Friday, July 2, 2010

हमारे सभी कार्यक्‍लाप और सोचना सब दूसरों से लिया गया है, नकल किया गया है । अपना कुछ भी नहीं है । अपने सोचने का एक तरीका नहीं है ।और यही हमारे दुख का कारण है । यही वजह है कि हम अपने बीच हीनभावना पैदा कर लेते हैं । आप क्‍लर्क बन गये । पढाई एवं दिमाग का कार्य करते है, बडे उत्‍साह और खुशी के साथ, लेकिन तभी आपको इस बात का अहसास दिलाया जाता है कि क्‍लर्क बनना तो बुरा होता है ।आप पर इसका प्रभाव होता है, आप परेशान हो उठते हैं । आप समझने लगते हैं कि क्‍लर्क बनना बुरा है । दरअसल क्‍लर्क बनना इतना बुरा नहीं है जितना उसके बारे में सोचना है । यदि हम किसी काम को अच्‍छा कहते हैं तो वह अच्‍छा हो जाता है और किसी चीज को बुरा कहते हैं तो वह बुरा हो जाता है । वास्‍तव में चीज न बुरी होती है और न अच्‍छी, हमारे सोचने का तरीका अच्‍छा या बुरा होता है । जब तक हम अपनी आत्‍मा को झांककर नहीं देखेंगे कि फलां चीज बुरी है या अच्‍छी, नहीं पता चलेगा । हम सोए सोए जी रहे हैं । बडी अजीब बात है कि हम अपने सोचे के अनुसार कुछ भी नहीं कर सकते । ---- सच को पहचानना बहुत बडा गुण है और सच को स्‍वीकार करना उससे भी बडा गुण है । ----
किसी भी एक राय के ऊपर जिददी बनना मात्र मूर्खता है । समय स्थिति को देखकर, पहचानकर परिवर्तन लाना चाहिए और व्‍यवहार करना चाहिए, यही उचित है ।
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हमारी जो इच्‍छाएं हैं, वे कभी भी समाप्‍त नहीं हो सकती । इनको केवल दबाया जा सकता है । वह भी कुछ समय के लिए, लेकिन खत्‍म नहीं किया जा सकता । हां, खत्‍म किया जा सकता है यदि हम चाहते हों । सचमुच में चाहते रखते हो कि हमारी इच्‍छाएं कम हों अथवा खत्‍म हों । अपने को समझना होगा और ध्‍यान से देखना होगा । बेकार की इच्‍छाएं व चिन्‍ताएं तो फूर्र से उड जाएंगी ।

---- अपनी कामना, इच्‍छा बताने में कोई एतराज नहीं, लेकिन अपनी महत्‍वाकांक्षा अथवा इच्‍छा तभी बताएं जब हम पूरे आश्‍वस्‍त हो जाएं । जब हमें विश्‍वास हो जाएगा कि हमारी सोची हुई महत्‍वाकांक्षा ठीक है, दृढ है, तब कोई हमारी खिल्‍ली नहीं उडा सकता । अगर कोई खिल्‍ली उडाता भी होगा तो कोई फर्क नहीं पडेगा । अगर हमारी इच्‍छा अथवा महत्‍वाकांक्षा में एक संकल्‍प नहीं है तो दूसरे के टोकने पर या मजाक उडान पर हम निराश हो सकते हैं, हमारे ख्‍याली हौंसले टूट सकते हैं ।
---- कोई हमसे पूछे कि शरीर क्‍या है ? तो क्‍या हम यह जबाव देंगे कि शरीर एक कान है, शरीर एक नाक है अथवा मुंह है या सिर्फ पैर ही शरीर है । तो जबाव अधूरा होगा, गलत होगा । हमें ठीक से बताना होगा कि शरीर क्‍या है । शरीर में सैंकडों अंग हैं, क्रियाएं हैं, उन सबके मिलने से शरीर होता है । ठीक इसी प्रकार जीवन में केवल पैसा कमाते रहना ही मुख्‍य नहीं है । सारा जीवन दौलत कमाते रहने में ही लगा देना जीवन नहीं है , बल्कि कुछ और भी है । अपने को जानना, दूसरों को अपना समझकर जाग्रत करना, तब जिन्‍दगी के बारे में पता चलता है । धर्म क्‍या है, जीवन क्‍या है, हंसी,खुशी, दुख सुख, पीडा, शांति अशांति, आत्‍मा परमात्‍मका सब क्‍या है, पता चलेगा । तब धीरे धीरे पता लगता है । लेकिन जरुरी है कि हम अपनी आंखें खोलकर रखें ।
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अक्‍सर लोगों का विचार है कि वैवाहिक जीवन अच्‍छा साबित नहीं होता है । विवाह से पहले अच्‍छा है, शादी नहीं करनी चाहिए, हम विवाह नहीं करेंगे, ऐसे विचार बन जाते हैं । लेकिन यह विचारमात्र एक भय के अलावा कुछ नहीं । हमें डरा दिया गया है, इ‍सलिए हमने विवाह के प्रति एक गलत धारणा बना रखी है । और भय एक ऐसा अवगुण है जो सर्वनाश कर देता है जीवन को । तब खोज करनी होगी । कभी कभी तो अपने जीवन को ही व्‍यर्थ मानते हैं । उन कमियों को देखना होगा । चूंकि गलतियां अपने बीच ही होती हैं, तो हमें अपने बीच ही जाना होगा । अपने को जानना होगा । होता यह है कि हम समस्‍याओं का हल बाहरी रुप से खोजते हैं, जबकि यह समस्‍याएं बाहरी नहीं हैं, अन्‍दुरुनी होती हैं । यह कैसे हो सकता है कि अन्‍दर के रोग का हल बाहर से खोजा जाए ? हम जब बीमार होते हैं तो बीमारी अन्‍दर से आती है और उस बीमारी को खत्‍म करने के लिए दवा अपने शरीर के अन्‍दर डालते हैं, यानि दवाई खाते हैं और दवा शरीर में पहुंचते ही बीमारी समाप्‍त हो जाती है । यदि हम बीमारी के इलाज के लिए दवा को शरीर पर मलें तो क्‍या बीमारी दूर होगी ? नहीं । इसी प्रकार हम भी अन्‍दर उत्‍पन्‍न बीमारी को बाहरी तरीकों से दूर करने की कोशिश करते हैं । यदि हम अशांति के कारणों को भीतर से झांककर देखें और इलाज करेंगे तो रोग का भी पता चल जाएगा, यह पता चल जाएगा कि हमारे जीवन में अशांति क्‍यों है ? इसी प्रकार हमारे वैवाहिक जीवन में भी जो अशांति है , उसके भीतरी कारण होते हैं, जबकि हल बाहरी ढूंढंत हैं – पैसे से, सामान से, यह झूठ है । सही हल खोजना होगा, यदि अपने अन्‍दर झांकें । अपने आप को पहचानेंगे, अपने को समझेंगे ।

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