छोटी छोटी गलतफहमियों की वजह से ही झगडे होते हैं । धारणा यही रहती है कि मेरा कोई कसूर नहीं है । लेकिन होता है इसके विपरीत । सामान्य परिस्थितियों में भी स्थिति असाधारण रुप ले लेती है, जिसका परिणाम होता है तनाव । ऐसा हो, वैसा हो, ऐसा न हो, वैसा न हो, इस तरह की सोच से ही दुख का आरम्भ होता है । खुशी का माहौल नहीं रह जाता । ---- बुरा मानने का सवाल ही पैदा नहीं होता, मैं क्यों बुरा मानूं, बुरा मानने से केवल नुकसान ही होता है, यह समझ ही तनाव की स्थिति से हमें निकाल सकती है । एक समझ की भावना ही जीवन में रुपातंरण ला देती है । उतावलापन और बडप्पन तकलीफदायक है । संयम का वातावरण तूफान नहीं लाता । निर्णय शक्ति का क्षीण होना एक अवगुण है । जो निर्णय लेना है, शीघ्र ही लिया जाना चाहिए
। जितनी देर लगा दी जाती है, अपने को एक ऐसी स्थिति में खडा कर दिया जाता है, जहां मात्र अंसंतुलन होता है । ****
यदि कोई गलती करता है तो उसे माफ करना ही श्रेयष्कर होगा । कोई अपनी गलती नहीं मानता तो न माने, क्योंकि हम भी गलत कदम उठाने लगे तो हम भी कसूरवार हो जाते हैं । तब हममें और उसमें कोई फर्क नहीं रह जाता । अत यदि हम सच्चे हैं तो हमें अवश्य संतोष होगा । सत्य हमेशा प्रतिफलित होता है, चाहे देर से ही । अपनी आत्मा शांत और सच्ची होगी तभी आनन्द का अनुभव होगा । अपराध भावना से जीना बेकार है । माफ कर देना और गुस्सा न करना दूसरे पर विजय पा लेने के सूत्र हैं ।
****
जीवन परिवर्तनशील है । पल पल में बदलता रहता है । जीवन के पल अच्छे भी रहते हैं और बुरे भी । कोई व्यक्ति अपना जीवन कैसे सुन्दर बना सकता है । यदि आर्थिक स्थिति अच्छी है और जीवन के प्रति एक स्नेह है तो जीवन सुन्दर होगा । जीवन तब भी सुन्दर होगा जब अपने समय को सुन्दर कार्यों में लगाया जाता है । वे सभी कार्य किए जाएं जिससे एक खुशी मिलती है । सुन्दर हंसमुख नैचर के साथ साथ विचारों में एकरुपता एवं दृढता होना जरुरी है । यह संकल्पशीलता से ही आती है । मन में एक संकल्प होना चाहिए कि मेरा जीवन सुन्दर है । एक एक सीढी बढना है, पिर सब कार्य पूरे होने लगते हैं ।
****
यह ख्याल तो बार बार आता है कि अच्छे शरीर के लिए जहां अच्छी खुराक खाना जरुरी है, वहां व्यायाम करना जरुरी है और व्यायाम के लिए डायनिमिक मेडिटेशन भी अच्छा है । यह मेडिटेशन शरीर को चुस्त, ताजा तो बनाता ही है, मानसिक शांति के लिए महत्वपूर्ण है । आंखों के लिए भी अच्छा है । जब चित्त शांत रहता है तो सभी कार्य आसानी से किए जा सकते हैं ।
****
यदि दो जने आपस में बहस करने लगें, लडने लगे तो एक को चुप हो जाना चाहिए । चूंकि दूसरा चुप होने को तैयार नहीं है, इसलिए खुद ही चुप हो जाना चाहिए । सिर्फ अपनी बात को मनवाने के लिए बार बार जोर डालना ठीक नहीं है । संक्षेप शब्दों में भी नहीं समझ में आने वाली बात को किया जा सकता है । यदि इस बात की चिन्ता नहीं की जाती तो आनेवाले जीवन में कई मुश्किलें आ सकती हैं । मुश्किलें तो हर तरह से आएंगी ही, इसको समझना है । अगर हम उन मुश्किलों को समझ लेते हैं तो मुश्किलें रह ही नहीं जाती । विवाह के बाद तो कई मुश्किलें आती हैं, उन सब पर भी विचार कर लेना चाहिए । विवाह के बाद केवल सुख की सेज ही नहीं, कांटों का हार भी है । दोनों साथ साथ हैं । यदि अपनी हार और दूसरे की जीत है तो क्या हम ऐसा नहीं मान सकते कि मेरी जीत उसकी भी जीत ?
****
कई बार हम बहुत उदास हो जाते हैं, एक निराशा का अनुभव करते हैं । कई बार बहुत खुश हो जाते है, एक आशा का अनुभव करते हैं । निराशा के क्षणों में जीवन को एक दुख मान लेते हैं । सोचते हैं हमारा जीवन बेकार है, दूसरों का अच्छा है । कभी कभी खुशी के क्षणों को पाकर अपना जीवन सुन्दर महसूस करते हैं, दूसरों के जीवन को बेकार व दुखपूर्ण मान लेते हैं । वास्तव में यह दोनों विचार सत्य हैं और असत्य भी हैं । सत्य इसलिए है कि यह सब स्वाभाविक है । असत्य इसलिए कि सब सत्य नहीं होता । हम जब तक दूसरों से अपना कम्पैरिजन करेंगे, जीवन में एक रुपता को महसूस नहीं कर सकेंगे । कभी दूसरों को अच्छा मानकर और अपने को बेकार मानकर चलने पर और इसी प्रकार दूसरों को बेकार मानकर अपने को अच्छा मानकर चलेंगें तो दोहरे मापदण्ड की स्थिति अवश्य ही उत्पन्न होगी । जीवन के बदलते रुपों को स्वीकार भाव से जीने पर ही दोहरेपन के अनुभव से दूर हो सकेंगे ।
कोई हमारी आलोचना करता है तो हमें बुरा नहीं मानना चाहिए बल्कि विचार करना चाहिए । यदि दूसरे की की गई आलोचना अथवा शिकायत उचित है तो धन्यावाद देना चाहिए । मन ही मन परिवर्तन ले आना चाहिए । कोई बात मत करना । और अगर उसकी बात गलत है, उसकी शिकायत या आलोचना गलत है तो हमें कोई प्रभाव नहीं होना चाहिए । उसको कहने दो । यह उसका सोचना या कहना है, हमारा नहीं । इसलिए बुरा मानने या नाराज होने का प्रश्न ही नहीं ।
****
क्या कभी कोई ऐसा भी करता है जो वह करना नहीं चाहता । वह जानता भी हो कि यह करना ठीक नहीं है । पल पल में उसे इसका होश हो कि यह सब ठीक नहीं कर रहा है, उसे वह सब करना चाहिए जो वह नहीं कर रहा है, यह भी जानता हो ? तब, यह सब जानते हुए भी, उसे क्या कहें हम ?
****
यदि किसी को कुछ बताया जाए तो दूसरा हमारी बात सुनने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं होगा । हमारी बात को तोड मरोड देगा, काट देगा । इसी तरह यदि कोई व्यक्ति हमको कोई बात बताता है तो हम उसकी बात नहीं सुनेंगे, बात को अनसूना कर देंगे, शायद मजाक भी उडाएं । लेकिन बातों के महत्व को तभी जाना जा सकता है जब कोई एक विशेष विषय पर पूछा जाए । यानि हम यदि किसी को जीवन के प्रति जो दृष्टिकोण है, बताते रहे, व्याख्या करते रहें, दूसरा नहीं सुनेगा, सुननेवाला केवल अपनी बात से ही प्रभावित रहेगा । यदि कोई हमसे पूछता है तभी बताना चाहिए । तब वह हमारी बात सुनेगा भी । इसी प्रकार यदि हमाको कुछ बताया जाए, हम नहीं सुनते, हम पूछेंगे, दूसरा बताएगा, तब हम भी सुनने के लिए राजी हो जाएंगे ।
****
मन की शांति और आत्मसंतुषटी के लिए दिन में एक बार अवश्य मौन भाव से उसे स्मरण करना चाहिए । इससे अहसास होगा कि जीवन में संतोष व आनन्द है । इसके लिए जरुरी है कि जीवन के प्रति प्रेम हो । प्रेम से तात्पर्य मोह नहीं है । किसी के प्रति मोह रखना खतरनाक साबित हो सकता है । प्रेमपूर्ण होना जरुरी है, सभी के लिए । वह प्रेम जो आत्म उपलब्धि से उत्पन्न होता है । जो हृदय से स्वयं ही उजागर होता है । प्रार्थना तभी घटती है जब हम भगवान के साथ चलने को तैयार हो जाते हैं ।
दो तीन बातें – अपने को अधिक महत्व देना चाहिए, समय कीमती है, जो काम करना है, उसे खुशी खुशी करना चाहिए । टाइम टेबल बनाकर काम करना ठीक रहता है । समय का सदुपयोग इस प्रकार किया जाए कि सभी काम पूरे हो जाएं और चेहरे पर एक संतोष हो । सभी काम करो लेकिन किसी एक के लिए ज्यादा वक्त दिया तो दूसरे काम रुक जाएंगे । जिस समय जो काम करने का समय हो, वही करें । अपना कर्म पूरी लगन के साथ किया जाए तो परेशानी का सवाल ही नहीं पैदा होता ।
No comments:
Post a Comment