Tuesday, August 31, 2010
संबंधों की प्रगाढता हमेशा दुखदायी होगी । यदि उसका आधार ही मजबूत न हो । मात्रा व गुण में अंतर हो सकता है । संबंधों के बीच स्वार्थपरता समाप्त की जा सकती है यदि स्वयं साक्षी भाव में जीएं । संबंधों के बीच प्रेम और घृणा दोनों होते है। । विडम्बना यह है कि ऐसे संबंधों में न घृणा उभरकर आती है और न ही प्रेम । संबंधों की स्वार्थपरता तभी प्रकट हो जाती है जब हम किसी से अपेक्षा करते हैं । किसी से कुछ लेने की भावना ही हमें स्वार्थी बनाती है । यदि किसी के लिए कुछ करना, इस भावना से कि दूसरा भी मेरे लिए करे तो स्वार्थपरता स्पष्ट झलकती है । संबंधों का होना या न होना पूरी तरह हमारी बुदिध बल का प्रश्न नहीं है । यह तो व्यक्ति की प्रकृति पर निर्भर करता है । संबंधों का होना बुरा नहीं है लेकिन संबंध निस्वार्थ हों, वही उचित है । निस्वार्थ भावना से संबंध कैसे बनाए जा सकते हैं, इसका सीधा सा उत्तर है – मौन में अनुभव करना । तभी वास्तविकता प्रकट होगी । संबंधों में यदि एक की भावना भी पवित्र है तो दूसरे की भावना स्वयम पवित्र हो जाती है । ****
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