Monday, July 12, 2010

• हम लोग अपनी छोटी छोटी असफलताओं से घबराकर अपने को असफल घोषित कर देते हैं । जैसे चारों ओर निराशा के अलावा कुछ भी नहीं । कई बार हम देखते हैं कि दूसरे लोग हमारे प्रति एक अच्‍छी छवि रखते हैं, हमारे व्‍यक्ति से प्रभावित होते हैं और उन्‍हें हमसे मिलकर प्रसन्‍नता होती है । बहुत अच्‍छी बात है कि यदि लोग हमारे बीच कुछ अच्‍छा देखते हैं । लेकिन मजेदार बात तब और ही हो जाती है जब हम ही अपने को असफल और निराश समझते हैं । प्रश्‍न यह उठता है कि यह दोहरी स्थिति क्‍यों है ? लोग हमें अच्‍छा और सफल कहें और हम अपने को बुरा और असफल समझें – एक बात तो माननी ही होगी कि अपने बीच ही कुछ कमी होती है । किसी ने बताया है हम सुबह उठते हैं तो तरो ताजा होते हैं, बाद में कामकाज में लग जांए तो ठीक, अगर खाली बैठे तो अपनी छुटपुट समस्‍याएं याद आती हैं, हम अपने को असफल समझने लग जाते हैं । इसलिए यह भी जरुरी है कि अपने को बिजी रखो ।
• सुख और दुख की शुरुआत अपने अन्‍दर से ही शुरु होती है और अपने अन्‍दर से ही समाप्‍त होती है । यदि अपने को समझ लिया जाए तो सारा संसार समझ में आने लगता है । यह सच है कि निन्‍दा करना एक अवगुण है । यदि निन्‍दा का भाव ही उत्‍पन्‍न ही न किया जाए तो चारों ओर विधायक सोचने की क्षमता में वृद्वि होती है ।
अपने बारे में पुनर्विचार एवं साक्षी का भाव रखना चाहिए । जब हम ध्‍यानपूर्वक हो जाते हैं तो हमें अनुभव होता है जैसे संसार आनन्‍द है । एक मन होकर हम प्रार्थनापूर्ण हो जाएं तो द्वंद्व की स्थिति समाप्‍त होती है । दृदय के तल पर जीने से ही प्रेम का अहसास होता है । प्रेमपूर्ण होने के लिए मन से ऊपर उठना पडता है । अपने बीच एक सुन्‍दर फूल का स्‍मरण करते ही फूल बन जाइए । एक रसपूर्ण और तेजस्‍व की तरह स्‍वामी हो जाओ । यही जीवन की वास्‍तविकता है । अपनी भावनाओं से भी अहिंसक होने में ही जीवन का आनन्‍द है । मन, वचन और कर्म से अहिंसक होना ही सही मार्ग है ।
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हम एक उपन्‍यास पढ रहे हो, यदि उसी उपन्‍यास के सामने उसी घटनाक्रम को टेलिविजन पर दिखा दिया जाए तो उपन्‍यास स्‍वयं ही छूट जाता है । इसी प्रकार यदि अपने अन्‍दर की अनन्‍त शक्तियों का पता चल जाए तो बाहर की दौड स्‍वयं ही समाप्‍त होने लगती है या यूं कमह लीजिए वह दौड खत्‍म हो जाती है । क्‍या हमें इस बात का अहसास है कि एक व्‍यक्ति में बहुत सी शक्तियां होती हैं । लगता तो कुछ ऐसा है कि एक व्‍यक्ति अपनी शक्तियों का अपने पूरे जीवन में 50 प्रतिशत भी प्रयोग में नहीं लाता है । यदि उन तमाम शक्तियों को पूरी लगन के साथ ध्‍यान में लगाया जाए तो सम्‍भवत व्‍यक्ति वह सब कर सकता है जो वह चाहता है । जैसे शेर हमारे पीछे हो, हम भागेंगे, इतनी तेज कि किसी तरह भी सोचा ही नहीं होगा कि हम इतनी तेज भी भाग सकते हैं । जैसे एग्‍जाम के दिनों में कोई विदयार्थी अपनी पढाई की गति दोगुनी कर देता है । यदि प्रतिपल मेहनती और चुस्‍त बना जाएतो कोई सन्‍देह नहीं कि सफलता व खुशहाली जीवन में पूरी तरह न छा जाए ।
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क्‍या हमारे पास फालतू समय है कि हम लोगों को खुश करने में ही अपना समय बिता दें ? लोग कहीं नाराज न हो जाएं इसलिए हम अपना मूल्‍यावान समय बेकार की बातचीत में लगा दें, लोगों को खुश करने में कहीं ऐसा न हो कि बहुत देर हो जाए और बाद में हमें लगे कि मैंने तो अपना समय खो दिया है ? यह सत्‍य है कि लोगों की हमारे प्रति धारणा अच्‍छी है – बुरी है । लेकिन इनका क्‍या मूल्‍य है ? कोई मूल्‍य नहीं है । कोई किसी को अच्‍छा इसलिए कहता है कि दूसरा उसके अनुसार आचरण करता है, वैसा ही करता है जैसा वह चाहता है । इसलिए अच्‍छा कहने वाले को अच्‍छा लगता है । बुरा इसलिए कहते हैं कि वे लोग जिनकी इच्‍छानुसार हम आचरण नहीं कर पाते । तो क्‍या यह सत्‍य कहा जा सकता है कि हम अच्‍छे हो या बुरे, इस‍का निर्णय दूसरे लोग करें ? क्‍या इसलिए कि लोग हमें कठपुतली की तरह नचाएं ? क्‍या इसका यह मतलब नहीं कि तुम क्‍या हो इसका निर्णय खुद कर सकें । हम स्‍वयं अनुभव करें कि हम कौन है ? इसका आभास करें, इसको अनुभव करें कि मैं कौन हूं । जनाव, वही कीजिए जो आपकी आत्‍मा कहती है, वह नहीं जो लोग कहते है। ****
केवल लोगों के बीच ही अपने को छोड देने से क्‍या वास्‍तविक आनन्‍द का अनुभव हो सकता है ? क्‍या लोगों के निर्णयों को ही सत्‍य माना जा सकता है ? हम अपने प्रति क्‍या सोचते हैं, उसकी कीमत कुछ भी नहीं ? कोई नया कदम उठाते हैं, तभी हम नया कदम उठाते हैं जब उसे ठीक समझते हैं, वरना शुरु करने का सवाल ही नहीं था । तब यह कैसे कहा जा सकता है कि दूसरों द्वारा कही गई बातें सत्‍य है, दूसरे कैसे कह सकते हैं कि हमारा उठाया गया कदम गलत है ?

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