Wednesday, June 30, 2010

कई बार हमें ऐसे शब्‍द सुनने को मिलते हैं, जिन्‍हें सुनकर हमें लगता है जैसे हमारा अपमान हो रहा है, हमारे स्‍वाभिमान पर चोट पहुंच रही है । हम झुंझला उठते हैं, चेहरे पर आवेग छा जाता है और हृदय में एक कसक उठती है । क्‍या शब्‍दों का मुकाबला शब्‍दों से किया जा सकता है ? यदि हम भी उसी प्रकार कडे और तीखे शब्‍दों से प्रहार करें तो क्‍या हम अपने हृदय की उस चोट पर मलहम लगा सकते हैं ? दो विचार हो सकते हैं । अपने प्रति साक्षी भाव पैदा कर लें । शब्‍दों को साक्षी भाव से सुनें और अंत समय तक सुनें । अथवा प्रतिरोध करें, प्रतिशोध के लिए अपने को तैयार रखें ?
शायद मध्‍य मार्ग अपनाना उचित होगा । साक्षी भाव रखते हुए अपने प्रति ईमानदार होते हुए स्‍पष्‍टीकरण करना ही ठीक है ।
हम लोग दोहरी मानसिकता में जीते हैं । किसी के प्रति हमारी कैसी भावना है, यदि इस पर ध्‍यानपूर्वक गौर करें तो पायेंगे कि हमारा व्‍यवहार दोहरा है । ऊपर से कुछ और भीतर से कुछ और । प्राय ऊपर से अच्‍छा और भीतर से बुरा । इसके कई कारण हो सकते हैं । एक तो यह है कि हमें भय होता है कि यदि हमने अपने मन के विचार प्रकट कर दिए तो दूसरा नाराज हो जाएगा, दूसरा नाराज न हो जाए, इसलिए अच्‍छा वाला रुप दिखाते हैं, बुरा वाला छुपा लेते हैं । दूसरा कारण है – हमारा अंहकार ।
सुन्‍दरता की क्‍या कोई सीमा होती है ? यदि कोई सुन्‍दरता हमारे हृदय को भा जाती है और हम कह उठते हैं कि सुन्‍दर है । लेकिन उसी सुन्‍दर के सामने उससे भी सुन्‍दर प्रस्‍तुत कर दें तो ? वह सुन्‍दर नहीं रह जाता । यानि सुन्‍दरता की कोई सीमा नहीं होती । और सच्‍ची बात तो यह है कि कोई सुन्‍दरता होती ही नहीं है, यह तो हमारे देखने का दृष्टिकोण है अर्थात मानो तो सुन्‍दर है, न मानो तो नहीं है । जो जैसा है वह सुन्‍दर है, मान लें तो ठीक ही है । कोई कम सुन्‍दर नहीं है, कोई ज्‍यादा सुन्‍दर नहीं है, यह सब मन का खेल है । मन डांवाडोल होता है । वास्‍तविकता में सुन्‍दरता चेहरे पर कम, हृदय में ज्‍यादा होती है और उस सुन्‍दरता को जानने के लिए हृदय के तल पर जीना होगा ।
मैंने सुना है हम जिसके प्रति सच्‍चा प्रेम रख्रते हैं, वह चीज हमें मिल जाती है । वह चीज प्रेम के सेतू से हमारे बीच तक पहुंच ही जाती है । हम कैसी नैचर पसन्‍द करते हैं, कैसी जॉब पसन्‍द करते हैं, हम किस व्‍यक्ति का साथ चाहते हैं, ये सब मिल जाता है यदि हम उसको पाने के लिए अपने को एकाग्रचित कर लेते हैं । कई लोगों के बोलने का अंदाज बहुत सुन्‍दर होता है । बोलने में एक सरलता, मिठास जो मन को छू लेती है । शब्‍दों का चयन और संयमसे धीरे धीरे बोलना अच्‍छा लगता है । ऐसा बोला जाना कि दूसरों को लगे कि बात सुन्‍दर है ।
हम दस व्‍यक्तियों से बात कर लें । उनसे पूछें – क्‍या आप खुश, उन्‍मुक्‍त हृदय से प्रेम पूर्ण होना चाहते हैं ? जवाब मिलेगा हां, हां, क्‍यों नहीं । लेकिन हम उनमें से यही सवाल अलग अलग व्‍यक्ति से मिलकर पूछें तो उनके जवाब में यह भी शामिल होगा मैं प्रेमपूर्ण तो होना चाहता हूं लेकिन ये पास बैठे नौ व्‍यक्ति क्‍या सोंचेगे ? हर व्‍यक्ति अपनों से ही भयभीत है । कैसी दुविधा है । कैसी विडम्‍बना है । क्‍या आप प्रेमपूर्ण नहीं होना चाहते ? एक बार सोचिए । क्‍या हमारे प्रति भी कोई प्रेमपूर्ण है – देखिए । जीवन एक सुन्‍दर गीत बन जाएगा ।
जीवन में सुख भी हैं, दुख भी हैं तो कोई सोचने का विषय ही नहीं । बेवजह सुख पाने के चक्‍कर में दुख को ही न ले बैठे ? हां, यह दूसरी बात है कि दुख को भी स्‍वीकार करने की स्थिति हमारे बीच कितनी है ? कहीं हम दुख से एकदम घबरा तो नहीं जाते ? ऐसा अक्‍सर हो जाता है कि हम क्षणिक दुख से इतने विचलित हो उठते हैं कि लगता है सारा जीवन ही दुख है । यह सही नहीं है । ऐसा देखा गया है कि जब हम किसी से मिलते हैं तो दूसरे को मिलकर बहुत खुश होते हैं । दूसरे के व्‍यक्तित्‍व से प्रभावित भी होते हैं, लेकिन हम ध्‍यान से मनन करें तो पता चलता है कि वह आकषर्ण्‍ ज्‍यादा देर तक नहीं रहता है, और जब यह आकर्षण, आसक्ति समाप्‍त हो जाती है, पुन एक पीडा का वातावरण उत्‍पन्‍न कर लेते हैं हम लोग । जबकि जो है, वह है । जिस व्‍यक्ति से हम प्रभावित हुए, फ्‍रि वह प्रभाव खत्‍म भी हुआ तो यह सब परिवर्तन हमारे बीच ही होते हैं, वह व्‍यक्ति तो जैसा है, वैसा ही है । खोज तो हमें अपने भीतर करनी होगी ङ दरअसल, हर व्‍यक्ति में गुणों का, दोषों का समावेश होता है । देखना यह है कि हम कब गुण देखते हैं और कब दोष ?
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हमारे समाज ने बहुत से रिश्‍ते दिए हैं , पिता का, मां का, बहन का, भाई का, पत्‍नी का,पति का --- सैकडों रिश्‍ते दिए हैं लेकिन इतने रिश्‍तों के बावजूद भी एक रिश्‍ता नहीं दिया है प्रेम का रिश्‍ता । प्रेम का रिश्‍ता उतना ही जरुरी है जितना हमारा जीवन जरुरी है । यदि प्रेम का रिश्‍ता है तो पिर सब कुछ ठीक हो जाने के बाद रिश्‍तो को कुछ भी नाम दें और प्रेम के रिश्‍ते को कोई दूसरा नाम न ही दें तो अच्‍छा है ङ लेकिन होता है उलटा ही । हम प्रेम के रिश्‍ते पर रोक लगा देते हैं । दूसरे रिश्‍ते बनाते हैं । फ्‍रि प्रेम ढूढंते हैं लेकिन मिलती है एक घृणा । एक द्वंद, एक तनाव । यदि कोई प्रेमपूर्ण होना भी चाहता है तो उस पर कई बंदिशें लगा दी जाती हैं । फलत प्रेम का दीप जलने से पहले ही बुझ जाता है । हम किसी से मिलते हैं तो समाज कहता है कि पहले रिश्‍ता बताओ । प्रेम का रिश्‍ता है तो बात समझ में नहीं आएगी समाज के । तो क्‍या हम लोगों को खुश करने के लिए प्रेम करना छोड दें ? प्रेम का नाता, प्रेम और प्रेम करना भूल जाएं ? नहीं । जहां प्रेम मिलता है, उसके प्रति पूरी तरह समर्पण होना ही उचित है ।

---- क्‍या ऐसा अनुभव नहीं होता कि हम जो जीवन जी रहे हैं, वह हृदय के तल पर न जीकर बुदिध से जीते हैं ? प्रेम भी करते हैं तो बौदिधक स्‍तर पर । अथवा एक अनायास प्रेम का अहसास होता है, हृदय के तल पर लेकिन हम उसे बुदिध के बल पर जांचते हैं । क्‍या यह उचित है ? नहीं । दरअसल इस स्थिति के पीछे कुछ कारण हाते हैं । सबसे बडा कारण है हमारा डर । हम इतने भयभीत हो गए हैं कि हमेशा भविष्‍य में रहकर जीते हैं । समझते हैं कि सुख अभी नहीं है, कल होगा । यदि कल को भूलकर आज के क्षणों में जीवन को उसकी परिपूर्णता में जीएं तो उचित नहीं होगा ? लेकिन ऐसा भी तो लगता है कि रात भी होने वाली है, यह दिन का उजाला स्‍थायी भी तो नहीं । कहीं ऐसा न हो कि हम दिन के उजाले के इतने अभयस्‍त हो जाएं कि भूल ही जाएं कि दिन के बाद रात होती है । यदि हमने इसे ध्‍यान में न रखा तो रात होने पर उजाले के खो जाने की पीडा होगी । यह समझना ही होगा कि दिन के बाद रात आती है । यह स्‍मरण हो कि रात के बाद दिन आने वाला है तो रात भी आसानी से कट सकती है । कुछ भी स्‍थायी नहीं । दिन के बाद रात, सुख के बाद दुख, रात के बाद दिन, दुख के बाद सुख यह चक्र है और यूं ही चलता है और यूं ही चलता रहेगा ।

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