Friday, August 27, 2010

इस बात को समझना होगा कि ऐसे वे सब कौन से कारण हैं जिनके परिणामस्‍वरुप हम किसी दूसरे के शब्‍दों को सुनकर ही बहुत खुश हो जाते हैं या दुखी हो जाते हैं । किसी ने कुछ डांट दिया तो हम उस व्‍यक्ति के प्रति तुरन्‍त गुस्‍सा करने लग जाते हैं और अपने को असंतोष में भर लेते हैं । इस बात को समझना होगा कि जो हम पर आरोप लगाया गया है वह यदि सत्‍य है तो उसको स्‍वीकार करो और यदि झूठा है तो स्‍वीकार मत करो, उस झूठे आरोप का अपने से जोडने का कोई प्रश्‍न ही नहीं उठता । हमें अपने पर लगे झूठे आरोप को अनदेखा कर आरोप लगाने वाले को बहुत ही सहजता से जवाब देना चाहिए कि आरोप निराधार हैं । लेकिन होता क्‍या है ? हम गुस्‍से से तडप उठते हैं और अपने उत्‍तर में सहज व्‍यक्तियों के प्रति भी कठोर हो जाते हैं । हम सहज क्‍यों नहीं हो पाते हैं ? शायद हमने कभी सोचा ही नहीं कि हम सहज भी हो सकते हैं ।

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