यदि किसी की भावनाएं हमारे प्रति समर्पित हैं तो हमको उसके सामने पूर्ण समर्पण कर देना चाहिए । लेकिन अपनी भावनाएं समर्पित करने से पहले यह भी तो गौर कर लेना चाहिए कि क्या दूसरा समर्पण के लिए तैयार है ? यदि नहीं तो क्यों ? क्या समर्पण कुछ लेने की, कुछ पाने की इच्छा रखता है ? यदि हां, तो दुख का आरम्भ होता है । दुख से पीडा । दुख का कारण ही हमारी इच्छा है । इच्छा यदि पूरी नहीं होती तो दुख होता है । क्या इच्छा करना छोड दें ? हां, छोडना ही उचित है । किसी से बहुत अपेक्षा करना,अपेक्षा का पूर्ण न होना, दुख व पीडा देता है, तनाव का वातावरण उत्पन्न होता है । क्या प्रेम में भी लेने की इच्छा होती है ? क्या प्रेम में भी मांग होती है कि दूसरा भी मुझसे प्रेम करे ? नहीं, प्रेम में किसी भी चीज की मांग नहीं होती – बस होता है । यदि हम किसी से प्रेम करते हैं तो कुछ भी लेने की इच्छा नहीं होती । यदि कोई अधिकार, कोई संबंध की मांग करता है तो वह प्रेम नहीं, आसक्ति है, एकमात्र आकर्षण है । और आप जानते हैं आसक्ति और आकर्षण धीरे धीरे समाप्त हो जाता है । यदि प्रेम का भाव है तो अच्छा है, प्रेम संबंधों में परिवर्तन हो सकता है । यदि प्रेम को संबंधों में परिवर्तित करने की इच्छा को ही मिटा दें, भाव तो यह होना चाहिए संबंध बन जाएं तो ठीक है, न बने तो भी ठीक है । यदि हमने यह इच्छा रखी कि प्रेम का भाव संबंधों में बदल जाए और बाद में संबंध न बनें तो दुख का आरम्भ । वही पीडा, वही तनाव । यह पीडा या तनाव अपने जीवन में न हो, तो यह आशा, यह अभिलाषा, यह इच्छा, यह तमन्ना, यह आकांक्षा, यह कामना समाप्त करनी होगी कि प्रेम संबंधों में बदल जाए ।
यदि हम आने वाली प्रत्येक स्थिति के लिए पूरी तरह तैयार नहीं हों, बल्कि अपनी कुछ इच्छाएं, कुछ धारणाएं बना लें कि ऐसा हो, वैसा हो, ऐसा न हो, वैसा न हो तो दुख तो होगा ही । दूसरा हमारे दुख को कैसे दूर कर सकता है ? जो जैसा है, वैसा है, स्वीकार है । क्या हम स्वीकार का भाव रखने के लिए तैयार रहते हैं ? यदि प्रत्येक स्थिति में स्वीकार का भाव है तो जीवन आनन्द होने लगता है, यदि नहीं तो जीवन का आनन्द समाप्त होने लगता है । क्या हम आनेवाले प्रत्येक पल का सामना करने के लिए तैयार हैं ? यदि हां, तो प्रेम की सरिता उन्मुक्त प्रवाह में बहने लगती है ।
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एक दिल है और एक दिमाग । दोनों का अपना अपना स्थान है । क्या दिल से जीएं ? क्या दिमाग से जीएं ? किसकी सुनें दिन की या दिमाग की ? दोनों का एक साथ चलना ठीक नहीं है, खतरनाक भी है । केवल दिल से ही तो नहीं जिया जा सकता, केवल दिमाग से जीना भी अटपटा लगता है । कौन है जिसे प्राथमिकता दी जाए ? क्या दिल को ? क्या दिमाग को ? क्या ऐसा नहीं होता कि जब दिल से जिया जाता है तो दिमाग याद आता है । जब दिमाग से जीया जाता है तो दिल का ख्याल आता है ।
---- क्या अच्छा है और क्या बुरा, हमारे सामने कई बार यह प्रश्न उठ खडा होता है । क्या सबसे मिलजुलकर रहें, हंस गा कर बोलें ? एक उन्मुक्त और भरे भरे वातावरण में रहें ? दूसरी ओर यह भी, क्या अपने आप में रहें ? कोई ज्यादा हंसना गाना नहीं, भीड नहीं, शांत और बिल्कुल शांत रहें, एकान्त रहें । बस, एकांत का वातावरण हो । क्या ठीक है और क्या गलत ? क्या यह अपने पर निर्भर है कि हम जैसा रहना चाहते हैं वैसा ही रहें ? यदि यह नेचर पर निर्भर है तो क्या नेचर को बदला जा सकता है ? क्या अपने को बदला जा सकता है ? यह कैसे हो सकता है कि हम जैसा रहना चाहें, वैसा ही रहें – कोई दोहरी मानसिकता न हो, जीवन में कोई अडचन न हो ?
---- क्या कोशिश करने से कुछ होता है ? यदि हां तो पिर निर्णय लेने में देरी क्यों है ? जो हमारा रास्ता नहीं, हमारी मंजिल नहीं, उसके बारे में सोचना क्या मूर्खता नहीं है ? निर्णय चाहे कुछ भी हो पक्ष में या विपक्ष में, किन्तु बीच की स्थिति में ज्यादा देर रहना अनुचित ही नहीं बल्कि हानिकारक भी है । ----
नया रास्ता, नई खोज समय तो लगेगा ही । और अगर एकाग्रता भी पूर्ण रुप से न हो तो सफलता की आशा करना मूर्खता नहीं तो और क्या है ? हम उच्खृंलता के वातावरण में जाएंगे, हमको उच्छृंखल बनने में समय तो लगेगा ही । एक अच्छा व्यक्ति एकदम गन्दा आदमी नहीं बन सकता । इसी प्रकार एक परिवर्तन अच्छा बनने की, शांति प्राप्त करने का, समय तो लगेगा ही । एक ही बात है हम एकाग्रचित होकर लगातार अभ्यास करें । साधु संगति में पांच वष्ंर्। रहें तो हमारे बीच भी कई गुण साधु जैसे उत्पन्न हो जाएंगे और यदि पांच साल एक बदमाश की संगति में रहें तो कुछ असर तो बदमाशों वाला हो ही जाएगा । प्रकट होता है कि परिवर्तन आता है, तभी जब उस दिशा में परिवर्तन लाया जाए । जैसी दिशा होगी, वेसवा ही परिणाम सामने आएगा ।
---- पहले अपने बीच परिवर्तन लाना होगा, बाद में दूसरों के बीच परिवर्तन लाया जा सकता है । पहले अपने को देखना, दूसरों को बाद में देख लेना । केवल दूसरों को दोष देते रहना, उनकी गलतियों को देखते रहना, नुक्ताचीनी करते रहना ठीक नहीं है । पहले अपने को देखने की हिम्मत चाहिए । अब क्या है कि हम दूसरों को टोकते रहेंगे तो दुख हमें ही होगा । हम लोगों को नहीं बदल सकते, सिर्फ राह दिखा सकते हैं, मार्गदर्शन कर सकते हैं लेकिन लोगों में परिवर्तन नहीं ला सकते । व्यर्थ होगा सब । सब बेकार होगा यदि अपने को न बदला । अपने को बदल लिया, समझ लो पिर कुछ भी मुश्किल नहीं । और हां, जेसी संगत होगी, वैसी ही रंगत होगी । यानि जीवन का अच्छा या बुरा बनाना वातावरण पर निर्भर है ।
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