Wednesday, August 25, 2010

जीवन को जीना दो ढंग से होता है – एक स्‍वाभाविक और दूसरा संसारिक । स्‍वाभाविक जीना बहुत ही महत्‍वपूर्ण है । इसमें खुशियां भी हैं तो दुख भी हैं । इसमें जीना आसान काम नहीं है । खासतौर से पति पत्‍नी स्‍वाभाविक रुप से नहीं जी सकते हैं । यूं कह लीजिए जीते ही नहीं हैं । स्‍वाभाविक जीने का अर्थ है जो अन्‍दर के भाव बनें, उसे वैसे ही ऊपरी रुप से प्रस्‍तुत करना । यदि भीतर क्रोध है तो बाहर भी क्रोध प्रकट करना और यदि भीतर प्रेम है तो बाहर भी प्रेम प्रकट करना । यदि किसी से बात करने को जी चाहता है तो बात कर ली, यदि घूमने को जी चाहा तो घूम लिया और मौन में रहने को जी चाहा तो मौन हो गये । दूसरे से कोई उम्‍मीद नहीं । किसी के लिए कुछ कर सकें तो ठीक, न कर सके तो भी ठीक । भूख लगी तो खा लिया, नींद आयी तो सो गये । हंसी आयी तो हंस लिए – बिल्‍कुल स्‍वाभाविक । जीवचन को पूर्णत स्‍वीकार भाव से जीते हुए । न पत्‍नी पर कोई अधिकार, न भाई बहनों पर । दुख और सुख में एकसार । तब स्‍वाभाविक प्रेम उत्‍पन्‍न होगा, भले ही देर से ।
एक दूसरा जीना है – संसारिक । जिसमें व्‍यक्ति एक दूसरे के लिए करता है । यदि एक व्‍यक्ति ने दूसरे के लिए कुछ किया तो पहला भी दूसरे के लिए करे । भले ही उसका मन न हो । पति पत्‍नी पर शिष्‍टाचार और नियम थोपेगा और पत्‍नी पति पर । दोनों को एक दूसरे से पूर्ण आशाएं जो पूरी न होने पर निराशा में बदल जाती हैं । एक आदमी अपनी पत्‍नी से इसलिए प्रेम करता है क्‍योंकि उसकी पत्‍नी उससे प्रेम करती है । पत्‍नी चाहती है कि पति सब कुछ करे जिससे उसे खुशी मिले । हर काम एक दूसरे की स्‍वीकृति से हो । हजारों तरह की कल्‍पनाएं । पूरी होने पर खुशी और पूरी न होने पर दुख । बस जीवन को खींचे जाना । इसी प्रकार परिवार के अन्‍य रिश्‍ते नाते – एक हाथ ले एक हाथ दे ।
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