बहुत से सवाल है जिनपर विचार करना है और जब हम ध्यान करने का विचार करते हैं तो हम इस बात का अहसास करते हैं कि जब भी हम ध्यान करने की कोशिश करतजे हैं तो हम सफल नहीं हो पाते । क्या क्या कारण है कि हम ध्यान करना चाहते है लेकिन कर नहीं पाते ? मैं कौन हूं ? इस प्रश्न का उत्तर आसान नहीं । हमारे भीतर ऐसी बहुत सी कमियां या कमजोरियां होती है जो हम दूसरों को दिखाने में , दूसरों के सामने उन्हें बताने में कतराते हैं, केवल दूसरों के सामने ही नहीं, अपने सामने भी । हमारे भीतर इतना साहस नहीं है कि हम अपनी बात को स्पष्ट और स्वीकार भाव से कह सकें ।
भले ही हम सभी संसार में रहते हैं लेकिन कहीं न कहीं हर व्यक्ति निराशा के दौर से गुजर रहा है । जीवन में आनन्द की कमी महसूस होती है । कारण एक ही है और वह है ध्यान की कमी । हम लोग संसार की ऐसी दौड में भागे जा रहे हैं, जिसका हमें पता ही नहीं है कि हम चाहते क्या है ? सिर्फ एक दौड, दौड हो रही है । दौड चलती रहेगी और हमारा काम सिर्फ चलना है । क्या इस दौड का कहीं अंत है ? हमने अपनी शक्तियों को बांट रखा है और स्व का अर्थ निकालनेवाले स्वार्थी हो गये है और जब तक स्वार्थ की भावना है, ध्यान में नहीं जा सकते और ध्यान में नहीं जाते तो एकाग्रता नहीं बन पायेगी । मन का भटकना, डांवाडोल होना, मन का बार बार बदलना स्वाभाविक सा लगता है । यही जानना है, क्यों मन भटकता है ? क्यों हमारा मन बार बार बदलता रहता है ? कभी हम बहुत गुस्सा करते हैं और कभी बहुत प्रेम करते हैं, हंसते हैं, गाते हैं । जो आज अच्छा लगता है, कल उससे नफरत हो जाती है । तब हम भूल जाते हैं कि जीवन आनन्द भी है । अपने को सही और दूसरों को गलत मानने के लिए आदमी पागल हो जाता है । उसके बीच अंहकार की ज्वाला भडकने लगती है जो अपने को तो जलाती ही है, आसपास के लोगों को भी जला देती है । बाद में जब इसका अहसास होता है तो वह पश्चाताप करता है । लेकिन कई बार इसका अहसास कर उस स्थिति को नये य्प में नया मोड देते हैं । संसारिक मोह माया और यह दौड, यदि इसमें कुछ भी नहीं तो यह केवल एक झूठी दौड है, तब हम इस दौड की ओर क्यों भागते हैं ? क्यों नहीं रोक लेते अपने को, नष्ट करने से । ध्यान यानि मेडिटेशन जीवन का एक नियम होना चाहिए । ध्यान एक घठना है । ध्यान तो जीवन का एक रुप है और ध्यान में जाकर ही हम अपनी शक्तियों को पहचान सकते हैं और हम जान सकते हैं कि मैं कौन हूं और हम जो चाहते हैं वह केवल ध्यान के रास्कते से ही जाना जा सकता है कि मैं कौन हूं और क्या हो सकता हूं ।
अक्सर देखा गया है कि हम वे कृत्य करते हैं जो हम चाहते नहीं थे । बीते हुए क्षणों में खो जाना, पुराने समय को बार बार याद करना और व्यथित होना हमारी स्वाभाविक कमजोरी बन गई है और भविष्य की कल्पना ने तो हमें इस कदर डूबो दिया है कि हम अपने वर्तमान को भी भूला दिया है । वर्तमान के क्षणों में हम अपना जीवन सुन्दर बना सकते हैं लेकिन भविष्य की कल्पना और बीते समय की याद हमें वर्तमान से वंचित कर देती है । भविष्य जो आया नहीं और बीता समय बीत चुका है, जो आएगा नहीं । कितनी अजीब बात है कि हम वर्तमान के क्षणों में, मौन में अपनी शक्तियों को पहचान नहीं पाते, या पहचानना नहीं चाहते । पाते हैं अपने बीच एक अकेलापन, एक खालीपन । अपने बीच हम इतना अधूरापन महसूस करते हैं कि बार बार हमें लगताक है कि हम अपनी शक्तियों को क्यों नष्ट करते जा रहे हैं । आखिर कब तक जीवन को यूं ही नष्ट करते रहेंगे ? आत्मा परमात्मा, ईश्वर कुछ भी कह लीजिए, स्वर्ग नरक, धर्म यह सब क्या हैं, यह जानने की इतनी जरुरत नहीं है जितना यह जानना जरुरी है कि मैं कौन हूं ? उस परम शक्ति को स्वीकार करते हुए जिसे हर व्यक्ति ने समय समय पर अनुभव किया है । हमारे बीच एक ऐसी आग आरम्भ हो जाए जो हमारे नकली रुप को नष्ट कर दे और जब हमारा झूठा रुप नष्ट हो जाएगा तब स्पष्ट होगा हमारा वास्तविक रुप । तब हम जान सकेंगे कि मैं कौन हूं । हम देखते हैं कि जो समय बीत गया है, हम उसकी याद में परेशान होते है, यह जानते हुए कि वह वक्त चला गया है और अब वह समय वापस नहीं आएगा । लेकिन स्वाभाविक कमजोरी के लिए हम बीत क्षणों को याद करके अपने को पीडित करते हैं । यह ठीक नहीं है । भविष्य की कल्पनाओं में खो कर अपने बीच निषेध्यात्मक विचार सोचकर हम अपनी वर्तमान अवस्था को खडित कर देते हैं । भूल जाते हैं कि वर्तमान में वह कुछ नहीं हो रहा है जो हमने सोचा था या जो हम सोच रहे हैं । सोचने से क्या कभी वहीं होता है ? शायद नहीं । हमारे कर्म ही बताते हैं कि वास्वतविकता क्या है । इस विषय पर गौर करना ही होगा कि हम अपनी वास्तविक शक्तियों को पहचानें । अपनी शक्तियों को नष्ट न होने दें । ओशो ने कहा है अपने बीच बिखराव न लांए और जानें कि मैं कौन हूं, यह सवाल बार बार पूछा जाए । अन्त में उत्तर जरुर मिल जाएगा । क्या मैं वही हूं जो दिखता हूं । क्या मैं वही हूं जो होना चाहता हूं ? क्या मैं वहीं हूं जो करता भी वही हूं और जो सोचता भी वही हूं ? क्या मैं स्वीकार का भाव रखता हूं ? क्या मैं स्वीकार करता हूं कि जो मैं हूं, वास्तव में वही हूं । मैं कौन हूं जब तक यह पता नहीं चलेगा, तब तक हम अपने को स्वीकार नहीं कर सकते । जब तक अपने को स्वीकार नहीं करते, अपने को अंधेरे में रखेंगे, अपने को पीडित करेंगे और सम्भव है दूसरे के जीवन में भी बाधा उत्पन्न करेंगे स्वीकार भाव से जीना ही जीवन का एक सच्चा रुप है । लेकिन हम स्वीकार भाव नहीं रखते । यदि हम दुख को भी स्वीकार कर लें तो हो सकता है कि जो एक संकटपूण्र स्थिति हमारे बीच आ जाती है वह दूर हो जाए और वह दूर हो ही जाएगी । जीवन बुरा नहीं होता, जीवन तो बुरा बनाया जाता है । मैं कौन हूं, इसे जाने बिना सत्य नहीं जाना जा सकता । हर इंसान के बीच अंनन्त शक्तियां होती है लेकिन इंसान अपनी शक्तियों का 15 प्रतिशत भी प्रयोग नहीं करता । --- तनाव छा जाता है खासतौर से निकटतम सगे संबंधियों के साथ् रहकर । हमें तनाव उन लोगों के कारण नहीं उत्पन्न होता जो हमसे दूर होते हैं। जब यह पता चल जाए तो प्रश्न उठता है कि क्या निकटता गलत है ? यदि किसी के साथ भी निकटता न रखी जाए तो क्या तनाव नहीं होगा ? दरअसल हमारे बीच तभी तनाव उत्पन्न होता है जब हम स्वयं किसी न किसी तनावग्रस्त व्यक्ति के सम्पर्क में आते हैं । तनावग्रस्त व्यक्ति के व्यवहार और बातों से हमारे बीच भी प्रभाव होता है । तो क्या तनावग्रस्त व्यक्ति से बातचीत करना छोड देना चाहिए ?
एक तरीका है उसकी समस्या को हम सुनें एव ध्यानपूर्वक अध्ययन करें । तनाव में कुछ भी नहीं सूझता । क्या किया जाए और क्या न किसी जाए । छोटे छोटे वाक्या पर अपने बीच डर पैदा हो जाता है । डर के कारण भी तनाव पैदा होता है । तनाव में नींद नहीं आती है । खाना पीना अच्छा नहीं लगता और कामकाज करने को भी जी नहीं चाहता । अवेयर रहना जरुरी है । चिन्ता को स्वीकार करो, उसके साथ बहो । उस पर निगरानी रखो, पर उससे तथास्थ रहो । महसूस करो जैसे कि तुम्हें कोई बैचेनी नहीं है । धीमी गति से, सामान्य ढंग से सांस लो । साक्षी भाव रखो । पाजिटिव सोच से तनाव तुरन्त दूर हो जाता है और नेगेटिव सोच से तनाव आता है । तनाव में नींद नहीं आती है, भयानक ख्याल उठते हैं और एक बैचेनी का आरम्भ होता है । अच्छे विचार और की गई संकल्पशक्तियां बेकार न होने दें । तनाव में मन में चल रहे विचार तेजी से चलते बदलते रहते हैं । तनाव में किसी से बातचीत करने को भी जी नहीं चाहता, हंसने का तो प्रश्न ही नहीं ।
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