Sunday, September 5, 2010

घर की स्थिति और घर से बाहर की स्थिति में एक अन्‍तर है । दोनों ही स्थिति एक दूसरे की पूरक होते हुए भी कहीं न कहीं विरोधाभासी प्रतीत होती है । हमारे विचार भी घर में और घर से बाहर दूसरे हो जाते हैं । दो चेहरे बनाने पडते ह‍ैं । स्थिति देखकर ही हम हंसते हैं या बुरा सा मुंह बनाते हैं । हमारी नैचर क्‍या है ? यदि हम घर की स्थिति और बाहर की स्थिति को देखकर चलते हैं तो हमारी वास्‍तविक नैचर क्‍या है ? हम अपनी नैचर के अनुसार अक्‍सर काम नहीं करते हैं । यही कारण है कि हम दिन प्रतिदिन तनावग्रस्‍त होते जा रहे हैं । हमारे जीवन में पीडा के क्षण बढते ही जा रहे हैं और मात्र दर्शक बनकर ही रह गए हैं । हमारा मुक दर्शक बनना ही हमें और ज्‍यादा पीडित कर रहा है । हमारे विचार, भावनाएं दबकर रह जाती हैं । हममें उन सब के विरुदध बोलने की हिम्‍मत खत्‍म हो गई है । कभी हमें अपने सम्‍मान का ख्‍याल आता है तो कमभी दूसरों के सम्‍मान का । झूठी इज्‍जत और अपने को अच्‍छा साबित करने के विचार ने ही हमारे वास्‍तविक विचारों को गुमराह कर दिया है । हम करते क्‍या हैं और होते क्‍या है ं कुछ लोंगों ने अपने को बडी खूबी से सम्‍भाला हुआ है वरना उनके बीच भी कहीं न कहीं इस व्‍यवस्‍था के खिलाफ विरोध है । वे चतुराई से अपने को सम्‍भाले हुए हैं । इस सारे द्वंद से यही प्रतीत होता है कि संसारिक बनने का आकषर्ण चाहे कितना ही आकर्षक क्‍यों न हो किन्‍तु उसमें एक खोखलापन अवश्‍य है । ऐसा आकर्षण है जो एकपल मोहित करता है किन्‍तु दूसरे पल महसूस करता है कि – मैं फंसता ही जा रहा हूं इस जाल में ।

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