जो कुछ भी होता है, ईश्वर की कृपा से होता है । जो कुछ घट रहा है वह उसी की मर्जी से हो रहा है । सफलता और असफलता का होना एक नियत नियम है । लेकिन हमें अपने कर्तव्यों, कार्यों के प्रति जागरुक रहना परम आवश्यक है । प्रयास करते रहना चाहिए । अपनी शक्तियों को केन्द्रीत करना चाहिए । हमारे किये गये कार्यों का फल अवश्य मिलता है, वह फल जल्दी भी मिल सकता है और देरी से भी, लेकिन मिलता अवश्य है । अगर कभी निराशा का भाव हो तो देखना चाहिए कि ऐसा क्यों है ? अपनी शक्तियों का सही उपयोग क्यों नहीं हो पा रहा है ? कार्यालय, दुकान या बिजनैस के बाद हम स्वतंत्र हैं । कुछ भी सोच समझकर अपनी योग्यताओं के अनुसार कोई भी रचनात्मक काम कर सकते हैं ।
किसी व्यक्ति के संस्कार वातावरण और समय पर ही बनते हैं । लेकिन व्यक्ति के संस्कार पिछले जन्मों पर भी आधारित होते हैं । किसी व्यक्ति का धार्मिक होना पिछले जन्मों का योग हो सकता है । धार्मिक होने के सभी सूत्रों को समझा तो जा सकता है, एक कोशिश और लगन से किन्तु वास्तव में धार्मिक होना पूर्व लक्षित, जन्मजात होता है । दूसरी ओर, यह भी सच है कि धार्मिक होने के लिए किसी जन्म से तो शुरुआत करनी ही होगी । अगर धार्मिक होने की शुरुआत इस जन्म से शुरु की जाए तो सम्भव है कि धर्म की यात्रा का दूसरा सोपान अगले जन्म में आरम्भ हो ? तब हो सकता है हम कहें, पिछले जन्मों का योग है ।
मैंने सुना है जब हम बहुत खुश होते हैं अथवा सुखी होते हैं तो हमें सारा संसार सुखी और खुश दिखता है, और जब हम दुखी होते हैं तो पाते हैं कि हमें सारा संसार दुखी है । लेकिन ध्यान से देखें तो पाते हैं कि जब हम खुश होते हैं तो सभी दुखी लगते हैं और जब हम दुखी होते हैं तो सभी लोग सुखी नजर आते हैं – कुछ अलग सा नहीं लग रहा ?
विचार तो यह भी होना चाहिए कि हमें दूसरों के मामलों पर बिल्कुल विचार नहीं करना है । बस एक ऐसा भाव हो, विचार हो, यह मेरी मौज है, वह तुम्हारी मौज है, वह उसकी मौज हो सकती है । मैं क्या कर सकता हूं, मुझ्े तो कृष्ण भी अच्छे लगते हैं, तुम्हें महात्मा बुदध अच्छे लगते होंगे, उसे कबीर अच्छे लगते होंगे, मुझे बुद्व या कबीर से क्या लेना, अपने बीच ही ध्यान होता है ।
हम जो कुछ करना चाहते हैं, उसके बारे में दो विचार हो सकते हैं – एक तो यह है कि हम उस बारे में सोचें ही नहीं । दूसरा इसके विपरीत । यानि गहराई में जाओ, ध्यान करो, अपने प्रति एक अलग छवि हो, बीच की स्थिति किसी भी भांति उचित नहीं । छोड दो अथवा पकड लो ।
जीवन में उसकी परिपूर्णता में जीन के लिए कुछ आधारभूत नियम व सिद्धात तो होने ही चाहिए । जीवन को कैसे जीना है, उसे किस रुप में देखना और समझना है, अथवा जीवन के प्रति क्या रुख हो ? अगर जीवन को सही मायने में जीना है तो साहसपूर्ण तरीके से जीना होगा, केवल भय और दुखी मन से जीवन को नहीं जिया जा सकता । तो पहली बात तो यह हुई कि जीवन के प्रति जो डर है, उसे समझना है । भय पर विचार कर उस पर विजय पानी होगी । जीवन को जागकर जीन के लिए एक दृढ प्रतीज्ञा करनी होगी । जागकर जीने का मतलब है जो हमारा मन कहता है वही करना होगा और यह तभी होगा जब हम अपने समय का सदुपयोग करेंगे । समय का सदुपयोग इस प्रकार किया जाए कि वह सभी कार्य पूरे हो जाएं, जिन्हें हम करना चाहते हैं । यदि जीवन को जागकर जीने का निश्चय कर ही लिया है तो बाहरी बातों को ज्यादा महत्व नहीं देना होगा । कहने का सार यह है कि बाहरी लोगों से कम मुलाकात की जाए और अपने टारगेट की ओर ज्यादा ध्यान दिया जाए । दरअसल हम लोग फालतू की फार्मेलिटी में अपना बहुत सा समय नष्ट कर देते हैं और अंत में पाते हैं समय की बर्बादी के साथ साथ अपनी रचनात्मक शक्ति की कमी । जीवन को जागकर जीना, और वही कार्य करना जो हृदय कहता है । कई कार्य करने होंगे । चाहे वह मामला पढाई लिखाई का हो, खेलकूद का,योग ध्यान का या अपने शौक पूरे करने का, पूरी तरह सक्रिय होना होगा, इसके लिए जरुरी है कि शरीर स्वस्थ हो और शरीर तभी स्वस्थ होगा, जब हम अपने शरीर पर ध्यान देंगे यानि खान पान और योग की ओर ध्यान । ध्यान रखें जरुरत से ज्यादा खाना शरीर के लिए हमेशा नुकसानदायक होता है । कम खानेवाला मरता नहीं है, ज्यादा खाने वाला पहले मरता है ।
जीवन में यदि सफलता मिलती है तो जीवन के प्रति एक उत्साह बना रहता है और यदि असफलता मिलती है तो जीवन के प्रति निराशा । जीवन में सफलता मिलती रहे, इसके लिए जरुरी है कि हमारे पास आय के ज्यादा साधन हों ताकि हम अपनी जरुरतों को पूरा कर सकें । जीवन की जरुरतों को पूरा करने के लिए आय का अधिक होना जरुरी है और आय तभी ज्यादा होगी जब हम अच्छी नौकरी या बिजनैस करेंगे और अच्छी नौकरी या बिजनैस तभी होगाक जब उसे पाने के लिए प्रयास करेंगे और प्रयास करने के लिए अपनी योग्यताओं को बढाना होगा और योग्यताओं को बढाने के लिए मेहनत करनी होगी । शैक्षणिक योग्यताओं में वृदिध मेहनत करने पर ही होगी ।
किसी खास क्षेत्र में पूरी गहनता से अध्ययन किया जाए तो फ्रि बाद में उसके प्रति जो जिज्ञासा या उत्सुकता बनी रहती है, वह समाप्त भी हो जाती है । अगर सुस्ती करने का जी है तो पूरे मन से सुस्ती कर ली जाए तो पिर सुस्ती करने को भी जी नहीं चाहेगा । इसी प्रकार किसी और विशेष विषय में हम पढना चाहते हैं, चाहते हैं किसी से बातचीत करना, सोना चाहते हैं, मेहनत करना चाहते हैं, प्रेम करना चाहते हैं, यानि कुछ भी – पूरी उन्मुक्तता से कर ली जाए तो फ्रि उसके प्रति बेकार का रुझान अथवा ध्यान नहीं जाता है । इसी को पूर्ण ध्यान भी कहा जा सकता है । देखते रहो, साक्षी भाव से, एक दिन ध्यान घट जाएगा । लेकिन यह तभी होगा जब समाज के बंधनों को आडे नहीं आने दिया जाएगा ।
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