Saturday, September 4, 2010
अपने को सही और दूसरे को गलत ठहराने की परम्परा या सोच तो लगभग सभी में होती है, लेकिन ऐसे बहुत कम हैं जो अपने को दोषी मानते हैं । हम हमेशा ही अपने को सही मानते हैं । यदि हमारे किसी से विचार मतभेद हों तो हम कहते हैं दूसरा गलत सोचता है । दरअसल ऐसा सोचना ही ठीक नहीं माना जा सकता । यह जरुरी नहीं है कि हमारा सोचा हुआ विचार सही हो । यह तो उसी तरह है जैसे सुख में, खुशी में बहुत ही सह्दयता से घुलमिलकर हम सफलता का श्रेय अपने को दे देते हैं लेकिन दुख् के समय हम विचलित हो उठते हैं । दूसरों के बीच दोष ढूंढना आरम्भ कर देते हैं । दूसरा दुखी है, गलत है और हमें दुख पहुंचा रहा है – यह सोच गलत है । आप गलती पर है आप ठीक नहीं है, यह विचार हमें संतोष नहीं दे सकता । क्या सही है और क्या गलत है, इसके बारे में दूसरों से ज्यादा विचार अपने को भ्रम में डाल देते हैं । यदि हम सुख व सफलता का श्रेय अपने को देते हैं, तो दुख व असफलता का क्यों नहीं ? मैं अपने सुख और दुख का स्वयं जिम्मेवार हूं । यही भावना हमें सम्यक जीवन देने में सहायक हो सकती है । यदि हम अपने बीच अंसतोष अनुभव करते हैं तो अवश्य ही हमारे बीच कही न कहीं प्रेम के भाव की कमी है । व्यक्ति स्वयं अपने दुख सुख का स्रोत है । यदि आप दुखी है तो इस अवस्था के लिए आप स्वयं जिम्मेवार है ।
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