती हैं । कभी हम खुश हो जाते हैं और कभी उदास । जब खुश होते हैं तो जीवन को अच्छा मानते हैं और जब दुखी होते हैं तो हर चीज से नफरत करते हैं । देखनेवाली बात यह है कि यह सब हमारे भीतर से घटता है ।
हम जीवन की इस अजीब विडम्बना में खो जाते हैं । कभी परेशान होते हैं तो कभी खुश । कभी कभी जीवन में सब कुछ अच्छा लगता है और कभी कभी सब कुछ बेकार । ****
जीवन के अनुभवों में एक चीज बहुत ही महत्वपूर्ण देखी है और वह है विचारों का चलना । विचार इस तीव्र गकति से चलते रहते हैं कि उन विचारों को ध्यानपूर्वक देखने पर सही स्थिति का पता नहीं चलता । ज्यादातर विचार घिनौने,अव्यवहारिक,दुष्ट और भय से पीडित हैं । बहुत से ऐसे दुष्ट विचार हैं जो हम दूसरों के सामने पेश नहीं करते लेकिन अन्दर समाए रहते हैं । ऐसा भी नहीं है कि अन्दर सरल, सुन्दर व व्यावहारिक विचार न हों, हैं, रचनात्मक विचार भी होते हैं, लेकिन वे भीतर ही रहते हैं । कुछ विचार ऐसे भी हैं जो समय स्थिति के अनुसार अपना रुख बदलते रहते हैं । इंतजार करते हैं सही समय का । और इस सही समय की इंतजार में विचार और भी तीव्र गति से चलते हैं । किसी बात के लिए गुस्सा आ रहा हो तो अन्दर कई प्रकार के विचार उठेंगे । इससे पहले कि हम अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करें, यह जानना चाहेंगे कि गुस्सा क्यों आया ? साफ जाहिर हैै कि जरुर ऐसी कोई बात कह दी गई जिससे सुनने के लिए हम बिल्कुल तैयार नहीं थे ।जरुर कोई ऐसा कृत्य किया होगा जिसे सुनकर अथवा देखकर अन्दर अपेक्षाओं का महल कटूट रहा साबित हो रहा हो । अगर आप मुझे कहते हो – नहीं, मैं तुम्हें आज नहीं मिल सकूंगा । मुझे कहीं और जाना है । ऐसी स्थिति में मैंने सोचा होगा कि तुम मेरे कहने पर मेरे साथ जरुर चलोगे, मेरा कहा मानोगे और वास्तव में आपने चलने से इंकार कर दिया तो मेरे अन्दर एक प्रतिक्रिया होगी । मैं मन ममोसकर रख जाऊंगा । लेकिन ध्यान से देखें तो पता चलता है कि मेरे अन्दर उस समय आप के प्रति वह सरल और मधुर भावना नहीं रह जायेगी जो घटना से पूर्व थी ।
हम जीवन की इस अजीब विडम्बना में खो जाते हैं । कभी परेशान होते हैं तो कभी खुश । कभी कभी जीवन में सब कुछ अच्छा लगता है और कभी कभी सब कुछ बेकार । ****
जीवन के अनुभवों में एक चीज बहुत ही महत्वपूर्ण देखी है और वह है विचारों का चलना । विचार इस तीव्र गकति से चलते रहते हैं कि उन विचारों को ध्यानपूर्वक देखने पर सही स्थिति का पता नहीं चलता । ज्यादातर विचार घिनौने,अव्यवहारिक,दुष्ट और भय से पीडित हैं । बहुत से ऐसे दुष्ट विचार हैं जो हम दूसरों के सामने पेश नहीं करते लेकिन अन्दर समाए रहते हैं । ऐसा भी नहीं है कि अन्दर सरल, सुन्दर व व्यावहारिक विचार न हों, हैं, रचनात्मक विचार भी होते हैं, लेकिन वे भीतर ही रहते हैं । कुछ विचार ऐसे भी हैं जो समय स्थिति के अनुसार अपना रुख बदलते रहते हैं । इंतजार करते हैं सही समय का । और इस सही समय की इंतजार में विचार और भी तीव्र गति से चलते हैं । किसी बात के लिए गुस्सा आ रहा हो तो अन्दर कई प्रकार के विचार उठेंगे । इससे पहले कि हम अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करें, यह जानना चाहेंगे कि गुस्सा क्यों आया ? साफ जाहिर हैै कि जरुर ऐसी कोई बात कह दी गई जिससे सुनने के लिए हम बिल्कुल तैयार नहीं थे ।जरुर कोई ऐसा कृत्य किया होगा जिसे सुनकर अथवा देखकर अन्दर अपेक्षाओं का महल कटूट रहा साबित हो रहा हो । अगर आप मुझे कहते हो – नहीं, मैं तुम्हें आज नहीं मिल सकूंगा । मुझे कहीं और जाना है । ऐसी स्थिति में मैंने सोचा होगा कि तुम मेरे कहने पर मेरे साथ जरुर चलोगे, मेरा कहा मानोगे और वास्तव में आपने चलने से इंकार कर दिया तो मेरे अन्दर एक प्रतिक्रिया होगी । मैं मन ममोसकर रख जाऊंगा । लेकिन ध्यान से देखें तो पता चलता है कि मेरे अन्दर उस समय आप के प्रति वह सरल और मधुर भावना नहीं रह जायेगी जो घटना से पूर्व थी ।
मैंने हमेशा तर्क का विरोध किया है । तर्क के द्वारा तो किसी को भी हराया जा सकता है और किसी को भी जीत दिलायी जा सकती है । एक आदमी को लोग बुरा कहते हैं, तर्क के बल पर हम उसे गुणी सिदध कर सकते हैं । एक असंतोषी् परेशान्,तनावग्रस्त और असफल समझे जाने वाले व्यक्ति को तर्क के द्वारा एक आशा की किरण दी जा सकती है और घोषित किया जा सकता है । उनके आदर्शवाद को एक झूठ व अंहकार का रुप दिया जा सकता है । बार बार अपने अंहकार का सहारा लेनेवचालों को तोडने के लिए तर्कों से गिराना बहुत आसान है । ऐसा कौन सा व्यक्त्वि है जिसमें अच्छाई या बुराई नहीं देखी जा सकती ? विवाद के बाद भी पति पत्नी तर्कों के बल पर जीवन की गाडी चलाते देखे गये हैं । यदि पति का तर्क मजबूत हुआ तो वह अपने को ठीक और पत्नी को गलत साबित कर देता है और यदि पत्नी तेज हुई तो वह तर्कों का जाल बुनकर और पिछली घटनाओं को जोडकर अपना पक्ष मजबूत कर लेती है और पति के पक्ष को दबा देती है । तर्कों की कोई सीमा नहीं है । कोई मापदण्ड नहीं है । यदि एक अपनी प्रभावशाली बातों से, भाषणों से किसी को बेजुबान कर देता है तो तुम उसे कभी सच मत समझ लेना । हां, जो केवल तुम्हारे तर्कों को सुनता रहे तो उसे भी सच मत समझना । बस यही समझना कि इस वक्त उसका तर्क भारी है, और मेरा कमजोर या मेरा तर्क भारी है , उसका कमजोर । तर्कों से भी समस्या के हल हुए है आज तक ? शायद नहीं । हां, क्षणिक हल निकले हैं, लेकिन स्थायी हल नही निकल पाते । स्थायी हल तो निकल सकते हैं – मौन के स्वर में । मौन में ही अपने तथा दूसरे को सुना जा सकता है । अक्सर मुझसे पूछा जाता है तनाव से कैसे बचे ? मैं उन्हें कहता हूं क्यों तुम तनाव में जाते हो ? क्यों ऐसे कार्य करते हो जिससे तुम तनावग्रस्त होते हो । कोई किसी को तनावग्रस्त नहीं कर सकता । आदमी खुद जाता है तनाव में । दूसरे यह सच है कि व्यक्ति तनाव में जाना तो नहीं चाहता लेकिन भूलवश चला ही जाता है । तो इसका एक हल है वहां भी जाएं जहां एक शांति का अहसास होता है । अपने को मौन में, ध्यान में और रचनात्मक कार्यों में लगाएं । धीरे धीरे तनाव कम हो जाता है । कुछ लोग कहते है करने से क्या नहीं हो सकता । यदि आदमी चाहे तो वह सब कुछ कर सकता है जो उसकी क्षमताएं हैं । एक बात तो स्पष्ट है कि आदमी में क्षमताएं होते हुए भी वह सब कार्य नहीं कर पाता है जो वह करना चाहता है । हां, अपनी क्षमताओं का सही मायने में प्रयोग किया जाए तो काफी कुछ कर सकता है, चाहे वह सब कुछ नहीं भी कर सके ।
इंसान अपनी एक अपेक्षा पूरी न होने से ही अपना रुख बदलने लगता है । मजेदार बात तो यह है कि इस प्रतिक्रिया पर भी एक क्रिया फ्रि से होगकी । वह यह है कि अगर आपने उससे अगले दिन मेरी किन्हीं एक दो बातों को मान लिया वैसा ही किया जैसे मैंने सोचा था, अपेक्षा की थी तो मेरे अन्दर एक क्रिया होगी और मैं अब कल की तरह रुखा रुखा व कटा कटा सा पेश नहीं आऊंगा । इस घटना कामहत्व कम होता होता एक दिन खत्म भी हो जाएगा । अर्थात, यह उसी प्रकार है जैसे हमें कहीं चोट लग जाती है या बुखार हो जाता है तो हम दवाई लेते हैं और चोट अथवा बुखार समाप्त हो जाता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि हमारे कई ऐसे विचार है जो समय के अनुसार बदलते रहते हैं । ज्यादातर विचार तो दूसरों के विचारों और कार्यों के आधार पर ही बदलते हैं । कोई हमारे प्रति अच्छा व्यवहार करता है तो हम भी उसके प्रति अच्छा व्यवहार करने लगते हैं और कोई बुरा व्यवहार करता है तो हम भी बुरा व्यवहार करने लग जाते हैं । हां, इस बारे में कुछ अपवाद भी मिल सकते हैं लेकिन यह वाद प्रतिवाद की स्थिति ज्यादा देर तक नहीं रुकती है । एक दो बार चाहे न हो लेकिन इतना जरुर है कि जल्दी ही प्रतिक्रिया होगी । ठीक वैसे ही समझ सकते हैं कि पहले पानी गरम होता रहता है लेकिन जब 100 सेंटीग्रेड तक पहुंच जाता है तो तेजी से उबलना शुरु कर देता है । रहस्य की बात तो यह है कि मैंने बहुत ही करीब से देखा है कि लोगों का प्रेम भी विचारों के आधार पर चल रहा है । दो मित्रों का,दो भाईयों का, पति पत्नी का या और किसी का । अगर एक पक्ष दूसरे पक्ष के प्रति सम्मान की भावना रखता है तो दूसरा स्वयं ही सम्मान रखने की बजाए उत्तर में अपमान करता है तो सम्मान करने वाला और बहुत सी तारीफ करने वाला पक्ष बहुत ही तीव्र गति से उसका अपमान करना शुरु कर देता है जिसका थोडी देर पहले ही सम्मान कर रहा होता है । जैसे सम्मान नहीं हो, एक व्यापार हो, एक हाथ ले, एक हाथ दे । एक बात और देखी है । वह यह है कि ज्यादातर हम लोग ऊपर से कुछ विचार रखते हैं और भीतर कुछ और । वे विचार चाहे अपने प्रति हो या दूसरों के प्रति । दोहरे मापदण्ड के शिकार है हम लोग ।
इतना तो सच है कि हर व्यक्ति जीवन के किसी न किसी मोड पर भावुक हो जाता है । भले ही बाद में भावुकता पीडित करती है । भावुकता के क्षणों में नेगेटिव विचारों की दौड चलती रहती है । यह भावुकता ठीक नहीं । तो क्या भावुकता छोडकर कठोर हो जाए ? यदि भावुकता का विपरीत कठोरता नहीं तो क्या है ? मैंने सुना है ठोकर खाने पर ही पता चलता है कि चोट क्या है । जब तक व्यक्ति को स्वयं सही राह का ज्ञान न हो जाए, तब तक वह व्यक्ति राह पर आता ही नहीं है । यह विडम्बना ही है । कहा तो यह जाता है कि बडी उम्रवाले लोग समझदार होते हैं लेकिन देखा है कि यह तथ्य पूर्णत सत्य नहीं है । बडी उम्रवाले भी बेवकूफ हो सकते हैं । छोटी उम्रवाले समझदार भी होते हैं । किसी का मार्गदर्शन किया और वह यह सोचे कि दूसरा अपने जीवन में परिवर्तन ले आएगा, तो ऐसा सोचना भूल होगी । व्यक्ति तब तक परिवर्तन नहीं ला सकता जब तक कि व्यक्ति खुद बदलने की न सोचे । यदि कोई किसी के कहने समझाने मात्र से ही अपने को बदलने लगता तो आज संसार में चारों ओर जो अशांति व तनाव है, वह न होता । चारों ओर तोडफोड, मारकाट मची हुई है । क्या वे नहीं जानते कि विध्वंशात्मक कार्य हानिकारक है । कहते हैं जो होना है वह होता ही है । यदि मैं इस पर विश्वास करुं तो मुझे अपने पर ही दुख होगा । सब कुछ करने से नहीं होता है तो इतना भी सत्य है कि बहुत कुछ करने से होता है बशर्ते कि हमारे बीच हृदय परिवर्तन का भाव हो । ****
गांधी का पढा और गांधी की महानता देखकर द्रवित हो उठा । सत्याग्रह के विषय में दो लाइन लिखूंगा – सत्याग्रही को अपने ऊपर बडा संयम रखना चाहिए तथा विरोधी की किसी बात पर भी उत्तेजित नहीं होना चाहिए । उसे विरोधी द्वारा पहुंचाए गए आर्थिक नुकसान अथवा शारीरिक पीडा को सहन कर लेना चाहिए । यहां तक कि यदि मृत्यु का वरण करना पडे तो वह भी स्वीकार्य है । केवल आत्म सम्मान पर आघात को छोडकर उसे अन्य सभी प्रकार की हानि सहन करनी चाहिए जब तक कि आत्म पीडन के द्वारा वह विरोधी का हृदय परिवर्तन करने में सफल न हो जाए ।
गांधी का पढा और गांधी की महानता देखकर द्रवित हो उठा । सत्याग्रह के विषय में दो लाइन लिखूंगा – सत्याग्रही को अपने ऊपर बडा संयम रखना चाहिए तथा विरोधी की किसी बात पर भी उत्तेजित नहीं होना चाहिए । उसे विरोधी द्वारा पहुंचाए गए आर्थिक नुकसान अथवा शारीरिक पीडा को सहन कर लेना चाहिए । यहां तक कि यदि मृत्यु का वरण करना पडे तो वह भी स्वीकार्य है । केवल आत्म सम्मान पर आघात को छोडकर उसे अन्य सभी प्रकार की हानि सहन करनी चाहिए जब तक कि आत्म पीडन के द्वारा वह विरोधी का हृदय परिवर्तन करने में सफल न हो जाए ।
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