Tuesday, September 14, 2010
जो चीज आसानी से मिल जाती है उसकी हम कद्र करना छोड देते हैं । यही कारण है कि कुछ पति व पत्नियां एक दूसरे का सम्मान करना भूल जाते हैं । एक दूसरे से बहुत ज्यादा आशा रखने के कारण ही दोनों एक दूसरे से अनबन बनाए रखते हैं । यह ठीक नहीं है । यदि पत्नी पति का साथ नहीं देती या पति पत्नी का साथ नहीं देता है तो वह घर अवश्य ही बर्बाद हो जाता है । वे दम्पत्ति हमेशा आने वाले कल के लिए अपना आज खराब कर लेते हैं । जो मिला, उसका कभी धन्यवाद नहीं करते । जब उनके सोचे हुए कुछ नहीं होता तब वे अपने बीच एक असंतोष का भाव अनुभव करते हैं और वे अपने बीच नेगेटिव विचार सोचते हैं जो गलत है, दुखदायी है ।
बदलाव लाना हो तो धीरे धीरे लाना चाहिए । यदि हम सोचें कि अचानक सब कुछ बदल जाए तो सोचना भूल होगी । बात चाहे व्यवहार की हो या निजी परिवर्तनों की । परिवर्तन दूसरे के बीच में लाना हो तो बदलाव धीरे धीरे ही लाया जा सकता है । अनावश्यक बोलना और अनावश्यक खानरा इन पर कंट्रोल करने में थोडा समय लग सकता है । अपने सु्न्दर शरीर और व्यक्त्वि के लिए अपने पर ध्यान देना ही चाहिए ।
चुटकुले सुनें और सुनाइए । उपदेश देना बेकार है । हमारी हर सफलता या असफलता का श्रेय हमें ही तो है । न उदास हो, न उतावलापन लाएं । स्मरण् शक्ति का तीव्र होना अच्छा है । हमारे कई विश्वास हैं । जरुरत से ज्यादा आशा दुख देती है । आप जैसे हैं ठीक हैं – क्लर्क या डाक्टर । विवाह की असफलता मानसिक,शारीरिक व आर्थिक है । साहित्य का असर होता है । अपने बडो का सम्मान करना चाहिए । गुस्सा आना स्वाभाविक है । जिददी होना मूर्खता है । मिलजुलकर रहें । प्रेम में लेने की तमन्ना न हो तो ठीक है । जीवन एक अभिनय है । उपरोक्त विचार मेरे निजी विचार है । आपको कैसा लगा, कृपया अपनी राय दें ।
सफलता ही असफलता है । एक ही बात सबके लिए ठीक नहीं होती । कुछ लोग अच्छे हैं, कुछ बुरे हैं । कुछ हद तक नैचर में परिवर्तन लाया जा सकता है । टाइमटेबल बनाकर चलें । अपने को सबसे ज्यादा महत्व दें । समय का सदुपयोग करें । जब कोई सुनने को तैयार हो, तभी बोलें । आलोचना सुनो, बुरा न मानो । उदासी भी एक अनिवार्य शर्त है जीवन में । परिणामों की कल्पना से घबराना डरपोक होना है । जीवन में हार भी होगी और जीत भी । गुस्सा आए, देखो, चुप हो जाओ । माफ करना भी एक गुण है । झगडे गलतफहमी से होते हैं । कष्ट आने पर याद रखें – कोई बात नहीं, हाउ फे, सो वट मैं क्यों बुरा मानूं ।
सबको खुश रखने की इच्छा व लोकप्रिय बनने की इच्छा ही दुख है । समय को देखकर बदलना बुरा नहीं है । सादापन ठीक है । नया काम करने के लिए कुछ चीजों को छोड देना चाहिए । आप दूसरों की बोली को अपनी बोली बनाकर मन जीत सकते हैं । नियम बनाकर चलना ठीक । अपने स्वास्थ्य पर ध्यान दें । अल्पभाषी बनो । कम खाइए । एकदम प्रभावित होना ठीक नहीं । भय निर्मूल कल्पना होती है । जो है, उसका धन्यवाद । भविष्य की सुरक्षा की भावना से हमेशा भय रहता है ।
हर तकलीफ जीने का एक संदेश लेकर आती है । तभी सुख का अहसास होता है । तुम अपने विचार शब्दों द्वारा नहीं बता सकते । मौन रहकर बता सकते हो । ज्यादा बोलने और ज्यादा सोचने से रचनात्मक शक्ति क्षीण होती है । फार्मेलिटी में समय और पैसा बर्बाद करना बेकार है । लोगों की धारणाओं का खास मूल्य नहीं होता है । हर व्यक्ति में काम करने की बहुत सी क्षमताएं होती हैं । असफलता मिलने पर अपने को पूर्ण असफल घोषित करना मूर्खता है । कम से कम स्वयं अपने को असफल मत कहो । दुख और सुख की शुरुआत अपने भीतर से ही होती है और समाप्ति भी । अपने से लडना बेकार है । अपना मार्गदर्शक खुद बनें । अपने जीवन को स्वयं सुन्दर बनाया जा सकता है । उत्साह, मेहनत एवं संकल्प तथा साधना से सभी काम हो सकते हैं । अपनी शक्तियों को फैलने न दें । कोई किसी को सुख नहीं दे सकता और न ही दुख । दूसरों के प्रति बुरे एवं नेगेटिव विचार न रखें, इससे आपका ही भला है । जीवन खत्म नहीं हो गया है, नए सिरे से कोशिश करें । हमारी आत्मा बता देती हैं कि हमें क्या करना है
Sunday, September 12, 2010
अनुभव से कहा जा सकता है कि कोई भी ज्यादा देर तक अपनी आलोचना नहीं सुन सकता है । ज्यादातर लोगा चाहते हैं कि ऐसी कोई भी बात न कही जाए जो पूर्व धारणाओं के विरुदध हो । यदि आप देवी देवताओं की आलोचना करते हैं तो आपके भक्त मित्र कदापि नहीं सुन पायेंगे । कहा जाता है कि आलोचना करना बुरा नहीं है यदि इसके पीछे विध्वंश की भावना न हो । लेकिन यथार्थ में आलोचना करना बहुत ही अलाभकारी है । यदि आप किसी की आलोचना करते हैं तो शीघ्र ही आप दूसरों की निगाहों में असुन्दर हो जाते हैं । कई बार तो दूसरा इतने क्रोध में आ जाता है कि वे आपके खिलाफ कई कडवी बाते कह देता है । बातचीत का सिलसिला जब निजी जीवन में घुस जाता है तो हम गुस्से में आ जाते हैं जिससे हमारे बीच असंतोष पैदा हो जाता है । क्या आलोचना करना सच में इतना बुरा है ? यदि हां तो इसका अर्थ यह कि हम दूसरों की बातों का्, विचारों का केवल समर्थन ही करते जाएं । पति पत्नी के बीच झगडा होता है तो एक दूसरे की आलोचना करने पर ही होता है । मित्रों के बीच झगडा होता है तो एक दूसरे की आलोचना करने पर ही होता है । दो मित्रों के बीच, दो व्यापारियों के बीच भी तब कटुता आ जाती है जब एक पक्ष दूसरे पक्ष पर आरोप लगाता है या आलोचना करता है । आलोचना तो आप भी करते होंगे ? आप भी सोचते होंगे कि आलोचना न करुं और पुरानी परम्पराओं, दूसरों के विचारों का समर्थन करता रहूं, बिना इस बात को ध्यान में रखकर कि मेरा भी कोई निजी विचार है । हालांकि इससे कई बार उक्ताहट पैदा होगी, लेकिन किया भी क्या जाए ? जब आलोचना करना यदि असंतोष पैदा करता है तो इससे दूर रहना ही बेहतर है । न आलोचना करो, न बुरे बनो । यदि आप अपनी आदतों, स्वभाव और सोच को बदलना चाहते हैं तो आपको इसके लिए अथक प्रयास करने होंगे । धेर्य, संकल्प और साधना से किए गए प्रयासों द्वारा अपने बीच अवश्य ही परिवर्तन लाए जा सकते हैं ।
ऐसा देखा गया है कि हम जबरदस्ती खाने पीने के लिए जोर लगाते हैं । कहते हैं – फलां फलां चीज खा ले या पी ले, नहीं तो मेरा दिल टूट जाएगा । और हम जबरदस्ती बिना भूख के भी दूसरे का दिल रखने के लिए कोई भी चीज खा या पी लेते हैं । यह विडम्बना है । न भूख होते हुए भी खा लेते हैं । कई बार स्वाद के कारण भी चीजों को खाते चले जाते हैं । क्या यह सब ठीक कर रहे हैं ? दूसरों से मिलने जाते हैं तो बिना पूर्व सूचना के । और घंटों बैठ रहते हैं । इस बात को सोचते ही नहीं है कि कहीं दूसरे का समय तो नष्ट नहीं कर रहे हैं ? अपना समय तो नष्ट कर ही रहे होते हैं ।
कई बार साहसी व्यक्तियों के साहस भरे कारनामें पढकर या सुनकर बहुत खुशी होती है,एक प्रेरणा मिलती है कि हम भी साहसपूर्ण कार्य करें । हम किसी भी आकर्षक व्यक्त्वि को देखकर वैसा ही बनने का निर्णय कर लेते हैं । कोई आदमी ज्यादा पढने लिखने वाला है तो हमारे बीच भी यह भावना उठती है कि हमें भी पढना लिखना चाहिए । कोई कम बोलता है तो हमारे बीच भी कम बोलने वाले व्यक्त्वि की चाहत उभरती है । इसी प्रकार किसी को अच्छे कपडे पहने देखकर, यदि कोई आट में रुचि लेता हो तब भी हम वैसी ही योग्यता पाने की इच्छा उत्पन्न कर लेते हैं । यह बहुत अच्छी बात है । यदि आप ज्यादा शांत रहना चाहते हैं और कम बोलना चाहते हैं तो अध्ययन की ओर ज्यादा ध्यान देना चाहिए । अपनी रुचि बदली भी जा सकती है ।
Thursday, September 9, 2010
लडकी जब विवाह के बाद नये घर में आती है तो उसे कुछ दिन परेशानी अवश्य होती है । घर के बडे लोगों द्वारा बहू पर कई प्रकार के व्यंग्य कसे जाते हैं । जो आरम्भ में ही घबरा जाती हैं वह बाद में भी घबराए रहती हैं । प्रेम विवाह करने वालों को पहले ही सोच लेना चाहिए कि संयुक्त परिवार में उनका सम्मान नहीं होगा । यह बात काफी कद तक सही है । कुछ अपवाद छोड दें तो । लेकिन संयुक्त परिवार से अलग होने से पहले यह अवश्य देख लेना चाहिए कि क्या अलग रहकर जीवन निर्वाह किया जा सकता है ? जब इस विषय में में विश्वास आ जाए तभी अगला कदम उठाना चाहिए
जीवन बुरा नहीं होता, जीवन तो बुरा बनाया जाता है । अर्थात हमें आपस में प्रेमपूर्ण रहना चाहिए और एक दूसरे के प्रति पूर्ण विश्वास रखना चाहिए ताकि इस विश्वास के अभाव में जीवन बुरा न बनाया जा सके । वैसे तो यह सच है कि जीवन न तो अच्छा होता है और न ही बुरा । जीवन जीवन होता है । उसे अच्छा या बुरा हम बनाते हैं । जिस रुप में जीवन को देखो वह वैसा ही हो जाता है । बुरा देखने से हृदय कलुषित हो जाता है और अच्छा देखने से स्वस्थ । प्रेम तो अन्दर होता है । यदि भीतर का प्रेम भाव सुन्दर है तो वह अवश्य ही उभरेगा ।
कई बार हमारे सोचे हुए कुछ नहीं होता । तब हम अपने बीच एक असंतोष पाते हैं । असंतोष के वातावरण में नेगेटिव विचार सोचने लगते हैं जो ठीक नहीं कहा जा सकता । ओशो रजनीश ने एक प्रवचन मे कहा था – प्रेम में घृणा निहित है । यह वचन कहां तक सत्य है, इस पर विवाद हो सकता है । लेकिन घृणा, प्रेम, रुठना, मनाना, हंसना हंसाना यही तो जीवन है । सभी रस हों जीवन में । जीवन के नौ रस, तभी जीवन पूर्ण होता है ।
पहले आकषर्ण, फ्रि बातचीत,फ्रि मुलाकातोंका सिलसिला और फ्रि बढता प्रेम और उसके बाद मधुर यादें और फ्रि मस्तिष्क में एक चित्र और फ्रि ह्दय में याद और फ्रि ह्दय में एक चित्र और फ्रि जीवनभर एक होने की कल्पना । जीवन भर साथ रहने का अर्थ है – विवाह । यानि प्रेम विवाह । यह सब होता है स्वाभाविक और निरन्तर । विवाह के लिए निर्णय अपना होते हुए भी मां बाप का निर्णय जरुरी समझा जाता है । उनकी स्वीकृति मिली तो सब कुछ, किन्तु उनकी स्वीकृति न होने पर एक प्रश्नचिन्ह खडा हो जाता है । अब क्या करें । जिद । अपनी बात पर अटल रहकर । मनाने की भरपूर कोशिश । हर तरह के प्रयास । आखिरी दम तक । बाहरी सभी झूठी मान्यताओं का कडा विरोध । संघर्ष । अपनी सामाजिक मर्यादा के बीच । एक एक सीढी और फ्रि मंजिल पर । दो तरीके हैं – एक एक सीढी चढेंगे या फ्रि लिफट के रास्ते से । एक दो मिनट में ही मंजिल पर । हां, लिफट की लाइट नहीं जानी चाहिए । एक एक सीढी चढने से देर भले ही हो, लेकिन मंजिल पर अवश्य पहुंचा जा सकता है । हां, पावों में भी दम होना चाहिए । अपने अन्दर साहस होना चाहिए ।
Monday, September 6, 2010
कई बार एक आदमी किसी बात को सुन लेता है और उसे लगता है कि इससे उसका अपमान हो रहा है अथवा कहीं उसके मन पर चोट की गई है तो वह उस पर विचार करता है । तब विचार करते करते बैचेनी बढ जाती है और सिरदर्द होने लगता है । चारों ओर असफलता और निराशा दिखती है । ऐसा कुछ ही देर के लिए होता है । । धीरे धीरे बदलाव आता है और बैचेनी समाप्त हो जाती है ।
साहित्य ऐसा पढना चाहिए जो अपनी भावनाओं के अनुरुप हो । यह ठीक है कि हमें कई बार वह भी पढना होता है जो हमारी रुचि का विषय नहीं है लेकिन इतना तो हो सकता है कि हम उस साहित्य को ज्यादा पढें जो एक मानसिक संतोष प्रदान करता है । बच्चों का साहित्य पढेंगे तो हृदय की भावनाएं चंचल व मासूम हो जाएंगी,मधुर हो सकती हैं । सोचने का तरीका साधारण एवं सुरुचिपूर्ण हो जायेगा । इसी प्रकार फ्ल्मि के बारे में पढों, कहानी पढो,चुटकुल पढो, रहस्य रोमांच पढो या अश्लील साहित्य, जल्दी ही अपने सोचने की शक्ति भी वैसी ही हो जाएगी ।
किसी गुरु की क्या प्रतिभा है, उनके बीच कितना गुरुत्व है, यह सब उनके शिष्यों के कारण ही निर्धारित होता है । यदि आप अपने गुरु को महान गुरु और महान दार्शनिक मानते हैं तो उसके पीछे आप की उन्हें समझने की क्षमता ही होती है जिसके फलस्वरुप वे लोकप्रिय गुरु माने जाते हैं । यह सुनने और पढने में भले ही आश्चर्यजनक लगे लेकिन है तथ्यपूर्ण । किसी को अच्छा मानना या बुरा मानना – निर्भर करता है कि हम उसे किस दृष्टि से देखते हैं । यदि आप मुझसे घृणा करते हैं और मुझे बुरा व्यक्ति कहते हैं तो यह सिर्फ आपके सोचने पर निर्भर करता है । यदि आप मुझसे प्रेम करते हैं तो वह आपकी समझ का ही परिणाम होगा । साफ है कि किसी को अच्छा या बुरा कहने का निर्णय हमारे स्वविवेक पर ही निर्भर करता है । यदि यह सब हमारे स्वविवेक पर ही निर्भर है तो सिदध होता है कि सर्वश्रेष्ठ हम ही हैं । हमारी श्रेष्ठता ही सिदध करती है कि हमें उनको कितना सम्मान दें । अर्थात किसी को पहचानने की श्रेष्ठता हमारे बीच ही है । आपका गुरु आपके लिए महान हो सकता है, शायद मेरे लिए नहीं । मेरे गुरु मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ हो सकते हैं शायद आपके लिए नहीं । तब हम कैसे श्रेष्ठता को साबित करते हैं ? शायद आपको इस प्रश्न का उत्तर मिल गया होगा । जब संसार की प्रत्येक वस्तु को देखने का नजरिया हमारे स्वविवेक पर है तो किसी बाहरी शक्ति से हम कैसे प्रभावित हो सकते हैं ? यदि हमें जानना है तो दूसरों को जानने की बजाए स्वयं को जानना चाहिए । यदि यह कहा जाए कि हम ही वह मिरर्र हैं, वह आइना हमारे बीच में ही है जो लोगों की अच्छी या बुरी तस्वीर पेश करता है अर्थात अन्तिम फैसला हमारे भीतर का आइना यानि स्वविवेक करता है । हमने अपनी ऊर्जा को जो बाहर की ओर लगा रखा है, क्यों न उसे भीतर की ओर रुपांतरित कर दिया जाए ताकि हम अपनी शक्तियों को पहचान सकें । अपने स्वविवेक को पहचानें जिसमें ब्रहमांण है । इन पंक्तियों को लिखने के पीछे मेरा यह उददेश्य नहीं है कि आप अपने गुरु का सम्मान न करें । यदि आपको अपने गुरु को सुनना अच्छा लगता है, तो अवश्य सुनें । यदि सुनने की भावना है तो सुनना ही चाहिए । सुनना चाहे भिखारी का हो या किसी गुरु का । किसी को भी सुनो, लेकिन अन्तिम सुनना तो हमारा ही होगा । अन्तिम सुनना तो अपने को सुनना ही होगा । बाकी सब व्यर्थ साबित होंगे । किसी के बीच भी सत्य दिख सकता है । सब अवतार और सब गुरु अपनी जगह ठीक हैं । शायद वे भी यही कहना चाहते हैं कि जो तुम सोचते हो, वही परम सत्य है ।
Sunday, September 5, 2010
घर की स्थिति और घर से बाहर की स्थिति में एक अन्तर है । दोनों ही स्थिति एक दूसरे की पूरक होते हुए भी कहीं न कहीं विरोधाभासी प्रतीत होती है । हमारे विचार भी घर में और घर से बाहर दूसरे हो जाते हैं । दो चेहरे बनाने पडते हैं । स्थिति देखकर ही हम हंसते हैं या बुरा सा मुंह बनाते हैं । हमारी नैचर क्या है ? यदि हम घर की स्थिति और बाहर की स्थिति को देखकर चलते हैं तो हमारी वास्तविक नैचर क्या है ? हम अपनी नैचर के अनुसार अक्सर काम नहीं करते हैं । यही कारण है कि हम दिन प्रतिदिन तनावग्रस्त होते जा रहे हैं । हमारे जीवन में पीडा के क्षण बढते ही जा रहे हैं और मात्र दर्शक बनकर ही रह गए हैं । हमारा मुक दर्शक बनना ही हमें और ज्यादा पीडित कर रहा है । हमारे विचार, भावनाएं दबकर रह जाती हैं । हममें उन सब के विरुदध बोलने की हिम्मत खत्म हो गई है । कभी हमें अपने सम्मान का ख्याल आता है तो कमभी दूसरों के सम्मान का । झूठी इज्जत और अपने को अच्छा साबित करने के विचार ने ही हमारे वास्तविक विचारों को गुमराह कर दिया है । हम करते क्या हैं और होते क्या है ं कुछ लोंगों ने अपने को बडी खूबी से सम्भाला हुआ है वरना उनके बीच भी कहीं न कहीं इस व्यवस्था के खिलाफ विरोध है । वे चतुराई से अपने को सम्भाले हुए हैं । इस सारे द्वंद से यही प्रतीत होता है कि संसारिक बनने का आकषर्ण चाहे कितना ही आकर्षक क्यों न हो किन्तु उसमें एक खोखलापन अवश्य है । ऐसा आकर्षण है जो एकपल मोहित करता है किन्तु दूसरे पल महसूस करता है कि – मैं फंसता ही जा रहा हूं इस जाल में ।
वाद विवाद और तर्क करना कहां तक उचित है, कहना आसान न होगा । तर्क से एक पक्ष की हार होती है और एक पक्ष की जीत । लेकिन सत्य छुपा रहता है । किसी पर आरोप लगाते रहने से कभी भी संतोष नहीं मिल सकता । आरोप सुननेवाला बेवजह आरोप लगानेवाले व्यक्ति के प्रति कभी भी प्रेमपूर्ण नहीं हो पाता । जरा सोचिए । प्रेम में जितना लेने का भाव होता है, प्रेम का भाव उतना दूर होता जाता है । अभिनय करना या कृत्रिमता थोडे समय के लिए ही सुखदायी होती है । अपने स्वविवेक के अनुसार ही कार्य करना ठीक है ।
विवाह के बाद स्थितियां काफी हद तक बदल जाती हैं । उस समय अपने बीच सहजता की विशाल प्रतिमा बनानी होती है । व्यक्ति का अन्तिम फैसला व्यक्ति स्वयं ही करता है । विवाह के आरम्भिक दिन आसान लगते हैं और नवविवाहित दम्पत्ति को लगता है कि हमारा प्रेम अटूट है और दूसरों से हटकर है । लेकिन धीरे धीरे जीवन के खटटे मीठे अनुभवों से आप पायेंगे कि आपके विचार काफी बदलते जा रहे हैं ------
आदमी का मन बहुत ही डावांडोल होता है जो कुछ न कुछ हरकत करता रहता है । भले ही वह हरकत कितनी घटिया क्यों न हो । यदि आदमी पहले से ही परेशान हो तो दूसरे के प्रति मन में बहुत ही घटिया विचार आते हैं । पहली बात तो यह है कि दुख हमेशा नहीं बना रहता है और न ही सुख । हम किसी के जीवन में कोई खास परिवर्तन नहीं ला सकते हैं । व्यक्ति के बीच आधारिक परिवर्तन व्यक्ति खुद ही लाता है । आदमी के विचार इतने तेजी से चलते हैं कि उनको समझना बेबुझ बन जाता है । मौन के क्षणों में हम अपने वास्तविक विचारों को देख सकते हैं, तभी हमारे बीच सही तस्वीर सामने आ सकती है । हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि दूसरा दुख देता है या दूसरा सुख देता है । दूसरा तो मात्र साधन है । दूसरा तो मात्र बाधा उत्पन्न कर सकता है, लेकिन दुख नहीं दे सकता । किसी पर आरोप लगाना बेकार है । अपने बीच सहजता पैदा करनी चाहिए । उत्तेजना को कम करके रचनात्मक बनना होगा । अपने बीच गम्भीरता लाने से ही करुपता खत्म होती है । मुझसे लोग कहते हैं यह सब आसान नहीं । प्रेक्टिकल जीवन में यह नहीं होता । हां, मैं भी मानता हूं । मुश्किल है । लेकिन असम्भव नहीं । कोई भी नया काम शुरु में मुश्किल लगता है लेकिन धीरे धीरे अभ्यास करने पर आसन लगना शुरु होता है । एक उदाहरण से समझाता हूं । मान लीजिए आप कार सीखना चाहते है। शुरु में कार चलाना बहुत ही मुश्किल लगता है । लेकिन 15 दिन के अभ्यास के बाद आप समझ सकते हैं कि कार चलाना मुश्किल नहीं । ठीक वैसे ही जीवन के सत्यों को जानने में शुरु में कठिनाई आती है । लेकिन बार बार अभ्यास करने पर अवश्य सफलता मिलती है । और यदि सफलता न मिली तो भी कोई असंतोष न रखें ।
Saturday, September 4, 2010
किसी से बहस मत करना । किसी को समझाने का प्रयास भी मत करना । बल्कि स्वयं समझने का प्रयास करना – अपने को भी और दूसरे को भी । इस मामले में किसी से उलझने की जरुरत नहीं । प्रेम और सही समय का इंतजार । किसी से नाराज भी मत होना । नाराज होने का अर्थ है अपने बीच दुखों के जीवाणुओं का प्रवेश । हर व्यक्ति के सोचने का अपना तरीका होता है – फ्रि गलत या ठीक का निर्णय हम कैसे दें ? हां, अपना निर्णय आप ही करना चाहिए, तुम्हारे बारे में अन्य लोग क्या सोचते हैं, वह अंतिम नहीं है । इसी प्रकार दूसरे का भी अंतिम निर्णय उसी का होता है, तुम्हारा नहीं । *****
अपने को सही और दूसरे को गलत ठहराने की परम्परा या सोच तो लगभग सभी में होती है, लेकिन ऐसे बहुत कम हैं जो अपने को दोषी मानते हैं । हम हमेशा ही अपने को सही मानते हैं । यदि हमारे किसी से विचार मतभेद हों तो हम कहते हैं दूसरा गलत सोचता है । दरअसल ऐसा सोचना ही ठीक नहीं माना जा सकता । यह जरुरी नहीं है कि हमारा सोचा हुआ विचार सही हो । यह तो उसी तरह है जैसे सुख में, खुशी में बहुत ही सह्दयता से घुलमिलकर हम सफलता का श्रेय अपने को दे देते हैं लेकिन दुख् के समय हम विचलित हो उठते हैं । दूसरों के बीच दोष ढूंढना आरम्भ कर देते हैं । दूसरा दुखी है, गलत है और हमें दुख पहुंचा रहा है – यह सोच गलत है । आप गलती पर है आप ठीक नहीं है, यह विचार हमें संतोष नहीं दे सकता । क्या सही है और क्या गलत है, इसके बारे में दूसरों से ज्यादा विचार अपने को भ्रम में डाल देते हैं । यदि हम सुख व सफलता का श्रेय अपने को देते हैं, तो दुख व असफलता का क्यों नहीं ? मैं अपने सुख और दुख का स्वयं जिम्मेवार हूं । यही भावना हमें सम्यक जीवन देने में सहायक हो सकती है । यदि हम अपने बीच अंसतोष अनुभव करते हैं तो अवश्य ही हमारे बीच कही न कहीं प्रेम के भाव की कमी है । व्यक्ति स्वयं अपने दुख सुख का स्रोत है । यदि आप दुखी है तो इस अवस्था के लिए आप स्वयं जिम्मेवार है ।
यह एक विवाद का विषय हो सकता है कि छोटी छोटी बातों पर कितना ध्यान दें । कुछ लोगों की नजरों में छोटी छोटी बातों पर ध्यान देना महत्वपूर्ण होता है और कुछ के लिए गलत । क्या छोटी छोटी बातें ही जीवन में कटुता, विद्वेष उत्पन्न करने लगती है ? क्या छोटी छोटी बातें ही जीवन में सुखानुभूति देती है ? वैसे छोटी छोटी बातें अाने वाले उन पलों को जो हम अच्छे बिता सकते थे, यादें उन पलों को नीरस एवं दुखदायी भी बना देती है और सुखमयी भी । वैसे छोटी छोटी बातें प्रेम को भी प्रदर्शित करती हैं । न तो यह कहा जा सकता है कि छोटी छोटी बातों पर गौर करना चाहिए और न ही यह कि उन पर गौर न करो । देखना यह है कि बातों का स्वरुप क्या है ? छोटी या बडी बात का निर्धारण व्यक्ति की समझ पर ही निर्भर करता है । इसका कोई निश्चित मापदण्ड नहीं है । एक बात पर ध्यान देना जरुरी है कि बात छोटी हो या बडी गौर करना चाहिए । प्रतिक्रिया प्रकट करें लेकिन उसको लम्बाई न दें ।
मौन क्या है ? मेरी सोच के अनुसार मौन का अर्थ है किसी भी विषय पर अपने विचार प्रकट ना करना । मौन का अर्थ गूंगा होना नहीं है । विचारों से शून्य होना ही मौन है । आते जाते विचारों को देखना, भावों को महसूस करना, उनके साथ किसी प्रकार का विरोध उत्पन्न न करना – सब कुछ स्वीकार कर लेना । अपने मन और शरीर के प्रत्येक अंग को अनुभव करना – यही साक्षी है ।
आदमी तब तक नहीं सीखता है जब तक कि उसके बीच स्वयं समझ नहीं आता । दूसरों के बहुत समझाने पर भी व्यक्ति किसी की न सुनेगा । आदमी गीलत काम से भी तभी हटता है जब वह स्वयं गलत देखता या समझता है । चाहे व्यक्ति उम्र में बडा हो या छोटा, अपने किए गए हर कार्य को सही मानकर चलता है, भले ही वह गलत हो । हर व्यक्ति यही सोचताक है कि मैं ठीक हूं, मैं गलती पर नहीं हूं – लेकिन ऐसा सोचना ही बडी भूल के सिवा कुछ नहीं है
यदि आपको ऐसा काम दे दिया जाए जिसे करने पर आपको मुश्किल आती है तो उस काम को करने से इंकार न करना । चुपचाप उस काम को निपटा लेना । भले ही वह काम आपसे अच्छा न हुआ हो । अपने से सीनियर को प्रसन्न रखने का यह एक वाजिब तरीका है । बेकार का नाराज होने से, अपनी असमर्थता प्रकट करने से, कानाफूसी करने से केवल नुकसान ही है । पाजिटिव होने से, कम बोलने से, सीखने की भावना होने से आत्मविश्वास का जन्म होगा और तभी आपसे दूसरे खुश रहेंगे । मैं ठीक, तू भी ठीक भावना से ही चलना ठीक है । सीखने की भावना होने से और गलती होने पर गलती मानना श्रेष्ठ गुण है ।
Subscribe to:
Posts (Atom)