विवाह से एक दिन पूर्व यौन संबंध सामाजिक अपराध है । एक अनैतिकता । विवाह के एक दिन बाद यौन संबंध सामाजिक अपराध नहीं है, अनैतिकता नहीं है । अर्थात व्यक्ति की बाहरी जिन्दगी समाज के तथाकथित नियमों के अनुसार चलती है । मानसिक और अन्दरुनी जीवन भी समाज के असूलों के अनुरुप होता ही सत्य है ।
हम चाहे कितना ही आधुंनिक बनने का दावा कर लें, कितना ही विदेशी पहनावा, संगीत व साहित्य को अपना लें, लेकिन हमारे अन्दर रुढिवादिता का कुरुप पुरुष छिपा रहता है । आधुनिकता और प्राचीनता का ऐसा रुप है, हम जिसे मध्य भी नहीं कह सकते ।
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जीवन से हास्य रस तो मानो खत्म ही हो गया है । चारों ओर उदास व नीरस चेहरे जब भी हंसने को जी चाहा, लेकिन चारों ओर वीरान चेहरे देखकर लगा – कहीं कुछ गलत तो नहीं करने जा रहे ?
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दो जनों की अंडरस्टेंडिंग पर निर्भर करता है कि स्थिति सामान्य हो । तू मेरी मान, मैं तेरी – झगडा खत्म । तू गलत, मैं ठीक –झगडा शुरु । देने पर ही मिलता है । सही रास्ता क्या है ? बार बार असफलता मिलती है तो निराशा आती है । शायद जो असफलता देखी, वह सही रास्ता नहीं था । अभी और प्रयास करने होंगे । इतना तो पता चल गया – जो देखा, असफलता के रुप में, वह सही रास्ता नहीं था ।
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मैं तुम्हारे दुख में शामिल तो हो सकता हूं । दवाई लाने पर दवाई ला सकता हूं, सेवा करने पर सेवा कर सकता हूं, लेकिन तुम दुखी होवोगे तो मैं दुखी नहीं हो पाऊंगा ।
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जीवन में बनाए गए सारे रिश्ते नाते एक अस्थाई समझौता है । एक हाथ ले, एक हाथ दे । इससे ज्यादा कुछ नहीं । जो अपना होने का दावा करते हैं, चतुर व्यापारी हो सकते हैं ।
कई बार तो सचमुच लता है कि मानो जीवन एक पहेली र्है । एक अनबूझ पहली । चारों ओर बनावटीपन । तनाव । जितना सुलझाने का प्रयास उतनी ही ज्यादा अनबुझ । विचारों की भाग दौड । उठक पठक है । मैं । तू । वो । अंहकार । आकांक्षा के पहाड । जैसे पहाड टूट पडा हो । गहराईयां और ज्यादा गहराईयां । स्टाप । गेट आउट । चले जाओ सब । मुझे अकेला छोड दो । ओफ । हम डायरी लिखते हैं, लेकिन डरते भी हैं । अपने मनोभावों को स्पष्ट और सत्य नहीं लिखते हैं । सोचते हैं हमारे मनोभावों को अपनों ने देख लिया तो ? वे नाराज न हो जाएं । सच की बात लिखना आसान नहीं । सच कडवा होता है ।सच की परछाईयां ही प्रकट होती हैं । अर्द्वसत्य भी नहीं । सत्य अन्दर ही अन्दर तडपता रहता है ।
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कई बार ऐसी बातें की जाती हैं कि मुझे झूठी शान, झूठी प्रतिष्ठा से कोई लगाव नहीं । मैं सादापन पसन्द हूं । लेकिन जब वास्तविकता के धरातल पर देखते हैं तो पाते हैं कि एक बार तो सादापन देखकर मस्तिष्क झन्ना उठता है । सादापन ऐसा लगता है मानो हमारी कोई इज्जत नहीं है । हम महसूस करते हैं जैसे यह कहीं हमारा अपमान तो नहीं । हो सकता है इस यात्रा के शुरु शुरु में ऐसा होता हो ।
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मां बाप अपने बच्चे को बिल्कुल स्वतंत्रता नहीं देना चाहते । पहले वह अपने बच्चे पर अधिकारपूर्ण व्यवहार करते हैं । अपनी बात को, अपने विचारों को बच्चों पर लादा जाता है । बच्चा विरोध करता है । तब, मां बाप बच्चे के प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार करने लगते हैं । बच्चा अपनी स्वतंत्रता चाहता है । मां बाप बच्चे को स्वतंत्रता देने की बजाए स्वच्छंदता की ओर धकेल देते हैं, मानो बच्चे से कोई संबंध ही न हो । बच्चा अपने विचारों की अभिव्यक्ति चाहता है । अपना जीवन खुद जीना चाहता है लेकिन मां बाप का व्यवहार बच्चों के प्रति दबावपूर्ण अथवा उपेक्षापूर्ण रहता है । यहीं कारण है कि बच्चा मां बाप के प्रति पूर्णत प्रेमपूर्ण नहीं हो पाता ।
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आपसे बहुत अधिक परिचित नहीं होते हुए भी अधिकारपूर्ण निवेदन करता हूँ की मेरे नवोदित ब्लॉग में प्रवेश कर मुझे अपना आशीर्वाद और महत्वपूर्ण मार्गदर्शन जिसकी मुझे महती आवश्यकता है प्रदान कर मेरे ब्लॉग लेखन को सार्थक बनायें......!!
ReplyDeleteआपसे बहुत अधिक परिचित नहीं होते हुए भी अधिकारपूर्ण निवेदन करता हूँ की मेरे नवोदित ब्लॉग में प्रवेश कर मुझे अपना आशीर्वाद और महत्वपूर्ण मार्गदर्शन जिसकी मुझे महती आवश्यकता है प्रदान कर मेरे ब्लॉग लेखन को सार्थक बनायें......!!
ReplyDeleteprdip ji aapne shbon men mn ki ghraayi or dil ki schchaayi ukeri he iske liyen bdhaayi ho . akhtar khan akela kota rajsthan . akhtarkhanakela.blogspot.com
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