इतना तो सच है कि हर व्यक्ति जीवन के किसी न किसी मोड पर भावुक हो जाता है । भले ही बाद में भावुकता पीडित करती है । भावुकता के क्षणों में नेगेटिव विचारों की दौड चलती रहती है । यह भावुकता ठीक नहीं । तो क्या भावुकता छोडकर कठोर हो जाए ? यदि भावुकता का विपरीत कठोरता नहीं तो क्या है ? मैंने सुना है ठोकर खाने पर ही पता चलता है कि चोट क्या है । जब तक व्यक्ति को स्वयं सही राह का ज्ञान न हो जाए, तब तक वह व्यक्ति राह पर आता ही नहीं है । यह विडम्बना ही है । कहा तो यह जाता है कि बडी उम्रवाले लोग समझदार होते हैं लेकिन देखा है कि यह तथ्य पूर्णत सत्य नहीं है । बडी उम्रवाले भी बेवकूफ हो सकते हैं । छोटी उम्रवाले समझदार भी होते हैं । किसी का मार्गदर्शन किया और वह यह सोचे कि दूसरा अपने जीवन में परिवर्तन ले आएगा, तो ऐसा सोचना भूल होगी । व्यक्ति तब तक परिवर्तन नहीं ला सकता जब तक कि व्यक्ति खुद बदलने की न सोचे । यदि कोई किसी के कहने समझाने मात्र से ही अपने को बदलने लगता तो आज संसार में चारों ओर जो अशांति व तनाव है, वह न होता । चारों ओर तोडफोड, मारकाट मची हुई है । क्या वे नहीं जानते कि विध्वंशात्मक कार्य हानिकारक है । कहते हैं जो होना है वह होता ही है । यदि मैं इस पर विश्वास करुं तो मुझे अपने पर ही दुख होगा । सब कुछ करने से नहीं होता है तो इतना भी सत्य है कि बहुत कुछ करने से होता है बशर्ते कि हमारे बीच हृदय परिवर्तन का भाव हो । ****
गांधी का पढा और गांधी की महानता देखकर द्रवित हो उठा । सत्याग्रह के विषय में दो लाइन लिखूंगा – सत्याग्रही को अपने ऊपर बडा संयम रखना चाहिए तथा विरोधी की किसी बात पर भी उत्तेजित नहीं होना चाहिए । उसे विरोधी द्वारा पहुंचाए गए आर्थिक नुकसान अथवा शारीरिक पीडा को सहन कर लेना चाहिए । यहां तक कि यदि मृत्यु का वरण करना पडे तो वह भी स्वीकार्य है । केवल आत्म सम्मान पर आघात को छोडकर उसे अन्य सभी प्रकार की हानि सहन करनी चाहिए जब तक कि आत्म पीडन के द्वारा वह विरोधी का हृदय परिवर्तन करने में सफल न हो जाए ।
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