Sunday, September 12, 2010
अनुभव से कहा जा सकता है कि कोई भी ज्यादा देर तक अपनी आलोचना नहीं सुन सकता है । ज्यादातर लोगा चाहते हैं कि ऐसी कोई भी बात न कही जाए जो पूर्व धारणाओं के विरुदध हो । यदि आप देवी देवताओं की आलोचना करते हैं तो आपके भक्त मित्र कदापि नहीं सुन पायेंगे । कहा जाता है कि आलोचना करना बुरा नहीं है यदि इसके पीछे विध्वंश की भावना न हो । लेकिन यथार्थ में आलोचना करना बहुत ही अलाभकारी है । यदि आप किसी की आलोचना करते हैं तो शीघ्र ही आप दूसरों की निगाहों में असुन्दर हो जाते हैं । कई बार तो दूसरा इतने क्रोध में आ जाता है कि वे आपके खिलाफ कई कडवी बाते कह देता है । बातचीत का सिलसिला जब निजी जीवन में घुस जाता है तो हम गुस्से में आ जाते हैं जिससे हमारे बीच असंतोष पैदा हो जाता है । क्या आलोचना करना सच में इतना बुरा है ? यदि हां तो इसका अर्थ यह कि हम दूसरों की बातों का्, विचारों का केवल समर्थन ही करते जाएं । पति पत्नी के बीच झगडा होता है तो एक दूसरे की आलोचना करने पर ही होता है । मित्रों के बीच झगडा होता है तो एक दूसरे की आलोचना करने पर ही होता है । दो मित्रों के बीच, दो व्यापारियों के बीच भी तब कटुता आ जाती है जब एक पक्ष दूसरे पक्ष पर आरोप लगाता है या आलोचना करता है । आलोचना तो आप भी करते होंगे ? आप भी सोचते होंगे कि आलोचना न करुं और पुरानी परम्पराओं, दूसरों के विचारों का समर्थन करता रहूं, बिना इस बात को ध्यान में रखकर कि मेरा भी कोई निजी विचार है । हालांकि इससे कई बार उक्ताहट पैदा होगी, लेकिन किया भी क्या जाए ? जब आलोचना करना यदि असंतोष पैदा करता है तो इससे दूर रहना ही बेहतर है । न आलोचना करो, न बुरे बनो । यदि आप अपनी आदतों, स्वभाव और सोच को बदलना चाहते हैं तो आपको इसके लिए अथक प्रयास करने होंगे । धेर्य, संकल्प और साधना से किए गए प्रयासों द्वारा अपने बीच अवश्य ही परिवर्तन लाए जा सकते हैं ।
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