Sunday, August 8, 2010

एक बार एक युवक इन्‍टव्‍यू देने जाता है तो उसके बुजुर्ग उसे समझा देते हैं – बेटे हमने भी अपनी जिन्‍दगी में बहुत से इन्‍टरव्‍यू दिये हैं, वहीं सवाल होते हैं । मैं अपने अनुभव से कुछ उत्‍तर बताता हूं । पहला सवाल पूछेंगे – तुम्‍हारी आयु कितनी है, तुम कहना 28 वर्ष, फ्‍रि पूछेंगे अनुभव कितना है, तुम कहना 10 वर्ष, फ्‍रि पूछेंगे तुम्‍हारा गांव किस जिले में है, तब तुम कहना इलाहाबाद । लडके का पहला इन्‍टरव्‍यू था । जीवन के क्षेत्र में पहला कदम था । अपने बुजुर्गों का अनुभव अपने पास रख लिया था । इन्‍टरव्‍यू हुआ – पहला प्रश्‍न पूछ लिया – कितना अनुभव है तुम्‍हें । रटा रटाया उत्‍तर था – 28 वर्ष । इंटरव्‍यू लेने वाला हैरान । पूछा – उम्र कितनी है ? उत्‍तर दिया – 10 वर्ष । प्रश्‍न किया अमेरिका की राजधानी का नाम बताओ । उत्‍तर मिला – इलाहाबाद । हमारे सभी उत्‍तर रेडिमेड हैं, तैयार हैं । चूंकि यह बात हमारे बडों ने बतायी थी इसलिए ठीक है, ऐसा सोचते हैं हम । हम भी अपने दिमाग से, विचार से, मौलिकता से काम नहीं लेते । हां, शुरु शुरु में कठिनाइयां आती हैं, गलतियां होती हैं लेकिन शीघ्र ही घबरा जाते हैं । अपने से भरोसा उठ जाता है । तुरन्‍त अपने बुजुर्गों के अनुभव ढूंढते हैं । अब पुराने अनुभव, कुछ तीर कुछ तुक्‍के, ठीक बैइ जाते हैं निशाने पर । यदि एक अंधा व्‍यक्ति अंधेरे में तीर चलाए तो सम्‍भव है कि कुछ निशाने पर लग जाएं । इसका यह अर्थ नहीं हो जाता कि दृष्टिहीन निशानेबाज है । अर्थ यह है कि समय बदला है, समय के साथ बदलना चाहिए । जो कल ठीक था जरुरी नहीं है कि आज ठीक हो । बदलते समय के साथ अपने को बदल लेना चाहिए । यदि आज कृष्‍ण भगवान होते तो शायद वे भी धोती की जगह जींस पहन रहे होते । जिसने अपने को समय के अनुसार नहीं बदला है, वे पीछे रह जाते हैं, असफल रह जाते हैं और जिन्‍होंने अपने को समय के साथ बदला है, वे आगे बढते हैं, सफलता पाते हैं ।

Saturday, August 7, 2010

जीवन के प्रति हमारी भी कैसी बेतूकी धारणाएं रहती हैं जिनका परिणाम भी हानिकारक सिदध होता है । हमारे सीखे सिखाए नियम, लोगों से सुनी सुनाई बातें, लोग जिन्‍हें अपना अनुभव कहते हैं, लोग जिन्‍हें अपना सम्‍मान कहते हैं, उन्‍हीं के बारे में हमारे भी वैसे ही विचार बन जाते हैं और हम कह उठते हैं कि हमें उनके अनुभव से सीखना चाहिए । हमें उनका सम्‍मान करना चाहिए तब हमें अपने प्रति एक सन्‍देह उत्‍पन्‍न होता है । हमारा जो विचार है, उसके प्रति अविश्‍वास उत्‍पन्‍न होने लगता है । जल्‍दी ही नए और पुराने के बीच टकराव होने लगता है । हम अपनी वर्तमान समस्‍या का समाधान बीते हुए समय के डिब्‍बे में से निकालने की कोशिश करते हैं । समस्‍या वर्तमान की है और समाधान भी वर्तमान के सन्‍दर्भ में निकालना चाहिए ।
मुझसे पूछा गया है कि मैं सिगरेट पीता हूं और मैं सिगरेट छोडना चाहता हूं । कैसे छूट सकती है सिगरेट ? कैसे छूट सकती है यह बुरी आदत ? मैंने जवाब दिया – तुम्‍हारी यह भूल है । तुम सिगरेट को बुरा मानते ही नहीं हो्, तुम सिगरेट छोडना ही नहीं चाहते । तुम सिगरेट को बुरा मानते ही नहीं हो । सिर्फ तुमने सिुना है कि सिगरेट बुरी है । यदि तुम्‍हें पता होता कि सिगरेट पीना बुरा है तो तुम सिगरेट कदापि नहीं पीते । उसी वक्‍त छोड देते । शायद तुम्‍हें अभी पता ही नहीं है कि सिगरेट पीना बुरा है । दरअसल लोग दूसरों से सुनसुनकर अपना विचार बना लेते हैं और धारणाओं में बंध जाते हैं । यह कैसे हो सकता है कि किसी बुरी आदत को न छोडा जा सके । जरा गौर करना और ध्‍यान देना । कब तुम सिगरेट की तलब महसूस करते हो, कब तुम्‍हारे कदम सिगरेट की दुकान की तरफ बढते हैं, कब तुम्‍हारी जेब से पैसे निकलते हैं, कब तुम दुकानदार से सिगरेट की मांग करते हो ? कब वह दुकानदार तुम्‍हें सिगरेट पकडाता है, कब तुम सिगरेट को मुंह पर लगाते हो और कब तुम सिगरेट जलाते हो । तब देखना अपने को सिगरेट पीते हुए । लम्‍बे लम्‍बे कश । धूंए के बादल उड रहे हैं और कहां जाकर लुप्‍त हो जाते हैं । सब ध्‍यानपूर्वक देखना । तब उन विचारों को भी साथ्‍ं साथ्‍ं देखते रहना कि कौन कहता है कि सिगरेट बुरी है और उसे भी देखना जो सिगरेट खरीदता है और अपने मंह में लगाकर पीता है । क्‍या यह सिगरेट पीने वाला और सिगरेट को बुरा कहने वाले दो व्‍यक्ति हैं ? एक सिगरेट पीता है और दूसरा सिगरेट का विरोध करता है । पता चलेगा कि यह दो भी तुम ही हो । इसका अर्थ यह हुआ कि तुम एक नहीं हो, एक से अधिक हो । जब इतना पता चल जाए कि तुम एक नहीं बल्कि एक से ज्‍यादा हो तब अपने से प्रश्‍न पूछना – वास्‍तविक कौन है, सिगरेट पीनेवाला या सिगरेट का विरोध करने वाला ? जब इसका ठीक ठीक से पता कर लो तभी आगे की सोचना । कितनी अजीब बात है कि व्‍य‍क्ति स्‍वयं ही सिगरेट अपने पैसो की खरीदता है और स्‍वयं ही कहता है कि मैं सिगरेट छोडना चाहता हूं । क्‍या किसी ने जबरदस्‍ती सिगरेट जगाकर मुंह में डाली थी ? नहीं, आदमी खुद ही सिगरेट खरीदता है और खुद ही सिगरेट की आदत से दुखी होता है । मेरा वक्‍तव्‍य सुनकर वह निरुत्‍तर हो गया । जब मैंने उसे निरुत्‍तर देखा तो बोलना शुरु किया – क्‍या क्रोध करते हो ? उत्‍तर मिला – हां । मैंने पूछा 3 क्‍या चाय पीते हो ? उत्‍तर मिला – हां । मैंने पूछा शराब पीते हो ? उत्‍तर मिला – हां । मैंने पूछा चिढचढापन, ईष्‍या,द्वेष,चालाकी,भय,झूठ,आलोचना क्‍या यह सब करते हो ? थोडा सोचकर – हां, कभी कभी ये सब भी होता है । मैंने कहा – क्‍या फर्क पडताहै अगर तुम सिगरेट पीते हो । क्‍या है सिगरेट ? धूंए का अन्‍दर बाहर आना जाना । बस और कुछ नहीं । प्रश्‍न आया – सिगरेट पीने से गला खराब हो जाता है । मैंने कहा – गला खराब होता है या खांसी आती है तो इलाज कराओ । दवाई लो । ठीक हो जाओगे । तुम समझते हो क्‍या सिगरेट न पीने से गला ठीक रहेगा ? खांसी न होगी ? नहीं । जो लोग सिगरेट नहीं पीते हैं,उनको भी खांसी होती है, उनका भी तो गला खराब होता है । लडकियों को देखो उनके गले हमेशा खराब रहते हैं । क्‍या वे सिगरेट पीती है ? तो हो सकता है कि तुम चाट पकोडे खाते होगे, गोलगप्‍पे, समोसे, मसाले, तली हुई चीजे, खटाईवाली चीजे खाते होगे, उनसे गला भी खराब हो सकता है, सिगरेट छोड भी दोगे तो गला उनसे खराब होने लगेगा । क्‍या फर्क पडता है तुम्‍हारे सिगरेट छोडने से । पीओ, शान से पीओ । तुम्‍हें जरुर कोई न कोई आनन्‍द मिलता होगा, चाहे क्षणिक ही, लेकिन मिलता तो है । और यदि तुम यह कहो कि इससे मेरी मौत हो सकती है तो मैं यही कहूंगा – मौत तो एक निश्चित नियम है । वह जब होनी है, होगी । ऐसे हजारो लाखों लोग है जो सिगरेट नहीं पीते हैं लेकिन मरते हैं । लडकियों और औरतों को देखो, क्‍या वे नहीं मरती ? विवेकानन्‍द 39 वर्ष की आयु में ही मर गये । सिगरेट शराब नहीं पीते थे । और ऐसे हजारो लोग हैं जो सिगरेट पीते हैं लेकिन सौ बरस तक जीते हैं । इसलिए चिन्‍ता मत करो । सिगरेट से मौत न होगी । और क्‍या फर्क पडता है अगर पांच दस साल कम जी लिए । जहां 80 वर्ष की आयु तक जीना था वहां 70 साल तक जी लोगे । और अगर तुम उससे पहले मर भी गये तो किसी को क्‍या फर्क पडता है । यह संसार तो तुम्‍हारे बिना भी चलता रहेगा । और क्‍या देखा है तुमने जीवन में ? क्‍या सुख है इस जीवन में ? जरा गहराई से सोचो । क्‍या सुखी हो ? क्‍या खुश जीवन जी रहे हो ? इस जीवन की सार्थकता क्‍या है ? जो जीवन आनन्‍द नहीं दे सकता, केवल नफरत और पीडा देता है, उससे इतना मोह क्‍यों ? जितना जीओ शान से जीओ । सिगरेट पीने का दिल हो तो पी लेना और जब न पीने का हो तो न पीना । जिस दिन छोडने का दिल चाहे उस दिन छोड देना । और अगर तुम यह कहो कि मेरे सिगरेट पीने से मेरी पत्‍नी को दुख होता है तो मैं तुम्‍हें यहीं कहूंगा अपनी पत्‍नी से कहो – यदि मैं सिगरेट छोड दूं तो क्‍या तुम्‍हारे दुख दूर हो जाएंगे ? कदापि नहीं । दुख हमेशा लगे रहते हैं । एक दुख कम भी हो जाएगा तो क्‍या फर्क पडता है । और भी बहुत से गम हैं जमाने में । जिसने दुखी होना है वह तुम्‍हें सिगरेट पीते हुए भी दुखी रहेगा और जिसने खुश होना है वह तुम्‍हें सिगरेट पीते हुए भी खुश रह सकता है ।
खैर ऊपर दिया गया विवरण एक व्‍यंग्‍य था उन लोगों पर जो बोलते कुछ है, सोचते कुछ है और करते कुछ और ही हैं ।
कोई भी आदत एक दिन में न बनती है और न ही एक दिन में छूटती है । यह एक प्रोसेस है जो लगातर अभ्‍यास मांगता है । छोटे छोटे संकल्‍प लेकर हम अपनी अच्‍छी या बुरी आदते बना सकते हैं । आवश्‍यकता है एक विश्‍वास की । बार बार प्रयास करने से ही अपने उददेश्‍य को पाया जा सकता है । गिरना उठना फ्‍रि गिरना और फ्‍रि उठना, यह सोच एक दिन अवश्‍य सफलता दिलाती है । हां, आटो सजेशन यानि अपने को जानना और ध्‍यान के मार्ग से भी अपने उउदेश्‍य की प्राप्ति की जा सकती है ।

Friday, August 6, 2010

आग और पानी भी अपनी विशेषताए लि‍ए हुए हैं । आग का सही इस्‍तेमाल किया तो लाभ ही लाभ । आग से रोटी बनती है, जिससे हमें जीवन मिलता है । आग की गरमाहट से सर्द शरीर को राहत मिलती है । लेकिन आग का दुरुपयोग किया तो हानि ही हानि । आग के प्रति असावधानी हमें जला देती है । हमारे जीवन को समाप्‍त करने की दक्षता रखती है ।
पानी की विशेषता भी अनोखी है । प्‍यासे के लिए पानी ही जीवन है । पानी का दुरुपयोग सर्वनाश है । बाढ की स्थिति में पानी जीवन को कष्‍ट देता है ।
करंट भी अपनी अनोखी विशेषताएं लिए हुए है । ठीक से उपयोग किया तो हजारों कार्यों में उपयोगी होता है । ऊर्जा का रचनात्‍मक पक्ष है । लेकिन करंट का गलत प्रयोग, करंट के प्रति असावधानी मौत का द्वार खोल देता है । इसी प्रकार जीवन की ऊर्जा के भी दो पक्ष हैं । लोग ऊपर से कुछ और विचार रखते हैं और भीतर से कुछ और । वह विचार चाहे अपने प्रति हो या किसी दूसरे के प्रति । ऐसे कई उदाहरण हैं जिन्‍हें जानकर हम कह सकते हैं कि हम दोहरे मापदण्‍ड के शिकार हो रहे हैं । वास्‍तव में ऊपर से कुछ और भीतर से कुछ होने का एक ही कारण है और वह है झूठी प्रतिष्‍ठा । साधु लोग तो कहतेू हैं कि यह मात्र झूठी प्रतिष्‍ठा है । लेकिन हम लोगों की समझ से यह बात दूर है । झूठी प्रतिष्‍ठा के
चक्‍कर में हम फंसते ही जा रहे हैं और यह फंसना और भी अच्‍छा लगता रहा है । हम इस प्रतिष्‍ठा को पाने के लिए ही झूठ बोलते हैं । इसे झूठ कह लो या दो विचार से चलना । बाहर कुछ और भीतर कुछ । यह भी देखा गया है कि व्‍यक्ति विशेष के लिए वैसा ही बनना पडता है । जैसे कोई दोस्‍त बहुत उम्‍मीद और उत्‍साह से हमारे पास आता है तो हम न चाहकर भी हंसते हैं, मुस्‍कराते हैं, बातें करते हैं, चाहे अन्‍दर से मन कितना ही इस सबके विपरीत हो । लेकिन झूठी प्रतिष्‍ठा के लिए करना पडता है यह सोचकर कि कही दोस्‍त को बुरा न लग जाए ।
हम लोग अपने बच्‍चे को एक खास स्‍कूल में दाखिल कराने के लिए एडी चोटी एक कर देते हैं । लेकिन दूसरी ओर स्‍कूल प्रशासन को गाली भी देते हैं । फीस के खर्च, पढाई लिखाई के खर्च और परेशानियों से भी घबराते हैं, लेकिन ऊपरी तौर पर स्‍कूल की तारीफ करना नहीं भूलते ।
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हमें अपने सामाजिक जीवन में कई लोगों से मिलना होता है । हम देखते हैं कि कुछ लोगों के बातचीत करने का अंदाज इतना सुन्‍दर होता है कि शीघ्र ही वह दूसरों की निगाहों में छा जाते हैं । लेकिन साथ ही साथ हमारे हाव भाव ऐसे नहीं होने चाहिए जिससे दूसरे पर बुरा प्रभाव हो । बातचीत करते समय हमें इस बात का विशेष रुप से ध्‍यान रखना चाहिए । कई लोगों की बुरी आदत होती है कि वे बातें करते समय अपनी आंखों को कटका मटकाकर बात करेंगे । कई लोग अपने हाथों को बार बार ऊपर नीचे इस प्रकार घुमाते रहेंगे मानो बात जुबान से नहीं हाथों से हो रही हो । कई लोग दूसरों से बात करते समय या बात सुनते समय अपने पैरों को जमीन पर बजाते रहेंगे । यह सब अशोभनीय है । कई लोग बात को ध्‍यान से नहीं सुनते बल्कि अपनी धुन में गीत गुनगुनाते रहेंगे अथवा अपना ध्‍यान आसपास की चीजों को देखने में खो जाएंगे, जब उनका ध्‍यान हटाया जाए तो वे तुरन्‍त कह उठेंगे – हां, क्‍या कह रहे थे तुम ? इससे स्‍वाभाविक रुप से दूसरे पर बुरा असर होता है । हमें बातचीत करते समय अथवा बात सुनते समय इस बात का विशेष ध्‍यान रखना चाहिए कि कहीं हमारे हावभाव किसी को भददे तो नहीं लग रहे हैं ? बातचीत करते समय एकाएक जोर से अटठास लगाना, खुजली करते रहना, नाक में उगली देते रहना, अशोभनीय है ।

Monday, August 2, 2010

जो तुम चाहते हो वह तुम हो जाते हो तुम कितना श्रम उसमें डालते हो वह तुम पर निर्भर है ध्‍यान के माध्‍यम से यह सब घट जाता है
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पति पत्‍नी के बीच मनमुटाव का एक कारण सेक्‍स की इच्‍छाओं को लेकर भी होता रहता है । पति यदि ज्‍यादा सेक्‍सी है और पत्‍नी कम तो भी पति का पत्‍नी से अंसतुष्‍ट होना देखा जाता है । इसी प्रकार यदि पत्‍नी ज्‍यादा सेक्‍सी है और पति कम तो भी मनमुटाव होता है । जीवन के लिए सेक्‍स बहुत ही महत्‍वपूर्ण हिस्‍सा है । इसको यदि ठीक से नहीं समझा जाता है तो कई तरह की कठिनाईयां आ जाती हैं । यदि पति पत्‍नी आपस में सेक्‍स के मामले में एक समझ रखें तो झगडे कम ही होती हैं । अक्‍सर देखा गया है कि पति ज्‍यादा सेक्‍सी होता है, वह अपना प्रभाव जमाकर पत्‍नी से शारीरिक संबंध स्‍थापित करने का हमेशा इच्‍छुक रहता है, बिना इस बात को समझे कि पत्‍नी राजी भी है या नहीं । बहुत कम मामलों में ऐसा पाया जाता है जहां पति कम और पत्‍नी ज्‍यादा सेक्‍सी होती है ।यदि पति कम सेक्‍सी होता है तो पत्‍नी कभी भी संतुष्‍ट नहीं हो पाती । परोक्ष रुप से वह वैवाहिक जीवन को नरक समझ बैठती है । इसलिए दोनों को इस बात का विशेष ध्‍यान रखना चाहिए कि सेक्‍स के मामले में उसके जीवन साथी का क्‍या विचार है । यदि एक कम सेक्‍सी है तो उसे अपने विचार तुरन्‍त प्रकट कर देने चाहिए । समय समय पर यदि दोनों एक दूसरे की भावनाओं को समझते रहेंगे तो मनमुटाव के कारणों पर काबू पाया जा सकता है । इस बारे में असफल होने पर जाने अनजाने दोनों के दिल दूसरे मामलों में भी ठीक से एक नहीं हो सकते । दोनों को यह समझना चाहिए कि अति हमेशा बुरी होती है और न्‍यूनता एक कमी । इसको रोटी के मामले में समझा जा सकता है । जैसे यदि कोई ज्‍यादा रोटी खाता है तो पेट दर्द होता है, नुकसान होता है और यदि रोटी न खायी जाए तो आदमी भूख से तडपता है । सेक्‍स के मामले में भी दम्‍पत्ति को मध्‍यम मार्ग अपनाकर चलना चाहिए ताकि जीवन में किसी प्रकार का मनमुटाव न हो ।
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मुझे शिकवा था तुमने प्‍यार नहीं किया स्‍नेह से भर न लिया मुझे दुख था तुमने पीडा दी नफरत की पुडिया दी लेकिन
अब कोई शिकवा नहीं कोई आरजू नहीं क्‍योंकि प्रेम दिया नहीं जा सकता स्‍नेह से भरा नहीं जा सकता कोई किसी को पीडा नहीं देता तडप और नफरत नहीं देता यह तो मन का भटकाव है जो दूसरों से अपेक्षा करता है भीख मांगता है भिखारी भी कहीं भीख देता है ?
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एक बात पति पत्‍नी को ध्‍यान में रखनी होगी कि दाम्‍पत्‍य जीवन में पति पत्‍नी के बीच छोटे मोटे झगडे होते ही रहते हैं । लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि उन दम्‍पत्ति में प्रेम नहीं होता । झगडे को विशाल रुप नहीं देना चाहिए । यह तो साफ बात है कि जिस के साथ तुम ज्‍यादा रहोगे, उससे विचार मतभेद तो होगा ही । मामला पति पत्‍नी के बीच हो या दो मित्रों के बीच । हम देखते हैं कि दो मित्र आपस में खूब हंसते गाते हैं तो लडते भी हैं । पति पत्‍नी भी जीवनभर साथ साथ हंसते गाते हैं तो झगडा भी करेंगे । इस बात को ध्‍यान से समझ लेना चाहिए । इसको स्‍वीकार भाव से अपनाना चाहिए । झगडा स्‍थायी नहीं होता है, आज है कल नहीं होगा । यह भी ध्‍यान में रखना चाहिए कि छोटे मोटे झगडे हर पति पत्‍नी में होती हैं, तुम पति पत्‍नी के बीच ही नहीं हो रहे हैं । अपना आत्‍मबल एवं सहनशीलता नहीं खोनी चाहिए ।
व्‍यक्ति को इतना संवेदशील होना चाहिए कि वह दूसरों की भावनाओं को समझ सके । आग में हाथ डालने से हाथ जल जाता है, इसको केवल संवेदनशील होकर भी समझा जा सकता है, जरुरी नहीं है कि आग में हाथ डालकर ही पता लगाया जाए कि हाथ जल जाता है ।
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लो सुबह आ गई रात ढलने के बाद लो खुशियां आ गई दुखों के बाद एकमस्‍त घटा सी छा गई तो मैंने पूछा - कौन लाया इस प्रकाश को उत्‍तर मिला – तुम मैं सकपकाया कौन लाया था उस अंधेरे को उत्‍तर मिला – तुम ।


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पति पत्‍नी के बीच एकरुपता न होने का एक कारण बदली परिस्थितियों को स्‍वीकार करने में हिचकिचाहट भी है । यदि पति प्रभावशाली है और पत्‍नी कम प्रभावशाली हो तो दिल में एक धारणा समा जाती है कि अब ठीक है । पति की नैचर ही कुछ ऐसी होती है कि जिसमें पति चाहता है कि मेरा स्‍थान हमेशा ऊंचा रहे । बातचीत के मामले में, सम्‍मान के बारे में, निर्णय लेने के बारे में, धन कमाने के मामले में और सामाजिक परिस्थितियों में पहल मेरी हो, ऐसा पति सोचता है । विवाह के एक दो साल तक तो पति की लगभग सभी इच्‍छाएं पूर्ण हो जाती हैं । उसे पत्‍नी से ज्‍यादा सम्‍मान मिलता है और किसी मामले में निर्णय भी पति का ही माना जाता है । स्थिति तब बदल जाती है जब धीरे धीरे पत्‍नी भी अपने अधिकार मांगती है । पत्‍नी की महत्‍वाकांक्षा बढने लगती है और मामलू विशेष पर अपना प्रभाव दिखाने लगती है । यदि पति से ज्‍यादा पत्‍नी का सम्‍मान होने लगे और यदि पति से ज्‍यादा पत्‍नी कमाने लग जाए तो पति के अंहकार पर करारी चोट पहुंचती है । वह अपनी पत्‍नी से कटा कटा रहने लगता है । ऐसे में वह अपनी पत्‍नी का कभी भी उत्‍साह नहीं बढा पाता है, बल्कि निरुत्‍साहित करता है । परिणाम पत्‍नी नाराज होने लगती है । पत्‍नी को लगता है कि मेरा जीवन साथी मेरा सहयोगी नहीं है, बल्कि रुकावट पैदा करने वाला ईर्ष्‍यालू मानव है । पति भी परेशान रहता है । वह चाहकर भी अपने अंहकार को समझ नहीं पाता है । अपने मित्रों के बीच व्‍यंग्‍य का शिकार बनता है । अपने तनाव को वह अपनी पत्‍नी पर नाराज होकर प्रकट करता है । इस प्रकार पत्‍नी अपने पति की मनोस्थिति को समझकर भी नासमझी से काम लेती है । यदि ऐसी स्थिति में पत्‍नी अपनी सहनशीलता और प्रेम से अंतिम सांस तक काम में ले तो तनावपूर्ण स्थिति से दोनों बच सकते हैं । पति को भी चाहिए कि वह पत्‍नी का सम्‍मान करना सीखे और बजाए अंहकार में जलने के, उससे सीखने की भावना उत्‍पन्‍न करे और अपने जीवन में प्रगति करे । कई बार ऐसी स्थिति में पत्‍नी अपने पति पर तुनुकमिजाजी और द्वेष का आरोप लगा देती है । कोई भी पति बर्दाश्‍त नहीं करता कि उसकी पति ही उसको जला कटा सुनाए ।
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मैंने पढा है कि घर को चलाने में स्‍त्री का योगदान इतना महान है कि परिवार की गाडी को चलाने में उसकी भूमिका सर्वश्रेष्‍ठ है । यदि स्‍त्री सहनशीलता खो दे तो वह परिवार टूट जाता है । शायद ईश्‍वर ने उसे यह शक्ति दी है । पुरुष के बीच तो सहजता बहुत ही कम दिखती है । कुछ समय तक ही सहजता को सम्‍भाल पाता है । शायद आप भी मानते होंगे । घर का स्‍वामी यानि पति में सहजता इतनी नहीं होती कि वह परिस्थितियों का डट कर सामना कर सके । पति बाहर की समस्‍याओं का हल तो कर लेता है लेकिन घर की समस्‍याओं को वह ठीक से हल नहीं कर पाता है । यह जिम्‍मेदारी स्‍त्री ही अपने कंधों पर लेती है । लेकिन प्रश्‍न है कि कभी कभी वह स्‍त्री क्‍यों अपनी सहनशीलता खो देती है । सहनशीलता को ईश्‍वर का दिया हुआ महान गुण है । इससे विदा होना मात्र मूर्खता है, अपने धर्म से विमुख होना है । ****
मुलाकातें और बढते दिव्‍य स्‍वप्‍न एक अनोखा कौतूहल प्रस्‍तुत करते हैं । वायदे एक आश्‍वासन देते हैं और आश्‍वासन आशा का मंत्र । आशा पूर्ण होने पर सुख की अनुभूति होती है और अपूर्णता की दशा में दुख । यहीं से जीवन के दोनों रुपों को जाना और पहचाना जाता है ।

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----- उसमें साहस है और कुछ करने की कल्‍पना भरी भावना भी । वह निडर होकर चलती है और उसे आत्‍मविश्‍वास प्राप्‍त है । मैंने सुना है ऐसे आत्‍मविश्‍वासी लोग भले ही तकलीफ दें, परेशानी दें लेकिन विजय ऐसे लोगों की ही होती है । मैंने सुना है जिन्दगी जिदा दिली का नाम है, मुर्दा दिल क्‍या खाक जिया करते हैं । मूर्दा दिल समाज की नजरों में तो सफल हो सकते हैं लेकिन वास्‍तव में वे असफल होते हैं । जो जिन्‍दा दिल जीते हैं उन पर कई कठिनाईयां आती हैं । यह तो साफ है । ऐसे क्षणों में जरुरत है अपनी शक्तियों को बिखरने न दिया जाए और एकजुट होकर काम किया जाए । अपने उददेश्‍यों की प्राप्ति के लिए एक दूसरे में पूर्ण विश्‍वास रखा जाए ।
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भावनाओं और प्रेम का उत्‍तर प्रेम ही तो होता है । कई बार लगता है क्‍या जीवन केवल प्रेम ही नहीं हो सकता ? जहां कोई नफरत का भाव न हो, कहीं कोई उत्‍पात न हो । हो सकता है । यह सम्‍भव है कि हम केवल प्रेम करें । यह तभी हो सकता है जब हम बुदिध के तल पर सोचना छोडें । यह हो सकता है यदि हम एक दूसरे के लिए जिएं । ईश्‍वर का साया उन्‍हीं लोगों पर छाया रहता है जो जीवन को प्रेम मानते हैं और सभी से प्रेमपूर्ण होते हैं । मैंने सुना है प्रेम में आदमी आदमी नहीं परम आत्‍मा हो जाता है ?
कई बार आपको लगता होगा कि आप जीवन के बारे में कुछ ज्‍यादा ही सोचते हैं । बातें तो करते हैं कि केवल आज के बारे में ही सोचो, भविष्‍य की सोच बेकार है, लेकिन आप देखते हैं कि कभी कभी आप ही भविष्‍य की कल्‍पनाओं में उलझ जाते हैं । यह कोई ठीक बात नहीं है । एक आधारभूत आत्‍मविश्‍वास की कमी है, यह उसका अप्रत्‍यक्ष रुप है । कभी कभी तो आपका आत्‍मविश्‍वास इतना डांवाडोल हो जाता होगा कि स्‍वयं ही आत्‍मविश्‍लेषण करने लगते होगे कि क्‍यों टूट जाता है मेरा विश्‍वास । कुछ करने की भावना, कुछ पाने की भावना आकर क्‍यों चली जाती है ? हां, एक बेसिक समझ की बात आपमें जरुर है, वह सभी में होती है । बस जरुरत है उसको समझने की । आपमें और मुझमें हर विषय पर विचार क्षमता रखते हैं ।
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जीवन के कई रुप हैं और ज्‍यादातर बनावटी । कभी कभी ऐसे नकली, झूठे, दिखावटी और बनावटी रुप को देखकर बेहद अफसोस होता होगा और आप विरोध भी करते होंगे । लेकिन अपने बीच निराशा पाते ही ऐसे बनावटी समाज को स्‍वीकार करना मजबूरी बन जाती है । बेमन से । कभी कभी यह बनावटीपन अच्‍छा भी लगता है । सोचते होंगे यदि बनावटीपन में में आत्‍मसंतुष्टि मिले, खुद को भी और दूसरों को भी तो इसमें बुरा क्‍या है ? जैसे दुनिया जी रही है, वैसे ही हम जिए जाएं ? हमेशा भविष्‍य की सुरक्षा की कल्‍पना से भयभीत होकर ।
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कह दो जो कहना है सुना दो जो सुनाना है सुन लूंगा आज मैं तुम्‍हारी नजर की जुबा अगर कोई शिकवा है कोई शिकायत है तो आज कह दो सुन लूंगा तुम्‍हें मौन में
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किसी का ठीक से पेश न आना, एकदम मौन हो जाना, किसी प्रियजन के आंसू हों या किसी दूसरे के दिल में एक पीडा उत्‍पन्‍न करने लगते हैं । हम विचलित हो उठते हैं ।
सिनेमा परदे पर मार्मिक सीन देकर आंसू निकल आते हैं । दूसरे का दर्द अपनी आंखों से देखकर अपना समझ लेते हैं । कोई उखडा उखडा सा पेश आता है तो विचलित हो उठते हैं हम । तनाव से ग्रस्‍त हो उठते हैं, दुख से भर जाते हैं । सब कुछ काटने को दौडता है । चारों ओर निराशा ही दिखती है । अपने को अकेला पाते हैं । प्रश्‍न उठता है – जीवन का मकसद क्‍या है ? शायद जीवन का मकसद ढूंढना ही जीवन का मकसद है ।
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अपनी निज सरलता की भावना, त्‍याग की सोच जीत लेती है बाजी । प्रेम की राह में सब भूला दिया जाता है । देकर ही सब मिल जाता है । शब्‍द मिट जाते हैं, नजर की जुबा बोलती है ।
सोचता हूं कुछ सोचना है न सोचता हूं
न सोचा है पता नहीं क्‍या सोचना है एक पीडा है बिलखती तडपती यही सोच सोच कर सोचता हूं कुछ सोचना अर्थहीन है यही सोच सोचने को मजबूर करती है कहीं तुम गलत तो नहीं ?
क्‍या आप अपनी कमियां सुनकर दूसरों की प्रशसा या सम्‍मान करने का साहस रखते हैं ?

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प्रत्‍येक आदमी में अच्‍छे गुण और अच्‍छी भावना भी होती है । तभी तो जीवन में अच्‍छे पल बीतते हैं । बदलाव भी आता है । अच्‍छे पल बुरे पलों में बदलते हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि अब अच्‍छे पल आयेंगे ही नहीं ।
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आप देखेंगे कि जब भी आप अपनी छोटी सी दुनिया में मस्‍त चाल से रहेंगे तो आपको किसी प्रकार की पीडा या दुख नहीं होगा । आप अपने बीच पूर्णता का अनुभव कर सकेंगे । लेकिन आपकी परेशानी तब अवश्‍य ही बढ जाती होगी जब आप संसार की दौड को देखकर भागने लगते हैं । तब आपको लगेगा मानो आप दौड में पीछे ही रह गये हैं । सफलता और सुखी जीवन के प्रयास तो सभी करते हैं, आप भी करते होंगे, लेकिन अंधी दौड ? आपकी दौड दो तरह की हो सकती है । एक, अच्‍छी से अच्‍छी नौकरी या काम धन्‍धा मिल जाए, ज्‍यादा से ज्‍यादा पैसे मिल जाएं । दूसरा, मेरा सम्‍मान हो, इज्‍जत हो अर्थात पैसा और शोहरत सभी को चाहिए । यह दौड अंतहीन है । कितना ही दौड लो, मंजिल नहीं है । तब प्रश्‍न उठता है जिस दौड की कोई मंजिल नहीं है, अंत नहीं है तब वह दौड क्‍यों ? क्‍यों अपने को कष्‍टों और दुखों में डाला जाता है ? और और ----- और ।
इसका यह अर्थ नहीं है कि आगे नहीं बढना चाहिए । जहां हो वहीं रुक जाओ । नहीं । अपनी गति से बढो, अपनी शक्ति के अनुसार बढो । जहां कोई थकावट या तनाव न हो । दूसरों को देखकर नहीं अपने को देखकर आगे बढो । यदि हम अपनी शक्तियों को पहचानने लग जाएं तो हमें जरा भी कष्‍ट नहीं होता ।
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तब आप बहुत खुश होते हैं जब लोग आपको चाहते हैं । आपको प्‍यार करते हैं । कमियां तो आपके बीच में भी हैं जिन्‍हें आप दूर करना चाहते हैं । यह कमियां तभी दूर होंगी जब आप अपने बीच गुणों को बढा लेंगे । दूसरों की रफतार तेज है, आपकी अपनी रफतार से । आप पीछे रह जाते हैं और अपने को बीमार समझने लगते हैं । दो ही बात है दूसरा तेज है या आप धीमा हैं । इसको ध्‍यान से देखना है ।
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अक्‍सर आपने देखा होगा कि दूसरों के डायरी लिखने का अन्‍दाज निराशापूर्ण अथवा रहस्‍यपूर्ण होता है । डायरी में वे लागे समाज के प्रति अपना रोष प्रकट करते हैं और प्रेम की पूजा करते हैं । वास्‍तविकता की दुनिया से दूर, अपने भीतरी व्‍यक्त्वि से, एक कल्‍पना की दुनिया में खो जाने में उन्‍हें एक विशेष आनन्‍द का अहसास होता है । इसको ही वे डायरी लिखना समझते हैं । किन्‍तु वक्‍त के एक झोंके के साथ ही कल्‍पनाओं का महल टूटता है और पाते हैं चारों ओर सुनसान रेगिस्‍तान । अपने को अकेला महसूस करते हैं । कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो डायरी लिखने का अर्थ समझते हैं अपनी प्रेमिका या प्रेमी के साथ बीते क्षणों का व्‍याख्‍यान । अपने प्रियतम के बीच अंलकारों और उपमाओं का एक अन्‍तहीन सिलसिला । टूट जाता है यह सब पत्‍तों के महल की तरह । जिन्‍दगी की कुछ ऐसी वास्‍तविकताएं भी होती हैं जो डायरी के पन्‍नों में नहीं आती । कुछ ऐसे सवाल जिन पर समय पर विचार नहीं होता । तब, देर हो जाती है और डायरी के अंतिम पन्‍नों में दुखद यादों का एक धाराप्रवाह वर्णन शुरु हो जाता है ।

मैं समझता हूं डायरी लिखना मतलब अपने भावों को, विचारों को जैसा सोचा,समझा, जाना बस लिख डालो ।जब पीडा हो तब भी लिखो और जब खुशी हो तब भी लिखो, बिना सोचे समझे कि क्‍या लिखा जा रहा है । मेरा अपना विचार है कि वह अच्‍छा लेखक नहीं है जो सजाकर संवारकर लिखता है । बस,लिखा । लेखक का अर्थ है लिखनेवाला । बिना किसी पक्षपात के, बिना किसी धारणा के । पढनेवाला सिर्फ पढता रह जाए और पढता ही जाए ।
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कोई किसी को प्रभावित नहीं कर सकता । हां, एक रास्‍ता है – दबाव का । शक्ति से दूसरे को अपना प्रभाव दिखाएं । हो सकता है कि इस विधि से दूसरा अंधेरे में भटकने से रुक जाए लेकिन इससे दूसरे का व्‍यक्त्वि शून्‍य हो जाएगा । तब वह भयभीत हो जाता है । गलती तो कोई भी कर सकता है । हर कोई गलती करता है । तुम उसे सुधार नहीं सकते । वह खुद सुधरेगा । तुम्‍हें तो केवल सुन सकता है । तुम तो केवल संकेत मात्र हो सकते हो । दूसरा रुके या न रुके, यह उसका फैसला है । जब एक अंधेरे से भटक जाए तभी उसे प्रकाश का आभास होगा । तुम प्रकाश देना ।