कुछ लोग अच्छे होते हैं और कुछ लोग अच्छे नहीं होते हैं । यह भी सच है कि यह हमारे देखने का नजरिया है । हम देखते हैं कि लडकियों में ज्यादा सहजता,सरलता है, बनिस्बत लडकों के । हमें देखना होगा कि हम कैसे हैं, हमारा व्यक्तित्व कैसा है ? व्यक्तित्व एक ही होना चाहिए । दोनों होना ठीक नहीं । साफ पानी में गन्दा पानी मिला दो या गन्दे पानी में साफ पानी, कोई फर्क नहीं पडता – परिणाम गंदा ही हैं ।
अगर यह कहा जाए कि कम बोलने वाले अच्छे हैं, यह सोचना गलत होगा । यह ठीक भी नहीं कहा जा सकता । सुन्दर खिला हुआ चेहरा, हंसता हंसाता चेहरा सबको अच्छा लगता है, गम्भीर चेहरा कैसे सुन्दर हो सकता है ? अगर यह कहा जाए कि हंसो उस समय जब हंसना उचित हो । गम्भीर उसस समय रहो, जब जरुरत हो – यही ठीक है । यह भी सोचने पर ही निर्भर है ।
याद रखो – सारी बातें एक खास व्यक्ति के लिए नहीं होती । अलग अलग बातें अलग अलग लोगों के लिए होती हैं । हम गलती से सभी बातें अपने लिए समझ बैठते है। । इसलिए ध्यानपूर्णक समझना जरुरी है । समझ का ऊंचे स्तर पर होना जरुरी है ।
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जीवन को ऐसे जिओ जैसे जीवन एक नाटक है और हम अभिनय कर रहे हैं । एक अभिनय, एक झूठ है सब कुछ । पल पल का जीना । तब दुख का सवाल ही पैदा नहीं होता । ऐसा कुछ भी नहीं जिसकी वजह से उत्तेजना हो । जरुरी है समझ हो । एक बार समझ में आ जाए तो सब कुछ मिल जाता है । क्या चीज अच्छी है और क्या बुरी, क्या जरुरी है और क्या नहीं, समझ आ जाता है, दोहरी स्थिति रह ही नहीं जाती ।
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जीवन का अनुभव देखा होगा आपने । कई बार मांगने से कुछ नहीं मिलता और कई बार बिना मांगे ही बहुत कुछ मिल जाता है । तब कोई मांग न रखते हुए ही जीआ जाए तो कैसा रहेगा ? सुना है सफलता ही असफलता की सीढी है । जब तक किसी एक कार्य के प्रति सफलता प्राप्त नहीं हुई है तब तक सफलता प्राप्त करने के लिए एक उत्सुकता बनी रहती है, एक इंतजार होता है । किन्तु क्या हम नहीं महसूस करतेू कि सफलता मिल जाने पर कोई उत्साह नहीं रह जाता है । ऐसा लगने लगता है जैसे कुछ हुआ ही न हो । ऐसा लगता है कि जैसे सफलता की वह उत्तेजना, उत्साह है ही नहीं जो सफलता पाने से पहले था । तब यह क्या है ? क्या हम सफलता पाने की कामना छोड दें ? यह भी बहुत विडम्बनापूर्ण होगा । तब मान लीजिए, हम उनके प्रति बहुत प्रेम प्रदर्शित करते हैं, उन्हें बहुत चाहते हैं, उनके व्यक्त्वि से प्रभावित होते हैं, लेकिन जब उनके निकट आते हैं तो क्या वह प्रेम, वह आकर्षण, वह उत्साह रह जाता है ? नहीं । ****
हम लोग हमेशा ईश्वर से कुछ न कुछ मांगते ही रहते हैं । ईश्वर कितना ही दे दे, कम लगता है । दूसरों के क्षणिक आराम को देखकर ईर्ष्या से भर जाते हैं । हमेशा आगे आने वाले समय में सुख मिल जाने की कल्पना करते हैं । लेकिन क्या ऐसा होता है ? जितना हमें मिला है, उसका आभास किया है ? जितना भगवान ने दिया है उसका धन्यवाद किया ? कभी ईश्वर को धन्यवाद के भाव से याद किया है ? कभी झूम झूम कर नाचा है ? कभी अहो भाव से निकला – तेरा लाख लाख शुक्र । मैं बहुत ही प्रसन्न हूं ।
कभी कभी भय से पीडित होकर मानसिक तनाव से ग्रस्त हो जाना, जीवन के उतार चढाव का ही एक रुप तो है । अपने को समझने का असफल प्रयास किया जाता है । मन का डर न जाने कितनी कोरी कल्पनाओं का जाल बुन लेता है, इस पर कभी विचार किया है ? भयग्रस्त व्यक्ति किस प्रकार अपनी शक्तियों को खो देता है, अपना विकास होने पर एक बंदिश लगा देता है, जबकि भय निर्मूल है । एक खौफ और संशक्ति वातावरण क्यों आ जाता है ? अगर हम चाहें भय से छुटकारा पा सकते हैं ? हां, यदि धन्यवाद का भाव हो । एक पूजा का भाव हो, जो है जैसा है, स्वीकार है । ऐसा ही होना था, ऐसा ही हो रहा है । धीरे धीरे भय समाप्त होने लगेगा । जो हो भी नहीं रहा है, हुआ भी नहीं है, मात्र होने की कल्पना से भयग्रस्त होकर वर्तमान के सुन्दर पलों को नष्ट करना कहां तक सार्थक है ? जो होगा, वह होगा, लेकिन यह क्यों भय किया जाता है कि जो आप सोच रहे हैं, वही होगा – क्या मालूम वैसा न हो ?
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यदि हमारे बीच शैक्षिक योग्यताएं कम हैं तो निराश नहीं होना चाहिए । अपने बीच आत्मविश्वास को जागृत करके हम सफलता पा सकते हैं । बस आशा और विश्वास की यात्रा जारी रहनी चाहिए । ****
भविष्य की सुरक्षा की भावना और भय की भावना में क्या अन्तर है ? क्या इसको आसानी से समझा जा सकता है ? शायद नहीं । भविष्य की सुरक्षा का लबादा ओढकर कहीं हम भय की भावना से तो नहीं जी रहे ? कल का क्या भरोसा, हम रहें न रहें, यह सोच रहे या न रहे, तब वर्तमान के क्षणों में आनन्द क्यों नहीं आ पाते ? अगर हम अपने बीते हुए समय पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार करें तो पायेंगे कि हम हमेशा ही भविष्य की सुरक्षा से ही जीते रहे हैं, हमेशा भविष्य की सुरक्षा ने हमें भयभीत बना दिया है और हम वर्तमान के क्षणों को पूर्णत वंचित हो जाते हैं ।
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दूसरों से प्रश्न पूछना भी एक कला है । अपनी बात में एक ऐसा आकर्षण हो कि दूसरा बात को समझे, न कि मुंह चिढाकर हमें ही जलीकटी सुना दे । दूसरों से प्रश्न पूछकर, अपनी जिज्ञासा प्रकट करके उसके मन को टटोलें । हो सकता है जीवन के सत्य से परिचित हो सको । प्रश्न पूछना बुरा नहीं है लेकिन गलत ढंग से पूछा गया प्रश्न बुरा है ।
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दौड कितनी भी दौड ली जाए, अन्त में पायेंगे एक ठहराव । रुको । और आगे नहीं । कुछ नहीं । अब और ज्यादा दौडा नहीं जाता । अब आराम चाहिए । शांति और संतोष चाहिए । अब ऊंचे ऊंचे महल नहीं सादापन चाहिए । जो जैसा है ठीक है । सुन्दर है । अब कोई इच्छा नहीं है । सब कुछ मिल गया है । अब मस्तिष्क को आराम देना है । सभी सुखों का रास्ता मिल गया है जो अपने अन्दर से शुरु होता है । अब धीरे धीरे चलने को जी चाहता है । अब भागने की चाह नहीं है । सादे विचार, बातचीत,खाना पीना,पहनना,मधुर व धीमी गति से ।
Monday, July 12, 2010
Thursday, July 8, 2010
छोटी छोटी गलतफहमियों की वजह से ही झगडे होते हैं । धारणा यही रहती है कि मेरा कोई कसूर नहीं है । लेकिन होता है इसके विपरीत । सामान्य परिस्थितियों में भी स्थिति असाधारण रुप ले लेती है, जिसका परिणाम होता है तनाव । ऐसा हो, वैसा हो, ऐसा न हो, वैसा न हो, इस तरह की सोच से ही दुख का आरम्भ होता है । खुशी का माहौल नहीं रह जाता । ---- बुरा मानने का सवाल ही पैदा नहीं होता, मैं क्यों बुरा मानूं, बुरा मानने से केवल नुकसान ही होता है, यह समझ ही तनाव की स्थिति से हमें निकाल सकती है । एक समझ की भावना ही जीवन में रुपातंरण ला देती है । उतावलापन और बडप्पन तकलीफदायक है । संयम का वातावरण तूफान नहीं लाता । निर्णय शक्ति का क्षीण होना एक अवगुण है । जो निर्णय लेना है, शीघ्र ही लिया जाना चाहिए
। जितनी देर लगा दी जाती है, अपने को एक ऐसी स्थिति में खडा कर दिया जाता है, जहां मात्र अंसंतुलन होता है । ****
यदि कोई गलती करता है तो उसे माफ करना ही श्रेयष्कर होगा । कोई अपनी गलती नहीं मानता तो न माने, क्योंकि हम भी गलत कदम उठाने लगे तो हम भी कसूरवार हो जाते हैं । तब हममें और उसमें कोई फर्क नहीं रह जाता । अत यदि हम सच्चे हैं तो हमें अवश्य संतोष होगा । सत्य हमेशा प्रतिफलित होता है, चाहे देर से ही । अपनी आत्मा शांत और सच्ची होगी तभी आनन्द का अनुभव होगा । अपराध भावना से जीना बेकार है । माफ कर देना और गुस्सा न करना दूसरे पर विजय पा लेने के सूत्र हैं ।
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जीवन परिवर्तनशील है । पल पल में बदलता रहता है । जीवन के पल अच्छे भी रहते हैं और बुरे भी । कोई व्यक्ति अपना जीवन कैसे सुन्दर बना सकता है । यदि आर्थिक स्थिति अच्छी है और जीवन के प्रति एक स्नेह है तो जीवन सुन्दर होगा । जीवन तब भी सुन्दर होगा जब अपने समय को सुन्दर कार्यों में लगाया जाता है । वे सभी कार्य किए जाएं जिससे एक खुशी मिलती है । सुन्दर हंसमुख नैचर के साथ साथ विचारों में एकरुपता एवं दृढता होना जरुरी है । यह संकल्पशीलता से ही आती है । मन में एक संकल्प होना चाहिए कि मेरा जीवन सुन्दर है । एक एक सीढी बढना है, पिर सब कार्य पूरे होने लगते हैं ।
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यह ख्याल तो बार बार आता है कि अच्छे शरीर के लिए जहां अच्छी खुराक खाना जरुरी है, वहां व्यायाम करना जरुरी है और व्यायाम के लिए डायनिमिक मेडिटेशन भी अच्छा है । यह मेडिटेशन शरीर को चुस्त, ताजा तो बनाता ही है, मानसिक शांति के लिए महत्वपूर्ण है । आंखों के लिए भी अच्छा है । जब चित्त शांत रहता है तो सभी कार्य आसानी से किए जा सकते हैं ।
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यदि दो जने आपस में बहस करने लगें, लडने लगे तो एक को चुप हो जाना चाहिए । चूंकि दूसरा चुप होने को तैयार नहीं है, इसलिए खुद ही चुप हो जाना चाहिए । सिर्फ अपनी बात को मनवाने के लिए बार बार जोर डालना ठीक नहीं है । संक्षेप शब्दों में भी नहीं समझ में आने वाली बात को किया जा सकता है । यदि इस बात की चिन्ता नहीं की जाती तो आनेवाले जीवन में कई मुश्किलें आ सकती हैं । मुश्किलें तो हर तरह से आएंगी ही, इसको समझना है । अगर हम उन मुश्किलों को समझ लेते हैं तो मुश्किलें रह ही नहीं जाती । विवाह के बाद तो कई मुश्किलें आती हैं, उन सब पर भी विचार कर लेना चाहिए । विवाह के बाद केवल सुख की सेज ही नहीं, कांटों का हार भी है । दोनों साथ साथ हैं । यदि अपनी हार और दूसरे की जीत है तो क्या हम ऐसा नहीं मान सकते कि मेरी जीत उसकी भी जीत ?
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कई बार हम बहुत उदास हो जाते हैं, एक निराशा का अनुभव करते हैं । कई बार बहुत खुश हो जाते है, एक आशा का अनुभव करते हैं । निराशा के क्षणों में जीवन को एक दुख मान लेते हैं । सोचते हैं हमारा जीवन बेकार है, दूसरों का अच्छा है । कभी कभी खुशी के क्षणों को पाकर अपना जीवन सुन्दर महसूस करते हैं, दूसरों के जीवन को बेकार व दुखपूर्ण मान लेते हैं । वास्तव में यह दोनों विचार सत्य हैं और असत्य भी हैं । सत्य इसलिए है कि यह सब स्वाभाविक है । असत्य इसलिए कि सब सत्य नहीं होता । हम जब तक दूसरों से अपना कम्पैरिजन करेंगे, जीवन में एक रुपता को महसूस नहीं कर सकेंगे । कभी दूसरों को अच्छा मानकर और अपने को बेकार मानकर चलने पर और इसी प्रकार दूसरों को बेकार मानकर अपने को अच्छा मानकर चलेंगें तो दोहरे मापदण्ड की स्थिति अवश्य ही उत्पन्न होगी । जीवन के बदलते रुपों को स्वीकार भाव से जीने पर ही दोहरेपन के अनुभव से दूर हो सकेंगे ।
कोई हमारी आलोचना करता है तो हमें बुरा नहीं मानना चाहिए बल्कि विचार करना चाहिए । यदि दूसरे की की गई आलोचना अथवा शिकायत उचित है तो धन्यावाद देना चाहिए । मन ही मन परिवर्तन ले आना चाहिए । कोई बात मत करना । और अगर उसकी बात गलत है, उसकी शिकायत या आलोचना गलत है तो हमें कोई प्रभाव नहीं होना चाहिए । उसको कहने दो । यह उसका सोचना या कहना है, हमारा नहीं । इसलिए बुरा मानने या नाराज होने का प्रश्न ही नहीं ।
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क्या कभी कोई ऐसा भी करता है जो वह करना नहीं चाहता । वह जानता भी हो कि यह करना ठीक नहीं है । पल पल में उसे इसका होश हो कि यह सब ठीक नहीं कर रहा है, उसे वह सब करना चाहिए जो वह नहीं कर रहा है, यह भी जानता हो ? तब, यह सब जानते हुए भी, उसे क्या कहें हम ?
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यदि किसी को कुछ बताया जाए तो दूसरा हमारी बात सुनने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं होगा । हमारी बात को तोड मरोड देगा, काट देगा । इसी तरह यदि कोई व्यक्ति हमको कोई बात बताता है तो हम उसकी बात नहीं सुनेंगे, बात को अनसूना कर देंगे, शायद मजाक भी उडाएं । लेकिन बातों के महत्व को तभी जाना जा सकता है जब कोई एक विशेष विषय पर पूछा जाए । यानि हम यदि किसी को जीवन के प्रति जो दृष्टिकोण है, बताते रहे, व्याख्या करते रहें, दूसरा नहीं सुनेगा, सुननेवाला केवल अपनी बात से ही प्रभावित रहेगा । यदि कोई हमसे पूछता है तभी बताना चाहिए । तब वह हमारी बात सुनेगा भी । इसी प्रकार यदि हमाको कुछ बताया जाए, हम नहीं सुनते, हम पूछेंगे, दूसरा बताएगा, तब हम भी सुनने के लिए राजी हो जाएंगे ।
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मन की शांति और आत्मसंतुषटी के लिए दिन में एक बार अवश्य मौन भाव से उसे स्मरण करना चाहिए । इससे अहसास होगा कि जीवन में संतोष व आनन्द है । इसके लिए जरुरी है कि जीवन के प्रति प्रेम हो । प्रेम से तात्पर्य मोह नहीं है । किसी के प्रति मोह रखना खतरनाक साबित हो सकता है । प्रेमपूर्ण होना जरुरी है, सभी के लिए । वह प्रेम जो आत्म उपलब्धि से उत्पन्न होता है । जो हृदय से स्वयं ही उजागर होता है । प्रार्थना तभी घटती है जब हम भगवान के साथ चलने को तैयार हो जाते हैं ।
दो तीन बातें – अपने को अधिक महत्व देना चाहिए, समय कीमती है, जो काम करना है, उसे खुशी खुशी करना चाहिए । टाइम टेबल बनाकर काम करना ठीक रहता है । समय का सदुपयोग इस प्रकार किया जाए कि सभी काम पूरे हो जाएं और चेहरे पर एक संतोष हो । सभी काम करो लेकिन किसी एक के लिए ज्यादा वक्त दिया तो दूसरे काम रुक जाएंगे । जिस समय जो काम करने का समय हो, वही करें । अपना कर्म पूरी लगन के साथ किया जाए तो परेशानी का सवाल ही नहीं पैदा होता ।
। जितनी देर लगा दी जाती है, अपने को एक ऐसी स्थिति में खडा कर दिया जाता है, जहां मात्र अंसंतुलन होता है । ****
यदि कोई गलती करता है तो उसे माफ करना ही श्रेयष्कर होगा । कोई अपनी गलती नहीं मानता तो न माने, क्योंकि हम भी गलत कदम उठाने लगे तो हम भी कसूरवार हो जाते हैं । तब हममें और उसमें कोई फर्क नहीं रह जाता । अत यदि हम सच्चे हैं तो हमें अवश्य संतोष होगा । सत्य हमेशा प्रतिफलित होता है, चाहे देर से ही । अपनी आत्मा शांत और सच्ची होगी तभी आनन्द का अनुभव होगा । अपराध भावना से जीना बेकार है । माफ कर देना और गुस्सा न करना दूसरे पर विजय पा लेने के सूत्र हैं ।
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जीवन परिवर्तनशील है । पल पल में बदलता रहता है । जीवन के पल अच्छे भी रहते हैं और बुरे भी । कोई व्यक्ति अपना जीवन कैसे सुन्दर बना सकता है । यदि आर्थिक स्थिति अच्छी है और जीवन के प्रति एक स्नेह है तो जीवन सुन्दर होगा । जीवन तब भी सुन्दर होगा जब अपने समय को सुन्दर कार्यों में लगाया जाता है । वे सभी कार्य किए जाएं जिससे एक खुशी मिलती है । सुन्दर हंसमुख नैचर के साथ साथ विचारों में एकरुपता एवं दृढता होना जरुरी है । यह संकल्पशीलता से ही आती है । मन में एक संकल्प होना चाहिए कि मेरा जीवन सुन्दर है । एक एक सीढी बढना है, पिर सब कार्य पूरे होने लगते हैं ।
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यह ख्याल तो बार बार आता है कि अच्छे शरीर के लिए जहां अच्छी खुराक खाना जरुरी है, वहां व्यायाम करना जरुरी है और व्यायाम के लिए डायनिमिक मेडिटेशन भी अच्छा है । यह मेडिटेशन शरीर को चुस्त, ताजा तो बनाता ही है, मानसिक शांति के लिए महत्वपूर्ण है । आंखों के लिए भी अच्छा है । जब चित्त शांत रहता है तो सभी कार्य आसानी से किए जा सकते हैं ।
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यदि दो जने आपस में बहस करने लगें, लडने लगे तो एक को चुप हो जाना चाहिए । चूंकि दूसरा चुप होने को तैयार नहीं है, इसलिए खुद ही चुप हो जाना चाहिए । सिर्फ अपनी बात को मनवाने के लिए बार बार जोर डालना ठीक नहीं है । संक्षेप शब्दों में भी नहीं समझ में आने वाली बात को किया जा सकता है । यदि इस बात की चिन्ता नहीं की जाती तो आनेवाले जीवन में कई मुश्किलें आ सकती हैं । मुश्किलें तो हर तरह से आएंगी ही, इसको समझना है । अगर हम उन मुश्किलों को समझ लेते हैं तो मुश्किलें रह ही नहीं जाती । विवाह के बाद तो कई मुश्किलें आती हैं, उन सब पर भी विचार कर लेना चाहिए । विवाह के बाद केवल सुख की सेज ही नहीं, कांटों का हार भी है । दोनों साथ साथ हैं । यदि अपनी हार और दूसरे की जीत है तो क्या हम ऐसा नहीं मान सकते कि मेरी जीत उसकी भी जीत ?
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कई बार हम बहुत उदास हो जाते हैं, एक निराशा का अनुभव करते हैं । कई बार बहुत खुश हो जाते है, एक आशा का अनुभव करते हैं । निराशा के क्षणों में जीवन को एक दुख मान लेते हैं । सोचते हैं हमारा जीवन बेकार है, दूसरों का अच्छा है । कभी कभी खुशी के क्षणों को पाकर अपना जीवन सुन्दर महसूस करते हैं, दूसरों के जीवन को बेकार व दुखपूर्ण मान लेते हैं । वास्तव में यह दोनों विचार सत्य हैं और असत्य भी हैं । सत्य इसलिए है कि यह सब स्वाभाविक है । असत्य इसलिए कि सब सत्य नहीं होता । हम जब तक दूसरों से अपना कम्पैरिजन करेंगे, जीवन में एक रुपता को महसूस नहीं कर सकेंगे । कभी दूसरों को अच्छा मानकर और अपने को बेकार मानकर चलने पर और इसी प्रकार दूसरों को बेकार मानकर अपने को अच्छा मानकर चलेंगें तो दोहरे मापदण्ड की स्थिति अवश्य ही उत्पन्न होगी । जीवन के बदलते रुपों को स्वीकार भाव से जीने पर ही दोहरेपन के अनुभव से दूर हो सकेंगे ।
कोई हमारी आलोचना करता है तो हमें बुरा नहीं मानना चाहिए बल्कि विचार करना चाहिए । यदि दूसरे की की गई आलोचना अथवा शिकायत उचित है तो धन्यावाद देना चाहिए । मन ही मन परिवर्तन ले आना चाहिए । कोई बात मत करना । और अगर उसकी बात गलत है, उसकी शिकायत या आलोचना गलत है तो हमें कोई प्रभाव नहीं होना चाहिए । उसको कहने दो । यह उसका सोचना या कहना है, हमारा नहीं । इसलिए बुरा मानने या नाराज होने का प्रश्न ही नहीं ।
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क्या कभी कोई ऐसा भी करता है जो वह करना नहीं चाहता । वह जानता भी हो कि यह करना ठीक नहीं है । पल पल में उसे इसका होश हो कि यह सब ठीक नहीं कर रहा है, उसे वह सब करना चाहिए जो वह नहीं कर रहा है, यह भी जानता हो ? तब, यह सब जानते हुए भी, उसे क्या कहें हम ?
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यदि किसी को कुछ बताया जाए तो दूसरा हमारी बात सुनने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं होगा । हमारी बात को तोड मरोड देगा, काट देगा । इसी तरह यदि कोई व्यक्ति हमको कोई बात बताता है तो हम उसकी बात नहीं सुनेंगे, बात को अनसूना कर देंगे, शायद मजाक भी उडाएं । लेकिन बातों के महत्व को तभी जाना जा सकता है जब कोई एक विशेष विषय पर पूछा जाए । यानि हम यदि किसी को जीवन के प्रति जो दृष्टिकोण है, बताते रहे, व्याख्या करते रहें, दूसरा नहीं सुनेगा, सुननेवाला केवल अपनी बात से ही प्रभावित रहेगा । यदि कोई हमसे पूछता है तभी बताना चाहिए । तब वह हमारी बात सुनेगा भी । इसी प्रकार यदि हमाको कुछ बताया जाए, हम नहीं सुनते, हम पूछेंगे, दूसरा बताएगा, तब हम भी सुनने के लिए राजी हो जाएंगे ।
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मन की शांति और आत्मसंतुषटी के लिए दिन में एक बार अवश्य मौन भाव से उसे स्मरण करना चाहिए । इससे अहसास होगा कि जीवन में संतोष व आनन्द है । इसके लिए जरुरी है कि जीवन के प्रति प्रेम हो । प्रेम से तात्पर्य मोह नहीं है । किसी के प्रति मोह रखना खतरनाक साबित हो सकता है । प्रेमपूर्ण होना जरुरी है, सभी के लिए । वह प्रेम जो आत्म उपलब्धि से उत्पन्न होता है । जो हृदय से स्वयं ही उजागर होता है । प्रार्थना तभी घटती है जब हम भगवान के साथ चलने को तैयार हो जाते हैं ।
दो तीन बातें – अपने को अधिक महत्व देना चाहिए, समय कीमती है, जो काम करना है, उसे खुशी खुशी करना चाहिए । टाइम टेबल बनाकर काम करना ठीक रहता है । समय का सदुपयोग इस प्रकार किया जाए कि सभी काम पूरे हो जाएं और चेहरे पर एक संतोष हो । सभी काम करो लेकिन किसी एक के लिए ज्यादा वक्त दिया तो दूसरे काम रुक जाएंगे । जिस समय जो काम करने का समय हो, वही करें । अपना कर्म पूरी लगन के साथ किया जाए तो परेशानी का सवाल ही नहीं पैदा होता ।
Wednesday, July 7, 2010
आत्मविश्वास ही सब कुछ है । हम जो कुछ भी देखते हैं, अपना विश्वास देखते हैं,अपना विश्वास ही बताते हैं । प्रकाश है, नहीं दिखता, हवा है, लेकिन दिखती नहीं । इसी प्रकार भगवान है, दिखता नहीं । हम विश्वास को भगवान कहें तो भी ठीक है । चीज एक ही है । नजरिया है भगवान और विश्वास को देखने का । हम उसे भगवान कहकर पुकारते हैं या विश्वास । चूंकि ऐसा कहना है कि अपने पर विश्वास रखो, अर्थात भगवान पर विश्वास रखो । क्योंकि भगवान और विश्वास एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, एक ही लाठी के दो किनारे हैं । लीेकिन सिक्का एक ही है, लाठी एक ही है । लेकिन एक बात है दोनों में से एक को मानना होगा । जब एक को माना जाएगा तो दूसरा स्वयं ही आ जाएगा । हम भगवान को माने तो विश्वास आ जाए और विश्वास को माने तो भगवान आ जाएगा । हम ऐसा तो नहीं कह सकते कि मैं लाठी का एक सिरा ही उठाकर दिखा सकता हूं । एक उठाएंगे, तो दूसरा स्वयं ही चला आएगा । दूसरे को उठाने की जरुरत नहीं पडती । हम सिक्के के एक पहलू को नहीं उठा सकते । दोनों साथ साथ उठ जाएंगे । यही अर्थ है भगवान को जानने का ।
अब दूसरी बात, यह विश्वास अथवा भगवान हम कहां खोजें ? चूंकि ये चीजें दिखती नहीं है, मानना पडता है, विश्वास रखना पडता है । जैसे हवा, प्रकाश या ईश्वर । विश्वास भी दिखता नहीं है, मानना पडता है । हम यह भगवान या ईश्वर कहीं भी देख सकते हैं, किसी भी रुप में देख सकते हैं । इन्सान में भी, राम में भी, कृष्ण में भी, अपने माता पिता में भी, गुरु में भी, बच्चें में भी । यह हम पर निर्भर है कि हम अपना विश्वास या भगवान किसमें और किस रुप में देखते हैं । इसके बाद हमारी शंका दूर हो जाएगी, तब आनन्द का भाव होगा ।
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सफलता पाने के लिए किसी विशेष व्यक्ति पर अपनी आजादी को खत्म करना पडता है । उसका सहयोग मिलता है, खुशी होती है । लेकिन बाद में हमें भी उसको सहयोग कदेना पडता है, चाहे अपना मन न हो । स्पष्ट है कि खुशियां पाने के लिए अपनी कुछ खुशियों की कुर्बानी देनी पडती है ।
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हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हमारी प्रत्येक सफलता या असफलता के पीछे वास्तविक हकदार हम ही हैं । शायद यह बात प्रत्यक्ष में पता न लगे कि दोष या धन्यावाद किसका है, लेकिन ध्यान से गौर करने पर पता चलता है कि कहीं न कहीं शुरुआत या अंत हमने ही किया था । यदि किसी के प्रति अथवा हमारे प्रति कोई चाहत रखता है तो उसकी सफलता का श्रेय अपने को ही देना चाहिए । यदि कोई हमसे नफरत करता है तो इस असफलता के दोषी भी हम ही हैं । हम में ही कोई कमी घर बनाए हुए है जिसके कारण सामने वाला हमसे नफरत करता है अथवा गुस्सा करता है । इस बात को ध्यान से समझना होगा ।
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हम विश्व के सबसे अधिक प्रसन्न व्यक्ति है । हम में किसी चीज की कमी नहीं है । हम प्रत्येक क्षेत्र में सफलता पा सकते हैं, यदि वास्तव में चाहते हों । इधर हमारी चाहत बनी, उधर हम सफल हुए । खो जाना है । सब स्वीकार करना है । निर्विचार । आलोचना और टोकना छोड दीजिए । जो हो रहा है, ठीक हो रहा है । हंसना रोना, गाना, खाना पीना, सुख दुख सब स्वीकार कर लीजिए ।
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वर्तमान को देखकर जिया जाए तो दुख पर विजय है – यही संन्यास है । यहीं विजय है्, यही आनन्द है , यही सुख है । बीते समय की बार बार चर्चा करना अथवा भविष्य के बारे में योजनाएं ही बनाते रहना, दुखों का कारण है । अगरक आज के क्षणों को सुन्दर से सुन्दर बिताया जहाएगा, कल भी अच्छा होगा । सबको खुशियां बांटो, खुशियां हमारे जीवन में उसी रफतार से लौटकर आ जाएंगी ।
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जो बात हम करते नहीं हैं, वह कहते क्यों हैं ? उपदेश देना आसान है, लेकिन खुद भी तो कुछ करना होगा ?
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यह सत्य है कि हमारा जो विचार बन गया है, उस पर भी एक बार विचार कर लेना चाहिए ।
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हमारी हंसी उडाकर किसी को खुशी मिलती है या किसी को हंसी आती है तो स्वीकार कर लीजिए । यह बुरा नहीं है । अच्छा है । लेकिन हमें किसी की हंसी नहीं उडानी चाहिए । चुटकुला सुना है, हंसो । समझ में नहीं आया, तो भी हंसो । हमें भी चुटकुले सुनाने चाहिए । कोई नहीं हंसता तो हमें स्वयं हंसना चाहिए । खुलकर । यही राज है खुशमिजाज रहने का । एक दिन यह बात आम हो जाएगी । हम सबसे अधिक खुशनसीब हो सकते हैं ।
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यदि हम चाहें तो अच्छा जीवन जी सकते हैं । साफ सुथरा रहना, तमीजदार व शिक्षित होना । यह सब अपने बस में है । शरीर को योग व ध्यान द्वारा सुडौल व स्वस्थ बनाया जा सकता है । जरुरत है संकल्प की । अपने प्रति एक उत्साह बनाए रखना जरुरी है वरना बोझिल मन से कुछ भी कर पाना सम्भव नहीं ।
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जितना हमारा वेतन है, उसमें हमारा गुजारा हो सकता है । अपने भागते मन को समझाना होगा । उन चीजों के लिए जो जरुरी नहीं हैं । एक एक रुपया खोजपूर्ण अर्थात सोच समझकर खर्च करना चाहिए और इसके साथ ही ज्यादा कमाई के लिए कोशिश आरम्भ कर देनी चाहिए । हम देखते हैं कि हमारे ज्यादात्तर खर्चे लापरवाही से होते हैं ।
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वास्तविक खुशी तो हमारे भीतर हैं । खुशी की शुरुआत अपने अन्दर से ही शुरु होती है और समाप्ति भी अपने अन्दर से ही होती है ।
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हमारे मां बाप यदि शिक्षित और अमीर हों तो अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दे सकते हैं और सही विकास का मार्गदर्शन भी । जहां बच्चों के विकास में हर चीज समय पर होना जरुरी है वहां बच्चों की रुचि का ध्यान रखना भी आवश्यक है । पढाई के साथ साथ खेंलकूद, कला, हॉबी पर ध्यान देना जरुरी है, बाद में नौकरी, कारोबार या विवाह आदि के बारे में सोचना चाहिए ।
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यदि हम अपने बडों का कहा मानते हैं, चाहे वह गलत ही क्यों न हो, चाहे वह हमारी आत्मा को अच्छा न भी लगे, सब मान लें तो वे बहुत खुश रहते हैं और यदि उनके कथन को स्वीकार नहीं करते हैं, अपने विचारों को कहते हैं, अपने में एक आत्मविश्वास की झलक दिखाते हैं तो हम गलत हो जाते हैं । यदि दूसरों का कहा मानते रहते हैं तो हम शीघ्र ही बडों की नजरों में प्रिय हो जाते हैं । जब भी वे जैसा भी चाहें, वैसा ही करें । चाहे हम अपना काम छोड दें । इस प्रकार देखा गया है कि सारा समय सेवा करते रहें, आदर की भावना रखते रहें तो ठीक समझा जाता है किन्तु एक बार भी हम उनकी सेवा करने में, उनका कहा मानने में असमर्थ हो जाते हैं तो सारा किया समाप्त हो जाता है ।इसी प्रकार यदि हम किसी के लिए कुछ भी नहीं करते हैं, समय पर कर देते हैं तो हमारी खूब तारीफ होती है, हम प्रिय हो जाते हैं । समाज की व्यवस्थाएं इतनी जडवत हैं कि उनको याद करते ही एक गुस्से का अहसास होता है । लडकी के लिए कई बाधाएं हैं, कई अभिशाप हैं । लडकी का मोटी होना, पतली होना, ठिगनी होना, लम्बी होना, आंखों पर चश्मा होना, बालों का सफेद होना, अनपढ होना आदि अयोग्याएं मानी जाती हैं । जबकि लडकों पर यह नियम पूरी तरह लागू नहीं होता । यहां तक कि लडकी की मोटी आवाज भी एक अवगुण माना जाता है, हमेशा एक मनोवैज्ञानिक दबाव डाला जाता है । खुलकर हंसना, खांसना, छींकना, खुजली करना, चलना, बोलना भी घोर अशोभनीय माने जाते हैं । अपने स्वतंत्र विचार कहना , अपना स्पष्टीकरण बताना भी दोष माने जाते हैं, जबकि इन बातों का लडके पर कोई अंकुश नहीं है ।
अब दूसरी बात, यह विश्वास अथवा भगवान हम कहां खोजें ? चूंकि ये चीजें दिखती नहीं है, मानना पडता है, विश्वास रखना पडता है । जैसे हवा, प्रकाश या ईश्वर । विश्वास भी दिखता नहीं है, मानना पडता है । हम यह भगवान या ईश्वर कहीं भी देख सकते हैं, किसी भी रुप में देख सकते हैं । इन्सान में भी, राम में भी, कृष्ण में भी, अपने माता पिता में भी, गुरु में भी, बच्चें में भी । यह हम पर निर्भर है कि हम अपना विश्वास या भगवान किसमें और किस रुप में देखते हैं । इसके बाद हमारी शंका दूर हो जाएगी, तब आनन्द का भाव होगा ।
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सफलता पाने के लिए किसी विशेष व्यक्ति पर अपनी आजादी को खत्म करना पडता है । उसका सहयोग मिलता है, खुशी होती है । लेकिन बाद में हमें भी उसको सहयोग कदेना पडता है, चाहे अपना मन न हो । स्पष्ट है कि खुशियां पाने के लिए अपनी कुछ खुशियों की कुर्बानी देनी पडती है ।
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हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हमारी प्रत्येक सफलता या असफलता के पीछे वास्तविक हकदार हम ही हैं । शायद यह बात प्रत्यक्ष में पता न लगे कि दोष या धन्यावाद किसका है, लेकिन ध्यान से गौर करने पर पता चलता है कि कहीं न कहीं शुरुआत या अंत हमने ही किया था । यदि किसी के प्रति अथवा हमारे प्रति कोई चाहत रखता है तो उसकी सफलता का श्रेय अपने को ही देना चाहिए । यदि कोई हमसे नफरत करता है तो इस असफलता के दोषी भी हम ही हैं । हम में ही कोई कमी घर बनाए हुए है जिसके कारण सामने वाला हमसे नफरत करता है अथवा गुस्सा करता है । इस बात को ध्यान से समझना होगा ।
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हम विश्व के सबसे अधिक प्रसन्न व्यक्ति है । हम में किसी चीज की कमी नहीं है । हम प्रत्येक क्षेत्र में सफलता पा सकते हैं, यदि वास्तव में चाहते हों । इधर हमारी चाहत बनी, उधर हम सफल हुए । खो जाना है । सब स्वीकार करना है । निर्विचार । आलोचना और टोकना छोड दीजिए । जो हो रहा है, ठीक हो रहा है । हंसना रोना, गाना, खाना पीना, सुख दुख सब स्वीकार कर लीजिए ।
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वर्तमान को देखकर जिया जाए तो दुख पर विजय है – यही संन्यास है । यहीं विजय है्, यही आनन्द है , यही सुख है । बीते समय की बार बार चर्चा करना अथवा भविष्य के बारे में योजनाएं ही बनाते रहना, दुखों का कारण है । अगरक आज के क्षणों को सुन्दर से सुन्दर बिताया जहाएगा, कल भी अच्छा होगा । सबको खुशियां बांटो, खुशियां हमारे जीवन में उसी रफतार से लौटकर आ जाएंगी ।
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जो बात हम करते नहीं हैं, वह कहते क्यों हैं ? उपदेश देना आसान है, लेकिन खुद भी तो कुछ करना होगा ?
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यह सत्य है कि हमारा जो विचार बन गया है, उस पर भी एक बार विचार कर लेना चाहिए ।
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हमारी हंसी उडाकर किसी को खुशी मिलती है या किसी को हंसी आती है तो स्वीकार कर लीजिए । यह बुरा नहीं है । अच्छा है । लेकिन हमें किसी की हंसी नहीं उडानी चाहिए । चुटकुला सुना है, हंसो । समझ में नहीं आया, तो भी हंसो । हमें भी चुटकुले सुनाने चाहिए । कोई नहीं हंसता तो हमें स्वयं हंसना चाहिए । खुलकर । यही राज है खुशमिजाज रहने का । एक दिन यह बात आम हो जाएगी । हम सबसे अधिक खुशनसीब हो सकते हैं ।
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यदि हम चाहें तो अच्छा जीवन जी सकते हैं । साफ सुथरा रहना, तमीजदार व शिक्षित होना । यह सब अपने बस में है । शरीर को योग व ध्यान द्वारा सुडौल व स्वस्थ बनाया जा सकता है । जरुरत है संकल्प की । अपने प्रति एक उत्साह बनाए रखना जरुरी है वरना बोझिल मन से कुछ भी कर पाना सम्भव नहीं ।
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जितना हमारा वेतन है, उसमें हमारा गुजारा हो सकता है । अपने भागते मन को समझाना होगा । उन चीजों के लिए जो जरुरी नहीं हैं । एक एक रुपया खोजपूर्ण अर्थात सोच समझकर खर्च करना चाहिए और इसके साथ ही ज्यादा कमाई के लिए कोशिश आरम्भ कर देनी चाहिए । हम देखते हैं कि हमारे ज्यादात्तर खर्चे लापरवाही से होते हैं ।
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वास्तविक खुशी तो हमारे भीतर हैं । खुशी की शुरुआत अपने अन्दर से ही शुरु होती है और समाप्ति भी अपने अन्दर से ही होती है ।
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हमारे मां बाप यदि शिक्षित और अमीर हों तो अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दे सकते हैं और सही विकास का मार्गदर्शन भी । जहां बच्चों के विकास में हर चीज समय पर होना जरुरी है वहां बच्चों की रुचि का ध्यान रखना भी आवश्यक है । पढाई के साथ साथ खेंलकूद, कला, हॉबी पर ध्यान देना जरुरी है, बाद में नौकरी, कारोबार या विवाह आदि के बारे में सोचना चाहिए ।
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यदि हम अपने बडों का कहा मानते हैं, चाहे वह गलत ही क्यों न हो, चाहे वह हमारी आत्मा को अच्छा न भी लगे, सब मान लें तो वे बहुत खुश रहते हैं और यदि उनके कथन को स्वीकार नहीं करते हैं, अपने विचारों को कहते हैं, अपने में एक आत्मविश्वास की झलक दिखाते हैं तो हम गलत हो जाते हैं । यदि दूसरों का कहा मानते रहते हैं तो हम शीघ्र ही बडों की नजरों में प्रिय हो जाते हैं । जब भी वे जैसा भी चाहें, वैसा ही करें । चाहे हम अपना काम छोड दें । इस प्रकार देखा गया है कि सारा समय सेवा करते रहें, आदर की भावना रखते रहें तो ठीक समझा जाता है किन्तु एक बार भी हम उनकी सेवा करने में, उनका कहा मानने में असमर्थ हो जाते हैं तो सारा किया समाप्त हो जाता है ।इसी प्रकार यदि हम किसी के लिए कुछ भी नहीं करते हैं, समय पर कर देते हैं तो हमारी खूब तारीफ होती है, हम प्रिय हो जाते हैं । समाज की व्यवस्थाएं इतनी जडवत हैं कि उनको याद करते ही एक गुस्से का अहसास होता है । लडकी के लिए कई बाधाएं हैं, कई अभिशाप हैं । लडकी का मोटी होना, पतली होना, ठिगनी होना, लम्बी होना, आंखों पर चश्मा होना, बालों का सफेद होना, अनपढ होना आदि अयोग्याएं मानी जाती हैं । जबकि लडकों पर यह नियम पूरी तरह लागू नहीं होता । यहां तक कि लडकी की मोटी आवाज भी एक अवगुण माना जाता है, हमेशा एक मनोवैज्ञानिक दबाव डाला जाता है । खुलकर हंसना, खांसना, छींकना, खुजली करना, चलना, बोलना भी घोर अशोभनीय माने जाते हैं । अपने स्वतंत्र विचार कहना , अपना स्पष्टीकरण बताना भी दोष माने जाते हैं, जबकि इन बातों का लडके पर कोई अंकुश नहीं है ।
Sunday, July 4, 2010
युवकों में विवाह के प्रति एक डर की भावना के पीछे कुछ कारण है । युवकों का विवाह के प्रति इंकार करने का कारण उनकी वैवाहिक जीवन के प्रति जानकारी की कमी का होना है । अर्थात हम लोग आरम्भ ही इस शब्द से करते हैं कि वे दोनों विवाह के बंधन में बंध गए । जब तक विवाह को बंधन माना जाता रहेगा, युवकों का विवाह के प्रति अरुचि बढती जाएगी । विवाह जरुरी भी नहीं है । यदि एक युवक के पास कमाई के इतने साधन नहीं हैं कि वह एक भावी परिवार को पाल सके, उसे विवाह करने का अधिकार नहीं होना चाहिए । क्या यह सच नहीं है कि आज के युग में आर्थिक रुप से बुरी तरह पिछडे दम्पत्ति अपने पीछे छोड जाता है एक असहाय परिवार । क्या विवाह उनके लिए भी जरुरी है जो अपाहिज या मानसिक रुप से बीमार है ।
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इतना ताे स्पष्ट है िक संसारिक दौड में कुछ भी नहीं धरा है । क्षणिक सुख के पीछे दुख ही दुख । ध्यान करना बेहद जरुरी है, मन को शांति रखने के लिए ध्यान में खोना आवश्यक है ।
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लडकों की अपेक्षा लडकियों में अधिक सरलता,संयम देखने को मिलता है । हां, अपवाद हो सकते हैं, लेकिन ज्यादात्तर लडकियों में समझ् ज्यादा होती है । एक बात और, लडकियां बीती हुई बातों को अक्सर याद रखती हैं जबकि अधिकत्तर लडके भूल जाते हैं । ****
बात को शोर्ट में करना ही बेहतर है । शोर्ट में ही समझना ठीक है । आंखे इधर उधर मटकाकर देखना, अशांति की निशानी है । अपनी आंखे नम होनी चाहिए । केवल अपने उददेश्य को मध्यनजर रखना चाहिए, बाकी के सभी कार्य बेकार हैं । उददेश्य की पूर्ति के लिए पूरी तरह समर्पित होना जरुरी है । हम अपनी शक्तियों को इधर उधर बांट देते हैं, जो ठीक नहीं है । ****
एक विद्वान ने कहा है कि धन को हाथ में रखो, दिल में नहीं ।
चिन्ता करने से कुछ न होगा । दबाना नहीं चाहिए, देखना चाहिए, जानना चाहिए और समझना चाहिए । दबाने से कोई हल न होगा, हां, समझ्ने से हल होगा । ****
हम डाक्टर हैं तो अच्छे हैं, वकील हैं तो भी अच्छे हैं, क्लर्क हैं तो भी अच्छे हैं । यह समझकर कि दूसरे बुरे हैं । हम डाक्टर हैं और खुश हैं, क्यों हम धन भी कमा रहे हैं और सेवा भी कर रहे हैं । वकील से तो अच्छे हैं झूठ तो नहीं बोलना पडता, सिर खपाई तो नहीं करनी पडती । और अगर वकील हैं तो भी अच्छे हैं । मजे में हैं । थोडा सा बोलकर, थोडा सा तर्क, थोडा सा झूठ खूब कमा तो रहे हैं । डाक्टर की भी कोई जिन्दगी है न दिन का आराम, न रात का चैन, डाक्टर तो अपनी पत्नी के लिए समय निकालना मुश्किल हो जाता है, आप वकील हैं, अच्छे है, रात को आराम से सोते तो हैं । यानि जीवन जैसा है, सुन्दर है। जीवन को स्वीकार भाव से जीना चाहिए ।
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हमें इस बात को स्वीकार करना ही होगा कि असंतोष भी एक अनिवार्य शर्त है जीवन में । इस असंतोष को स्वीकार करने के लिए हमें संतोष रखना होगा ।
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एक मन है और एक मन के नीचे । ज्यादात्तर लोग मन को ही सब कुछ समझ बैठते हैं । लेकिन देखना है कि आप और हम मन के गुंलाम हैं या मन हमारा गुलाम है । यदि मन हमारा गुलाम है तो ठीक है और यदि हम मन के गुलाम हैं तो गडबड है ।
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हम लोग जरुरत से ज्यादा आशा रखते हैं । फलां हमें बहुत चाहता है, बहुत प्यार करता है । हम लोग तो यह भी सोचते हैं कि फलां हमें नमस्ते करेगा, चाय पानी पूछेगा । और जब दूसरा नमस्ते नहीं कर पाता अथवा चाय पानी नहीं पूछता, तो हमें गुस्सा आ जाता है, हम नाराज होने लगते हैं । क्यों ? पूछना होगा अपने आप से । जानना होगा कि क्यों गुस्सा आता है । कोई कारण नहीं सिवाए अंहकार के । हम लोग अपने अंहकार की पूर्ति पाते हैं जब कोई हमारी प्रशंसा करता है । हमें लगता है कि फलां फलां हमारा अनुयायी है, हमसे जूनियर है । तभी तो आकर नमस्ते की, हमें चाय पानी पूछा, वह हमें चाहता है, उसे हमारी जरुरत है, हमारे अंहकार की पूर्ति होती है ।
लोग अपने को दूसरों की निगाहों में आकर्षित करने के लिए तरह तरह के तरीके अपनाते हैं । कोई सुन्दर जूते पहनता है तो कोई झूठी कहानियां सुनाकर अपनी शान दिखाता है
। बस, हमारा नाम हो, लोग हमारे प्रशंसक बन जाएं । यदि वे अपने काम में सफल नहीं हो पाते तो उन्हें शीघ्र गुस्सा आ जाता है, उन्हें लगता है जैसे उनका उपहास उडा दिया है, उनका अपमान हो रहा है ।
****
रुपयों से सोने का बिस्तरा तो खरीदा जा सकता है लेकिन नींद नहीं । नींद तो हमें अपने अन्दर से ही पैदा करनी होगी । यह रुपयों से नहीं खरीदी जा सकती, रुपया तो एक मात्र साधन है । महत्वपूर्ण और उपयोगी है साध्य तो अपने अन्दर से खोजना होता है ।
***
स्मरणशक्ति का तीवग्र होना बहुत जरुरी है । इसका जहां अपने को तो लाभ होता ही है, दूसरे पर भी अच्छा प्रभाव पडता है । हम किसी से मुलाकात करते हैं । दूसरी मुलाकात में यदि उसका नाम और अन्य जानकारी याद रखते हैं तो वह दूसरा बहुत प्रसन्न होता है । योग्य व्यक्तियों के बारे में जानकरी और सम्पर्क रखते रहना चाहिए । हमें स्वयं अच्छा लगेगा और जिसके परिणाम भी सुन्दर होंगे । ***
हम अपने विचारों को किसी पर लाद नहीं सकते । जरुरी नहीं है कि दूसरा हमारी बात को माने, हमारे विचारों से सहमत हो, हम तो केवल अपने विचार जाहिर कर सकते हैं । मानना या न मानना दूसरे का निजी विचार होगा । दूसरों के पर्सनल मामलों में दखल नहीं करना चाहिए ।
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हम में से ज्यादातर लोग अपनी शक्ति को वेवजह नष्ट का देते हैं । यदि हम उन शक्तियों को खर्च करने के बजाय एकत्रित कर लें तो उसका उपयोग अच्छे कार्यों में कर सकते हैं । पढाई की ओर ऊर्जा को लगाकर रचनात्मक बना जा सकता है ।
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इतना ताे स्पष्ट है िक संसारिक दौड में कुछ भी नहीं धरा है । क्षणिक सुख के पीछे दुख ही दुख । ध्यान करना बेहद जरुरी है, मन को शांति रखने के लिए ध्यान में खोना आवश्यक है ।
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लडकों की अपेक्षा लडकियों में अधिक सरलता,संयम देखने को मिलता है । हां, अपवाद हो सकते हैं, लेकिन ज्यादात्तर लडकियों में समझ् ज्यादा होती है । एक बात और, लडकियां बीती हुई बातों को अक्सर याद रखती हैं जबकि अधिकत्तर लडके भूल जाते हैं । ****
बात को शोर्ट में करना ही बेहतर है । शोर्ट में ही समझना ठीक है । आंखे इधर उधर मटकाकर देखना, अशांति की निशानी है । अपनी आंखे नम होनी चाहिए । केवल अपने उददेश्य को मध्यनजर रखना चाहिए, बाकी के सभी कार्य बेकार हैं । उददेश्य की पूर्ति के लिए पूरी तरह समर्पित होना जरुरी है । हम अपनी शक्तियों को इधर उधर बांट देते हैं, जो ठीक नहीं है । ****
एक विद्वान ने कहा है कि धन को हाथ में रखो, दिल में नहीं ।
चिन्ता करने से कुछ न होगा । दबाना नहीं चाहिए, देखना चाहिए, जानना चाहिए और समझना चाहिए । दबाने से कोई हल न होगा, हां, समझ्ने से हल होगा । ****
हम डाक्टर हैं तो अच्छे हैं, वकील हैं तो भी अच्छे हैं, क्लर्क हैं तो भी अच्छे हैं । यह समझकर कि दूसरे बुरे हैं । हम डाक्टर हैं और खुश हैं, क्यों हम धन भी कमा रहे हैं और सेवा भी कर रहे हैं । वकील से तो अच्छे हैं झूठ तो नहीं बोलना पडता, सिर खपाई तो नहीं करनी पडती । और अगर वकील हैं तो भी अच्छे हैं । मजे में हैं । थोडा सा बोलकर, थोडा सा तर्क, थोडा सा झूठ खूब कमा तो रहे हैं । डाक्टर की भी कोई जिन्दगी है न दिन का आराम, न रात का चैन, डाक्टर तो अपनी पत्नी के लिए समय निकालना मुश्किल हो जाता है, आप वकील हैं, अच्छे है, रात को आराम से सोते तो हैं । यानि जीवन जैसा है, सुन्दर है। जीवन को स्वीकार भाव से जीना चाहिए ।
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हमें इस बात को स्वीकार करना ही होगा कि असंतोष भी एक अनिवार्य शर्त है जीवन में । इस असंतोष को स्वीकार करने के लिए हमें संतोष रखना होगा ।
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एक मन है और एक मन के नीचे । ज्यादात्तर लोग मन को ही सब कुछ समझ बैठते हैं । लेकिन देखना है कि आप और हम मन के गुंलाम हैं या मन हमारा गुलाम है । यदि मन हमारा गुलाम है तो ठीक है और यदि हम मन के गुलाम हैं तो गडबड है ।
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हम लोग जरुरत से ज्यादा आशा रखते हैं । फलां हमें बहुत चाहता है, बहुत प्यार करता है । हम लोग तो यह भी सोचते हैं कि फलां हमें नमस्ते करेगा, चाय पानी पूछेगा । और जब दूसरा नमस्ते नहीं कर पाता अथवा चाय पानी नहीं पूछता, तो हमें गुस्सा आ जाता है, हम नाराज होने लगते हैं । क्यों ? पूछना होगा अपने आप से । जानना होगा कि क्यों गुस्सा आता है । कोई कारण नहीं सिवाए अंहकार के । हम लोग अपने अंहकार की पूर्ति पाते हैं जब कोई हमारी प्रशंसा करता है । हमें लगता है कि फलां फलां हमारा अनुयायी है, हमसे जूनियर है । तभी तो आकर नमस्ते की, हमें चाय पानी पूछा, वह हमें चाहता है, उसे हमारी जरुरत है, हमारे अंहकार की पूर्ति होती है ।
लोग अपने को दूसरों की निगाहों में आकर्षित करने के लिए तरह तरह के तरीके अपनाते हैं । कोई सुन्दर जूते पहनता है तो कोई झूठी कहानियां सुनाकर अपनी शान दिखाता है
। बस, हमारा नाम हो, लोग हमारे प्रशंसक बन जाएं । यदि वे अपने काम में सफल नहीं हो पाते तो उन्हें शीघ्र गुस्सा आ जाता है, उन्हें लगता है जैसे उनका उपहास उडा दिया है, उनका अपमान हो रहा है ।
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रुपयों से सोने का बिस्तरा तो खरीदा जा सकता है लेकिन नींद नहीं । नींद तो हमें अपने अन्दर से ही पैदा करनी होगी । यह रुपयों से नहीं खरीदी जा सकती, रुपया तो एक मात्र साधन है । महत्वपूर्ण और उपयोगी है साध्य तो अपने अन्दर से खोजना होता है ।
***
स्मरणशक्ति का तीवग्र होना बहुत जरुरी है । इसका जहां अपने को तो लाभ होता ही है, दूसरे पर भी अच्छा प्रभाव पडता है । हम किसी से मुलाकात करते हैं । दूसरी मुलाकात में यदि उसका नाम और अन्य जानकारी याद रखते हैं तो वह दूसरा बहुत प्रसन्न होता है । योग्य व्यक्तियों के बारे में जानकरी और सम्पर्क रखते रहना चाहिए । हमें स्वयं अच्छा लगेगा और जिसके परिणाम भी सुन्दर होंगे । ***
हम अपने विचारों को किसी पर लाद नहीं सकते । जरुरी नहीं है कि दूसरा हमारी बात को माने, हमारे विचारों से सहमत हो, हम तो केवल अपने विचार जाहिर कर सकते हैं । मानना या न मानना दूसरे का निजी विचार होगा । दूसरों के पर्सनल मामलों में दखल नहीं करना चाहिए ।
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हम में से ज्यादातर लोग अपनी शक्ति को वेवजह नष्ट का देते हैं । यदि हम उन शक्तियों को खर्च करने के बजाय एकत्रित कर लें तो उसका उपयोग अच्छे कार्यों में कर सकते हैं । पढाई की ओर ऊर्जा को लगाकर रचनात्मक बना जा सकता है ।
Saturday, July 3, 2010
हर व्यक्ति के जीने का तरीका अलग अलग होता है । अपने अपने देखने का तरीका होता है ।संसार मोह माया है अथवा नहीं, इस बारे में लोगों के अलग अलग विचार हैं । कई लोग इस जीवन को डरते हुए जीते हैं, कई शान से जीते हैं । कई तो ऐसे हैं जिन्हें यह भी पता नहीं कि वह क्यों जी रहे हैं, हम कैसे जीएंगे या हमें कैसे जीना चाहिए ? अपने आप को पहचनना ही सही मायने में जीना है । इंसान सत्य को जान जाए तो वह भगवान हो जाता है । हम भी भगवान हो सकते हैं । लोगों के ये जो भगवान हैं, क्या आप जानते हैं कि ये भगवान क्यों माने जाते हैं, क्यों पूजा की जाती हैं इनकी ? दरअसल इन्होंने अपने को जान लिीया था, सत्य को पहचान लिया था ।
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यदि हम यह प्रण कर लें कि सदा मुस्कराते हुए जीने का प्रयास करुंगा, सचेत और चैतन्य, अवेयर होकर जीने का प्रयास करुंगा, कडी मेहनत की भावना से जीने का प्रयास करुंगा तो जीवन में प्रेम का रस पैदा होता है ।
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कहते हैं कि मैं गुस्सा करता ही नहीं हूं, वह तो वैसे ही कभी कभी हो जाता है । गुस्सा तो लोग दिलाते हैं, मैं तो बहुत ही नम्र हूं, गुस्सा करना गलत समझता हूं । लेकिन यह धारणा बहुत गलत है । अगर हमारे भीतर गुस्सा है तो वह जरुर आएगा । गुस्सा हमारे बीच दबा हुआ है, उसे निकलने का मौका चाहिए, वह मौका कोई भी हो सकता है । मान लीजिए, हमको किसी ने गाली दी है तो हम गुंस्से में भर जाते हैं । साफ जाहिर है गुस्सा दबा हुआ था, जो गाली के बहाने बाहर निकल आया है। और यदि गुस्सा दबा हुआ नहीं होगा तो गाली का कुछ भी असर नहीं होगा, कोई अर्थ न होगा गाली का । हां, यदि गुस्सा दबा होगा तो गाली अपना प्रभाव दिखाएगी ।
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खण्डर बताते हैं कि एक दिन हम महल थे, शान शौकत थी । खण्डर बताते हैं कि एक दिन हमारा महल भी खण्डर हो जाएगा ।
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एक आदमी धूप में बैठा था । दूसरा व्यक्ति आया और बोला – अरे खाली क्यों बैठे हो, धन कमाओ, बंगला बनाओ, नाम कमाओ, तब आराम से जीना । पहला बोला – वह तो मैं कर ही रहा हूं, मैं आराम से जी ही रहा हूं । यदि इतना सब कुछ करने के बाद भी आराम न मिला तो ? बाद में आराम मिल सकेगा अथवा नहीं, कहा नहीं जा सकता । हां, तुम जरुर मेरे आराम में बाधा उत्पन्न कर रहे हो । सिकन्दर ने भी कहा था – मैं इस देश को जीत लूं, उस देश को जीत लूं, तब आराम से बैठूगां । लेकिन आराम बाद में नहीं मिलता ।
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एक बार बुदध के शिष्यों ने बुदध से पूछा – आप शांति के बारे में भी कुछ कहें, लोग शांति चाहते हैं । तब बुदध बोले – लोग शांति नहीं चाहते हैं । शिष्य बहुत हैरान हुए तो बुदध ने कहा तुम आज गांव में जाकर लोगों से पूछो कि तुम्हें क्या चाहिए ? शिष्य गांव गये और पूछा कि उन्हें क्या चाहिए ? आश्चर्य हुआ कि किसी ने भी शांति पाने के लिए नहीं कहा । किसी ने बेटा मांगा, किसी ने धन, किसी ने मकान, किसी ने नौकरी, किसी ने पद प्रतिष्ठा ।
****
हम लोगों को इस बात का कतई भी एकसास नहीं कि सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख चक्र चलता रहता है ।
****
जीवन दुखों का चक्र है और दुखों का कारण है हमारी इच्छाएं ।
****
यह मुझसे बडे हैं, पद में भी और आयु में भी । मुझे अपने सभी बडों का आदर करना चाहिए । यदि इसको ध्यान में रख लिया जाए तो असफलता के द्वार बन्द हो सकते हैं । बातचीत करते समय यह सोचना कि उचित किया गया कार्य अथवा बात उचित थी ? यदि उचित नहीं था तो ऐसा क्यों किया गया, यह प्रश्न पूछना है अपने आप से ।
**** थोडा घुलमिलकर रहना भी अनिवार्य सा हो जाता है । ऐसा महसूस न होने दिया जाए कि हम तुमसे अलग हैं । जीवन को सिर्फ भविष्य मानकर ही नहीं बल्कि वर्तमान में भी देखना जरुरी है । खुश रहना चाहिए । रोता हुआ चेहरा न अपने को अच्छा लगता है और न दूसरों को ही । मुस्कराता हुआ चेहरा रखिए ।
****
व्यक्ति जैसा साहित्य पढता है, वैसा ही उसका मन मस्तिष्क होने लगता है । गम्भीर साहित्य, बच्चों का साहित्य, धार्मिक, हास्य, सामाजिक, जासूसी और अश्लील साहित्य, जैसा भी साहित्य व्यक्ति पढता है, वैसा ही उसका दिमाग बन जाता है । पिर अच्छे बुरे की पहचान तो सभी को है । व्यक्ति की पहचान उसके पसन्द के साहित्य से लगायी जा सकती है ।
****
यदि हम यह कहें कि मजा आ गया कि हमें काम नहीं करना पडता – हमारी यह धारणा गलत होगी । यहय आलस और असफलता की ओर बढते कदम हैं ।
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यदि हम यह प्रण कर लें कि सदा मुस्कराते हुए जीने का प्रयास करुंगा, सचेत और चैतन्य, अवेयर होकर जीने का प्रयास करुंगा, कडी मेहनत की भावना से जीने का प्रयास करुंगा तो जीवन में प्रेम का रस पैदा होता है ।
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कहते हैं कि मैं गुस्सा करता ही नहीं हूं, वह तो वैसे ही कभी कभी हो जाता है । गुस्सा तो लोग दिलाते हैं, मैं तो बहुत ही नम्र हूं, गुस्सा करना गलत समझता हूं । लेकिन यह धारणा बहुत गलत है । अगर हमारे भीतर गुस्सा है तो वह जरुर आएगा । गुस्सा हमारे बीच दबा हुआ है, उसे निकलने का मौका चाहिए, वह मौका कोई भी हो सकता है । मान लीजिए, हमको किसी ने गाली दी है तो हम गुंस्से में भर जाते हैं । साफ जाहिर है गुस्सा दबा हुआ था, जो गाली के बहाने बाहर निकल आया है। और यदि गुस्सा दबा हुआ नहीं होगा तो गाली का कुछ भी असर नहीं होगा, कोई अर्थ न होगा गाली का । हां, यदि गुस्सा दबा होगा तो गाली अपना प्रभाव दिखाएगी ।
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खण्डर बताते हैं कि एक दिन हम महल थे, शान शौकत थी । खण्डर बताते हैं कि एक दिन हमारा महल भी खण्डर हो जाएगा ।
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एक आदमी धूप में बैठा था । दूसरा व्यक्ति आया और बोला – अरे खाली क्यों बैठे हो, धन कमाओ, बंगला बनाओ, नाम कमाओ, तब आराम से जीना । पहला बोला – वह तो मैं कर ही रहा हूं, मैं आराम से जी ही रहा हूं । यदि इतना सब कुछ करने के बाद भी आराम न मिला तो ? बाद में आराम मिल सकेगा अथवा नहीं, कहा नहीं जा सकता । हां, तुम जरुर मेरे आराम में बाधा उत्पन्न कर रहे हो । सिकन्दर ने भी कहा था – मैं इस देश को जीत लूं, उस देश को जीत लूं, तब आराम से बैठूगां । लेकिन आराम बाद में नहीं मिलता ।
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एक बार बुदध के शिष्यों ने बुदध से पूछा – आप शांति के बारे में भी कुछ कहें, लोग शांति चाहते हैं । तब बुदध बोले – लोग शांति नहीं चाहते हैं । शिष्य बहुत हैरान हुए तो बुदध ने कहा तुम आज गांव में जाकर लोगों से पूछो कि तुम्हें क्या चाहिए ? शिष्य गांव गये और पूछा कि उन्हें क्या चाहिए ? आश्चर्य हुआ कि किसी ने भी शांति पाने के लिए नहीं कहा । किसी ने बेटा मांगा, किसी ने धन, किसी ने मकान, किसी ने नौकरी, किसी ने पद प्रतिष्ठा ।
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हम लोगों को इस बात का कतई भी एकसास नहीं कि सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख चक्र चलता रहता है ।
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जीवन दुखों का चक्र है और दुखों का कारण है हमारी इच्छाएं ।
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यह मुझसे बडे हैं, पद में भी और आयु में भी । मुझे अपने सभी बडों का आदर करना चाहिए । यदि इसको ध्यान में रख लिया जाए तो असफलता के द्वार बन्द हो सकते हैं । बातचीत करते समय यह सोचना कि उचित किया गया कार्य अथवा बात उचित थी ? यदि उचित नहीं था तो ऐसा क्यों किया गया, यह प्रश्न पूछना है अपने आप से ।
**** थोडा घुलमिलकर रहना भी अनिवार्य सा हो जाता है । ऐसा महसूस न होने दिया जाए कि हम तुमसे अलग हैं । जीवन को सिर्फ भविष्य मानकर ही नहीं बल्कि वर्तमान में भी देखना जरुरी है । खुश रहना चाहिए । रोता हुआ चेहरा न अपने को अच्छा लगता है और न दूसरों को ही । मुस्कराता हुआ चेहरा रखिए ।
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व्यक्ति जैसा साहित्य पढता है, वैसा ही उसका मन मस्तिष्क होने लगता है । गम्भीर साहित्य, बच्चों का साहित्य, धार्मिक, हास्य, सामाजिक, जासूसी और अश्लील साहित्य, जैसा भी साहित्य व्यक्ति पढता है, वैसा ही उसका दिमाग बन जाता है । पिर अच्छे बुरे की पहचान तो सभी को है । व्यक्ति की पहचान उसके पसन्द के साहित्य से लगायी जा सकती है ।
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यदि हम यह कहें कि मजा आ गया कि हमें काम नहीं करना पडता – हमारी यह धारणा गलत होगी । यहय आलस और असफलता की ओर बढते कदम हैं ।
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Friday, July 2, 2010
हमारे सभी कार्यक्लाप और सोचना सब दूसरों से लिया गया है, नकल किया गया है । अपना कुछ भी नहीं है । अपने सोचने का एक तरीका नहीं है ।और यही हमारे दुख का कारण है । यही वजह है कि हम अपने बीच हीनभावना पैदा कर लेते हैं । आप क्लर्क बन गये । पढाई एवं दिमाग का कार्य करते है, बडे उत्साह और खुशी के साथ, लेकिन तभी आपको इस बात का अहसास दिलाया जाता है कि क्लर्क बनना तो बुरा होता है ।आप पर इसका प्रभाव होता है, आप परेशान हो उठते हैं । आप समझने लगते हैं कि क्लर्क बनना बुरा है । दरअसल क्लर्क बनना इतना बुरा नहीं है जितना उसके बारे में सोचना है । यदि हम किसी काम को अच्छा कहते हैं तो वह अच्छा हो जाता है और किसी चीज को बुरा कहते हैं तो वह बुरा हो जाता है । वास्तव में चीज न बुरी होती है और न अच्छी, हमारे सोचने का तरीका अच्छा या बुरा होता है । जब तक हम अपनी आत्मा को झांककर नहीं देखेंगे कि फलां चीज बुरी है या अच्छी, नहीं पता चलेगा । हम सोए सोए जी रहे हैं । बडी अजीब बात है कि हम अपने सोचे के अनुसार कुछ भी नहीं कर सकते । ---- सच को पहचानना बहुत बडा गुण है और सच को स्वीकार करना उससे भी बडा गुण है । ----
किसी भी एक राय के ऊपर जिददी बनना मात्र मूर्खता है । समय स्थिति को देखकर, पहचानकर परिवर्तन लाना चाहिए और व्यवहार करना चाहिए, यही उचित है ।
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हमारी जो इच्छाएं हैं, वे कभी भी समाप्त नहीं हो सकती । इनको केवल दबाया जा सकता है । वह भी कुछ समय के लिए, लेकिन खत्म नहीं किया जा सकता । हां, खत्म किया जा सकता है यदि हम चाहते हों । सचमुच में चाहते रखते हो कि हमारी इच्छाएं कम हों अथवा खत्म हों । अपने को समझना होगा और ध्यान से देखना होगा । बेकार की इच्छाएं व चिन्ताएं तो फूर्र से उड जाएंगी ।
---- अपनी कामना, इच्छा बताने में कोई एतराज नहीं, लेकिन अपनी महत्वाकांक्षा अथवा इच्छा तभी बताएं जब हम पूरे आश्वस्त हो जाएं । जब हमें विश्वास हो जाएगा कि हमारी सोची हुई महत्वाकांक्षा ठीक है, दृढ है, तब कोई हमारी खिल्ली नहीं उडा सकता । अगर कोई खिल्ली उडाता भी होगा तो कोई फर्क नहीं पडेगा । अगर हमारी इच्छा अथवा महत्वाकांक्षा में एक संकल्प नहीं है तो दूसरे के टोकने पर या मजाक उडान पर हम निराश हो सकते हैं, हमारे ख्याली हौंसले टूट सकते हैं ।
---- कोई हमसे पूछे कि शरीर क्या है ? तो क्या हम यह जबाव देंगे कि शरीर एक कान है, शरीर एक नाक है अथवा मुंह है या सिर्फ पैर ही शरीर है । तो जबाव अधूरा होगा, गलत होगा । हमें ठीक से बताना होगा कि शरीर क्या है । शरीर में सैंकडों अंग हैं, क्रियाएं हैं, उन सबके मिलने से शरीर होता है । ठीक इसी प्रकार जीवन में केवल पैसा कमाते रहना ही मुख्य नहीं है । सारा जीवन दौलत कमाते रहने में ही लगा देना जीवन नहीं है , बल्कि कुछ और भी है । अपने को जानना, दूसरों को अपना समझकर जाग्रत करना, तब जिन्दगी के बारे में पता चलता है । धर्म क्या है, जीवन क्या है, हंसी,खुशी, दुख सुख, पीडा, शांति अशांति, आत्मा परमात्मका सब क्या है, पता चलेगा । तब धीरे धीरे पता लगता है । लेकिन जरुरी है कि हम अपनी आंखें खोलकर रखें ।
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अक्सर लोगों का विचार है कि वैवाहिक जीवन अच्छा साबित नहीं होता है । विवाह से पहले अच्छा है, शादी नहीं करनी चाहिए, हम विवाह नहीं करेंगे, ऐसे विचार बन जाते हैं । लेकिन यह विचारमात्र एक भय के अलावा कुछ नहीं । हमें डरा दिया गया है, इसलिए हमने विवाह के प्रति एक गलत धारणा बना रखी है । और भय एक ऐसा अवगुण है जो सर्वनाश कर देता है जीवन को । तब खोज करनी होगी । कभी कभी तो अपने जीवन को ही व्यर्थ मानते हैं । उन कमियों को देखना होगा । चूंकि गलतियां अपने बीच ही होती हैं, तो हमें अपने बीच ही जाना होगा । अपने को जानना होगा । होता यह है कि हम समस्याओं का हल बाहरी रुप से खोजते हैं, जबकि यह समस्याएं बाहरी नहीं हैं, अन्दुरुनी होती हैं । यह कैसे हो सकता है कि अन्दर के रोग का हल बाहर से खोजा जाए ? हम जब बीमार होते हैं तो बीमारी अन्दर से आती है और उस बीमारी को खत्म करने के लिए दवा अपने शरीर के अन्दर डालते हैं, यानि दवाई खाते हैं और दवा शरीर में पहुंचते ही बीमारी समाप्त हो जाती है । यदि हम बीमारी के इलाज के लिए दवा को शरीर पर मलें तो क्या बीमारी दूर होगी ? नहीं । इसी प्रकार हम भी अन्दर उत्पन्न बीमारी को बाहरी तरीकों से दूर करने की कोशिश करते हैं । यदि हम अशांति के कारणों को भीतर से झांककर देखें और इलाज करेंगे तो रोग का भी पता चल जाएगा, यह पता चल जाएगा कि हमारे जीवन में अशांति क्यों है ? इसी प्रकार हमारे वैवाहिक जीवन में भी जो अशांति है , उसके भीतरी कारण होते हैं, जबकि हल बाहरी ढूंढंत हैं – पैसे से, सामान से, यह झूठ है । सही हल खोजना होगा, यदि अपने अन्दर झांकें । अपने आप को पहचानेंगे, अपने को समझेंगे ।
किसी भी एक राय के ऊपर जिददी बनना मात्र मूर्खता है । समय स्थिति को देखकर, पहचानकर परिवर्तन लाना चाहिए और व्यवहार करना चाहिए, यही उचित है ।
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हमारी जो इच्छाएं हैं, वे कभी भी समाप्त नहीं हो सकती । इनको केवल दबाया जा सकता है । वह भी कुछ समय के लिए, लेकिन खत्म नहीं किया जा सकता । हां, खत्म किया जा सकता है यदि हम चाहते हों । सचमुच में चाहते रखते हो कि हमारी इच्छाएं कम हों अथवा खत्म हों । अपने को समझना होगा और ध्यान से देखना होगा । बेकार की इच्छाएं व चिन्ताएं तो फूर्र से उड जाएंगी ।
---- अपनी कामना, इच्छा बताने में कोई एतराज नहीं, लेकिन अपनी महत्वाकांक्षा अथवा इच्छा तभी बताएं जब हम पूरे आश्वस्त हो जाएं । जब हमें विश्वास हो जाएगा कि हमारी सोची हुई महत्वाकांक्षा ठीक है, दृढ है, तब कोई हमारी खिल्ली नहीं उडा सकता । अगर कोई खिल्ली उडाता भी होगा तो कोई फर्क नहीं पडेगा । अगर हमारी इच्छा अथवा महत्वाकांक्षा में एक संकल्प नहीं है तो दूसरे के टोकने पर या मजाक उडान पर हम निराश हो सकते हैं, हमारे ख्याली हौंसले टूट सकते हैं ।
---- कोई हमसे पूछे कि शरीर क्या है ? तो क्या हम यह जबाव देंगे कि शरीर एक कान है, शरीर एक नाक है अथवा मुंह है या सिर्फ पैर ही शरीर है । तो जबाव अधूरा होगा, गलत होगा । हमें ठीक से बताना होगा कि शरीर क्या है । शरीर में सैंकडों अंग हैं, क्रियाएं हैं, उन सबके मिलने से शरीर होता है । ठीक इसी प्रकार जीवन में केवल पैसा कमाते रहना ही मुख्य नहीं है । सारा जीवन दौलत कमाते रहने में ही लगा देना जीवन नहीं है , बल्कि कुछ और भी है । अपने को जानना, दूसरों को अपना समझकर जाग्रत करना, तब जिन्दगी के बारे में पता चलता है । धर्म क्या है, जीवन क्या है, हंसी,खुशी, दुख सुख, पीडा, शांति अशांति, आत्मा परमात्मका सब क्या है, पता चलेगा । तब धीरे धीरे पता लगता है । लेकिन जरुरी है कि हम अपनी आंखें खोलकर रखें ।
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अक्सर लोगों का विचार है कि वैवाहिक जीवन अच्छा साबित नहीं होता है । विवाह से पहले अच्छा है, शादी नहीं करनी चाहिए, हम विवाह नहीं करेंगे, ऐसे विचार बन जाते हैं । लेकिन यह विचारमात्र एक भय के अलावा कुछ नहीं । हमें डरा दिया गया है, इसलिए हमने विवाह के प्रति एक गलत धारणा बना रखी है । और भय एक ऐसा अवगुण है जो सर्वनाश कर देता है जीवन को । तब खोज करनी होगी । कभी कभी तो अपने जीवन को ही व्यर्थ मानते हैं । उन कमियों को देखना होगा । चूंकि गलतियां अपने बीच ही होती हैं, तो हमें अपने बीच ही जाना होगा । अपने को जानना होगा । होता यह है कि हम समस्याओं का हल बाहरी रुप से खोजते हैं, जबकि यह समस्याएं बाहरी नहीं हैं, अन्दुरुनी होती हैं । यह कैसे हो सकता है कि अन्दर के रोग का हल बाहर से खोजा जाए ? हम जब बीमार होते हैं तो बीमारी अन्दर से आती है और उस बीमारी को खत्म करने के लिए दवा अपने शरीर के अन्दर डालते हैं, यानि दवाई खाते हैं और दवा शरीर में पहुंचते ही बीमारी समाप्त हो जाती है । यदि हम बीमारी के इलाज के लिए दवा को शरीर पर मलें तो क्या बीमारी दूर होगी ? नहीं । इसी प्रकार हम भी अन्दर उत्पन्न बीमारी को बाहरी तरीकों से दूर करने की कोशिश करते हैं । यदि हम अशांति के कारणों को भीतर से झांककर देखें और इलाज करेंगे तो रोग का भी पता चल जाएगा, यह पता चल जाएगा कि हमारे जीवन में अशांति क्यों है ? इसी प्रकार हमारे वैवाहिक जीवन में भी जो अशांति है , उसके भीतरी कारण होते हैं, जबकि हल बाहरी ढूंढंत हैं – पैसे से, सामान से, यह झूठ है । सही हल खोजना होगा, यदि अपने अन्दर झांकें । अपने आप को पहचानेंगे, अपने को समझेंगे ।
Thursday, July 1, 2010
यदि किसी की भावनाएं हमारे प्रति समर्पित हैं तो हमको उसके सामने पूर्ण समर्पण कर देना चाहिए । लेकिन अपनी भावनाएं समर्पित करने से पहले यह भी तो गौर कर लेना चाहिए कि क्या दूसरा समर्पण के लिए तैयार है ? यदि नहीं तो क्यों ? क्या समर्पण कुछ लेने की, कुछ पाने की इच्छा रखता है ? यदि हां, तो दुख का आरम्भ होता है । दुख से पीडा । दुख का कारण ही हमारी इच्छा है । इच्छा यदि पूरी नहीं होती तो दुख होता है । क्या इच्छा करना छोड दें ? हां, छोडना ही उचित है । किसी से बहुत अपेक्षा करना,अपेक्षा का पूर्ण न होना, दुख व पीडा देता है, तनाव का वातावरण उत्पन्न होता है । क्या प्रेम में भी लेने की इच्छा होती है ? क्या प्रेम में भी मांग होती है कि दूसरा भी मुझसे प्रेम करे ? नहीं, प्रेम में किसी भी चीज की मांग नहीं होती – बस होता है । यदि हम किसी से प्रेम करते हैं तो कुछ भी लेने की इच्छा नहीं होती । यदि कोई अधिकार, कोई संबंध की मांग करता है तो वह प्रेम नहीं, आसक्ति है, एकमात्र आकर्षण है । और आप जानते हैं आसक्ति और आकर्षण धीरे धीरे समाप्त हो जाता है । यदि प्रेम का भाव है तो अच्छा है, प्रेम संबंधों में परिवर्तन हो सकता है । यदि प्रेम को संबंधों में परिवर्तित करने की इच्छा को ही मिटा दें, भाव तो यह होना चाहिए संबंध बन जाएं तो ठीक है, न बने तो भी ठीक है । यदि हमने यह इच्छा रखी कि प्रेम का भाव संबंधों में बदल जाए और बाद में संबंध न बनें तो दुख का आरम्भ । वही पीडा, वही तनाव । यह पीडा या तनाव अपने जीवन में न हो, तो यह आशा, यह अभिलाषा, यह इच्छा, यह तमन्ना, यह आकांक्षा, यह कामना समाप्त करनी होगी कि प्रेम संबंधों में बदल जाए ।
यदि हम आने वाली प्रत्येक स्थिति के लिए पूरी तरह तैयार नहीं हों, बल्कि अपनी कुछ इच्छाएं, कुछ धारणाएं बना लें कि ऐसा हो, वैसा हो, ऐसा न हो, वैसा न हो तो दुख तो होगा ही । दूसरा हमारे दुख को कैसे दूर कर सकता है ? जो जैसा है, वैसा है, स्वीकार है । क्या हम स्वीकार का भाव रखने के लिए तैयार रहते हैं ? यदि प्रत्येक स्थिति में स्वीकार का भाव है तो जीवन आनन्द होने लगता है, यदि नहीं तो जीवन का आनन्द समाप्त होने लगता है । क्या हम आनेवाले प्रत्येक पल का सामना करने के लिए तैयार हैं ? यदि हां, तो प्रेम की सरिता उन्मुक्त प्रवाह में बहने लगती है ।
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एक दिल है और एक दिमाग । दोनों का अपना अपना स्थान है । क्या दिल से जीएं ? क्या दिमाग से जीएं ? किसकी सुनें दिन की या दिमाग की ? दोनों का एक साथ चलना ठीक नहीं है, खतरनाक भी है । केवल दिल से ही तो नहीं जिया जा सकता, केवल दिमाग से जीना भी अटपटा लगता है । कौन है जिसे प्राथमिकता दी जाए ? क्या दिल को ? क्या दिमाग को ? क्या ऐसा नहीं होता कि जब दिल से जिया जाता है तो दिमाग याद आता है । जब दिमाग से जीया जाता है तो दिल का ख्याल आता है ।
---- क्या अच्छा है और क्या बुरा, हमारे सामने कई बार यह प्रश्न उठ खडा होता है । क्या सबसे मिलजुलकर रहें, हंस गा कर बोलें ? एक उन्मुक्त और भरे भरे वातावरण में रहें ? दूसरी ओर यह भी, क्या अपने आप में रहें ? कोई ज्यादा हंसना गाना नहीं, भीड नहीं, शांत और बिल्कुल शांत रहें, एकान्त रहें । बस, एकांत का वातावरण हो । क्या ठीक है और क्या गलत ? क्या यह अपने पर निर्भर है कि हम जैसा रहना चाहते हैं वैसा ही रहें ? यदि यह नेचर पर निर्भर है तो क्या नेचर को बदला जा सकता है ? क्या अपने को बदला जा सकता है ? यह कैसे हो सकता है कि हम जैसा रहना चाहें, वैसा ही रहें – कोई दोहरी मानसिकता न हो, जीवन में कोई अडचन न हो ?
---- क्या कोशिश करने से कुछ होता है ? यदि हां तो पिर निर्णय लेने में देरी क्यों है ? जो हमारा रास्ता नहीं, हमारी मंजिल नहीं, उसके बारे में सोचना क्या मूर्खता नहीं है ? निर्णय चाहे कुछ भी हो पक्ष में या विपक्ष में, किन्तु बीच की स्थिति में ज्यादा देर रहना अनुचित ही नहीं बल्कि हानिकारक भी है । ----
नया रास्ता, नई खोज समय तो लगेगा ही । और अगर एकाग्रता भी पूर्ण रुप से न हो तो सफलता की आशा करना मूर्खता नहीं तो और क्या है ? हम उच्खृंलता के वातावरण में जाएंगे, हमको उच्छृंखल बनने में समय तो लगेगा ही । एक अच्छा व्यक्ति एकदम गन्दा आदमी नहीं बन सकता । इसी प्रकार एक परिवर्तन अच्छा बनने की, शांति प्राप्त करने का, समय तो लगेगा ही । एक ही बात है हम एकाग्रचित होकर लगातार अभ्यास करें । साधु संगति में पांच वष्ंर्। रहें तो हमारे बीच भी कई गुण साधु जैसे उत्पन्न हो जाएंगे और यदि पांच साल एक बदमाश की संगति में रहें तो कुछ असर तो बदमाशों वाला हो ही जाएगा । प्रकट होता है कि परिवर्तन आता है, तभी जब उस दिशा में परिवर्तन लाया जाए । जैसी दिशा होगी, वेसवा ही परिणाम सामने आएगा ।
---- पहले अपने बीच परिवर्तन लाना होगा, बाद में दूसरों के बीच परिवर्तन लाया जा सकता है । पहले अपने को देखना, दूसरों को बाद में देख लेना । केवल दूसरों को दोष देते रहना, उनकी गलतियों को देखते रहना, नुक्ताचीनी करते रहना ठीक नहीं है । पहले अपने को देखने की हिम्मत चाहिए । अब क्या है कि हम दूसरों को टोकते रहेंगे तो दुख हमें ही होगा । हम लोगों को नहीं बदल सकते, सिर्फ राह दिखा सकते हैं, मार्गदर्शन कर सकते हैं लेकिन लोगों में परिवर्तन नहीं ला सकते । व्यर्थ होगा सब । सब बेकार होगा यदि अपने को न बदला । अपने को बदल लिया, समझ लो पिर कुछ भी मुश्किल नहीं । और हां, जेसी संगत होगी, वैसी ही रंगत होगी । यानि जीवन का अच्छा या बुरा बनाना वातावरण पर निर्भर है ।
यदि हम आने वाली प्रत्येक स्थिति के लिए पूरी तरह तैयार नहीं हों, बल्कि अपनी कुछ इच्छाएं, कुछ धारणाएं बना लें कि ऐसा हो, वैसा हो, ऐसा न हो, वैसा न हो तो दुख तो होगा ही । दूसरा हमारे दुख को कैसे दूर कर सकता है ? जो जैसा है, वैसा है, स्वीकार है । क्या हम स्वीकार का भाव रखने के लिए तैयार रहते हैं ? यदि प्रत्येक स्थिति में स्वीकार का भाव है तो जीवन आनन्द होने लगता है, यदि नहीं तो जीवन का आनन्द समाप्त होने लगता है । क्या हम आनेवाले प्रत्येक पल का सामना करने के लिए तैयार हैं ? यदि हां, तो प्रेम की सरिता उन्मुक्त प्रवाह में बहने लगती है ।
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एक दिल है और एक दिमाग । दोनों का अपना अपना स्थान है । क्या दिल से जीएं ? क्या दिमाग से जीएं ? किसकी सुनें दिन की या दिमाग की ? दोनों का एक साथ चलना ठीक नहीं है, खतरनाक भी है । केवल दिल से ही तो नहीं जिया जा सकता, केवल दिमाग से जीना भी अटपटा लगता है । कौन है जिसे प्राथमिकता दी जाए ? क्या दिल को ? क्या दिमाग को ? क्या ऐसा नहीं होता कि जब दिल से जिया जाता है तो दिमाग याद आता है । जब दिमाग से जीया जाता है तो दिल का ख्याल आता है ।
---- क्या अच्छा है और क्या बुरा, हमारे सामने कई बार यह प्रश्न उठ खडा होता है । क्या सबसे मिलजुलकर रहें, हंस गा कर बोलें ? एक उन्मुक्त और भरे भरे वातावरण में रहें ? दूसरी ओर यह भी, क्या अपने आप में रहें ? कोई ज्यादा हंसना गाना नहीं, भीड नहीं, शांत और बिल्कुल शांत रहें, एकान्त रहें । बस, एकांत का वातावरण हो । क्या ठीक है और क्या गलत ? क्या यह अपने पर निर्भर है कि हम जैसा रहना चाहते हैं वैसा ही रहें ? यदि यह नेचर पर निर्भर है तो क्या नेचर को बदला जा सकता है ? क्या अपने को बदला जा सकता है ? यह कैसे हो सकता है कि हम जैसा रहना चाहें, वैसा ही रहें – कोई दोहरी मानसिकता न हो, जीवन में कोई अडचन न हो ?
---- क्या कोशिश करने से कुछ होता है ? यदि हां तो पिर निर्णय लेने में देरी क्यों है ? जो हमारा रास्ता नहीं, हमारी मंजिल नहीं, उसके बारे में सोचना क्या मूर्खता नहीं है ? निर्णय चाहे कुछ भी हो पक्ष में या विपक्ष में, किन्तु बीच की स्थिति में ज्यादा देर रहना अनुचित ही नहीं बल्कि हानिकारक भी है । ----
नया रास्ता, नई खोज समय तो लगेगा ही । और अगर एकाग्रता भी पूर्ण रुप से न हो तो सफलता की आशा करना मूर्खता नहीं तो और क्या है ? हम उच्खृंलता के वातावरण में जाएंगे, हमको उच्छृंखल बनने में समय तो लगेगा ही । एक अच्छा व्यक्ति एकदम गन्दा आदमी नहीं बन सकता । इसी प्रकार एक परिवर्तन अच्छा बनने की, शांति प्राप्त करने का, समय तो लगेगा ही । एक ही बात है हम एकाग्रचित होकर लगातार अभ्यास करें । साधु संगति में पांच वष्ंर्। रहें तो हमारे बीच भी कई गुण साधु जैसे उत्पन्न हो जाएंगे और यदि पांच साल एक बदमाश की संगति में रहें तो कुछ असर तो बदमाशों वाला हो ही जाएगा । प्रकट होता है कि परिवर्तन आता है, तभी जब उस दिशा में परिवर्तन लाया जाए । जैसी दिशा होगी, वेसवा ही परिणाम सामने आएगा ।
---- पहले अपने बीच परिवर्तन लाना होगा, बाद में दूसरों के बीच परिवर्तन लाया जा सकता है । पहले अपने को देखना, दूसरों को बाद में देख लेना । केवल दूसरों को दोष देते रहना, उनकी गलतियों को देखते रहना, नुक्ताचीनी करते रहना ठीक नहीं है । पहले अपने को देखने की हिम्मत चाहिए । अब क्या है कि हम दूसरों को टोकते रहेंगे तो दुख हमें ही होगा । हम लोगों को नहीं बदल सकते, सिर्फ राह दिखा सकते हैं, मार्गदर्शन कर सकते हैं लेकिन लोगों में परिवर्तन नहीं ला सकते । व्यर्थ होगा सब । सब बेकार होगा यदि अपने को न बदला । अपने को बदल लिया, समझ लो पिर कुछ भी मुश्किल नहीं । और हां, जेसी संगत होगी, वैसी ही रंगत होगी । यानि जीवन का अच्छा या बुरा बनाना वातावरण पर निर्भर है ।
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