Tuesday, September 14, 2010
जो चीज आसानी से मिल जाती है उसकी हम कद्र करना छोड देते हैं । यही कारण है कि कुछ पति व पत्नियां एक दूसरे का सम्मान करना भूल जाते हैं । एक दूसरे से बहुत ज्यादा आशा रखने के कारण ही दोनों एक दूसरे से अनबन बनाए रखते हैं । यह ठीक नहीं है । यदि पत्नी पति का साथ नहीं देती या पति पत्नी का साथ नहीं देता है तो वह घर अवश्य ही बर्बाद हो जाता है । वे दम्पत्ति हमेशा आने वाले कल के लिए अपना आज खराब कर लेते हैं । जो मिला, उसका कभी धन्यवाद नहीं करते । जब उनके सोचे हुए कुछ नहीं होता तब वे अपने बीच एक असंतोष का भाव अनुभव करते हैं और वे अपने बीच नेगेटिव विचार सोचते हैं जो गलत है, दुखदायी है ।
बदलाव लाना हो तो धीरे धीरे लाना चाहिए । यदि हम सोचें कि अचानक सब कुछ बदल जाए तो सोचना भूल होगी । बात चाहे व्यवहार की हो या निजी परिवर्तनों की । परिवर्तन दूसरे के बीच में लाना हो तो बदलाव धीरे धीरे ही लाया जा सकता है । अनावश्यक बोलना और अनावश्यक खानरा इन पर कंट्रोल करने में थोडा समय लग सकता है । अपने सु्न्दर शरीर और व्यक्त्वि के लिए अपने पर ध्यान देना ही चाहिए ।
चुटकुले सुनें और सुनाइए । उपदेश देना बेकार है । हमारी हर सफलता या असफलता का श्रेय हमें ही तो है । न उदास हो, न उतावलापन लाएं । स्मरण् शक्ति का तीव्र होना अच्छा है । हमारे कई विश्वास हैं । जरुरत से ज्यादा आशा दुख देती है । आप जैसे हैं ठीक हैं – क्लर्क या डाक्टर । विवाह की असफलता मानसिक,शारीरिक व आर्थिक है । साहित्य का असर होता है । अपने बडो का सम्मान करना चाहिए । गुस्सा आना स्वाभाविक है । जिददी होना मूर्खता है । मिलजुलकर रहें । प्रेम में लेने की तमन्ना न हो तो ठीक है । जीवन एक अभिनय है । उपरोक्त विचार मेरे निजी विचार है । आपको कैसा लगा, कृपया अपनी राय दें ।
सफलता ही असफलता है । एक ही बात सबके लिए ठीक नहीं होती । कुछ लोग अच्छे हैं, कुछ बुरे हैं । कुछ हद तक नैचर में परिवर्तन लाया जा सकता है । टाइमटेबल बनाकर चलें । अपने को सबसे ज्यादा महत्व दें । समय का सदुपयोग करें । जब कोई सुनने को तैयार हो, तभी बोलें । आलोचना सुनो, बुरा न मानो । उदासी भी एक अनिवार्य शर्त है जीवन में । परिणामों की कल्पना से घबराना डरपोक होना है । जीवन में हार भी होगी और जीत भी । गुस्सा आए, देखो, चुप हो जाओ । माफ करना भी एक गुण है । झगडे गलतफहमी से होते हैं । कष्ट आने पर याद रखें – कोई बात नहीं, हाउ फे, सो वट मैं क्यों बुरा मानूं ।
सबको खुश रखने की इच्छा व लोकप्रिय बनने की इच्छा ही दुख है । समय को देखकर बदलना बुरा नहीं है । सादापन ठीक है । नया काम करने के लिए कुछ चीजों को छोड देना चाहिए । आप दूसरों की बोली को अपनी बोली बनाकर मन जीत सकते हैं । नियम बनाकर चलना ठीक । अपने स्वास्थ्य पर ध्यान दें । अल्पभाषी बनो । कम खाइए । एकदम प्रभावित होना ठीक नहीं । भय निर्मूल कल्पना होती है । जो है, उसका धन्यवाद । भविष्य की सुरक्षा की भावना से हमेशा भय रहता है ।
हर तकलीफ जीने का एक संदेश लेकर आती है । तभी सुख का अहसास होता है । तुम अपने विचार शब्दों द्वारा नहीं बता सकते । मौन रहकर बता सकते हो । ज्यादा बोलने और ज्यादा सोचने से रचनात्मक शक्ति क्षीण होती है । फार्मेलिटी में समय और पैसा बर्बाद करना बेकार है । लोगों की धारणाओं का खास मूल्य नहीं होता है । हर व्यक्ति में काम करने की बहुत सी क्षमताएं होती हैं । असफलता मिलने पर अपने को पूर्ण असफल घोषित करना मूर्खता है । कम से कम स्वयं अपने को असफल मत कहो । दुख और सुख की शुरुआत अपने भीतर से ही होती है और समाप्ति भी । अपने से लडना बेकार है । अपना मार्गदर्शक खुद बनें । अपने जीवन को स्वयं सुन्दर बनाया जा सकता है । उत्साह, मेहनत एवं संकल्प तथा साधना से सभी काम हो सकते हैं । अपनी शक्तियों को फैलने न दें । कोई किसी को सुख नहीं दे सकता और न ही दुख । दूसरों के प्रति बुरे एवं नेगेटिव विचार न रखें, इससे आपका ही भला है । जीवन खत्म नहीं हो गया है, नए सिरे से कोशिश करें । हमारी आत्मा बता देती हैं कि हमें क्या करना है
Sunday, September 12, 2010
अनुभव से कहा जा सकता है कि कोई भी ज्यादा देर तक अपनी आलोचना नहीं सुन सकता है । ज्यादातर लोगा चाहते हैं कि ऐसी कोई भी बात न कही जाए जो पूर्व धारणाओं के विरुदध हो । यदि आप देवी देवताओं की आलोचना करते हैं तो आपके भक्त मित्र कदापि नहीं सुन पायेंगे । कहा जाता है कि आलोचना करना बुरा नहीं है यदि इसके पीछे विध्वंश की भावना न हो । लेकिन यथार्थ में आलोचना करना बहुत ही अलाभकारी है । यदि आप किसी की आलोचना करते हैं तो शीघ्र ही आप दूसरों की निगाहों में असुन्दर हो जाते हैं । कई बार तो दूसरा इतने क्रोध में आ जाता है कि वे आपके खिलाफ कई कडवी बाते कह देता है । बातचीत का सिलसिला जब निजी जीवन में घुस जाता है तो हम गुस्से में आ जाते हैं जिससे हमारे बीच असंतोष पैदा हो जाता है । क्या आलोचना करना सच में इतना बुरा है ? यदि हां तो इसका अर्थ यह कि हम दूसरों की बातों का्, विचारों का केवल समर्थन ही करते जाएं । पति पत्नी के बीच झगडा होता है तो एक दूसरे की आलोचना करने पर ही होता है । मित्रों के बीच झगडा होता है तो एक दूसरे की आलोचना करने पर ही होता है । दो मित्रों के बीच, दो व्यापारियों के बीच भी तब कटुता आ जाती है जब एक पक्ष दूसरे पक्ष पर आरोप लगाता है या आलोचना करता है । आलोचना तो आप भी करते होंगे ? आप भी सोचते होंगे कि आलोचना न करुं और पुरानी परम्पराओं, दूसरों के विचारों का समर्थन करता रहूं, बिना इस बात को ध्यान में रखकर कि मेरा भी कोई निजी विचार है । हालांकि इससे कई बार उक्ताहट पैदा होगी, लेकिन किया भी क्या जाए ? जब आलोचना करना यदि असंतोष पैदा करता है तो इससे दूर रहना ही बेहतर है । न आलोचना करो, न बुरे बनो । यदि आप अपनी आदतों, स्वभाव और सोच को बदलना चाहते हैं तो आपको इसके लिए अथक प्रयास करने होंगे । धेर्य, संकल्प और साधना से किए गए प्रयासों द्वारा अपने बीच अवश्य ही परिवर्तन लाए जा सकते हैं ।
ऐसा देखा गया है कि हम जबरदस्ती खाने पीने के लिए जोर लगाते हैं । कहते हैं – फलां फलां चीज खा ले या पी ले, नहीं तो मेरा दिल टूट जाएगा । और हम जबरदस्ती बिना भूख के भी दूसरे का दिल रखने के लिए कोई भी चीज खा या पी लेते हैं । यह विडम्बना है । न भूख होते हुए भी खा लेते हैं । कई बार स्वाद के कारण भी चीजों को खाते चले जाते हैं । क्या यह सब ठीक कर रहे हैं ? दूसरों से मिलने जाते हैं तो बिना पूर्व सूचना के । और घंटों बैठ रहते हैं । इस बात को सोचते ही नहीं है कि कहीं दूसरे का समय तो नष्ट नहीं कर रहे हैं ? अपना समय तो नष्ट कर ही रहे होते हैं ।
कई बार साहसी व्यक्तियों के साहस भरे कारनामें पढकर या सुनकर बहुत खुशी होती है,एक प्रेरणा मिलती है कि हम भी साहसपूर्ण कार्य करें । हम किसी भी आकर्षक व्यक्त्वि को देखकर वैसा ही बनने का निर्णय कर लेते हैं । कोई आदमी ज्यादा पढने लिखने वाला है तो हमारे बीच भी यह भावना उठती है कि हमें भी पढना लिखना चाहिए । कोई कम बोलता है तो हमारे बीच भी कम बोलने वाले व्यक्त्वि की चाहत उभरती है । इसी प्रकार किसी को अच्छे कपडे पहने देखकर, यदि कोई आट में रुचि लेता हो तब भी हम वैसी ही योग्यता पाने की इच्छा उत्पन्न कर लेते हैं । यह बहुत अच्छी बात है । यदि आप ज्यादा शांत रहना चाहते हैं और कम बोलना चाहते हैं तो अध्ययन की ओर ज्यादा ध्यान देना चाहिए । अपनी रुचि बदली भी जा सकती है ।
Thursday, September 9, 2010
लडकी जब विवाह के बाद नये घर में आती है तो उसे कुछ दिन परेशानी अवश्य होती है । घर के बडे लोगों द्वारा बहू पर कई प्रकार के व्यंग्य कसे जाते हैं । जो आरम्भ में ही घबरा जाती हैं वह बाद में भी घबराए रहती हैं । प्रेम विवाह करने वालों को पहले ही सोच लेना चाहिए कि संयुक्त परिवार में उनका सम्मान नहीं होगा । यह बात काफी कद तक सही है । कुछ अपवाद छोड दें तो । लेकिन संयुक्त परिवार से अलग होने से पहले यह अवश्य देख लेना चाहिए कि क्या अलग रहकर जीवन निर्वाह किया जा सकता है ? जब इस विषय में में विश्वास आ जाए तभी अगला कदम उठाना चाहिए
जीवन बुरा नहीं होता, जीवन तो बुरा बनाया जाता है । अर्थात हमें आपस में प्रेमपूर्ण रहना चाहिए और एक दूसरे के प्रति पूर्ण विश्वास रखना चाहिए ताकि इस विश्वास के अभाव में जीवन बुरा न बनाया जा सके । वैसे तो यह सच है कि जीवन न तो अच्छा होता है और न ही बुरा । जीवन जीवन होता है । उसे अच्छा या बुरा हम बनाते हैं । जिस रुप में जीवन को देखो वह वैसा ही हो जाता है । बुरा देखने से हृदय कलुषित हो जाता है और अच्छा देखने से स्वस्थ । प्रेम तो अन्दर होता है । यदि भीतर का प्रेम भाव सुन्दर है तो वह अवश्य ही उभरेगा ।
कई बार हमारे सोचे हुए कुछ नहीं होता । तब हम अपने बीच एक असंतोष पाते हैं । असंतोष के वातावरण में नेगेटिव विचार सोचने लगते हैं जो ठीक नहीं कहा जा सकता । ओशो रजनीश ने एक प्रवचन मे कहा था – प्रेम में घृणा निहित है । यह वचन कहां तक सत्य है, इस पर विवाद हो सकता है । लेकिन घृणा, प्रेम, रुठना, मनाना, हंसना हंसाना यही तो जीवन है । सभी रस हों जीवन में । जीवन के नौ रस, तभी जीवन पूर्ण होता है ।
पहले आकषर्ण, फ्रि बातचीत,फ्रि मुलाकातोंका सिलसिला और फ्रि बढता प्रेम और उसके बाद मधुर यादें और फ्रि मस्तिष्क में एक चित्र और फ्रि ह्दय में याद और फ्रि ह्दय में एक चित्र और फ्रि जीवनभर एक होने की कल्पना । जीवन भर साथ रहने का अर्थ है – विवाह । यानि प्रेम विवाह । यह सब होता है स्वाभाविक और निरन्तर । विवाह के लिए निर्णय अपना होते हुए भी मां बाप का निर्णय जरुरी समझा जाता है । उनकी स्वीकृति मिली तो सब कुछ, किन्तु उनकी स्वीकृति न होने पर एक प्रश्नचिन्ह खडा हो जाता है । अब क्या करें । जिद । अपनी बात पर अटल रहकर । मनाने की भरपूर कोशिश । हर तरह के प्रयास । आखिरी दम तक । बाहरी सभी झूठी मान्यताओं का कडा विरोध । संघर्ष । अपनी सामाजिक मर्यादा के बीच । एक एक सीढी और फ्रि मंजिल पर । दो तरीके हैं – एक एक सीढी चढेंगे या फ्रि लिफट के रास्ते से । एक दो मिनट में ही मंजिल पर । हां, लिफट की लाइट नहीं जानी चाहिए । एक एक सीढी चढने से देर भले ही हो, लेकिन मंजिल पर अवश्य पहुंचा जा सकता है । हां, पावों में भी दम होना चाहिए । अपने अन्दर साहस होना चाहिए ।
Monday, September 6, 2010
कई बार एक आदमी किसी बात को सुन लेता है और उसे लगता है कि इससे उसका अपमान हो रहा है अथवा कहीं उसके मन पर चोट की गई है तो वह उस पर विचार करता है । तब विचार करते करते बैचेनी बढ जाती है और सिरदर्द होने लगता है । चारों ओर असफलता और निराशा दिखती है । ऐसा कुछ ही देर के लिए होता है । । धीरे धीरे बदलाव आता है और बैचेनी समाप्त हो जाती है ।
साहित्य ऐसा पढना चाहिए जो अपनी भावनाओं के अनुरुप हो । यह ठीक है कि हमें कई बार वह भी पढना होता है जो हमारी रुचि का विषय नहीं है लेकिन इतना तो हो सकता है कि हम उस साहित्य को ज्यादा पढें जो एक मानसिक संतोष प्रदान करता है । बच्चों का साहित्य पढेंगे तो हृदय की भावनाएं चंचल व मासूम हो जाएंगी,मधुर हो सकती हैं । सोचने का तरीका साधारण एवं सुरुचिपूर्ण हो जायेगा । इसी प्रकार फ्ल्मि के बारे में पढों, कहानी पढो,चुटकुल पढो, रहस्य रोमांच पढो या अश्लील साहित्य, जल्दी ही अपने सोचने की शक्ति भी वैसी ही हो जाएगी ।
किसी गुरु की क्या प्रतिभा है, उनके बीच कितना गुरुत्व है, यह सब उनके शिष्यों के कारण ही निर्धारित होता है । यदि आप अपने गुरु को महान गुरु और महान दार्शनिक मानते हैं तो उसके पीछे आप की उन्हें समझने की क्षमता ही होती है जिसके फलस्वरुप वे लोकप्रिय गुरु माने जाते हैं । यह सुनने और पढने में भले ही आश्चर्यजनक लगे लेकिन है तथ्यपूर्ण । किसी को अच्छा मानना या बुरा मानना – निर्भर करता है कि हम उसे किस दृष्टि से देखते हैं । यदि आप मुझसे घृणा करते हैं और मुझे बुरा व्यक्ति कहते हैं तो यह सिर्फ आपके सोचने पर निर्भर करता है । यदि आप मुझसे प्रेम करते हैं तो वह आपकी समझ का ही परिणाम होगा । साफ है कि किसी को अच्छा या बुरा कहने का निर्णय हमारे स्वविवेक पर ही निर्भर करता है । यदि यह सब हमारे स्वविवेक पर ही निर्भर है तो सिदध होता है कि सर्वश्रेष्ठ हम ही हैं । हमारी श्रेष्ठता ही सिदध करती है कि हमें उनको कितना सम्मान दें । अर्थात किसी को पहचानने की श्रेष्ठता हमारे बीच ही है । आपका गुरु आपके लिए महान हो सकता है, शायद मेरे लिए नहीं । मेरे गुरु मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ हो सकते हैं शायद आपके लिए नहीं । तब हम कैसे श्रेष्ठता को साबित करते हैं ? शायद आपको इस प्रश्न का उत्तर मिल गया होगा । जब संसार की प्रत्येक वस्तु को देखने का नजरिया हमारे स्वविवेक पर है तो किसी बाहरी शक्ति से हम कैसे प्रभावित हो सकते हैं ? यदि हमें जानना है तो दूसरों को जानने की बजाए स्वयं को जानना चाहिए । यदि यह कहा जाए कि हम ही वह मिरर्र हैं, वह आइना हमारे बीच में ही है जो लोगों की अच्छी या बुरी तस्वीर पेश करता है अर्थात अन्तिम फैसला हमारे भीतर का आइना यानि स्वविवेक करता है । हमने अपनी ऊर्जा को जो बाहर की ओर लगा रखा है, क्यों न उसे भीतर की ओर रुपांतरित कर दिया जाए ताकि हम अपनी शक्तियों को पहचान सकें । अपने स्वविवेक को पहचानें जिसमें ब्रहमांण है । इन पंक्तियों को लिखने के पीछे मेरा यह उददेश्य नहीं है कि आप अपने गुरु का सम्मान न करें । यदि आपको अपने गुरु को सुनना अच्छा लगता है, तो अवश्य सुनें । यदि सुनने की भावना है तो सुनना ही चाहिए । सुनना चाहे भिखारी का हो या किसी गुरु का । किसी को भी सुनो, लेकिन अन्तिम सुनना तो हमारा ही होगा । अन्तिम सुनना तो अपने को सुनना ही होगा । बाकी सब व्यर्थ साबित होंगे । किसी के बीच भी सत्य दिख सकता है । सब अवतार और सब गुरु अपनी जगह ठीक हैं । शायद वे भी यही कहना चाहते हैं कि जो तुम सोचते हो, वही परम सत्य है ।
Sunday, September 5, 2010
घर की स्थिति और घर से बाहर की स्थिति में एक अन्तर है । दोनों ही स्थिति एक दूसरे की पूरक होते हुए भी कहीं न कहीं विरोधाभासी प्रतीत होती है । हमारे विचार भी घर में और घर से बाहर दूसरे हो जाते हैं । दो चेहरे बनाने पडते हैं । स्थिति देखकर ही हम हंसते हैं या बुरा सा मुंह बनाते हैं । हमारी नैचर क्या है ? यदि हम घर की स्थिति और बाहर की स्थिति को देखकर चलते हैं तो हमारी वास्तविक नैचर क्या है ? हम अपनी नैचर के अनुसार अक्सर काम नहीं करते हैं । यही कारण है कि हम दिन प्रतिदिन तनावग्रस्त होते जा रहे हैं । हमारे जीवन में पीडा के क्षण बढते ही जा रहे हैं और मात्र दर्शक बनकर ही रह गए हैं । हमारा मुक दर्शक बनना ही हमें और ज्यादा पीडित कर रहा है । हमारे विचार, भावनाएं दबकर रह जाती हैं । हममें उन सब के विरुदध बोलने की हिम्मत खत्म हो गई है । कभी हमें अपने सम्मान का ख्याल आता है तो कमभी दूसरों के सम्मान का । झूठी इज्जत और अपने को अच्छा साबित करने के विचार ने ही हमारे वास्तविक विचारों को गुमराह कर दिया है । हम करते क्या हैं और होते क्या है ं कुछ लोंगों ने अपने को बडी खूबी से सम्भाला हुआ है वरना उनके बीच भी कहीं न कहीं इस व्यवस्था के खिलाफ विरोध है । वे चतुराई से अपने को सम्भाले हुए हैं । इस सारे द्वंद से यही प्रतीत होता है कि संसारिक बनने का आकषर्ण चाहे कितना ही आकर्षक क्यों न हो किन्तु उसमें एक खोखलापन अवश्य है । ऐसा आकर्षण है जो एकपल मोहित करता है किन्तु दूसरे पल महसूस करता है कि – मैं फंसता ही जा रहा हूं इस जाल में ।
वाद विवाद और तर्क करना कहां तक उचित है, कहना आसान न होगा । तर्क से एक पक्ष की हार होती है और एक पक्ष की जीत । लेकिन सत्य छुपा रहता है । किसी पर आरोप लगाते रहने से कभी भी संतोष नहीं मिल सकता । आरोप सुननेवाला बेवजह आरोप लगानेवाले व्यक्ति के प्रति कभी भी प्रेमपूर्ण नहीं हो पाता । जरा सोचिए । प्रेम में जितना लेने का भाव होता है, प्रेम का भाव उतना दूर होता जाता है । अभिनय करना या कृत्रिमता थोडे समय के लिए ही सुखदायी होती है । अपने स्वविवेक के अनुसार ही कार्य करना ठीक है ।
विवाह के बाद स्थितियां काफी हद तक बदल जाती हैं । उस समय अपने बीच सहजता की विशाल प्रतिमा बनानी होती है । व्यक्ति का अन्तिम फैसला व्यक्ति स्वयं ही करता है । विवाह के आरम्भिक दिन आसान लगते हैं और नवविवाहित दम्पत्ति को लगता है कि हमारा प्रेम अटूट है और दूसरों से हटकर है । लेकिन धीरे धीरे जीवन के खटटे मीठे अनुभवों से आप पायेंगे कि आपके विचार काफी बदलते जा रहे हैं ------
आदमी का मन बहुत ही डावांडोल होता है जो कुछ न कुछ हरकत करता रहता है । भले ही वह हरकत कितनी घटिया क्यों न हो । यदि आदमी पहले से ही परेशान हो तो दूसरे के प्रति मन में बहुत ही घटिया विचार आते हैं । पहली बात तो यह है कि दुख हमेशा नहीं बना रहता है और न ही सुख । हम किसी के जीवन में कोई खास परिवर्तन नहीं ला सकते हैं । व्यक्ति के बीच आधारिक परिवर्तन व्यक्ति खुद ही लाता है । आदमी के विचार इतने तेजी से चलते हैं कि उनको समझना बेबुझ बन जाता है । मौन के क्षणों में हम अपने वास्तविक विचारों को देख सकते हैं, तभी हमारे बीच सही तस्वीर सामने आ सकती है । हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि दूसरा दुख देता है या दूसरा सुख देता है । दूसरा तो मात्र साधन है । दूसरा तो मात्र बाधा उत्पन्न कर सकता है, लेकिन दुख नहीं दे सकता । किसी पर आरोप लगाना बेकार है । अपने बीच सहजता पैदा करनी चाहिए । उत्तेजना को कम करके रचनात्मक बनना होगा । अपने बीच गम्भीरता लाने से ही करुपता खत्म होती है । मुझसे लोग कहते हैं यह सब आसान नहीं । प्रेक्टिकल जीवन में यह नहीं होता । हां, मैं भी मानता हूं । मुश्किल है । लेकिन असम्भव नहीं । कोई भी नया काम शुरु में मुश्किल लगता है लेकिन धीरे धीरे अभ्यास करने पर आसन लगना शुरु होता है । एक उदाहरण से समझाता हूं । मान लीजिए आप कार सीखना चाहते है। शुरु में कार चलाना बहुत ही मुश्किल लगता है । लेकिन 15 दिन के अभ्यास के बाद आप समझ सकते हैं कि कार चलाना मुश्किल नहीं । ठीक वैसे ही जीवन के सत्यों को जानने में शुरु में कठिनाई आती है । लेकिन बार बार अभ्यास करने पर अवश्य सफलता मिलती है । और यदि सफलता न मिली तो भी कोई असंतोष न रखें ।
Saturday, September 4, 2010
किसी से बहस मत करना । किसी को समझाने का प्रयास भी मत करना । बल्कि स्वयं समझने का प्रयास करना – अपने को भी और दूसरे को भी । इस मामले में किसी से उलझने की जरुरत नहीं । प्रेम और सही समय का इंतजार । किसी से नाराज भी मत होना । नाराज होने का अर्थ है अपने बीच दुखों के जीवाणुओं का प्रवेश । हर व्यक्ति के सोचने का अपना तरीका होता है – फ्रि गलत या ठीक का निर्णय हम कैसे दें ? हां, अपना निर्णय आप ही करना चाहिए, तुम्हारे बारे में अन्य लोग क्या सोचते हैं, वह अंतिम नहीं है । इसी प्रकार दूसरे का भी अंतिम निर्णय उसी का होता है, तुम्हारा नहीं । *****
अपने को सही और दूसरे को गलत ठहराने की परम्परा या सोच तो लगभग सभी में होती है, लेकिन ऐसे बहुत कम हैं जो अपने को दोषी मानते हैं । हम हमेशा ही अपने को सही मानते हैं । यदि हमारे किसी से विचार मतभेद हों तो हम कहते हैं दूसरा गलत सोचता है । दरअसल ऐसा सोचना ही ठीक नहीं माना जा सकता । यह जरुरी नहीं है कि हमारा सोचा हुआ विचार सही हो । यह तो उसी तरह है जैसे सुख में, खुशी में बहुत ही सह्दयता से घुलमिलकर हम सफलता का श्रेय अपने को दे देते हैं लेकिन दुख् के समय हम विचलित हो उठते हैं । दूसरों के बीच दोष ढूंढना आरम्भ कर देते हैं । दूसरा दुखी है, गलत है और हमें दुख पहुंचा रहा है – यह सोच गलत है । आप गलती पर है आप ठीक नहीं है, यह विचार हमें संतोष नहीं दे सकता । क्या सही है और क्या गलत है, इसके बारे में दूसरों से ज्यादा विचार अपने को भ्रम में डाल देते हैं । यदि हम सुख व सफलता का श्रेय अपने को देते हैं, तो दुख व असफलता का क्यों नहीं ? मैं अपने सुख और दुख का स्वयं जिम्मेवार हूं । यही भावना हमें सम्यक जीवन देने में सहायक हो सकती है । यदि हम अपने बीच अंसतोष अनुभव करते हैं तो अवश्य ही हमारे बीच कही न कहीं प्रेम के भाव की कमी है । व्यक्ति स्वयं अपने दुख सुख का स्रोत है । यदि आप दुखी है तो इस अवस्था के लिए आप स्वयं जिम्मेवार है ।
यह एक विवाद का विषय हो सकता है कि छोटी छोटी बातों पर कितना ध्यान दें । कुछ लोगों की नजरों में छोटी छोटी बातों पर ध्यान देना महत्वपूर्ण होता है और कुछ के लिए गलत । क्या छोटी छोटी बातें ही जीवन में कटुता, विद्वेष उत्पन्न करने लगती है ? क्या छोटी छोटी बातें ही जीवन में सुखानुभूति देती है ? वैसे छोटी छोटी बातें अाने वाले उन पलों को जो हम अच्छे बिता सकते थे, यादें उन पलों को नीरस एवं दुखदायी भी बना देती है और सुखमयी भी । वैसे छोटी छोटी बातें प्रेम को भी प्रदर्शित करती हैं । न तो यह कहा जा सकता है कि छोटी छोटी बातों पर गौर करना चाहिए और न ही यह कि उन पर गौर न करो । देखना यह है कि बातों का स्वरुप क्या है ? छोटी या बडी बात का निर्धारण व्यक्ति की समझ पर ही निर्भर करता है । इसका कोई निश्चित मापदण्ड नहीं है । एक बात पर ध्यान देना जरुरी है कि बात छोटी हो या बडी गौर करना चाहिए । प्रतिक्रिया प्रकट करें लेकिन उसको लम्बाई न दें ।
मौन क्या है ? मेरी सोच के अनुसार मौन का अर्थ है किसी भी विषय पर अपने विचार प्रकट ना करना । मौन का अर्थ गूंगा होना नहीं है । विचारों से शून्य होना ही मौन है । आते जाते विचारों को देखना, भावों को महसूस करना, उनके साथ किसी प्रकार का विरोध उत्पन्न न करना – सब कुछ स्वीकार कर लेना । अपने मन और शरीर के प्रत्येक अंग को अनुभव करना – यही साक्षी है ।
आदमी तब तक नहीं सीखता है जब तक कि उसके बीच स्वयं समझ नहीं आता । दूसरों के बहुत समझाने पर भी व्यक्ति किसी की न सुनेगा । आदमी गीलत काम से भी तभी हटता है जब वह स्वयं गलत देखता या समझता है । चाहे व्यक्ति उम्र में बडा हो या छोटा, अपने किए गए हर कार्य को सही मानकर चलता है, भले ही वह गलत हो । हर व्यक्ति यही सोचताक है कि मैं ठीक हूं, मैं गलती पर नहीं हूं – लेकिन ऐसा सोचना ही बडी भूल के सिवा कुछ नहीं है
यदि आपको ऐसा काम दे दिया जाए जिसे करने पर आपको मुश्किल आती है तो उस काम को करने से इंकार न करना । चुपचाप उस काम को निपटा लेना । भले ही वह काम आपसे अच्छा न हुआ हो । अपने से सीनियर को प्रसन्न रखने का यह एक वाजिब तरीका है । बेकार का नाराज होने से, अपनी असमर्थता प्रकट करने से, कानाफूसी करने से केवल नुकसान ही है । पाजिटिव होने से, कम बोलने से, सीखने की भावना होने से आत्मविश्वास का जन्म होगा और तभी आपसे दूसरे खुश रहेंगे । मैं ठीक, तू भी ठीक भावना से ही चलना ठीक है । सीखने की भावना होने से और गलती होने पर गलती मानना श्रेष्ठ गुण है ।
Tuesday, August 31, 2010
कोई आपको अच्छा नहीं लगता है तो इसका यह अर्थ तो नहीं कि आप उसके खिलाफ बोलना शुरु कर दें । यदि वह बुरा है तो उसे बुरा ही रहने दें । यदि गलती कर रहा है तो उसको गलती करते ही रहने दें । आप क्यों परेशान होते हैं और बुरे बनते हैं । वह अपनी बुराई का परिणाम खुद ही भुगतेगा । आज नहीं तो कल । कोई हमें क्यों अच्छा नहीं लगता है ? यही न कि वह आपकी इच्छा और आशा के अनुरुप नहीं चल रहा है ? यदि वह तुम्हारी आशा के अनुरुप चल तो क्या आप उसे बुरा कहेंगे ? नहीं । तब तुम उसे बुरा नहीं कहोगे । किसी को अच्छा या बुरा तभी ठहराया जाता है जब व्यक्ति अपने को महत्व देना चाहता है । अपने को सही और दूसरे को गलत ठहराने की परम्परा तो लगभग सभी में होती है । हम हमेशा ही अपने को सही मानते हैं । यदि हमारे किसी से विचार नहीं मिलते तो हम दूसरे को दोषी मानते हैं । यह सोचना ठीक नहीं है । यह जरुरी नहीं है कि हमारा सोचा हुआ विचार सही हो । यह तो उसी तरह है जैसे हम सुख में खुशी में बहुत ही आसानी से घुलमिल जाते हैं और सफलता का श्रेय अपने को देते हैं लेकिन दुख के समय हम विचलित हो उठते हैं । दोष दूसरे के बीच ढूंढना आरम्भ कर देते हैं । दूसरा गलत है, इसलिए दुखी हैं ओर हमें भी दुख पहुंचा रहा है, यह सोच गलत है । आप गलती पर है । ऐसा विचार हमें संतोष नहीं दे सकता । सही गलत का फैसला दूसरों द्वारा करने के बाद हम भ्रम में आ जाते हैं । मैं अपने सुखों और दुखों के लिए स्वयं जिम्मेवार हूं, यही भावना में सही मायने में जीवन का सही रुप प्रकट करती है । यदि आप सुखी नहीं है, अपने बीच दुख या असंतोष महसूस करते हैं तो समझ लें कि आपके बीच कहीं न कहीं प्रेम की कमी है । प्रेमपूर्ण व्यक्ति कभी दुखी नहीं हो सकता । प्रेम में ही व्यक्ति दूसरों को सुख देता है । अत कभी भी अपने दुख के लिए किसी दूसरे को दोषी मत ठहराना । *****
दो व्यक्तियों के संबंध अवश्य ही विषाद रुप उत्पन्न करते हैं । यदि दोनों ही इस सत्य को स्वीकार कर चलें तो दुख व विषाद की मात्रा कुछ कम हो सकती है । संबंधों की जितनी ज्यादा प्रगाढता होगी, जितनी ज्यादा निकटता होगी उतने ही ज्यादा संबंध कटुता से भरे होंगे । जहां दो व्यक्तियों के बीच निकट संबंध होने पर अधिक प्रेम, अधिक सहयोग,अधिक अपनापन दिखता है, वह कटुता भी उसी मात्रा में होती है । खूनी रिश्तों के बीच भी कटुता पैदा होती है । संबंध कृत्रिमता से भरे भी होते हैं । संबंधों का अर्थ है एक समझौता । सबंधों की प्रगाढता के बीच कोई स्थायित्व नहीं होता, कोई गारन्टी नहीं होती । स्थायी कहे जानेवाले संबंध भी एक ही झटके में टूटकर बिखर जाते हैं । एक ही पल में प्रेम घृणा में बदल जाती है और घृणा प्रेम में । संबंधों के बीच एक ही चीज महत्वपूर्ण होती है और वह है स्वार्थपरता । हर कोई कहीं न कहीं आधारिक रुप से स्वार्थी होता है । यह दूसरी बात है कि स्वार्थ में गुणवता और मात्रा में अंतर हो । दो व्यक्तियों के बीच जो संबंध हैं हो सकता है उनमें फर्ज, करुणा के नाम देकर संबंधों की पवित्रता को बनाए रखने के लिए प्रयास करता हो व दूसरा भले ही कम समझकर संबंधों को जारी रखता हो लेकिन इतना तो स्पष्अ है कि ऐसे संबंध एक ही झटके में टूटने की भी क्षमता रखते हैं । भले ही प्रंत्यक्ष रुप से संबंध न टूटें । संबंधों के बीच दीवारे और दरारे आ जाती हैं । पवित्रता और प्रेम का दावा करने वाला भी अपवित्रता और घृणा से भर उठता है । क्या संबंधों की प्रगाढता हमेशा दुखदायी होती है ? क्या हर संबंध के बीच स्वार्थपरता होती है ? क्या संबंधों के बीच से निस्वार्थ भावना उत्पन्न नहीं हो सकती ? क्या संबंधों में प्रेम और घृणा दोनों ही तत्व नहीं होते ? यह कैसे किस तरह कहा जा सकता है कि संबंध स्वार्थपरता से भरे हुए होते हैं ? क्या संबंध नहीं होने चाहिए ? स्वच्छ भावना से प्रेरित संबंध कैसे बनाए जा सकते हैं ? बहुत से प्रश्न हैं जिनका उत्तर खोजना होगा हर किसी को । *****
दुख क्या है ? यह ठीक से समझना आसान नहीं ।अक्सर हम दुख को बहुत ही आसान भाषा में परिभाषित कर देते हैं । जैसे मैंने आपको गाली दी, आप को दुख हुआ । मैंने आपकी कोई बात नहीं मानी, आपको दुख हुआ । नहीं, ये दुख नहीं हैं बल्कि हमारी बंधी धारणाओं का टूटना है । जिस व्यक्ति को हम दुखी मानते हैं वह पूरी तरह दुखी नहीं होता है । सुख के क्षण भी उसमें मौजूद होते हैं । जिस व्यक्ति को हम दुखी कह रहे हैं, तभी उसे कोई ऐसी चीज दे दी जाए तो हो सकता है कि वह तुरन्त खुशी से नाच उठे । एक दूसरे के प्रति हम दुखी नहीं होते हैं । हां, एक बाधा का अनुभ्ंव करते हैं, थोडी देर के लिए । अत कोई भी टूकडों में दुखी नहीं हो सकता । दुख आना तो एक प्रक्रिया है जो होती है अथवा नहीं होती है । इस संसार में बहुत कम लोग दुखी हैं ।
संबंधों की प्रगाढता हमेशा दुखदायी होगी । यदि उसका आधार ही मजबूत न हो । मात्रा व गुण में अंतर हो सकता है । संबंधों के बीच स्वार्थपरता समाप्त की जा सकती है यदि स्वयं साक्षी भाव में जीएं । संबंधों के बीच प्रेम और घृणा दोनों होते है। । विडम्बना यह है कि ऐसे संबंधों में न घृणा उभरकर आती है और न ही प्रेम । संबंधों की स्वार्थपरता तभी प्रकट हो जाती है जब हम किसी से अपेक्षा करते हैं । किसी से कुछ लेने की भावना ही हमें स्वार्थी बनाती है । यदि किसी के लिए कुछ करना, इस भावना से कि दूसरा भी मेरे लिए करे तो स्वार्थपरता स्पष्ट झलकती है । संबंधों का होना या न होना पूरी तरह हमारी बुदिध बल का प्रश्न नहीं है । यह तो व्यक्ति की प्रकृति पर निर्भर करता है । संबंधों का होना बुरा नहीं है लेकिन संबंध निस्वार्थ हों, वही उचित है । निस्वार्थ भावना से संबंध कैसे बनाए जा सकते हैं, इसका सीधा सा उत्तर है – मौन में अनुभव करना । तभी वास्तविकता प्रकट होगी । संबंधों में यदि एक की भावना भी पवित्र है तो दूसरे की भावना स्वयम पवित्र हो जाती है । ****
Monday, August 30, 2010
नये माहौल में व्यक्ति अपने बीच परिवर्तन महसूस करता है । कभी तो उसे नया वातावरण अच्छा लगता है तो कभी बुरा । लेकिन धीरे धीरे वह नयापन खत्म होता है और वह अजीब लगना खत्म होने लगता है । एकाएक ज्यादा काम करना पडे तो थोडे समय के लिए एक घबराहट पैदा होने लगती है । लेकिन वह घबराहट भी धीरे धीरे दूर हो जाती है ।
यह अजीब दास्तां है कि एक स्त्री जब मां बनती है तो वह अपने पुत्र से बेहद प्रेम करती है । नौ माह तक अपने गर्भ में रखकर अपना भोजन खिलाती है और तब मां का खून पुत्र का खून बन जाता है । मां अपने बच्चे को पालती पोसती है और उसके प्रति बंध जाती है । बच्चा बडा हो जाता है । मां का प्यार धीरे धीरे कम होता जाता है । बच्चा बडा हो ता है तो मां अपने बच्चे को डांटती भी है । पीटती भी है और प्यार भी करती है । बच्चे की बडी आयु के लिए ईश्वर से प्रार्थना भी करती है । बच्चा धीरे धीरे बडा होता है तो वह अपने बच्चे से बहुत सी आशाएं रखती है । वह चाहती है कि उसे जो कहा जाए, वह वैसा ही करे । उसे जिस चीज से रोका जाए उसमें वह चीज में कोई रुचि न ले । लेकिन होता है विपरीत । जब तक बच्चा छोटा होता है वह अपनी मां का हर कहा मानता है । लेकिन जैसे जैसे उसकी बुदिध का विकास होता है, बच्चा अपनी समझ के मुताबिक काम करता है । तब स्थिति विडम्बनापूर्ण हो जाती है । मां अपने में पक्ष में और पुत्र अपने पक्ष में तर्क देते हैं । तब मां अपने बच्चे से नफरत करने लगती है । तब मां का नफरतभरा चेहरा देखकर बच्चा भी अपने बीच विवदास्पद स्थिति पाता है । वह मां का कहना मानना तो चाहता है किन्कतु अपनी समझ के मुताबिक भी चलना चाहता है । जब दोनों के विचार भिन्न होते हैं तो स्थिति बदतर होती जाती है । तब मां सोचती है – बेटा बदल गया है । बेटा भूल गया है मां के प्रति अपने फर्ज को । इधर बेटा सोचता है – मां बदल गई है । पहले कितना प्यार करती थी, कितना चाहती थी, अब इतनी नफरत । मां सोचती है बेटा बदल गया है । मां एक दोहरेपन के भाव में व्यवहार करती है, इधर बेटा भी । मां बेट की शादी भी करना चाहती है, लेकिन अपनी मर्जी के अनुसार । बेटा अपनी मर्जी चाहता है । पुन विचारों का तकराव । तत्पश्चात एक पक्ष बात को मान लेता है । पुत्र का विवाह हो जाता है । अब प्रेम की यात्रा आगे बढती है । पुत्र अपनी पत्नी से प्रेम करता है । मां इस सत्य को स्वीकार नहीं कर पाती । वह अपने भावों द्वारा बाधा उत्पन्न करती है । पत्नी यह सब स्वीकार नहीं कर पाती । फलत सास बहू में झगडा शुरु हो जाता है । ****
देखा गया है कि कुछ लडकियों में गहरा अंह भाव होता है । वे अपने को ज्यादा ही समझदार और सुलझी समझती हैं । सुख के काल में वह बडी बडी बातें करती हैं और बडे बडे वायदे करती हैं किन्तु यह आशापूर्ण स्थिति तभी तक रहती है जब तक उसकी आशाओं के अनुरुप कार्य हो रहा हो । जैसे ही उनकी आशाओं के खिलाफ कार्य आरम्भ हुआ, वे तडप उठती हैं और वह आदर्श का जामा उतार फेंकती हैं । अपनी परम्पराओं को भूलकर लडाई झगडे पर उतर आती हैं । क्लेश और तबाही का वातावरण तैयार कर लेती हैं । अपने को बर्बाद तो करती ही हैं, दूसरों को भी बर्बाद कर देती हैं । यह सच है कि इस प्रकार की लडकियों की गिनती बहुत कम है । मजेदार बात तो यह है कि ऐसी लडकियां दोहरे मापदण्ड में जीती हैं । एक तरफ तो वे चाहती है कि अपनी बात मनवाकर ही सिदध किया जाए कि मेरा सोचना और करना ठीक है और दूसरों का सोचा या किया गया कार्य गलत है । दूसरी ओर यही लडकियां छोटी सी मुश्किल आने पर समझौतावादी नीति का पालन भी करती हैं । दूसरों के सामने एक आदर्श नारी का चरित्र भी प्रस्तुत करती हैं । विवाहित महिलाएं तो इस मामले में काफी माहिर होती हैं । दोहरे मापदण्ड में जीने वाली ऐसी महिलाएं उस स्थिति तक तो समझौता कर लेती हैं जहां तक उनकी इज्जत पर आंच न आए । यानि वे ऐसा प्रदर्शन करेंगी कि वह स्त्री स्वयं बहुत ही बुदिधमान है । लेकिन धीरे धीरे भण्डा फूटता है तो वह सच के थोडा और करीब पहुंचती हैं । ऐसी महिलाओं में एक बात है वे अपनी बात को मजबूत बनाने के लिए अपनी मित्र को बात बताती हैं और तथ्यों को तोड मरोडकर । ऐसे में मित्र का समर्थन मिलता है तो वह उसका सम्मान करती है और विरोध पर मित्रता खत्म करने की धमकी । ऐसी महिलाएं शब्दों की धनी होती हैं । तर्क पेशकर दूसरे को परेशान कर देती हैं । ऐसी महिलाओं की यादाश्त भी काफी तेज होती है । ****
जब तक पति पत्नी के बीच विश्वास नहीं होगा, जीवन में टकराव होते रहेंगे । समपर्ण की भावना ही दोनों को एक कर सकती है । युवतियों को अपने पति के परिवारजनों के प्रति रुचि लेनी चाहिए । यह सच है कि हमारे समाज की कुछ इस प्रकार संरचना है कि स्त्री को ज्यादा जिम्मेदारियां दी जाती हैं । यदि वह अपनी जिम्मेदारियों को पूरा कर लेती है तो उसे बहुत सम्मान मिलता है ।
Friday, August 27, 2010
लडकियों में भावुकता ज्यादा होती है । खासतौर से नवविवाहित युवतियों में । घर में थोडा सा दुख आने पर ऐसे घबरा जाती हैं मानों कोई तूफान आ गया हो । ऐसे में बाहरी लोग उनमें कुछ चालाक और धूर्त प्रवृति के लोग उसकी साहनुभूति पा लेते हैं ओर युवती उस ओर आकर्षित हो जाती है । उसे अपने पति के बीच बहुत सी कमियां नजर आती हैं और उस युवती से सम्पर्क रखने वाले में खूबियां । तब स्थिति यह हो जाती है कि कई विवाहित लडकियां ऐसे युवकों की मधुर बातों के झांसे में आकर दिगभ्रमित हो जाती हैं । वे अच्छा बुरा नहीं पहचान पाती । अंत में, काफी देर हो जाती है और अपना जीवन अंधकारमय बना लेती
विवाह के बाद पत्नी की रुचि, समझ और आचार व्यवहार भिन्न होने पर बेहद दुखद स्थिति उत्पन्न हो जाती है । ऐसे कई मामले देखे जाते हैं जिनसे पता चलता कि घर की बहू ने घर को नरक बना दिया है । इसका एकमात्र कारण है – अंहकार । लडकी बहुत ही जिददी और बडबोली है, वह बडों का कहना नहीं मानती है और पति का कमहना मानने से भी साफ इंकार कर देती है । तर्क वितर्क के सहारे अपनी मनमर्जी करने से बाज नहीं आती । कितनी अजीब बात है कि घर की बहू में भी सहजता खत्म होती जा रही है और वह अंहकार में डूब कर अपना और अपने परिवार का नाम डूबाने में पीछे नहीं है । झगडे का कारण है – मानसिक तनाव । ऐसे में लडकी के बीच समझ की कमी आ जाती है और वह अपने बीच सहजता,सहनशीलता खो देती है । उसे कैसे समझ दी जाए ? उसे कैसे बताया जाए कि विद्रोह करने पर तुम्’हें अधिकार और प्रेम नहीं मिलेगा । लडकर झगडकर कभी भी सुख की प्राप्ति नहीं की जा सकती । परिवार की मर्यादा से हटकर सुख नहीं मिलता है । सुख ओर प्रेम तभी मिलता है जब देने का भी भाव हो । जीवन में केवल सुख और अच्छे दिन ही नहीं रहते, बल्कि दुख और बुरे दिन भी आते हैं । जिस तरह अच्छे दिनों में साथ निभाया, बुरे दिनों में भी साथ निभाएं । बाहर सुख ढूंढना मूर्खता है ।
जीवन में सत्य क्या है ? जीवन में जिस प्रकार विषमताएं बढती जा रही हैं, उन्हें देखकर तो ऐसा लगता है कि जितनी बडी पोस्ट पर पहुंच जाएं, चाहे कितना रुपया कमा लें, वह सब व्यर्थ ही जाएगा, यदि जीवन के यर्थार्थ को सही मायने में न पहचाना हो । ऐसे कई लोगों को देखा गया है कि जो ऊंचे ऊंचे पदों पर तो पहुंच गएक हैं लेकिन वे बेहद परेशान हैं । उनका पैसा भी गलत जगह खर्च होता है । विडम्बना तो यह है कि बहुत से शिक्षित व्यक्ति भी दिन पर दिन तनाव में घिरते जा रहे हैं । इसलिए इस बारे में एक विचार उत्पन्न होता है कि जीवन को सही मायने में जीना है तो अपनी शक्तियों को सबसे पहले पहचानना होगा । यूं ही संसार के लोगों की देखा देखी भागने की आवश्यकता नहीं है । जीवन में संतोष हो और पेट भरने के लिए सादा भोजन यही काफी है । बाहरी दौड में चैन नहीं मिलता ।
इस बात को समझना होगा कि ऐसे वे सब कौन से कारण हैं जिनके परिणामस्वरुप हम किसी दूसरे के शब्दों को सुनकर ही बहुत खुश हो जाते हैं या दुखी हो जाते हैं । किसी ने कुछ डांट दिया तो हम उस व्यक्ति के प्रति तुरन्त गुस्सा करने लग जाते हैं और अपने को असंतोष में भर लेते हैं । इस बात को समझना होगा कि जो हम पर आरोप लगाया गया है वह यदि सत्य है तो उसको स्वीकार करो और यदि झूठा है तो स्वीकार मत करो, उस झूठे आरोप का अपने से जोडने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता । हमें अपने पर लगे झूठे आरोप को अनदेखा कर आरोप लगाने वाले को बहुत ही सहजता से जवाब देना चाहिए कि आरोप निराधार हैं । लेकिन होता क्या है ? हम गुस्से से तडप उठते हैं और अपने उत्तर में सहज व्यक्तियों के प्रति भी कठोर हो जाते हैं । हम सहज क्यों नहीं हो पाते हैं ? शायद हमने कभी सोचा ही नहीं कि हम सहज भी हो सकते हैं ।
Thursday, August 26, 2010
एक बात जो देखी गई है वह यह है कि यदि व्यक्ति का मन कमजोर है तो सब कुछ रंगहीन दिखता है । अपनी हिम्मत हारने पर बडे बडे पद, प्रसिदिध और बडे बडे मकान, दुकान, सुविधाएं, पैसा, बैंक बैलेंस सभी सुविधाएं सारहीन प्रतीत होती हैं । ऐसा लगता है मानो सुख और खुशी जिसे हम समझते हैं, वह मात्र अपने मन का ही पाजिटिव खेल है, इससे ज्यादा कुछ नहीं । या इसके विपरीत । खेल है, इससे ज्यादा कुछ नहीं ।
परिस्थितियां आदमी को बदल देती हैं । न चाहकर भी उसे बदलना पडता है । या वह खुद व खुद बदल जाता है । यदि कहा जाए कि परिस्थितियां तो बनायी जाती हैं और उसमें व्यक्ति खुद ही फंसता है तो इस बारे में यह कहा जा सकता है कि परिस्थितियां कई बार इतनी ज्यादा हावी हो जाती हैं कि मनुष्य चाहकर भी कुछ नहीं कर पाता है और धीरे धीरे बेबस सा होकर बदलने लगता है । यह परिवर्तन अचानक एक ही दिन में नहीं आ जाता है, बल्कि धीरे धीरे आता है । रोज रोज की घटनाएं चर्चाएं व्यक्ति के मस्तिष्क पर प्रभाव डालती रहती हैं । फलस्वरुप परिवर्तन आता है । ऐसा लगता है जैसे इस जीवन रुपी यात्रा व्यक्ति अकेला ही पूरा कर सकता है । दूसरे लोग तो मात्र कुछ देर के लिए सहयोगी हो सकते हैं । सहयोगी भी अपनी शर्तों पर सहयोग देते हैं, अगर उन्हें पहले सहयोग दिया जाए तो ।
अनुभव बताता है कि कोई किसी की कोई भी बात सुनने के लिए तैयार नहीं होता है । हर व्यक्ति अपने को बेहद समझदार समझता है और कुछ लोग तो अपने को प्रेक्टिकल होने का भी दावा करते हैं । वैसे यह सत्य है कि जहां दावा किया जाता है, वहां कहीं न कहीं कमजोरी अवश्य होती है । यह कहा जा सकता है कि हर व्यक्ति गलतियों से भरा हुआ होता है और वह तभी दूसरे की बात मानने को तैयार होता है जब पहले उसे कुछ महत्व दिया जाए अथवा उसके दृष्टिकोण का समर्थन किया जाए । यदि आप किसी को कोई सुझाव देते हैं या अच्छी बात बताते हैं लेकिन दूसरा यदि उस समय सुनने को तैयार नहीं है, तो वह व्यक्ति उस सुझाव के महत्व को नहीं समझता । वह बात का महत्व तभी समझता है जब उस विषय से संबंधित कोई घटना या दुर्घटना उस पर बीती हो । होना तो यह चाहिए कि व्यक्ति जीवन की सभी अच्छी और महत्व की बातों को सुनें और पढे तथा समय आने पर उपयोग करे । किन्तु देखा गया है कि ज्यादातर लोग जब सिर पर आ पडती है तब उन बातों का हल खोजते हैं और अपने सहयोगी को बताकर, पूछकर समस्या से निकलने का प्रयास करते हैं । ये कुछ ऐसा ही है जैसे घर में पहले तो आग लगने के कारणों पर गौर न करते हैं और न ही सुरक्षा व्यवस्था पर और जब आग लग जाती है तो हफडा दफडी मचाते हैं । आग लगने पर नुकसान हो जाए तो इसमें दोष किसी दूसरे को देने से कोई लाभ नहीं होता ।
पारिवारिक झगडें होते हैं समझ की कमी और अंहकार की वजह से । समझ की कमी जहां झगडे का कारण बनता है, वहां अंहकार उस झगडे को और आगे बढाता है । एक व्यक्ति के कहे गये कुछ शब्द पसन्द नहीं आते,दूसरा तुरन्त झगडा करने पर उताऊ हो जाता है । ऐसा लगता है आने वाले समय में इस अंहकार की लडाई में कई घर परिवार बर्बाद होंगे । सभी अपने को दोष न देकर दूसरों को दोष देते रहेंगे । प्रश्न उठता है कि क्या इस अंहकार की लडाई से बचा जा सकता है ? उत्तर केवल हां या न में नहीं दिया जा सकता । अंहकार की लडाई को जीतने के लिए अर्थात इस ल्रडाई से दूर हटने के लिए भरसक प्रयत्न करने होंगे । काफी कुछ बर्दाश्त करना होगा । और काफी कुछ सुनने के लिए तैयार होना होगा । इसके लिए पहले अपने को जानना होगा और मेडिटेशन करना होगा । यदि मेडिटेशन में बैठने का प्रयास सफल होता है तो अंहकार की लडाई को जीतने में कोई कठिनाई नहीं होगी ।
कई बार दूसरों की बातें सुनकर हम समझ लेते हैं कि हमारा किया गया कार्य गलत है,हमारा सोचा हुआ विचार गलत है । तब यह संदेह और बढ जाता है जब दस व्यक्तियों में से दसों के दसों हमारे विचार से सहमत नहीं होते या हमारे विचार के खिलाफ हो जाते हैं, तब लगता है कहीं मैं गलत तो नहीं ? लेकिन आप मेरी मानिए आप गलत नहीं हैं । गलत तो वे लोग हैं जो आपको गलत कह रहे हैं । आप मान लीजिए कि आप जो कर रहे हैं वह आपकी स्वीकृति से हो रहा है और आपकी स्वीकृति से हो रहा कार्य कैसे गलत हो सकता है ? अपने पर विश्वास रखें, सफलता अवश्य मिलेगी । अनुभव से गुजरें
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हर व्यक्ति में क्षमताएं होती हैं ऊंचे शिखर पर पहुंचने की । लेकिन मन के डांवाडोल होने के कारण कठिनाईयां आ जाती हैं । मन बुदिध पर हावी हो जाता है । मन को कंट्रोल में करने के बाद ही अच्छे और सुन्दर कार्यै किए जा सकते हैं । आत्मविश्वास की कमी होने के कारण ऐसा होता है । अपने पर विश्वास न करके मन हावी हो जाता है और वह भी कभी स्थायी नहीं रहता । तुम क्या करना चाहते हो, यह जानना है तो मन को कंट्रोल में करना ही होगा । एकाग्रता की कमी से ही हमारी शक्तियां बंट जाती हैं । संकल्पशक्ति की कमी से साहस में कमी होती है । ऐसा क्यों होता है, यह समझना होगा और मन के डांवाडोल होने के कारणों को जानना होगा ।
Wednesday, August 25, 2010
तुम्हारी जो स्वाभाविक स्थिति है, उसे आप स्वीकार भाव से जीओ । कैसे जीवन में अवेयर होकर जीया जा सकता है । यह जरुरी नहीं है कि सुख ही सुख आएं जीवन में । जैसा भी है ठीक है । मात्र प्रवचन पढ लेने से या सुन लेने से परिवर्तन आ जाएगा, इसमें संदेह है । अपनी क्षमताओं में वृदिध करना और जीवन में एकरुपता व सरलता लाने का प्रयास करना चाहिए । प्रयासों से ही पाजिटिव स्थिति आ सकती है । यह जरुरी नहीं है कि कुछ खास किया जाए । जो भी काम किया जाए उसके लिए यह भाव हो – यह कार्य मेरी स्वीकृति से हो रहा है ।
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विडंम्बना है वैवाहिक जीवन में । सबके अपने अपने अधिकारों की मांग का ऐसा सिलसिला चल पडता है कि एकपल तो उस जाल में फंसे सभी व्यक्ति अपने को दुखी महसूस करने लगते हैं । हर कोई अपने को निर्दोष समझता है । लेकिन वास्तविकता यह है कि जहां भी झगडा होता है और दोंनों ही बडी अपने अधिकारों की बात करते हैं तो दोनों ही दोषी होते हैं । लेकिन दोनों पक्षों के अपने अपने तर्क होते हैं । यह माना जा सकता है कि एक पक्ष का दोष कम हो और दूसरे का ज्यादा । लेकिन झगडें के कारणों में कोई पक्ष यह दावा करे कि मेरा दोष नहीं, तो वह गलत है । उस स्थिति में झगडा नहीं होगा जब एक पक्ष् झगडे की नौबत आने से पहले ही अपने हथियार डाल दे, यानि समझौतावादी नीति का पालन करे । यदि आपका झगडा किसी से नहीं होता है और आप यह समझ बैठे हैं कि मैं बहुत सहनशील और प्रेमपूर्वक हूं कि झगडा नहीं करता, यह एक भूल भी हो सकती है । हो सकता है कि दूसरा पक्ष आपसे भी ज्यादा सहनशील हो जो झगडा पसन्द न करता हो । इसका अर्थ यह नहीं कि आप की प्रवृति तब समाप्त हो जाएगी जब दूसरा पक्ष ही लडने को तैयार नहीं । गलती हो जाती है कि मैं समझदार हूं, सहज हूं इसलिए झगडा नहीं हुआ, इसको जानने के लिए गहरे से विचार करना होगा । ****
जिस प्रकार व्यक्ति तनाव में आकर पीडित होता है और अपने को अकेला समझता है, उसे वह सब कुछ भी याद नहीं आता है जिससे कि उसका तनाव मिट जाए और वह नार्मल हो जाए । तनाव का एक कारण व्यक्ति स्वयं न होकर कोई दूसरा होता है । जब दूसरा हमारी उम्मीदों से बहुत दूर हो जाता है तो उसके प्रति एक घृणा उत्पन्न होती है, जो धीरे धीरे तनाव का रुप धारण करने लगती है । वह तनाव बाद में अपने आप समझ के गहरा होने के साथ साथ कम होने लगता है । तनाव में किस प्रकार की बैचेनी होती है, नींद न आना, भूख न लगना, बात करने को जी न चाहना, भयभीत होने लगना, अपने बीच दूसरों के प्रति नफरत आना और जीवन के प्रति एक नेगेटिव सोच
जीवन को जीना दो ढंग से होता है – एक स्वाभाविक और दूसरा संसारिक । स्वाभाविक जीना बहुत ही महत्वपूर्ण है । इसमें खुशियां भी हैं तो दुख भी हैं । इसमें जीना आसान काम नहीं है । खासतौर से पति पत्नी स्वाभाविक रुप से नहीं जी सकते हैं । यूं कह लीजिए जीते ही नहीं हैं । स्वाभाविक जीने का अर्थ है जो अन्दर के भाव बनें, उसे वैसे ही ऊपरी रुप से प्रस्तुत करना । यदि भीतर क्रोध है तो बाहर भी क्रोध प्रकट करना और यदि भीतर प्रेम है तो बाहर भी प्रेम प्रकट करना । यदि किसी से बात करने को जी चाहता है तो बात कर ली, यदि घूमने को जी चाहा तो घूम लिया और मौन में रहने को जी चाहा तो मौन हो गये । दूसरे से कोई उम्मीद नहीं । किसी के लिए कुछ कर सकें तो ठीक, न कर सके तो भी ठीक । भूख लगी तो खा लिया, नींद आयी तो सो गये । हंसी आयी तो हंस लिए – बिल्कुल स्वाभाविक । जीवचन को पूर्णत स्वीकार भाव से जीते हुए । न पत्नी पर कोई अधिकार, न भाई बहनों पर । दुख और सुख में एकसार । तब स्वाभाविक प्रेम उत्पन्न होगा, भले ही देर से ।
एक दूसरा जीना है – संसारिक । जिसमें व्यक्ति एक दूसरे के लिए करता है । यदि एक व्यक्ति ने दूसरे के लिए कुछ किया तो पहला भी दूसरे के लिए करे । भले ही उसका मन न हो । पति पत्नी पर शिष्टाचार और नियम थोपेगा और पत्नी पति पर । दोनों को एक दूसरे से पूर्ण आशाएं जो पूरी न होने पर निराशा में बदल जाती हैं । एक आदमी अपनी पत्नी से इसलिए प्रेम करता है क्योंकि उसकी पत्नी उससे प्रेम करती है । पत्नी चाहती है कि पति सब कुछ करे जिससे उसे खुशी मिले । हर काम एक दूसरे की स्वीकृति से हो । हजारों तरह की कल्पनाएं । पूरी होने पर खुशी और पूरी न होने पर दुख । बस जीवन को खींचे जाना । इसी प्रकार परिवार के अन्य रिश्ते नाते – एक हाथ ले एक हाथ दे ।
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एक दूसरा जीना है – संसारिक । जिसमें व्यक्ति एक दूसरे के लिए करता है । यदि एक व्यक्ति ने दूसरे के लिए कुछ किया तो पहला भी दूसरे के लिए करे । भले ही उसका मन न हो । पति पत्नी पर शिष्टाचार और नियम थोपेगा और पत्नी पति पर । दोनों को एक दूसरे से पूर्ण आशाएं जो पूरी न होने पर निराशा में बदल जाती हैं । एक आदमी अपनी पत्नी से इसलिए प्रेम करता है क्योंकि उसकी पत्नी उससे प्रेम करती है । पत्नी चाहती है कि पति सब कुछ करे जिससे उसे खुशी मिले । हर काम एक दूसरे की स्वीकृति से हो । हजारों तरह की कल्पनाएं । पूरी होने पर खुशी और पूरी न होने पर दुख । बस जीवन को खींचे जाना । इसी प्रकार परिवार के अन्य रिश्ते नाते – एक हाथ ले एक हाथ दे ।
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हर व्यक्ति अच्छा बनने का प्रयास करता है, अपने लिए भी और दूसरों के लिए भी । इसके लिए वह कई कार्य करता है । उसके प्रयास पूरी तरह सफल नहीं भी होते हैं और वह उन कार्यों को पूरा नहीं कर पाता है जिन्हें वह पूरा करना चाहता है । एक बार असफलता मिलने पर निराश हो जाता है किन्तु फ्रि प्रयास करता है । वह धीरे धीरे सफलता की ओर बढता है । सबल व्यक्त्वि के लिए बहुत से प्रयास करने पडते हैं । सफलता का राज है द्वढ संकल्प और असफलता का कारण है – मन की चंचलता या निर्बलता ।
Monday, August 23, 2010
कितने रुप बनाने पडते हैं हमें जीवन में ।हर व्यक्ति से अलग अलग । हमारा वास्तविक रुप क्या है यह हम सारे जीवन भर नहीं समझ पाते हैं । जो चेहरा अपने मित्रों के सामने होता है, वह अपने परिवारजनों के सामने नहीं होता । पत्नी के सामने जो रुप होता है वह दूसरों के प्रति नहीं होता । प्रश्न वही का वही रह जाता है कि हम अपने किस रुप को वास्तविक मानें । कभी हमें अपने सम्मान का ख्याल आता है तो कभी दूसरे के सम्मान का । सम्मान, झूठी इज्जत और अपने को अच्छा साबित करने के विचार ने हमें गुमराह कर दिया है । हम कहते हैं कुछ और होते हैं कुछ । इस सारे द्वंद्व से यही प्रतीत होता है कि संसारिक बनने का आकषण भले ही कितना आकर्षक हो, किन्तु है एक खोखलापन । एक ऐसा आकर्षण जो एकपल मोहित करता है किन्तु शीघ्र ही अहसास होता है कि मैं फंसता ही जा रहा हूं इस जाल में ।
हर व्यक्ति के बीच एक अच्छा पहलू भी होता है, जो सभी को अच्छा लगता है । लेकिन मुश्किल के क्षणों में हम उस पहलू को भूल जाते हैं । यदि इस बात को पति पत्नी समझ लें तो तलाक की नौबत आ ही नहीं सकती । तलाक की स्थिति तभी उत्पन्न होती है जब दोनों अपने जीवन साथी का वह सुन्दर पहलू भूल जाते हैं । होना तो यह चाहिए कि हम बुरे पहलू को समाप्त करक अच्छे पहलू का स्वागत करें, विकास करें, किन्तु प्राय बहुत कम होता है । हम अपने अभिमान के कारण दूसरे की छवि को छूमिल करने का प्रयास करते हैं ताकि हम अपने को विजयी घोषित कर सकें । हमें याद रखना चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति में अच्छे और बुरे पहलू होते हैं ।
क्या है संसार में ? इस दौड में, कुछ भी ऐसा नपहीं है जो एक संतोष प्रदान करता हो । मन के भटकाव के कारण ही तो कई बार निराशा होती है, अपने प्रियजनों के प्रति क्रोध आता है । बुदिध के तल पर सोचकर हम वास्तविकताओं से वंचित रह जाते हैं । अंहकार की वजह से हम अपने को प्रेमपूर्ण होने के मार्ग से कोसो दूर कर लेते हैं । मन,बुदिध और अंहकार की वजह से हम भटक जाते हैं । अपनी सृजनात्मक शक्ति को भी नष्ट कर डालते हैं । जब हम संसार की दौड में निराश हो जाते हैं तो धर्म का मार्ग खोजते हैं । लेकिन तब भी क्षणिक आशा के बाद निराशा ही हाथ लगती है । तब संसार एवं संन्यास के बीच एक विवाद उत्पन्न होने लगता है ।
हमें अपने प्रियजनों पर गुस्सा आता है । प्रियजन जब कोई चुभनेवाली बात कह देता है तो एक विचार उठता है कि तुरन्त जवाब तलब कर लिया जाए । लेकिन तुरन्त शांत होना पडता है । उस प्रियजन के प्रति जो संबंध है उसका ख्याल रखना पडता है । सोचते हैं कोई अर्थ नहीं रखता बोलकर, कुछ समझाने की कोशिश की जाए क्योंकि हम जिसके प्रति गुस्से में होते हैं, जल्दी ही उसके प्रति शांत भी हो जाते हैं । अच्छा है यदि गुस्से के समय कुछ भी न बोला जाए । गुस्सा करने वाला चाहे कुछ भी बोलता रहे, परवाह नहीं करनी चाहिए । हां, बोलकर या अपने को जरुरत से ज्यादा सही और दूसरे को गलत साबित करने की कोशिश् में समस्या और बडी बन जाएगी । कोई भी अपनी गलती मानने को तैयार नहीं होता है । चाहे कोई दूसरा हो या स्वयं हो । हां, गुस्सा शांत होने के बाद हो सकता है कि गुस्सा करने वाला यह मान जाए कि मैं भी तो दोषी हो सकता हूं । इसलिए सुखी जीना है तो इस सूत्र को समझ लेना होगा कि गुस्सा करने से कुछ भी अच्छा नहीं होगा । हां, गुस्सा करने वाले व्यक्ति से कभी भी बहस मत करो । गुस्सा शांत करने का एक ही आसान तरीका है – चुप हो जाओ । यदि हम चुप हो जाते हैं तो दूसरे का गुस्सा ज्यादा देर तक हावी नहीं हो सकेगा । वह जल्दी ही समाप्त हो जाएगा और आपके चुप रहने को एक गुण मान लिया जाएगा । ----- मैंने इतना गुस्सा किया, पर वह एक शब्द भी नहीं बोला, बेचारा सुनता रहा । मैंने शायद कुछ ज्यादा ही गुस्सा कर लिया । गुस्सा करनेवाला ही यह सोचकर पानी पानी हो सकता है । हां, एक बात का ध्यान रख लेना चाहिए, जो बातें उसके गुस्सा करने में उपयोगी हैं, उन्हें स्वीकार कर लें, चाहे धीरे धीरे । अपना इगो बीच में न आने दें । मान लीजिए आपकी पत्नी आपको सिगरेट पीने से मना करती है और तेज तेज गुस्सा करती है तो शायद आपको उसकी जली कटी बातें सुन सुनकर गुस्सा आ जाता हो । लेकिन आपके चुप होने से जल्दी ही उसका गुस्सा शांत हो जाएगा । आप भी तो सोचिए यदि वह आपकी सिगरेट जैसी आदत छुडाने के लिए गुस्सा या झगडा कर रही है तो इसमें लाभ किसका है ? आप नहीं मानते कि वह आपके फायदे का ही सोच रही है ?
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Sunday, August 22, 2010
अकेलेपन में विचार तेजी से चलते हैं । बुरे भी, अच्छे भी । बुरे ज्यादा अच्छे कम । दुख को स्वीकार करना भी एक वरदान जैसा ही तो है ।
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झगडे की जड ज्यादा बोलना तो नहीं , जरा सोचिए ।
सत्य बोला नहीं जाता जिया जाता है ।
माफ करना सबसे बडा गुण है । क्या आपमें यह गुण है ? यदि नहीं तो जरा सोचिए । एक साथ सबको खुश नहीं रखा जा सकता । एक खुश है तो हो सकता है कि दूसरा खुश न हो ।
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झगडे की जड ज्यादा बोलना तो नहीं , जरा सोचिए ।
सत्य बोला नहीं जाता जिया जाता है ।
माफ करना सबसे बडा गुण है । क्या आपमें यह गुण है ? यदि नहीं तो जरा सोचिए । एक साथ सबको खुश नहीं रखा जा सकता । एक खुश है तो हो सकता है कि दूसरा खुश न हो ।
तुम्हारे बीच क्या बुराईयां हैं, यह ध्यान देने की ज्यादा जरुरत नहीं है । जरुरत है तुम्हारे बीच क्या अच्छाईयां हैं । जैसे जैसे अच्छाईयां बढेगी, बुराईयां खत्म होने लगेगीं । यदि अंधेरे को दूर करना है तो प्रकाश उत्पन्न करना होगा । अंधकार से लडने की जरुरत नहीं ।
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तुम्हारा दुख, तुम्हारा सुख, तुम्हारे भीतर है । किसी को देखकर सुख मिलता है या दुख यह सिर्फ तुम्हारे साथ घटता है, दूसरों के साथ नहीं । यदि दूसरे से कुछ घटता तो यह घटना सभी के साथ होती, सिर्फ तम्हारे साथ नहीं । एक व्यक्ति के मौत का समाचार सुनकर आप नहीं रोये । क्यों ? शायद उस व्यक्ति से आपने अपने को जोडा नहीं था । लेकिन अपने पिता की मौत की खबर सुनकर आप जोर जोर से रोने लगे । क्यों ? आपने पिता से अपने को जोडा हुआ था । आप जितना ज्यादा दूसरों से जुडेंगे, उतना ही जीवन में दुख भी आयेगा ।
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तुम्हारा दुख, तुम्हारा सुख, तुम्हारे भीतर है । किसी को देखकर सुख मिलता है या दुख यह सिर्फ तुम्हारे साथ घटता है, दूसरों के साथ नहीं । यदि दूसरे से कुछ घटता तो यह घटना सभी के साथ होती, सिर्फ तम्हारे साथ नहीं । एक व्यक्ति के मौत का समाचार सुनकर आप नहीं रोये । क्यों ? शायद उस व्यक्ति से आपने अपने को जोडा नहीं था । लेकिन अपने पिता की मौत की खबर सुनकर आप जोर जोर से रोने लगे । क्यों ? आपने पिता से अपने को जोडा हुआ था । आप जितना ज्यादा दूसरों से जुडेंगे, उतना ही जीवन में दुख भी आयेगा ।
अगर तुम फूल जैसे कोमल व सुगंधित होते तो कैसे कोई तुम पर प्रहार करता ? पहले तुम खुद फूल बन जाओ, तभी दूसरे तुम्हारी सुगंध से खींचे चले आएंगे और तुम पर प्रहार करना बन्द कर देंगे ।
मौन में ही हम सत्य को जान सकते हैं । अपने भागते मन को शांत करना है । अपनी शक्तियों को बंटने न दो । अगर तुम्हारा दोष नहीं है तो भी स्वीकार कर लो , विवाद से दूर हो जाओगे, तुम हारकर भी जीत जाओगे । तुम किससे चुप रह सकते हो, तुम कितनी देर तक चुप रह सकते हो, वही तुम्हारी जीत का समय है ।
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जरुरी नहीं कि नैचर बनायी जाए । मेरी इमेज, मेरा नाम, मेरी इज्जत, मेरा प्रभाव, मेरी प्रसिदिध, मेरा रुतबा ये सब बेकार की बाते हैं । एक बंधी बंधाई परिपाटी पर चलना बेवकूफी है । जैसा समय, वैसी नैचर, वैसा व्यवहार । यानि आल राउन्डर ।
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मौन में ही हम सत्य को जान सकते हैं । अपने भागते मन को शांत करना है । अपनी शक्तियों को बंटने न दो । अगर तुम्हारा दोष नहीं है तो भी स्वीकार कर लो , विवाद से दूर हो जाओगे, तुम हारकर भी जीत जाओगे । तुम किससे चुप रह सकते हो, तुम कितनी देर तक चुप रह सकते हो, वही तुम्हारी जीत का समय है ।
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जरुरी नहीं कि नैचर बनायी जाए । मेरी इमेज, मेरा नाम, मेरी इज्जत, मेरा प्रभाव, मेरी प्रसिदिध, मेरा रुतबा ये सब बेकार की बाते हैं । एक बंधी बंधाई परिपाटी पर चलना बेवकूफी है । जैसा समय, वैसी नैचर, वैसा व्यवहार । यानि आल राउन्डर ।
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आपको गर्मी लग रही है, शरीर पसीने से तर हो रहा है । आप गर्मी से बेहाल हुए जा रहे हैं, अपने बीच एक असंतोष महसूस करते हैं । आपको नींद नहीं आ रही है, बार बार बुरे विचारों से सिर दर्द हो रहा है, तनाव से घिरे जा रहे हैं । रात के 12 बज गये हैं और अभी तक नींद नहीं आयी । आप व्यथित हो उठते हैं ।
घबराइए नहीं । गर्मी को स्वीकार कर लीजिए । सोचिए, हाजिर हूं, लग ले जितनी गर्मी लगना चाहे । शरीर पसीने से भरता है तो भरने दीजिए । सोचिए – देख रहा हूं मैं । आखिर कब तक गर्मी लगती है । पसीना पोंछते रहिए । लेकिन बोलिए कुछ न । शांत होकर गर्मी को सहयोग दीजिए । जल्दी ही गर्मी के कारण होनी वाली पीडा कम होने लगेगी । दूसरा उपाय भी है । गर्मी है तो घबरा क्यों रहे हो, पंखे के नीचे चले जाएं, कूलर के सामने खडे हो जाएं या ए सी का मजा लीजिए । यदि इनमें से कुछ भी नहीं है तो हाथों में कोई अखबार ले लीजिए और गर्मी को दूर भगाएं । बस बेहाल होना छोड दीजिए ।
इसी प्रकार यह स्वीकार कर लीजिए कि आज नींद नहीं आ रही । रात के 12 बज गये हैं तो क्या हुआ । बुरे विचार और तनाव को भी स्वीकार कर लीजिए । आंखे बन्द करके विचार कीजिए और यह मान लें कि आज तो नींद आनी ही नहीं । आज तो छुटटी है । आज तो जागना ही है । स्वीकार का भाव आते ही नींद की परेशानी समाप्त होने लगेगी और आपको तुरन्त नींद भी आ जाएगी ।
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तुम स्वामी हो, यानि स्वयं के मालिक । प्रत्येक व्यक्ति की अंतनिर्हित क्षमता है कि वह स्वामी बने, अर्थात स्वयं का मालिक । अपने को जानो और आनेवाली प्रत्येक समस्या का समाधान भी स्वयं ही खोज लेंगे ।
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घबराइए नहीं । गर्मी को स्वीकार कर लीजिए । सोचिए, हाजिर हूं, लग ले जितनी गर्मी लगना चाहे । शरीर पसीने से भरता है तो भरने दीजिए । सोचिए – देख रहा हूं मैं । आखिर कब तक गर्मी लगती है । पसीना पोंछते रहिए । लेकिन बोलिए कुछ न । शांत होकर गर्मी को सहयोग दीजिए । जल्दी ही गर्मी के कारण होनी वाली पीडा कम होने लगेगी । दूसरा उपाय भी है । गर्मी है तो घबरा क्यों रहे हो, पंखे के नीचे चले जाएं, कूलर के सामने खडे हो जाएं या ए सी का मजा लीजिए । यदि इनमें से कुछ भी नहीं है तो हाथों में कोई अखबार ले लीजिए और गर्मी को दूर भगाएं । बस बेहाल होना छोड दीजिए ।
इसी प्रकार यह स्वीकार कर लीजिए कि आज नींद नहीं आ रही । रात के 12 बज गये हैं तो क्या हुआ । बुरे विचार और तनाव को भी स्वीकार कर लीजिए । आंखे बन्द करके विचार कीजिए और यह मान लें कि आज तो नींद आनी ही नहीं । आज तो छुटटी है । आज तो जागना ही है । स्वीकार का भाव आते ही नींद की परेशानी समाप्त होने लगेगी और आपको तुरन्त नींद भी आ जाएगी ।
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तुम स्वामी हो, यानि स्वयं के मालिक । प्रत्येक व्यक्ति की अंतनिर्हित क्षमता है कि वह स्वामी बने, अर्थात स्वयं का मालिक । अपने को जानो और आनेवाली प्रत्येक समस्या का समाधान भी स्वयं ही खोज लेंगे ।
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हम ऐसे दोहरे मापदण्ड में जी रहे हैं जिसके कारण हमारा वास्तविक अस्तित्व ही खत्म होता जा रहा है । हम वास्तव में जो हैं और जो व्यक्त्वि दिखाते हैं उसमें बहुत अन्तर है । हम झूठ और बुराई के खिलाफ कदम उठाने से डरते हैं, हम एक बूढे की भांति कमजोर हो जाते हैं । आयु में अपने से बडे हों या निकट संबंधी, हम उनकी बात को असत्य नहीं कह पाते, गलत बात का विरोध नहीं कर पाते । हम पुरानी परम्पराओं पर किसी भी तरह का सन्देह नहीं खडा करते । बस उनको मानकर, सम्मोहित होकर माने चले जाते हैं ।
उदासी क्या है ? हम क्यों उदास हो जाते हैं ? जब उदासी आए समझना कोई गलती हो गई है । हंसो । मुस्कराओ । प्रसन्न व्यक्ति का आदर करो । उदास व्यक्ति केवल बीमार लोग ही होते हैं । क्या आप बीमार है ? यदि नहीं तो उदास क्यों ? नाचो, गाओ, उत्सव मनाओ । आज और अभी । उदासी कहीं तुम्हें तनाव की ओर न ले जाए, जरा गौर कर लेना । अक्सर लोगों को उदासी तनावग्रस्त व्यक्ति के साथ साथ झगडालू भी बना देती है ।
यदि हमें किसी पर गुस्सा आता है तो सोचना चाहिए कि गुस्सा कहां तक वाजिब है । यह विचार गुस्सा करते समय ही आना चाहिए । तुम देखोगे कि दूसरे का दोष कम है तो गुस्सा नम कर देना चाहिए । अगर किसी पर गुस्सा आए तो उसी समय चुप हो जाना चाहिए । तुरन्त उत्तर नहीं देना चाहिए । सोचना चाहिए कि इस गुस्से के कारण जो भी हैं, उनके बारे में बाद में स्पष्टीकरण मांग लिया जाएगा । इस प्रकार जिस पर गुस्सा आता है उससे उसी समय रोष प्रकट नहीं करना चाहिए । नतीजा यह होगा कि जल्दी ही आपका गुस्सा शांत होने लगेगा । धीरे धीरे समाप्त भी हो जाएगा । यदि अपना गुस्सा तुरन्त प्रकट कर दिया तो न जाने आप क्या क्या बोल जाएंगे । जो हो सकता है आपके हित में न हो । यदि किसी के प्रति अंसंतोष है तो प्रकट मत कीजिए । 24 घंटे बाद भी यदि गुस्सा रहता है तो ठीक है, वरना समझ लीजिए, गुस्सा झूठा था । अवश्य ही देखेंगे कि 24 घंटे बाद गुस्सा नहीं रह जाता है ।
Friday, August 20, 2010
क्या आप जानते हैं ओशो रजनीश के संन्यासी को स्वामी और संन्यासिन को मां कहकर पुकारा जाता है ?
अक्सर पूछा जाता है कि रजनीशी हर स्त्री को उसके नाम से पहले मां शब्द का प्रयोग किया जाता है ? कुंआरी लडकी को भी मां कहना और अपनी पत्नी को भी मां कहना कहां तक वाजिब है, जबकि पत्नी के साथ् शारीरिक संबंध भी स्थापित किए जाते है। ? कुंआरी लडकी को भी मां कहना अटपटा सा लगता है । आशो रजनीश ने इस बारे में कुछ व्याख्या की है जिसका सार यह है –
प्रत्येक स्त्री में प्रजनन शक्ति होती है, इलिए वह मूलत मां ही है । हमारा समाज स्त्री को अलग अलग रुपों में देखता है । स्त्री को मां, बहन और पत्नी के अलावा कई रिश्तों में देखा जाता है, ये समाज की मान्यताएं हैं कि वह स्त्री को कभी मां, कभी बहन और कभी पत्नी के रुप में देखता है लेकिन इन सब का मूल एक ही है कि वह स्त्री है । स्त्री जन्म से ही मां बनने की क्षमताएं रखती है । हमारे समाज की यह परम्परा है कि पत्नी से सम्भोग करके वंश परम्परा को और आगे बढाया जाए ।लेकिन इसका यह अर्थ नहीं हो जाता है कि वह मां नहीं है । स्त्री की स्वाभाविक प्रवृति ही मां है । चूंकि पिछले हजारों वर्षों से स्त्री जाति को भिन्न भिन्न भागों में बांटकर शोषण किया गया है, लेकिन मां के रुप का सभी ने सम्मान किया है, यदि हम प्रत्येक स्त्री को उसके वास्तविक रुप में पुकारकर याद करें तो इसमें बुरा ही क्या है ?
प्रत्येक पुरुष किसी न किसी स्त्री की योनि से ही जन्म लेता है । प्रत्येक स्त्री किसी न किसी की मां होती है या उसे किसी न किसी पुरुष की मां बनना होता है । फ्रि प्रत्येक स्त्री को मां कहकर पुकारना स्त्री वर्ग का सम्मान करना ही होगा । शोषित स्त्री वर्ग को अब पुरुष वर्ग द्वारा ही ऊंचा उठाना होगा, जिस पुरुष वर्ग ने स्त्री की महानता को दिगभ्रमित किया है ।
यह जीवन का चक्र है । एक बच्चा जब एक स्त्री से उत्पन्न होता है तो उसे पहला प्रेम स्त्री का ही प्राप्त होता है, जिसे वह मां कहता है । पैदा होने के बाद बच्चा सबसे पहले मां के स्तन चूसता है, उसे ढूंढना नहीं पडता । मां के सूखे स्तनों में दूध भर आता है और बच्चा अपना भोजन प्राप्त करता है । अब उस बच्चे पर स्तन का प्रभाव बहुत ही गहरा हो जाता है,इसलिए वह मां को सबसे ज्यादा सम्मान देता है । जब वह बडा होता है तो वह दूसरी स्त्री की ओर आकर्षित होता है । प्रेम की यह यात्रा आगे बढती है । वह बच्चा पुरुष बनता है । उसे दूसरी स्त्री में भी मां दिखती है । यही कारण है कि पुरुष का सबसे पहले ध्यान स्तन की ओर जाता है । क्योंकि उसे स्मरण आता है कि स्त्री के इस अंग से उसका कोई पुराना नाता है । चूंकि उसने अपनी मां के स्तनों को चूसा होता है वह पत्नी से प्रेम करता है । उस पत्नी के प्रति शारीरिक संबंध की इच्छा होती है । यह भी वह अपने पिछले अनुभव को देखकर सोचता है । इस प्रकार प्रेम का एक चक्र और आगे बढता है । यही कारण है कि स्त्री पुरुष एक दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं । स्त्री पुरुष के संयोग से जन्म होता है इसलिए दोनों के प्रति आकर्षण स्वाभाविक है । स्त्री मूलत मां है । हां, समाज की अलग अलग मान्यताएं हो सकती हैं, इसलिए पत्नी, बहन और दूसरे रिश्तों में स्त्री को मां कहना अजीब लगता है । लेकिन यह सच है ।
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अक्सर पूछा जाता है कि रजनीशी हर स्त्री को उसके नाम से पहले मां शब्द का प्रयोग किया जाता है ? कुंआरी लडकी को भी मां कहना और अपनी पत्नी को भी मां कहना कहां तक वाजिब है, जबकि पत्नी के साथ् शारीरिक संबंध भी स्थापित किए जाते है। ? कुंआरी लडकी को भी मां कहना अटपटा सा लगता है । आशो रजनीश ने इस बारे में कुछ व्याख्या की है जिसका सार यह है –
प्रत्येक स्त्री में प्रजनन शक्ति होती है, इलिए वह मूलत मां ही है । हमारा समाज स्त्री को अलग अलग रुपों में देखता है । स्त्री को मां, बहन और पत्नी के अलावा कई रिश्तों में देखा जाता है, ये समाज की मान्यताएं हैं कि वह स्त्री को कभी मां, कभी बहन और कभी पत्नी के रुप में देखता है लेकिन इन सब का मूल एक ही है कि वह स्त्री है । स्त्री जन्म से ही मां बनने की क्षमताएं रखती है । हमारे समाज की यह परम्परा है कि पत्नी से सम्भोग करके वंश परम्परा को और आगे बढाया जाए ।लेकिन इसका यह अर्थ नहीं हो जाता है कि वह मां नहीं है । स्त्री की स्वाभाविक प्रवृति ही मां है । चूंकि पिछले हजारों वर्षों से स्त्री जाति को भिन्न भिन्न भागों में बांटकर शोषण किया गया है, लेकिन मां के रुप का सभी ने सम्मान किया है, यदि हम प्रत्येक स्त्री को उसके वास्तविक रुप में पुकारकर याद करें तो इसमें बुरा ही क्या है ?
प्रत्येक पुरुष किसी न किसी स्त्री की योनि से ही जन्म लेता है । प्रत्येक स्त्री किसी न किसी की मां होती है या उसे किसी न किसी पुरुष की मां बनना होता है । फ्रि प्रत्येक स्त्री को मां कहकर पुकारना स्त्री वर्ग का सम्मान करना ही होगा । शोषित स्त्री वर्ग को अब पुरुष वर्ग द्वारा ही ऊंचा उठाना होगा, जिस पुरुष वर्ग ने स्त्री की महानता को दिगभ्रमित किया है ।
यह जीवन का चक्र है । एक बच्चा जब एक स्त्री से उत्पन्न होता है तो उसे पहला प्रेम स्त्री का ही प्राप्त होता है, जिसे वह मां कहता है । पैदा होने के बाद बच्चा सबसे पहले मां के स्तन चूसता है, उसे ढूंढना नहीं पडता । मां के सूखे स्तनों में दूध भर आता है और बच्चा अपना भोजन प्राप्त करता है । अब उस बच्चे पर स्तन का प्रभाव बहुत ही गहरा हो जाता है,इसलिए वह मां को सबसे ज्यादा सम्मान देता है । जब वह बडा होता है तो वह दूसरी स्त्री की ओर आकर्षित होता है । प्रेम की यह यात्रा आगे बढती है । वह बच्चा पुरुष बनता है । उसे दूसरी स्त्री में भी मां दिखती है । यही कारण है कि पुरुष का सबसे पहले ध्यान स्तन की ओर जाता है । क्योंकि उसे स्मरण आता है कि स्त्री के इस अंग से उसका कोई पुराना नाता है । चूंकि उसने अपनी मां के स्तनों को चूसा होता है वह पत्नी से प्रेम करता है । उस पत्नी के प्रति शारीरिक संबंध की इच्छा होती है । यह भी वह अपने पिछले अनुभव को देखकर सोचता है । इस प्रकार प्रेम का एक चक्र और आगे बढता है । यही कारण है कि स्त्री पुरुष एक दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं । स्त्री पुरुष के संयोग से जन्म होता है इसलिए दोनों के प्रति आकर्षण स्वाभाविक है । स्त्री मूलत मां है । हां, समाज की अलग अलग मान्यताएं हो सकती हैं, इसलिए पत्नी, बहन और दूसरे रिश्तों में स्त्री को मां कहना अजीब लगता है । लेकिन यह सच है ।
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ये विचार मेरे नहीं, बल्कि एक महिला के हैं जो उसने मुझे एक बातचीत में कहे । उसने बताया कि पत्नी को बेढंगी चाल चलने में रोकने के लिए पति का बहुत बडा हाथ होता है । यदि पति कमजोर हुआ तो पत्नी उसका नाजायज फायदा उठाती है और घमण्डी हो जाती है । इसलिए पति को उसे कंट्रोल में रखना चाहिए । पत्नी को विचारों की अभिव्यक्ति तो देनी चाहिए लेकिन पूर्ण अधिकार एक साथ नहीं देने चाहिए बल्कि धीरे धीरे देने चाहिए । प्राप्त अधिकारों काक जब वह सदुपयोग करे तो और अधिकार देने चाहिए । वैस अधिकार देने ही नहीं पडते, बल्कि पत्नी की सह्दयता, सहनशीलता, प्रेम व क्षमा जैसे गुण अपने आप अधिकार प्राप्त कर लेते हैं । पत्नियों को सलाह दी जाती है - कभी भी अपने घर की बातें मायके में न बताएं, खासतौर पर छोटे मोटे झगडों की चर्चा न करें ।
कभी भी बिना आज्ञा के मायके न जाओ । जिद और दबाव के आधार वपर मायके जाना ठीक नहीं । पति को पसन्द नहीं होता । मायके में ज्यादा फोन करना या पत्र लिखना भी ठीक नहीं । पति से झूठ न बोलें । अपराध होने की स्थिति में धीरे धीरे समय स्थिति को देखकर अपराध का पश्चाताप कर लें । किन्तु कभी भी पति को मूर्ख न समझें । हो सकता है कि उसकी मूर्खता जो दिख रही है, वह मूर्खता न हो । पति में पूर्ण विश्वास रखें । पति की विचारधारा को ही अपनी विचारधारा समझें या अपनी विचारधारा को पति की विचारधारा बनाएं, लेकिन अपना राग, विचार न बनाएं, भ्रम पैदा होगा, पति को अच्छा नहीं लगता । पति पर संदेह न करें । किसी औरत से बात करने पर, रात देर से आने पर, सिनेमा न ले जाने पर, रिश्तेदारी में न जा सकने पर गुस्सा न करें । अपने प्रेम के बल पर अपना विश्वास दिखाएं । पति आपकी सभी बातें मान लेंगे । लेकिन रोबदार ाव्यवहार से बात न मनवाएं, बाद में नुकसान होने की सम्भावना है । पति की खिल्ली न उडाएं । उसकी गलतियों,कमियों,बुराइयों को दूर करने में पति को सहयोग दें या अनदेखा करें । पति के परिवारजनों की कदापि बुराई न करें और न ही दूसरों के सामने पति को डांटना शुरु कर दें । पति का उत्साह बढाएं । यदि वह हीनभावना से ग्रस्त है अथवा पीडित है तो दिलासा दें । असफलता पर पति का मनोबल गिराएं नहीं ।
पति को चाहे परमेश्वर न मानें, लेकिन इंसान तो मानें । मानवता के नाते मानवता निभाएं । पति गुस्से में है तो समझ लीजिए आपको अपने कान व मुंह बन्द रखना है, वरना झगडा बढने की सम्भावना है । पति के मित्रों के साथ ज्यादा घुलमिलकर बातें न करें कि अपनी सीमाएं भूलने लगें । कभी भी अपने हुनर,हुस्न और शौहरत का रोब न जमाएं । हां, अपनी हॉबी पर राय अवश्य लें । अपनी भावनाएं समय समय पर पति को बताती रहें । वही मांग करें जो पति की आय व बजट के मुताबिक हो । केवल देखा देखी में खरीददारी न करें । पति की फ्जिुलखर्ची को रोंकें और अपनी भी । ये कुछ सुझाव हैं जिन्हें अपनाकर एक पत्नी अपने पति का दिल जीत सकती है और
हां, मेरे विचार मार्डन लडकियों को पुराने लगें तो भी ऊपर लिखे विचारों को ध्यान में रखकर अपने विचार प्रकट करें । हर मार्डन लडकी कहती है सारे नियम पत्नी के लिए पति के लिए नहीं लेकिन मैं बताना चाहता हूं कि पति चाहकर भी पहल नहीं करता । शायद ईश्वर या समाज ने कुछ ऐसे नियम बना दिए हैं । यहां अंहकार की लडाई नहीं होनी चाहिए बल्कि जो पहल करता है वही जीतता या हारता है ।
कभी भी बिना आज्ञा के मायके न जाओ । जिद और दबाव के आधार वपर मायके जाना ठीक नहीं । पति को पसन्द नहीं होता । मायके में ज्यादा फोन करना या पत्र लिखना भी ठीक नहीं । पति से झूठ न बोलें । अपराध होने की स्थिति में धीरे धीरे समय स्थिति को देखकर अपराध का पश्चाताप कर लें । किन्तु कभी भी पति को मूर्ख न समझें । हो सकता है कि उसकी मूर्खता जो दिख रही है, वह मूर्खता न हो । पति में पूर्ण विश्वास रखें । पति की विचारधारा को ही अपनी विचारधारा समझें या अपनी विचारधारा को पति की विचारधारा बनाएं, लेकिन अपना राग, विचार न बनाएं, भ्रम पैदा होगा, पति को अच्छा नहीं लगता । पति पर संदेह न करें । किसी औरत से बात करने पर, रात देर से आने पर, सिनेमा न ले जाने पर, रिश्तेदारी में न जा सकने पर गुस्सा न करें । अपने प्रेम के बल पर अपना विश्वास दिखाएं । पति आपकी सभी बातें मान लेंगे । लेकिन रोबदार ाव्यवहार से बात न मनवाएं, बाद में नुकसान होने की सम्भावना है । पति की खिल्ली न उडाएं । उसकी गलतियों,कमियों,बुराइयों को दूर करने में पति को सहयोग दें या अनदेखा करें । पति के परिवारजनों की कदापि बुराई न करें और न ही दूसरों के सामने पति को डांटना शुरु कर दें । पति का उत्साह बढाएं । यदि वह हीनभावना से ग्रस्त है अथवा पीडित है तो दिलासा दें । असफलता पर पति का मनोबल गिराएं नहीं ।
पति को चाहे परमेश्वर न मानें, लेकिन इंसान तो मानें । मानवता के नाते मानवता निभाएं । पति गुस्से में है तो समझ लीजिए आपको अपने कान व मुंह बन्द रखना है, वरना झगडा बढने की सम्भावना है । पति के मित्रों के साथ ज्यादा घुलमिलकर बातें न करें कि अपनी सीमाएं भूलने लगें । कभी भी अपने हुनर,हुस्न और शौहरत का रोब न जमाएं । हां, अपनी हॉबी पर राय अवश्य लें । अपनी भावनाएं समय समय पर पति को बताती रहें । वही मांग करें जो पति की आय व बजट के मुताबिक हो । केवल देखा देखी में खरीददारी न करें । पति की फ्जिुलखर्ची को रोंकें और अपनी भी । ये कुछ सुझाव हैं जिन्हें अपनाकर एक पत्नी अपने पति का दिल जीत सकती है और
हां, मेरे विचार मार्डन लडकियों को पुराने लगें तो भी ऊपर लिखे विचारों को ध्यान में रखकर अपने विचार प्रकट करें । हर मार्डन लडकी कहती है सारे नियम पत्नी के लिए पति के लिए नहीं लेकिन मैं बताना चाहता हूं कि पति चाहकर भी पहल नहीं करता । शायद ईश्वर या समाज ने कुछ ऐसे नियम बना दिए हैं । यहां अंहकार की लडाई नहीं होनी चाहिए बल्कि जो पहल करता है वही जीतता या हारता है ।
Thursday, August 19, 2010
आप यदि किसी से प्रेम नहीं कर सकते तो उससे घृणा भी मत करना । हां, इगनोर कर देना, अनदेखा कर देना । उसकी उपेक्षा करना शुरु कर देना, दूसरा स्वयं समझ जाएगा कि उसने कहां गलती की है । लेकिन बदले की भावना या बदले की कार्यवाही करके सत्यानाश करनेवाली बात होगी । फ्रि यह मत सोचना कि मेरे जीवन में कोई कांटे उगा गया । खुद उगाताहै इंसन अपनी जिन्दगी में कांटे । कोई किसी की समस्या को हल नहीं कर सकता, आदमी अपनी समस्या स्वयं ही हल करता है । समस्यांए तो हर व्यक्ति के जीवन में आती हैं लेकिन दूसरा तो केवल समस्या को सुन सकता है और अपना सुझाव दे सकता है, वास्तविक हल तो आदमी खुद ही करता है । अगर कोई दूसरे के कहने पर वैसा ही करे तो इस संसार में इतनी अशांति न फैलती । उचित रास्ता यही है कि आदमी अपने बीच सम्पूर्णता का विकास करे । दूसरे को अपना सहयोगी माने, अपना अंग नहीं ।
चारों ओर अशांति और तनाव देखकर कई बार दिल बहुत ही दुखी हो जाता है । घर घर में तनाव, झगडे और परेशानी देखकर ऐसा लगता है कहीं ये तनाव हमें कहां ले जा रहा है । जीवन का सही अर्थों में क्या मायने हैं ? हर इंसान जैसे अपने आप से डरा हुआ है । मां बाप को चिन्ता रहती है कि मेरे बच्चे बिगड रहे हैं और देश् को चिन्ता है कि उसके नागरिक पथभ्रष्ट हो रह हैं । *****
एक जने की कमाई से घर के खर्च नहीं चल सकते । यदि घर के खर्च पूरे न हों तो सैंकडों झगडे और कलह के कारण बन जाते हैं । यदि आवश्यक साधन हों तो झगडे कम होते हैं । कम पैसों से जिन्दगी को ठीक से जीया नहीं जा सकता, सिर्फ खींचा जा सकता है, गुजारा किया जा सकता है । वैसे कोई यह नहीं चाहेगा कि उसकी पत्नी घर से बाहर जाकर नौकरी करे और परेशानियां उठाए । यदि दोनों मिलजुलकर काम करें तो सम्भव है कि जीवन की गाडी ठीकठाक चले । इस प्रकार बहुत से प्रश्न है जीवन में, जिनका सामना करना पडता है । बहुत उलझन होती है, तब पता चलता है कि आदमी में कितनी सहजता है । अच्छे दिनों में तो हर कोई सहजता, सहनशीलता की बातें कर सकता है । कई बार मन में आता है ये हमारे साधु संत जो उपदेश देते हैं, गृहस्थ जीवन जीकर, काम धंधा नौकरी करे उपदेश देवें तो जाने ?
चारों ओर अशांति और तनाव देखकर कई बार दिल बहुत ही दुखी हो जाता है । घर घर में तनाव, झगडे और परेशानी देखकर ऐसा लगता है कहीं ये तनाव हमें कहां ले जा रहा है । जीवन का सही अर्थों में क्या मायने हैं ? हर इंसान जैसे अपने आप से डरा हुआ है । मां बाप को चिन्ता रहती है कि मेरे बच्चे बिगड रहे हैं और देश् को चिन्ता है कि उसके नागरिक पथभ्रष्ट हो रह हैं । *****
एक जने की कमाई से घर के खर्च नहीं चल सकते । यदि घर के खर्च पूरे न हों तो सैंकडों झगडे और कलह के कारण बन जाते हैं । यदि आवश्यक साधन हों तो झगडे कम होते हैं । कम पैसों से जिन्दगी को ठीक से जीया नहीं जा सकता, सिर्फ खींचा जा सकता है, गुजारा किया जा सकता है । वैसे कोई यह नहीं चाहेगा कि उसकी पत्नी घर से बाहर जाकर नौकरी करे और परेशानियां उठाए । यदि दोनों मिलजुलकर काम करें तो सम्भव है कि जीवन की गाडी ठीकठाक चले । इस प्रकार बहुत से प्रश्न है जीवन में, जिनका सामना करना पडता है । बहुत उलझन होती है, तब पता चलता है कि आदमी में कितनी सहजता है । अच्छे दिनों में तो हर कोई सहजता, सहनशीलता की बातें कर सकता है । कई बार मन में आता है ये हमारे साधु संत जो उपदेश देते हैं, गृहस्थ जीवन जीकर, काम धंधा नौकरी करे उपदेश देवें तो जाने ?
कई सवाल है । कई बार तो सवालों का एक ऐसा भार आ पडता है कि उनको सुलझाते सुलझाते आदमी खुद उलझ जाता है । केवल साहसी व्यक्ति ही उलझने से बच सकते हैं । मैंने सुना है विवाह एक गाडी के रुप में है और पति पत्नी उस गाडी के दो पहिए हैं । दोनों का समान रोल है । दोनों का मजबूत होना जरुरी है । तभी ठीक से चल सकती है गृहस्थी की गाडी ।
विवाह के बाद लडकी की स्थिति कुछ बदल जाती है । उसे कुछ परम्पराओं और मर्यादा के बीच रहना पडता है । उसके कई जन्मसिद्ध अधिकार दब जाते हैं और वह अपने उन अधिकारों को पाने के लिए प्रेम का रास्ता अपना सकती है । यदि लडकर, झगडकर और ऊंची ऊंची बाते करके, तर्क देकर अपनी बात मनवाने की कोशिश की जाती है तो उसे कुछ नहीं मिलता । जो मिला हुआ था, वह भी खोने का भय है । हां, कंवेंस करके, अपने प्रभावशाली व्यक्तिव में विकास करके, कष्ट सहन करके, दूसरों के लिए त्याग करके विजय पायी जा सकती है । अब कोई युवती घर परिवार को छोडकर बाहर के लोगों में आदर, सेवाभाव दिखाती है तो उसका सम्मान नहीं किया जाता है । विवाह के बाद कई तरह की परम्पराएं है, समाज के सोचने का एक दायरा है । उसके अंतर्गत कुछ भी किया जा सकता है । कई बार अपने व्यक्त्वि को भी बदलना पडता है । यह स्थिति है हमारे समाज की । जब स्त्री विवाह के बाद दूसरे घर में आती है तो उसे नये घर के मुताबिक ढलना होता है और इसका अर्थ यह नहीं है कि वह एक गुलाम की सी स्थिति बना ले और अपने गुणों को, अपने व्यक्त्वि का नाश कर डाले । बल्कि सही समय का इंतजार करना चाहिए । प्रेम कर और सही समय का इंतजार, नये घर में आयी बहू को दो तीन साल नये माहौल में ढलने में लग जाते हैं, तभी वह अपने बीच अपनी मर्जी के परिवर्तन ला सकती है या अपनी पहचान बना सकती है ।
विवाह के बाद लडकी की स्थिति कुछ बदल जाती है । उसे कुछ परम्पराओं और मर्यादा के बीच रहना पडता है । उसके कई जन्मसिद्ध अधिकार दब जाते हैं और वह अपने उन अधिकारों को पाने के लिए प्रेम का रास्ता अपना सकती है । यदि लडकर, झगडकर और ऊंची ऊंची बाते करके, तर्क देकर अपनी बात मनवाने की कोशिश की जाती है तो उसे कुछ नहीं मिलता । जो मिला हुआ था, वह भी खोने का भय है । हां, कंवेंस करके, अपने प्रभावशाली व्यक्तिव में विकास करके, कष्ट सहन करके, दूसरों के लिए त्याग करके विजय पायी जा सकती है । अब कोई युवती घर परिवार को छोडकर बाहर के लोगों में आदर, सेवाभाव दिखाती है तो उसका सम्मान नहीं किया जाता है । विवाह के बाद कई तरह की परम्पराएं है, समाज के सोचने का एक दायरा है । उसके अंतर्गत कुछ भी किया जा सकता है । कई बार अपने व्यक्त्वि को भी बदलना पडता है । यह स्थिति है हमारे समाज की । जब स्त्री विवाह के बाद दूसरे घर में आती है तो उसे नये घर के मुताबिक ढलना होता है और इसका अर्थ यह नहीं है कि वह एक गुलाम की सी स्थिति बना ले और अपने गुणों को, अपने व्यक्त्वि का नाश कर डाले । बल्कि सही समय का इंतजार करना चाहिए । प्रेम कर और सही समय का इंतजार, नये घर में आयी बहू को दो तीन साल नये माहौल में ढलने में लग जाते हैं, तभी वह अपने बीच अपनी मर्जी के परिवर्तन ला सकती है या अपनी पहचान बना सकती है ।
Tuesday, August 10, 2010
देखा जाता है कि बहू नये घर में आते ही अपने को बंधन में महसूस करती है । उसे बार बार लगता है कि यह मेरा घर नहीं है । उसे अपने मां बाप का घर ही अपना घर लगता है । ऐसे में यदि नए घर में जब तक हंसी खुशी का माहौल रहता है, वह खुश रहती है और जब थोडा सा किसी गलती पर डांट दिया जाता है तो उसकी सहनशीलता का दिवाला निकल जाता है । वह गुस्से में आ जाती है और घर में बवाल खडा कर देती है । न ठीक से बात करना, न खाना पीना, न हंसना हंसाना, वह जैसे घर में अपनी प्रधानता स्थापित करना चाहती है । वह भूल जाती है कि मेरे मां बाप भी तो मुझे डांटते थे, इन्होंने डांट दिया तो क्या हुआ । मेरी नई बहू स्वीकार नहीं कर पाती । यहीं से शुरु होता है पारिवारिक झगडा । पत्नी छोटी छोटी बात को पति के सामने नमक मिर्च लगाकर करती है, पति पहले तो अनदेखा करता है और झगडों पर समझ के लिए प्रेरित करता है । यदि लडके ने मां बाप का पक्ष लिया तो कहानी और भी बिगड जाती है । तब बहू कहती है अत्याचार हो रहा है, मैं दहेज कम लायी, दहेज की मांग की जा रही है, ये मुझे मार डालेंगे । हजारो शिकायतें । वह बहू जब मायके जाती है तो खूब बढा चढाकर कर अपना छोटा सा दुख अपने मां बाप को लम्बा चौडा करके बताती है । लडकी के मां बाप भी अपनी बेटी को सिखाते पढाते हैं कि तुम्हें क्या करना चाहिए । यह बचकानापन है । तभी तो कहते हैं विवाह कोई गुडडे गुडडी का खेल नहीं है । एक जिम्मेवादी है । दो परिवारों की आपसी समझ या नासमझ का परिणाम भुगतना ही पडता है ।
इसलिए मेरा मानना है कि युवतियों को विवाह के लिए हां कहने से पहले यह सोच लेना चाहिए कि वह किसी दूसरे माहौल में जा रही है जहां अपने को एडजस्ट करना जरुरी है भले ही उसे अपनी मजबूरी मान ले । अपने व्यक्त्वि में कुछ ऐसे गुण लाने होंगे जो उसके अपने पक्ष में जाते हो । उसे नये माहौल में ढलना ही होता है । उसे नये घर की परम्पराओं को सहज स्वीकार करना ही होता है । ये है समाज के नियम, समाज की व्यवस्था, जो कटु हैं किन्तु सत्य हैं ।
इसलिए मेरा मानना है कि युवतियों को विवाह के लिए हां कहने से पहले यह सोच लेना चाहिए कि वह किसी दूसरे माहौल में जा रही है जहां अपने को एडजस्ट करना जरुरी है भले ही उसे अपनी मजबूरी मान ले । अपने व्यक्त्वि में कुछ ऐसे गुण लाने होंगे जो उसके अपने पक्ष में जाते हो । उसे नये माहौल में ढलना ही होता है । उसे नये घर की परम्पराओं को सहज स्वीकार करना ही होता है । ये है समाज के नियम, समाज की व्यवस्था, जो कटु हैं किन्तु सत्य हैं ।
स्त्री स्वयं ही अपनी शत्रु है । वह अपने को पूर्ण नहीं समझती है । वह पुरुष वर्ग के प्रति हमेशा सन्देह की नजर रखती है और बिना पुरुष के अपने को अधूरा समझती है । ऐतिहासिक नजर से देखाजाए तो पता चलता है कि पुरुष वर्ग ने स्त्री वर्ग को हमेशा दबाकर ही रखा है । उस पर हमेशा अत्याचार ही किए हैं । सती प्रथा, बाल विवाह, कन्या वध, विधवा का बंदिश भरा जीवन, पुरुषों का स्त्री को भोग की वस्तु समझना, दहेज प्रथा, वेश्यावृति और स्त्री की खरीद फरोत आदि हजारों तरीकों से दबाया गया । स्त्री की शिक्षा, आर्थिक साधन, समाज में स्थान, प्रगति के अवसर ऐसा कुछ भी नहीं किया गया जिससे स्त्री अपने प्रति न्याय कर सके । शायद यही कारण हैं कि आज भी स्त्री डरी हुई है । परदा प्रथा और बलात्कार जैसी बुराईयां भी स्त्रियों के बारे में हैं । लेकिन मजेदार बात तो यह है कि स्त्रियों की दशा गिराने में पुरुष वर्ग का हाथ है तो स्त्रियों को ऊंचा उठाने में भी पुरुषों का हाथ होता रहा है । अपने आप उठना उनके लिए कठिन रहा है । यही कारण है कि पुरुष ने हमेशा स्त्री की दुर्बलता का लाभ उठाया है । लेकिन स्त्री सिर्फ यही याद रखती है कि पुरुष ने नीचे गिराया लेकिन वह भूल जाती है कि पुरुष ही उसे ऊपर उठाता रहा है ।
फ्रि भी यह संसार चलताहै और चलता ही रहेगा । बिना स्त्री के पुरुष अधूरा है और बिना पुरुष के स्त्री । क्योंकि स्त्री और पुरुष का जन्म दोनों के संगम से ही होता है । दोनों के बीच की यह कशमकश चलती रहेगी । फ्रि भी स्त्री पुरुष के प्रति और पुरुष स्त्री के प्रति आसक्त ही रहेंगे । दोनों एक दूसरे से प्रेम भी करते हैं और नफरत भी । दूसरी बात, चारों ओर एक ऐसी राजनीति चल रही है जिस देखकर बहुत ही अचरज होता है । प्रत्येक परिवार में, समाज में और प्रत्येक देश में हर स्तर पर हर कोई एक दूसरे से राजनीति खेल रहा है । जो जितनी कुशलता से राजनीति खेलता है वह उतना ही कामयाब रहता है ।
फ्रि भी यह संसार चलताहै और चलता ही रहेगा । बिना स्त्री के पुरुष अधूरा है और बिना पुरुष के स्त्री । क्योंकि स्त्री और पुरुष का जन्म दोनों के संगम से ही होता है । दोनों के बीच की यह कशमकश चलती रहेगी । फ्रि भी स्त्री पुरुष के प्रति और पुरुष स्त्री के प्रति आसक्त ही रहेंगे । दोनों एक दूसरे से प्रेम भी करते हैं और नफरत भी । दूसरी बात, चारों ओर एक ऐसी राजनीति चल रही है जिस देखकर बहुत ही अचरज होता है । प्रत्येक परिवार में, समाज में और प्रत्येक देश में हर स्तर पर हर कोई एक दूसरे से राजनीति खेल रहा है । जो जितनी कुशलता से राजनीति खेलता है वह उतना ही कामयाब रहता है ।
Sunday, August 8, 2010
एक राज की बात बताऊं ? जब आपको लगे कि आप दूसरों की नजरों में असफल हो रहे हैं या दूसरों में प्रिय नहीं हो रहे हैं तो तैयार हो जाइए और कुशल कूटनीति से काम लेने की सोच लीजिए । दूसरों के हृदयों में एक सफल व्यक्त्वि की छाप छोडने के लिए पहला सूत्र है अपने को रिजर्व रखो और इतना ज्यादा रिजर्व रखो कि दूसरा आपसे मिलने के लिए लालायित हो उठे । दूसरा मीठी मीठी बातें कीजिए, उसकी तारीख कीजिए यानि झूनझूना दीजिए । जैसे किसी बच्चे को मनाने के लिए झूनझूना दिया जाता है । खुब तारीफ करें । सभी खुश । ----- तुम ठीक कह रहे हो । देखेंगे आपके घर परिवार, मित्र बंधु,अधिकारी, आपके ग्राहक, आपके साथी सभी खुश हैं । अपने व्यक्त्वि को बदल डालो और ढल जाओ समय के साथ । अपना सिर्फ अपने तक रखो । अपने दुखडे मत बताओं क्योंकि किसी के पास इतना समय नहीं है कि वह तुम्हारा दुखडा सुने । हां, दूसरों के दुखों में साहनुभूति दें और उत्साह बढाएं । आप जल्दी ही लोगों में प्रिय हो जाएंगे ।
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मै देखता हूं कि जीत उसी की होती है जो आरोप लगाता है । उसका पलडा भारी ही रहता है जो दूसरे पर आरोप लगाता रहे । तब दूसरे का पलडा हल्का हो जात है जो केवल सुनता रहता है । यदि मैं आरोप सुनता रहता हूं अपनी बुराईयों को सहता रहता हूं तो धीरे धीरे दूसरे के दिल में मेरे पेति एक असफल व्यक्त्वि की छवि सी हो जाएगी । आप कभी भी न मानें कि आपमें कोई कमी है । जो कमी है दूसरे में है । पत्नी पर जीत पानी है तो पत्नी को डांटते रहें, उसकी कमियां निकालते रहें और यदि आपने ऐसा नहीं किया तो आपकी पत्नी आपकी कमियां निकालती रहेगी और आपको डांटती रहेगी ।
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आप अपनी बातों के बल पर किसी को प्रेमपूर्ण नहीं बना सकते । यदि बना भी लिया तो वह स्थायी रुप में नहीं रहेगा । स्थायी रुप से प्रेमपूर्वक होना है तो स्वयं अपने बीच परिवर्तन लाना होगा । दूसरा मात्र तो साधन है, साध्य तो व्यक्ति स्वयं ही है । सारे संसार को बदलने से बेहतर है अपने को बदल लेना ।
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मै देखता हूं कि जीत उसी की होती है जो आरोप लगाता है । उसका पलडा भारी ही रहता है जो दूसरे पर आरोप लगाता रहे । तब दूसरे का पलडा हल्का हो जात है जो केवल सुनता रहता है । यदि मैं आरोप सुनता रहता हूं अपनी बुराईयों को सहता रहता हूं तो धीरे धीरे दूसरे के दिल में मेरे पेति एक असफल व्यक्त्वि की छवि सी हो जाएगी । आप कभी भी न मानें कि आपमें कोई कमी है । जो कमी है दूसरे में है । पत्नी पर जीत पानी है तो पत्नी को डांटते रहें, उसकी कमियां निकालते रहें और यदि आपने ऐसा नहीं किया तो आपकी पत्नी आपकी कमियां निकालती रहेगी और आपको डांटती रहेगी ।
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आप अपनी बातों के बल पर किसी को प्रेमपूर्ण नहीं बना सकते । यदि बना भी लिया तो वह स्थायी रुप में नहीं रहेगा । स्थायी रुप से प्रेमपूर्वक होना है तो स्वयं अपने बीच परिवर्तन लाना होगा । दूसरा मात्र तो साधन है, साध्य तो व्यक्ति स्वयं ही है । सारे संसार को बदलने से बेहतर है अपने को बदल लेना ।
जीवन में भी अजीब विडम्बनाएं हैं । थोडी थोडी देर बाद विचार बदलते रहते हैं, धारणाएं बदलती रहती हैं । कभी हम खुश हो जाते हैं और कभी उदास । जब खुश होते हैं तो जीवन को अच्छा मानते हैं और जब दुखी होते हैं तो हर चीज से नफरत करते हैं । देखनेवाली बात यह है कि यह सब हमारे भीतर से घटता है ।
हम जीवन की इस अजीब विडम्बना में खो जाते हैं । कभी परेशान होते हैं तो कभी खुश । कभी कभी जीवन में सब कुछ अच्छा लगता है और कभी कभी सब कुछ बेकार । ****
जीवन के अनुभवों में एक चीज बहुत ही महत्वपूर्ण देखी है और वह है विचारों का चलना । विचार इस तीव्र गकति से चलते रहते हैं कि उन विचारों को ध्यानपूर्वक देखने पर सही स्थिति का पता नहीं चलता । ज्यादातर विचार घिनौने,अव्यवहारिक,दुष्ट और भय से पीडित हैं । बहुत से ऐसे दुष्ट विचार हैं जो हम दूसरों के सामने पेश नहीं करते लेकिन अन्दर समाए रहते हैं । ऐसा भी नहीं है कि अन्दर सरल, सुन्दर व व्यावहारिक विचार न हों, हैं, रचनात्मक विचार भी होते हैं, लेकिन वे भीतर ही रहते हैं । कुछ विचार ऐसे भी हैं जो समय स्थिति के अनुसार अपना रुख बदलते रहते हैं । इंतजार करते हैं सही समय का । और इस सही समय की इंतजार में विचार और भी तीव्र गति से चलते हैं । किसी बात के लिए गुस्सा आ रहा हो तो अन्दर कई प्रकार के विचार उठेंगे । इससे पहले कि हम अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करें, यह जानना चाहेंगे कि गुस्सा क्यों आया ? साफ जाहिर हैै कि जरुर ऐसी कोई बात कह दी गई जिससे सुनने के लिए हम बिल्कुल तैयार नहीं थे ।जरुर कोई ऐसा कृत्य किया होगा जिसे सुनकर अथवा देखकर अन्दर अपेक्षाओं का महल कटूट रहा साबित हो रहा हो । अगर आप मुझे कहते हो – नहीं, मैं तुम्हें आज नहीं मिल सकूंगा । मुझे कहीं और जाना है । ऐसी स्थिति में मैंने सोचा होगा कि तुम मेरे कहने पर मेरे साथ जरुर चलोगे, मेरा कहा मानोगे और वास्तव में आपने चलने से इंकार कर दिया तो मेरे अन्दर एक प्रतिक्रिया होगी । मैं मन ममोसकर रख जाऊंगा । लेकिन ध्यान से देखें तो पता चलता है कि मेरे अन्दर उस समय आप के प्रति वह सरल और मधुर भावना नहीं रह जायेगी जो घटना से पूर्व थी ।
हम जीवन की इस अजीब विडम्बना में खो जाते हैं । कभी परेशान होते हैं तो कभी खुश । कभी कभी जीवन में सब कुछ अच्छा लगता है और कभी कभी सब कुछ बेकार । ****
जीवन के अनुभवों में एक चीज बहुत ही महत्वपूर्ण देखी है और वह है विचारों का चलना । विचार इस तीव्र गकति से चलते रहते हैं कि उन विचारों को ध्यानपूर्वक देखने पर सही स्थिति का पता नहीं चलता । ज्यादातर विचार घिनौने,अव्यवहारिक,दुष्ट और भय से पीडित हैं । बहुत से ऐसे दुष्ट विचार हैं जो हम दूसरों के सामने पेश नहीं करते लेकिन अन्दर समाए रहते हैं । ऐसा भी नहीं है कि अन्दर सरल, सुन्दर व व्यावहारिक विचार न हों, हैं, रचनात्मक विचार भी होते हैं, लेकिन वे भीतर ही रहते हैं । कुछ विचार ऐसे भी हैं जो समय स्थिति के अनुसार अपना रुख बदलते रहते हैं । इंतजार करते हैं सही समय का । और इस सही समय की इंतजार में विचार और भी तीव्र गति से चलते हैं । किसी बात के लिए गुस्सा आ रहा हो तो अन्दर कई प्रकार के विचार उठेंगे । इससे पहले कि हम अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करें, यह जानना चाहेंगे कि गुस्सा क्यों आया ? साफ जाहिर हैै कि जरुर ऐसी कोई बात कह दी गई जिससे सुनने के लिए हम बिल्कुल तैयार नहीं थे ।जरुर कोई ऐसा कृत्य किया होगा जिसे सुनकर अथवा देखकर अन्दर अपेक्षाओं का महल कटूट रहा साबित हो रहा हो । अगर आप मुझे कहते हो – नहीं, मैं तुम्हें आज नहीं मिल सकूंगा । मुझे कहीं और जाना है । ऐसी स्थिति में मैंने सोचा होगा कि तुम मेरे कहने पर मेरे साथ जरुर चलोगे, मेरा कहा मानोगे और वास्तव में आपने चलने से इंकार कर दिया तो मेरे अन्दर एक प्रतिक्रिया होगी । मैं मन ममोसकर रख जाऊंगा । लेकिन ध्यान से देखें तो पता चलता है कि मेरे अन्दर उस समय आप के प्रति वह सरल और मधुर भावना नहीं रह जायेगी जो घटना से पूर्व थी ।
मैंने हमेशा तर्क का विरोध किया है । तर्क के द्वारा तो किसी को भी हराया जा सकता है और किसी को भी जीत दिलायी जा सकती है । एक आदमी को लोग बुरा कहते हैं, तर्क के बल पर हम उसे गुणी सिदध कर सकते हैं । एक असंतोषी् परेशान्,तनावग्रस्त और असफल समझे जाने वाले व्यक्ति को तर्क के द्वारा एक आशा की किरण दी जा सकती है और घोषित किया जा सकता है । उनके आदर्शवाद को एक झूठ व अंहकार का रुप दिया जा सकता है । बार बार अपने अंहकार का सहारा लेनेवचालों को तोडने के लिए तर्कों से गिराना बहुत आसान है । ऐसा कौन सा व्यक्त्वि है जिसमें अच्छाई या बुराई नहीं देखी जा सकती ? विवाद के बाद भी पति पत्नी तर्कों के बल पर जीवन की गाडी चलाते देखे गये हैं । यदि पति का तर्क मजबूत हुआ तो वह अपने को ठीक और पत्नी को गलत साबित कर देता है और यदि पत्नी तेज हुई तो वह तर्कों का जाल बुनकर और पिछली घटनाओं को जोडकर अपना पक्ष मजबूत कर लेती है और पति के पक्ष को दबा देती है । तर्कों की कोई सीमा नहीं है । कोई मापदण्ड नहीं है । यदि एक अपनी प्रभावशाली बातों से, भाषणों से किसी को बेजुबान कर देता है तो तुम उसे कभी सच मत समझ लेना । हां, जो केवल तुम्हारे तर्कों को सुनता रहे तो उसे भी सच मत समझना । बस यही समझना कि इस वक्त उसका तर्क भारी है, और मेरा कमजोर या मेरा तर्क भारी है , उसका कमजोर । तर्कों से भी समस्या के हल हुए है आज तक ? शायद नहीं । हां, क्षणिक हल निकले हैं, लेकिन स्थायी हल नही निकल पाते । स्थायी हल तो निकल सकते हैं – मौन के स्वर में । मौन में ही अपने तथा दूसरे को सुना जा सकता है । अक्सर मुझसे पूछा जाता है तनाव से कैसे बचे ? मैं उन्हें कहता हूं क्यों तुम तनाव में जाते हो ? क्यों ऐसे कार्य करते हो जिससे तुम तनावग्रस्त होते हो । कोई किसी को तनावग्रस्त नहीं कर सकता । आदमी खुद जाता है तनाव में । दूसरे यह सच है कि व्यक्ति तनाव में जाना तो नहीं चाहता लेकिन भूलवश चला ही जाता है । तो इसका एक हल है वहां भी जाएं जहां एक शांति का अहसास होता है । अपने को मौन में, ध्यान में और रचनात्मक कार्यों में लगाएं । धीरे धीरे तनाव कम हो जाता है । कुछ लोग कहते है करने से क्या नहीं हो सकता । यदि आदमी चाहे तो वह सब कुछ कर सकता है जो उसकी क्षमताएं हैं । एक बात तो स्पष्ट है कि आदमी में क्षमताएं होते हुए भी वह सब कार्य नहीं कर पाता है जो वह करना चाहता है । हां, अपनी क्षमताओं का सही मायने में प्रयोग किया जाए तो काफी कुछ कर सकता है, चाहे वह सब कुछ नहीं भी कर सके ।
इंसान अपनी एक अपेक्षा पूरी न होने से ही अपना रुख बदलने लगता है । मजेदार बात तो यह है कि इस प्रतिक्रिया पर भी एक क्रिया फ्रि से होगकी । वह यह है कि अगर आपने उससे अगले दिन मेरी किन्हीं एक दो बातों को मान लिया वैसा ही किया जैसे मैंने सोचा था, अपेक्षा की थी तो मेरे अन्दर एक क्रिया होगी और मैं अब कल की तरह रुखा रुखा व कटा कटा सा पेश नहीं आऊंगा । इस घटना कामहत्व कम होता होता एक दिन खत्म भी हो जाएगा । अर्थात, यह उसी प्रकार है जैसे हमें कहीं चोट लग जाती है या बुखार हो जाता है तो हम दवाई लेते हैं और चोट अथवा बुखार समाप्त हो जाता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि हमारे कई ऐसे विचार है जो समय के अनुसार बदलते रहते हैं । ज्यादातर विचार तो दूसरों के विचारों और कार्यों के आधार पर ही बदलते हैं । कोई हमारे प्रति अच्छा व्यवहार करता है तो हम भी उसके प्रति अच्छा व्यवहार करने लगते हैं और कोई बुरा व्यवहार करता है तो हम भी बुरा व्यवहार करने लग जाते हैं । हां, इस बारे में कुछ अपवाद भी मिल सकते हैं लेकिन यह वाद प्रतिवाद की स्थिति ज्यादा देर तक नहीं रुकती है । एक दो बार चाहे न हो लेकिन इतना जरुर है कि जल्दी ही प्रतिक्रिया होगी । ठीक वैसे ही समझ सकते हैं कि पहले पानी गरम होता रहता है लेकिन जब 100 सेंटीग्रेड तक पहुंच जाता है तो तेजी से उबलना शुरु कर देता है । रहस्य की बात तो यह है कि मैंने बहुत ही करीब से देखा है कि लोगों का प्रेम भी विचारों के आधार पर चल रहा है । दो मित्रों का,दो भाईयों का, पति पत्नी का या और किसी का । अगर एक पक्ष दूसरे पक्ष के प्रति सम्मान की भावना रखता है तो दूसरा स्वयं ही सम्मान रखने की बजाए उत्तर में अपमान करता है तो सम्मान करने वाला और बहुत सी तारीफ करने वाला पक्ष बहुत ही तीव्र गति से उसका अपमान करना शुरु कर देता है जिसका थोडी देर पहले ही सम्मान कर रहा होता है । जैसे सम्मान नहीं हो, एक व्यापार हो, एक हाथ ले, एक हाथ दे । एक बात और देखी है । वह यह है कि ज्यादातर हम लोग ऊपर से कुछ विचार रखते हैं और भीतर कुछ और । वे विचार चाहे अपने प्रति हो या दूसरों के प्रति । दोहरे मापदण्ड के शिकार है हम लोग ।
इतना तो सच है कि हर व्यक्ति जीवन के किसी न किसी मोड पर भावुक हो जाता है । भले ही बाद में भावुकता पीडित करती है । भावुकता के क्षणों में नेगेटिव विचारों की दौड चलती रहती है । यह भावुकता ठीक नहीं । तो क्या भावुकता छोडकर कठोर हो जाए ? यदि भावुकता का विपरीत कठोरता नहीं तो क्या है ? मैंने सुना है ठोकर खाने पर ही पता चलता है कि चोट क्या है । जब तक व्यक्ति को स्वयं सही राह का ज्ञान न हो जाए, तब तक वह व्यक्ति राह पर आता ही नहीं है । यह विडम्बना ही है । कहा तो यह जाता है कि बडी उम्रवाले लोग समझदार होते हैं लेकिन देखा है कि यह तथ्य पूर्णत सत्य नहीं है । बडी उम्रवाले भी बेवकूफ हो सकते हैं । छोटी उम्रवाले समझदार भी होते हैं । किसी का मार्गदर्शन किया और वह यह सोचे कि दूसरा अपने जीवन में परिवर्तन ले आएगा, तो ऐसा सोचना भूल होगी । व्यक्ति तब तक परिवर्तन नहीं ला सकता जब तक कि व्यक्ति खुद बदलने की न सोचे । यदि कोई किसी के कहने समझाने मात्र से ही अपने को बदलने लगता तो आज संसार में चारों ओर जो अशांति व तनाव है, वह न होता । चारों ओर तोडफोड, मारकाट मची हुई है । क्या वे नहीं जानते कि विध्वंशात्मक कार्य हानिकारक है । कहते हैं जो होना है वह होता ही है । यदि मैं इस पर विश्वास करुं तो मुझे अपने पर ही दुख होगा । सब कुछ करने से नहीं होता है तो इतना भी सत्य है कि बहुत कुछ करने से होता है बशर्ते कि हमारे बीच हृदय परिवर्तन का भाव हो । ****
गांधी का पढा और गांधी की महानता देखकर द्रवित हो उठा । सत्याग्रह के विषय में दो लाइन लिखूंगा – सत्याग्रही को अपने ऊपर बडा संयम रखना चाहिए तथा विरोधी की किसी बात पर भी उत्तेजित नहीं होना चाहिए । उसे विरोधी द्वारा पहुंचाए गए आर्थिक नुकसान अथवा शारीरिक पीडा को सहन कर लेना चाहिए । यहां तक कि यदि मृत्यु का वरण करना पडे तो वह भी स्वीकार्य है । केवल आत्म सम्मान पर आघात को छोडकर उसे अन्य सभी प्रकार की हानि सहन करनी चाहिए जब तक कि आत्म पीडन के द्वारा वह विरोधी का हृदय परिवर्तन करने में सफल न हो जाए ।
गांधी का पढा और गांधी की महानता देखकर द्रवित हो उठा । सत्याग्रह के विषय में दो लाइन लिखूंगा – सत्याग्रही को अपने ऊपर बडा संयम रखना चाहिए तथा विरोधी की किसी बात पर भी उत्तेजित नहीं होना चाहिए । उसे विरोधी द्वारा पहुंचाए गए आर्थिक नुकसान अथवा शारीरिक पीडा को सहन कर लेना चाहिए । यहां तक कि यदि मृत्यु का वरण करना पडे तो वह भी स्वीकार्य है । केवल आत्म सम्मान पर आघात को छोडकर उसे अन्य सभी प्रकार की हानि सहन करनी चाहिए जब तक कि आत्म पीडन के द्वारा वह विरोधी का हृदय परिवर्तन करने में सफल न हो जाए ।
एक बार एक युवक इन्टव्यू देने जाता है तो उसके बुजुर्ग उसे समझा देते हैं – बेटे हमने भी अपनी जिन्दगी में बहुत से इन्टरव्यू दिये हैं, वहीं सवाल होते हैं । मैं अपने अनुभव से कुछ उत्तर बताता हूं । पहला सवाल पूछेंगे – तुम्हारी आयु कितनी है, तुम कहना 28 वर्ष, फ्रि पूछेंगे अनुभव कितना है, तुम कहना 10 वर्ष, फ्रि पूछेंगे तुम्हारा गांव किस जिले में है, तब तुम कहना इलाहाबाद । लडके का पहला इन्टरव्यू था । जीवन के क्षेत्र में पहला कदम था । अपने बुजुर्गों का अनुभव अपने पास रख लिया था । इन्टरव्यू हुआ – पहला प्रश्न पूछ लिया – कितना अनुभव है तुम्हें । रटा रटाया उत्तर था – 28 वर्ष । इंटरव्यू लेने वाला हैरान । पूछा – उम्र कितनी है ? उत्तर दिया – 10 वर्ष । प्रश्न किया अमेरिका की राजधानी का नाम बताओ । उत्तर मिला – इलाहाबाद । हमारे सभी उत्तर रेडिमेड हैं, तैयार हैं । चूंकि यह बात हमारे बडों ने बतायी थी इसलिए ठीक है, ऐसा सोचते हैं हम । हम भी अपने दिमाग से, विचार से, मौलिकता से काम नहीं लेते । हां, शुरु शुरु में कठिनाइयां आती हैं, गलतियां होती हैं लेकिन शीघ्र ही घबरा जाते हैं । अपने से भरोसा उठ जाता है । तुरन्त अपने बुजुर्गों के अनुभव ढूंढते हैं । अब पुराने अनुभव, कुछ तीर कुछ तुक्के, ठीक बैइ जाते हैं निशाने पर । यदि एक अंधा व्यक्ति अंधेरे में तीर चलाए तो सम्भव है कि कुछ निशाने पर लग जाएं । इसका यह अर्थ नहीं हो जाता कि दृष्टिहीन निशानेबाज है । अर्थ यह है कि समय बदला है, समय के साथ बदलना चाहिए । जो कल ठीक था जरुरी नहीं है कि आज ठीक हो । बदलते समय के साथ अपने को बदल लेना चाहिए । यदि आज कृष्ण भगवान होते तो शायद वे भी धोती की जगह जींस पहन रहे होते । जिसने अपने को समय के अनुसार नहीं बदला है, वे पीछे रह जाते हैं, असफल रह जाते हैं और जिन्होंने अपने को समय के साथ बदला है, वे आगे बढते हैं, सफलता पाते हैं ।
Saturday, August 7, 2010
जीवन के प्रति हमारी भी कैसी बेतूकी धारणाएं रहती हैं जिनका परिणाम भी हानिकारक सिदध होता है । हमारे सीखे सिखाए नियम, लोगों से सुनी सुनाई बातें, लोग जिन्हें अपना अनुभव कहते हैं, लोग जिन्हें अपना सम्मान कहते हैं, उन्हीं के बारे में हमारे भी वैसे ही विचार बन जाते हैं और हम कह उठते हैं कि हमें उनके अनुभव से सीखना चाहिए । हमें उनका सम्मान करना चाहिए तब हमें अपने प्रति एक सन्देह उत्पन्न होता है । हमारा जो विचार है, उसके प्रति अविश्वास उत्पन्न होने लगता है । जल्दी ही नए और पुराने के बीच टकराव होने लगता है । हम अपनी वर्तमान समस्या का समाधान बीते हुए समय के डिब्बे में से निकालने की कोशिश करते हैं । समस्या वर्तमान की है और समाधान भी वर्तमान के सन्दर्भ में निकालना चाहिए ।
मुझसे पूछा गया है कि मैं सिगरेट पीता हूं और मैं सिगरेट छोडना चाहता हूं । कैसे छूट सकती है सिगरेट ? कैसे छूट सकती है यह बुरी आदत ? मैंने जवाब दिया – तुम्हारी यह भूल है । तुम सिगरेट को बुरा मानते ही नहीं हो्, तुम सिगरेट छोडना ही नहीं चाहते । तुम सिगरेट को बुरा मानते ही नहीं हो । सिर्फ तुमने सिुना है कि सिगरेट बुरी है । यदि तुम्हें पता होता कि सिगरेट पीना बुरा है तो तुम सिगरेट कदापि नहीं पीते । उसी वक्त छोड देते । शायद तुम्हें अभी पता ही नहीं है कि सिगरेट पीना बुरा है । दरअसल लोग दूसरों से सुनसुनकर अपना विचार बना लेते हैं और धारणाओं में बंध जाते हैं । यह कैसे हो सकता है कि किसी बुरी आदत को न छोडा जा सके । जरा गौर करना और ध्यान देना । कब तुम सिगरेट की तलब महसूस करते हो, कब तुम्हारे कदम सिगरेट की दुकान की तरफ बढते हैं, कब तुम्हारी जेब से पैसे निकलते हैं, कब तुम दुकानदार से सिगरेट की मांग करते हो ? कब वह दुकानदार तुम्हें सिगरेट पकडाता है, कब तुम सिगरेट को मुंह पर लगाते हो और कब तुम सिगरेट जलाते हो । तब देखना अपने को सिगरेट पीते हुए । लम्बे लम्बे कश । धूंए के बादल उड रहे हैं और कहां जाकर लुप्त हो जाते हैं । सब ध्यानपूर्वक देखना । तब उन विचारों को भी साथ्ं साथ्ं देखते रहना कि कौन कहता है कि सिगरेट बुरी है और उसे भी देखना जो सिगरेट खरीदता है और अपने मंह में लगाकर पीता है । क्या यह सिगरेट पीने वाला और सिगरेट को बुरा कहने वाले दो व्यक्ति हैं ? एक सिगरेट पीता है और दूसरा सिगरेट का विरोध करता है । पता चलेगा कि यह दो भी तुम ही हो । इसका अर्थ यह हुआ कि तुम एक नहीं हो, एक से अधिक हो । जब इतना पता चल जाए कि तुम एक नहीं बल्कि एक से ज्यादा हो तब अपने से प्रश्न पूछना – वास्तविक कौन है, सिगरेट पीनेवाला या सिगरेट का विरोध करने वाला ? जब इसका ठीक ठीक से पता कर लो तभी आगे की सोचना । कितनी अजीब बात है कि व्यक्ति स्वयं ही सिगरेट अपने पैसो की खरीदता है और स्वयं ही कहता है कि मैं सिगरेट छोडना चाहता हूं । क्या किसी ने जबरदस्ती सिगरेट जगाकर मुंह में डाली थी ? नहीं, आदमी खुद ही सिगरेट खरीदता है और खुद ही सिगरेट की आदत से दुखी होता है । मेरा वक्तव्य सुनकर वह निरुत्तर हो गया । जब मैंने उसे निरुत्तर देखा तो बोलना शुरु किया – क्या क्रोध करते हो ? उत्तर मिला – हां । मैंने पूछा 3 क्या चाय पीते हो ? उत्तर मिला – हां । मैंने पूछा शराब पीते हो ? उत्तर मिला – हां । मैंने पूछा चिढचढापन, ईष्या,द्वेष,चालाकी,भय,झूठ,आलोचना क्या यह सब करते हो ? थोडा सोचकर – हां, कभी कभी ये सब भी होता है । मैंने कहा – क्या फर्क पडताहै अगर तुम सिगरेट पीते हो । क्या है सिगरेट ? धूंए का अन्दर बाहर आना जाना । बस और कुछ नहीं । प्रश्न आया – सिगरेट पीने से गला खराब हो जाता है । मैंने कहा – गला खराब होता है या खांसी आती है तो इलाज कराओ । दवाई लो । ठीक हो जाओगे । तुम समझते हो क्या सिगरेट न पीने से गला ठीक रहेगा ? खांसी न होगी ? नहीं । जो लोग सिगरेट नहीं पीते हैं,उनको भी खांसी होती है, उनका भी तो गला खराब होता है । लडकियों को देखो उनके गले हमेशा खराब रहते हैं । क्या वे सिगरेट पीती है ? तो हो सकता है कि तुम चाट पकोडे खाते होगे, गोलगप्पे, समोसे, मसाले, तली हुई चीजे, खटाईवाली चीजे खाते होगे, उनसे गला भी खराब हो सकता है, सिगरेट छोड भी दोगे तो गला उनसे खराब होने लगेगा । क्या फर्क पडता है तुम्हारे सिगरेट छोडने से । पीओ, शान से पीओ । तुम्हें जरुर कोई न कोई आनन्द मिलता होगा, चाहे क्षणिक ही, लेकिन मिलता तो है । और यदि तुम यह कहो कि इससे मेरी मौत हो सकती है तो मैं यही कहूंगा – मौत तो एक निश्चित नियम है । वह जब होनी है, होगी । ऐसे हजारो लाखों लोग है जो सिगरेट नहीं पीते हैं लेकिन मरते हैं । लडकियों और औरतों को देखो, क्या वे नहीं मरती ? विवेकानन्द 39 वर्ष की आयु में ही मर गये । सिगरेट शराब नहीं पीते थे । और ऐसे हजारो लोग हैं जो सिगरेट पीते हैं लेकिन सौ बरस तक जीते हैं । इसलिए चिन्ता मत करो । सिगरेट से मौत न होगी । और क्या फर्क पडता है अगर पांच दस साल कम जी लिए । जहां 80 वर्ष की आयु तक जीना था वहां 70 साल तक जी लोगे । और अगर तुम उससे पहले मर भी गये तो किसी को क्या फर्क पडता है । यह संसार तो तुम्हारे बिना भी चलता रहेगा । और क्या देखा है तुमने जीवन में ? क्या सुख है इस जीवन में ? जरा गहराई से सोचो । क्या सुखी हो ? क्या खुश जीवन जी रहे हो ? इस जीवन की सार्थकता क्या है ? जो जीवन आनन्द नहीं दे सकता, केवल नफरत और पीडा देता है, उससे इतना मोह क्यों ? जितना जीओ शान से जीओ । सिगरेट पीने का दिल हो तो पी लेना और जब न पीने का हो तो न पीना । जिस दिन छोडने का दिल चाहे उस दिन छोड देना । और अगर तुम यह कहो कि मेरे सिगरेट पीने से मेरी पत्नी को दुख होता है तो मैं तुम्हें यहीं कहूंगा अपनी पत्नी से कहो – यदि मैं सिगरेट छोड दूं तो क्या तुम्हारे दुख दूर हो जाएंगे ? कदापि नहीं । दुख हमेशा लगे रहते हैं । एक दुख कम भी हो जाएगा तो क्या फर्क पडता है । और भी बहुत से गम हैं जमाने में । जिसने दुखी होना है वह तुम्हें सिगरेट पीते हुए भी दुखी रहेगा और जिसने खुश होना है वह तुम्हें सिगरेट पीते हुए भी खुश रह सकता है ।
खैर ऊपर दिया गया विवरण एक व्यंग्य था उन लोगों पर जो बोलते कुछ है, सोचते कुछ है और करते कुछ और ही हैं ।
कोई भी आदत एक दिन में न बनती है और न ही एक दिन में छूटती है । यह एक प्रोसेस है जो लगातर अभ्यास मांगता है । छोटे छोटे संकल्प लेकर हम अपनी अच्छी या बुरी आदते बना सकते हैं । आवश्यकता है एक विश्वास की । बार बार प्रयास करने से ही अपने उददेश्य को पाया जा सकता है । गिरना उठना फ्रि गिरना और फ्रि उठना, यह सोच एक दिन अवश्य सफलता दिलाती है । हां, आटो सजेशन यानि अपने को जानना और ध्यान के मार्ग से भी अपने उउदेश्य की प्राप्ति की जा सकती है ।
खैर ऊपर दिया गया विवरण एक व्यंग्य था उन लोगों पर जो बोलते कुछ है, सोचते कुछ है और करते कुछ और ही हैं ।
कोई भी आदत एक दिन में न बनती है और न ही एक दिन में छूटती है । यह एक प्रोसेस है जो लगातर अभ्यास मांगता है । छोटे छोटे संकल्प लेकर हम अपनी अच्छी या बुरी आदते बना सकते हैं । आवश्यकता है एक विश्वास की । बार बार प्रयास करने से ही अपने उददेश्य को पाया जा सकता है । गिरना उठना फ्रि गिरना और फ्रि उठना, यह सोच एक दिन अवश्य सफलता दिलाती है । हां, आटो सजेशन यानि अपने को जानना और ध्यान के मार्ग से भी अपने उउदेश्य की प्राप्ति की जा सकती है ।
Friday, August 6, 2010
आग और पानी भी अपनी विशेषताए लिए हुए हैं । आग का सही इस्तेमाल किया तो लाभ ही लाभ । आग से रोटी बनती है, जिससे हमें जीवन मिलता है । आग की गरमाहट से सर्द शरीर को राहत मिलती है । लेकिन आग का दुरुपयोग किया तो हानि ही हानि । आग के प्रति असावधानी हमें जला देती है । हमारे जीवन को समाप्त करने की दक्षता रखती है ।
पानी की विशेषता भी अनोखी है । प्यासे के लिए पानी ही जीवन है । पानी का दुरुपयोग सर्वनाश है । बाढ की स्थिति में पानी जीवन को कष्ट देता है ।
करंट भी अपनी अनोखी विशेषताएं लिए हुए है । ठीक से उपयोग किया तो हजारों कार्यों में उपयोगी होता है । ऊर्जा का रचनात्मक पक्ष है । लेकिन करंट का गलत प्रयोग, करंट के प्रति असावधानी मौत का द्वार खोल देता है । इसी प्रकार जीवन की ऊर्जा के भी दो पक्ष हैं । लोग ऊपर से कुछ और विचार रखते हैं और भीतर से कुछ और । वह विचार चाहे अपने प्रति हो या किसी दूसरे के प्रति । ऐसे कई उदाहरण हैं जिन्हें जानकर हम कह सकते हैं कि हम दोहरे मापदण्ड के शिकार हो रहे हैं । वास्तव में ऊपर से कुछ और भीतर से कुछ होने का एक ही कारण है और वह है झूठी प्रतिष्ठा । साधु लोग तो कहतेू हैं कि यह मात्र झूठी प्रतिष्ठा है । लेकिन हम लोगों की समझ से यह बात दूर है । झूठी प्रतिष्ठा के
चक्कर में हम फंसते ही जा रहे हैं और यह फंसना और भी अच्छा लगता रहा है । हम इस प्रतिष्ठा को पाने के लिए ही झूठ बोलते हैं । इसे झूठ कह लो या दो विचार से चलना । बाहर कुछ और भीतर कुछ । यह भी देखा गया है कि व्यक्ति विशेष के लिए वैसा ही बनना पडता है । जैसे कोई दोस्त बहुत उम्मीद और उत्साह से हमारे पास आता है तो हम न चाहकर भी हंसते हैं, मुस्कराते हैं, बातें करते हैं, चाहे अन्दर से मन कितना ही इस सबके विपरीत हो । लेकिन झूठी प्रतिष्ठा के लिए करना पडता है यह सोचकर कि कही दोस्त को बुरा न लग जाए ।
हम लोग अपने बच्चे को एक खास स्कूल में दाखिल कराने के लिए एडी चोटी एक कर देते हैं । लेकिन दूसरी ओर स्कूल प्रशासन को गाली भी देते हैं । फीस के खर्च, पढाई लिखाई के खर्च और परेशानियों से भी घबराते हैं, लेकिन ऊपरी तौर पर स्कूल की तारीफ करना नहीं भूलते ।
****
हमें अपने सामाजिक जीवन में कई लोगों से मिलना होता है । हम देखते हैं कि कुछ लोगों के बातचीत करने का अंदाज इतना सुन्दर होता है कि शीघ्र ही वह दूसरों की निगाहों में छा जाते हैं । लेकिन साथ ही साथ हमारे हाव भाव ऐसे नहीं होने चाहिए जिससे दूसरे पर बुरा प्रभाव हो । बातचीत करते समय हमें इस बात का विशेष रुप से ध्यान रखना चाहिए । कई लोगों की बुरी आदत होती है कि वे बातें करते समय अपनी आंखों को कटका मटकाकर बात करेंगे । कई लोग अपने हाथों को बार बार ऊपर नीचे इस प्रकार घुमाते रहेंगे मानो बात जुबान से नहीं हाथों से हो रही हो । कई लोग दूसरों से बात करते समय या बात सुनते समय अपने पैरों को जमीन पर बजाते रहेंगे । यह सब अशोभनीय है । कई लोग बात को ध्यान से नहीं सुनते बल्कि अपनी धुन में गीत गुनगुनाते रहेंगे अथवा अपना ध्यान आसपास की चीजों को देखने में खो जाएंगे, जब उनका ध्यान हटाया जाए तो वे तुरन्त कह उठेंगे – हां, क्या कह रहे थे तुम ? इससे स्वाभाविक रुप से दूसरे पर बुरा असर होता है । हमें बातचीत करते समय अथवा बात सुनते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि कहीं हमारे हावभाव किसी को भददे तो नहीं लग रहे हैं ? बातचीत करते समय एकाएक जोर से अटठास लगाना, खुजली करते रहना, नाक में उगली देते रहना, अशोभनीय है ।
पानी की विशेषता भी अनोखी है । प्यासे के लिए पानी ही जीवन है । पानी का दुरुपयोग सर्वनाश है । बाढ की स्थिति में पानी जीवन को कष्ट देता है ।
करंट भी अपनी अनोखी विशेषताएं लिए हुए है । ठीक से उपयोग किया तो हजारों कार्यों में उपयोगी होता है । ऊर्जा का रचनात्मक पक्ष है । लेकिन करंट का गलत प्रयोग, करंट के प्रति असावधानी मौत का द्वार खोल देता है । इसी प्रकार जीवन की ऊर्जा के भी दो पक्ष हैं । लोग ऊपर से कुछ और विचार रखते हैं और भीतर से कुछ और । वह विचार चाहे अपने प्रति हो या किसी दूसरे के प्रति । ऐसे कई उदाहरण हैं जिन्हें जानकर हम कह सकते हैं कि हम दोहरे मापदण्ड के शिकार हो रहे हैं । वास्तव में ऊपर से कुछ और भीतर से कुछ होने का एक ही कारण है और वह है झूठी प्रतिष्ठा । साधु लोग तो कहतेू हैं कि यह मात्र झूठी प्रतिष्ठा है । लेकिन हम लोगों की समझ से यह बात दूर है । झूठी प्रतिष्ठा के
चक्कर में हम फंसते ही जा रहे हैं और यह फंसना और भी अच्छा लगता रहा है । हम इस प्रतिष्ठा को पाने के लिए ही झूठ बोलते हैं । इसे झूठ कह लो या दो विचार से चलना । बाहर कुछ और भीतर कुछ । यह भी देखा गया है कि व्यक्ति विशेष के लिए वैसा ही बनना पडता है । जैसे कोई दोस्त बहुत उम्मीद और उत्साह से हमारे पास आता है तो हम न चाहकर भी हंसते हैं, मुस्कराते हैं, बातें करते हैं, चाहे अन्दर से मन कितना ही इस सबके विपरीत हो । लेकिन झूठी प्रतिष्ठा के लिए करना पडता है यह सोचकर कि कही दोस्त को बुरा न लग जाए ।
हम लोग अपने बच्चे को एक खास स्कूल में दाखिल कराने के लिए एडी चोटी एक कर देते हैं । लेकिन दूसरी ओर स्कूल प्रशासन को गाली भी देते हैं । फीस के खर्च, पढाई लिखाई के खर्च और परेशानियों से भी घबराते हैं, लेकिन ऊपरी तौर पर स्कूल की तारीफ करना नहीं भूलते ।
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हमें अपने सामाजिक जीवन में कई लोगों से मिलना होता है । हम देखते हैं कि कुछ लोगों के बातचीत करने का अंदाज इतना सुन्दर होता है कि शीघ्र ही वह दूसरों की निगाहों में छा जाते हैं । लेकिन साथ ही साथ हमारे हाव भाव ऐसे नहीं होने चाहिए जिससे दूसरे पर बुरा प्रभाव हो । बातचीत करते समय हमें इस बात का विशेष रुप से ध्यान रखना चाहिए । कई लोगों की बुरी आदत होती है कि वे बातें करते समय अपनी आंखों को कटका मटकाकर बात करेंगे । कई लोग अपने हाथों को बार बार ऊपर नीचे इस प्रकार घुमाते रहेंगे मानो बात जुबान से नहीं हाथों से हो रही हो । कई लोग दूसरों से बात करते समय या बात सुनते समय अपने पैरों को जमीन पर बजाते रहेंगे । यह सब अशोभनीय है । कई लोग बात को ध्यान से नहीं सुनते बल्कि अपनी धुन में गीत गुनगुनाते रहेंगे अथवा अपना ध्यान आसपास की चीजों को देखने में खो जाएंगे, जब उनका ध्यान हटाया जाए तो वे तुरन्त कह उठेंगे – हां, क्या कह रहे थे तुम ? इससे स्वाभाविक रुप से दूसरे पर बुरा असर होता है । हमें बातचीत करते समय अथवा बात सुनते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि कहीं हमारे हावभाव किसी को भददे तो नहीं लग रहे हैं ? बातचीत करते समय एकाएक जोर से अटठास लगाना, खुजली करते रहना, नाक में उगली देते रहना, अशोभनीय है ।
Monday, August 2, 2010
जो तुम चाहते हो वह तुम हो जाते हो तुम कितना श्रम उसमें डालते हो वह तुम पर निर्भर है ध्यान के माध्यम से यह सब घट जाता है
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पति पत्नी के बीच मनमुटाव का एक कारण सेक्स की इच्छाओं को लेकर भी होता रहता है । पति यदि ज्यादा सेक्सी है और पत्नी कम तो भी पति का पत्नी से अंसतुष्ट होना देखा जाता है । इसी प्रकार यदि पत्नी ज्यादा सेक्सी है और पति कम तो भी मनमुटाव होता है । जीवन के लिए सेक्स बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा है । इसको यदि ठीक से नहीं समझा जाता है तो कई तरह की कठिनाईयां आ जाती हैं । यदि पति पत्नी आपस में सेक्स के मामले में एक समझ रखें तो झगडे कम ही होती हैं । अक्सर देखा गया है कि पति ज्यादा सेक्सी होता है, वह अपना प्रभाव जमाकर पत्नी से शारीरिक संबंध स्थापित करने का हमेशा इच्छुक रहता है, बिना इस बात को समझे कि पत्नी राजी भी है या नहीं । बहुत कम मामलों में ऐसा पाया जाता है जहां पति कम और पत्नी ज्यादा सेक्सी होती है ।यदि पति कम सेक्सी होता है तो पत्नी कभी भी संतुष्ट नहीं हो पाती । परोक्ष रुप से वह वैवाहिक जीवन को नरक समझ बैठती है । इसलिए दोनों को इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि सेक्स के मामले में उसके जीवन साथी का क्या विचार है । यदि एक कम सेक्सी है तो उसे अपने विचार तुरन्त प्रकट कर देने चाहिए । समय समय पर यदि दोनों एक दूसरे की भावनाओं को समझते रहेंगे तो मनमुटाव के कारणों पर काबू पाया जा सकता है । इस बारे में असफल होने पर जाने अनजाने दोनों के दिल दूसरे मामलों में भी ठीक से एक नहीं हो सकते । दोनों को यह समझना चाहिए कि अति हमेशा बुरी होती है और न्यूनता एक कमी । इसको रोटी के मामले में समझा जा सकता है । जैसे यदि कोई ज्यादा रोटी खाता है तो पेट दर्द होता है, नुकसान होता है और यदि रोटी न खायी जाए तो आदमी भूख से तडपता है । सेक्स के मामले में भी दम्पत्ति को मध्यम मार्ग अपनाकर चलना चाहिए ताकि जीवन में किसी प्रकार का मनमुटाव न हो ।
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मुझे शिकवा था तुमने प्यार नहीं किया स्नेह से भर न लिया मुझे दुख था तुमने पीडा दी नफरत की पुडिया दी लेकिन
अब कोई शिकवा नहीं कोई आरजू नहीं क्योंकि प्रेम दिया नहीं जा सकता स्नेह से भरा नहीं जा सकता कोई किसी को पीडा नहीं देता तडप और नफरत नहीं देता यह तो मन का भटकाव है जो दूसरों से अपेक्षा करता है भीख मांगता है भिखारी भी कहीं भीख देता है ?
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एक बात पति पत्नी को ध्यान में रखनी होगी कि दाम्पत्य जीवन में पति पत्नी के बीच छोटे मोटे झगडे होते ही रहते हैं । लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि उन दम्पत्ति में प्रेम नहीं होता । झगडे को विशाल रुप नहीं देना चाहिए । यह तो साफ बात है कि जिस के साथ तुम ज्यादा रहोगे, उससे विचार मतभेद तो होगा ही । मामला पति पत्नी के बीच हो या दो मित्रों के बीच । हम देखते हैं कि दो मित्र आपस में खूब हंसते गाते हैं तो लडते भी हैं । पति पत्नी भी जीवनभर साथ साथ हंसते गाते हैं तो झगडा भी करेंगे । इस बात को ध्यान से समझ लेना चाहिए । इसको स्वीकार भाव से अपनाना चाहिए । झगडा स्थायी नहीं होता है, आज है कल नहीं होगा । यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि छोटे मोटे झगडे हर पति पत्नी में होती हैं, तुम पति पत्नी के बीच ही नहीं हो रहे हैं । अपना आत्मबल एवं सहनशीलता नहीं खोनी चाहिए ।
व्यक्ति को इतना संवेदशील होना चाहिए कि वह दूसरों की भावनाओं को समझ सके । आग में हाथ डालने से हाथ जल जाता है, इसको केवल संवेदनशील होकर भी समझा जा सकता है, जरुरी नहीं है कि आग में हाथ डालकर ही पता लगाया जाए कि हाथ जल जाता है ।
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लो सुबह आ गई रात ढलने के बाद लो खुशियां आ गई दुखों के बाद एकमस्त घटा सी छा गई तो मैंने पूछा - कौन लाया इस प्रकाश को उत्तर मिला – तुम मैं सकपकाया कौन लाया था उस अंधेरे को उत्तर मिला – तुम ।
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पति पत्नी के बीच एकरुपता न होने का एक कारण बदली परिस्थितियों को स्वीकार करने में हिचकिचाहट भी है । यदि पति प्रभावशाली है और पत्नी कम प्रभावशाली हो तो दिल में एक धारणा समा जाती है कि अब ठीक है । पति की नैचर ही कुछ ऐसी होती है कि जिसमें पति चाहता है कि मेरा स्थान हमेशा ऊंचा रहे । बातचीत के मामले में, सम्मान के बारे में, निर्णय लेने के बारे में, धन कमाने के मामले में और सामाजिक परिस्थितियों में पहल मेरी हो, ऐसा पति सोचता है । विवाह के एक दो साल तक तो पति की लगभग सभी इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं । उसे पत्नी से ज्यादा सम्मान मिलता है और किसी मामले में निर्णय भी पति का ही माना जाता है । स्थिति तब बदल जाती है जब धीरे धीरे पत्नी भी अपने अधिकार मांगती है । पत्नी की महत्वाकांक्षा बढने लगती है और मामलू विशेष पर अपना प्रभाव दिखाने लगती है । यदि पति से ज्यादा पत्नी का सम्मान होने लगे और यदि पति से ज्यादा पत्नी कमाने लग जाए तो पति के अंहकार पर करारी चोट पहुंचती है । वह अपनी पत्नी से कटा कटा रहने लगता है । ऐसे में वह अपनी पत्नी का कभी भी उत्साह नहीं बढा पाता है, बल्कि निरुत्साहित करता है । परिणाम पत्नी नाराज होने लगती है । पत्नी को लगता है कि मेरा जीवन साथी मेरा सहयोगी नहीं है, बल्कि रुकावट पैदा करने वाला ईर्ष्यालू मानव है । पति भी परेशान रहता है । वह चाहकर भी अपने अंहकार को समझ नहीं पाता है । अपने मित्रों के बीच व्यंग्य का शिकार बनता है । अपने तनाव को वह अपनी पत्नी पर नाराज होकर प्रकट करता है । इस प्रकार पत्नी अपने पति की मनोस्थिति को समझकर भी नासमझी से काम लेती है । यदि ऐसी स्थिति में पत्नी अपनी सहनशीलता और प्रेम से अंतिम सांस तक काम में ले तो तनावपूर्ण स्थिति से दोनों बच सकते हैं । पति को भी चाहिए कि वह पत्नी का सम्मान करना सीखे और बजाए अंहकार में जलने के, उससे सीखने की भावना उत्पन्न करे और अपने जीवन में प्रगति करे । कई बार ऐसी स्थिति में पत्नी अपने पति पर तुनुकमिजाजी और द्वेष का आरोप लगा देती है । कोई भी पति बर्दाश्त नहीं करता कि उसकी पति ही उसको जला कटा सुनाए ।
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पति पत्नी के बीच मनमुटाव का एक कारण सेक्स की इच्छाओं को लेकर भी होता रहता है । पति यदि ज्यादा सेक्सी है और पत्नी कम तो भी पति का पत्नी से अंसतुष्ट होना देखा जाता है । इसी प्रकार यदि पत्नी ज्यादा सेक्सी है और पति कम तो भी मनमुटाव होता है । जीवन के लिए सेक्स बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा है । इसको यदि ठीक से नहीं समझा जाता है तो कई तरह की कठिनाईयां आ जाती हैं । यदि पति पत्नी आपस में सेक्स के मामले में एक समझ रखें तो झगडे कम ही होती हैं । अक्सर देखा गया है कि पति ज्यादा सेक्सी होता है, वह अपना प्रभाव जमाकर पत्नी से शारीरिक संबंध स्थापित करने का हमेशा इच्छुक रहता है, बिना इस बात को समझे कि पत्नी राजी भी है या नहीं । बहुत कम मामलों में ऐसा पाया जाता है जहां पति कम और पत्नी ज्यादा सेक्सी होती है ।यदि पति कम सेक्सी होता है तो पत्नी कभी भी संतुष्ट नहीं हो पाती । परोक्ष रुप से वह वैवाहिक जीवन को नरक समझ बैठती है । इसलिए दोनों को इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि सेक्स के मामले में उसके जीवन साथी का क्या विचार है । यदि एक कम सेक्सी है तो उसे अपने विचार तुरन्त प्रकट कर देने चाहिए । समय समय पर यदि दोनों एक दूसरे की भावनाओं को समझते रहेंगे तो मनमुटाव के कारणों पर काबू पाया जा सकता है । इस बारे में असफल होने पर जाने अनजाने दोनों के दिल दूसरे मामलों में भी ठीक से एक नहीं हो सकते । दोनों को यह समझना चाहिए कि अति हमेशा बुरी होती है और न्यूनता एक कमी । इसको रोटी के मामले में समझा जा सकता है । जैसे यदि कोई ज्यादा रोटी खाता है तो पेट दर्द होता है, नुकसान होता है और यदि रोटी न खायी जाए तो आदमी भूख से तडपता है । सेक्स के मामले में भी दम्पत्ति को मध्यम मार्ग अपनाकर चलना चाहिए ताकि जीवन में किसी प्रकार का मनमुटाव न हो ।
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मुझे शिकवा था तुमने प्यार नहीं किया स्नेह से भर न लिया मुझे दुख था तुमने पीडा दी नफरत की पुडिया दी लेकिन
अब कोई शिकवा नहीं कोई आरजू नहीं क्योंकि प्रेम दिया नहीं जा सकता स्नेह से भरा नहीं जा सकता कोई किसी को पीडा नहीं देता तडप और नफरत नहीं देता यह तो मन का भटकाव है जो दूसरों से अपेक्षा करता है भीख मांगता है भिखारी भी कहीं भीख देता है ?
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एक बात पति पत्नी को ध्यान में रखनी होगी कि दाम्पत्य जीवन में पति पत्नी के बीच छोटे मोटे झगडे होते ही रहते हैं । लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि उन दम्पत्ति में प्रेम नहीं होता । झगडे को विशाल रुप नहीं देना चाहिए । यह तो साफ बात है कि जिस के साथ तुम ज्यादा रहोगे, उससे विचार मतभेद तो होगा ही । मामला पति पत्नी के बीच हो या दो मित्रों के बीच । हम देखते हैं कि दो मित्र आपस में खूब हंसते गाते हैं तो लडते भी हैं । पति पत्नी भी जीवनभर साथ साथ हंसते गाते हैं तो झगडा भी करेंगे । इस बात को ध्यान से समझ लेना चाहिए । इसको स्वीकार भाव से अपनाना चाहिए । झगडा स्थायी नहीं होता है, आज है कल नहीं होगा । यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि छोटे मोटे झगडे हर पति पत्नी में होती हैं, तुम पति पत्नी के बीच ही नहीं हो रहे हैं । अपना आत्मबल एवं सहनशीलता नहीं खोनी चाहिए ।
व्यक्ति को इतना संवेदशील होना चाहिए कि वह दूसरों की भावनाओं को समझ सके । आग में हाथ डालने से हाथ जल जाता है, इसको केवल संवेदनशील होकर भी समझा जा सकता है, जरुरी नहीं है कि आग में हाथ डालकर ही पता लगाया जाए कि हाथ जल जाता है ।
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लो सुबह आ गई रात ढलने के बाद लो खुशियां आ गई दुखों के बाद एकमस्त घटा सी छा गई तो मैंने पूछा - कौन लाया इस प्रकाश को उत्तर मिला – तुम मैं सकपकाया कौन लाया था उस अंधेरे को उत्तर मिला – तुम ।
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पति पत्नी के बीच एकरुपता न होने का एक कारण बदली परिस्थितियों को स्वीकार करने में हिचकिचाहट भी है । यदि पति प्रभावशाली है और पत्नी कम प्रभावशाली हो तो दिल में एक धारणा समा जाती है कि अब ठीक है । पति की नैचर ही कुछ ऐसी होती है कि जिसमें पति चाहता है कि मेरा स्थान हमेशा ऊंचा रहे । बातचीत के मामले में, सम्मान के बारे में, निर्णय लेने के बारे में, धन कमाने के मामले में और सामाजिक परिस्थितियों में पहल मेरी हो, ऐसा पति सोचता है । विवाह के एक दो साल तक तो पति की लगभग सभी इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं । उसे पत्नी से ज्यादा सम्मान मिलता है और किसी मामले में निर्णय भी पति का ही माना जाता है । स्थिति तब बदल जाती है जब धीरे धीरे पत्नी भी अपने अधिकार मांगती है । पत्नी की महत्वाकांक्षा बढने लगती है और मामलू विशेष पर अपना प्रभाव दिखाने लगती है । यदि पति से ज्यादा पत्नी का सम्मान होने लगे और यदि पति से ज्यादा पत्नी कमाने लग जाए तो पति के अंहकार पर करारी चोट पहुंचती है । वह अपनी पत्नी से कटा कटा रहने लगता है । ऐसे में वह अपनी पत्नी का कभी भी उत्साह नहीं बढा पाता है, बल्कि निरुत्साहित करता है । परिणाम पत्नी नाराज होने लगती है । पत्नी को लगता है कि मेरा जीवन साथी मेरा सहयोगी नहीं है, बल्कि रुकावट पैदा करने वाला ईर्ष्यालू मानव है । पति भी परेशान रहता है । वह चाहकर भी अपने अंहकार को समझ नहीं पाता है । अपने मित्रों के बीच व्यंग्य का शिकार बनता है । अपने तनाव को वह अपनी पत्नी पर नाराज होकर प्रकट करता है । इस प्रकार पत्नी अपने पति की मनोस्थिति को समझकर भी नासमझी से काम लेती है । यदि ऐसी स्थिति में पत्नी अपनी सहनशीलता और प्रेम से अंतिम सांस तक काम में ले तो तनावपूर्ण स्थिति से दोनों बच सकते हैं । पति को भी चाहिए कि वह पत्नी का सम्मान करना सीखे और बजाए अंहकार में जलने के, उससे सीखने की भावना उत्पन्न करे और अपने जीवन में प्रगति करे । कई बार ऐसी स्थिति में पत्नी अपने पति पर तुनुकमिजाजी और द्वेष का आरोप लगा देती है । कोई भी पति बर्दाश्त नहीं करता कि उसकी पति ही उसको जला कटा सुनाए ।
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मैंने पढा है कि घर को चलाने में स्त्री का योगदान इतना महान है कि परिवार की गाडी को चलाने में उसकी भूमिका सर्वश्रेष्ठ है । यदि स्त्री सहनशीलता खो दे तो वह परिवार टूट जाता है । शायद ईश्वर ने उसे यह शक्ति दी है । पुरुष के बीच तो सहजता बहुत ही कम दिखती है । कुछ समय तक ही सहजता को सम्भाल पाता है । शायद आप भी मानते होंगे । घर का स्वामी यानि पति में सहजता इतनी नहीं होती कि वह परिस्थितियों का डट कर सामना कर सके । पति बाहर की समस्याओं का हल तो कर लेता है लेकिन घर की समस्याओं को वह ठीक से हल नहीं कर पाता है । यह जिम्मेदारी स्त्री ही अपने कंधों पर लेती है । लेकिन प्रश्न है कि कभी कभी वह स्त्री क्यों अपनी सहनशीलता खो देती है । सहनशीलता को ईश्वर का दिया हुआ महान गुण है । इससे विदा होना मात्र मूर्खता है, अपने धर्म से विमुख होना है । ****
मुलाकातें और बढते दिव्य स्वप्न एक अनोखा कौतूहल प्रस्तुत करते हैं । वायदे एक आश्वासन देते हैं और आश्वासन आशा का मंत्र । आशा पूर्ण होने पर सुख की अनुभूति होती है और अपूर्णता की दशा में दुख । यहीं से जीवन के दोनों रुपों को जाना और पहचाना जाता है ।
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----- उसमें साहस है और कुछ करने की कल्पना भरी भावना भी । वह निडर होकर चलती है और उसे आत्मविश्वास प्राप्त है । मैंने सुना है ऐसे आत्मविश्वासी लोग भले ही तकलीफ दें, परेशानी दें लेकिन विजय ऐसे लोगों की ही होती है । मैंने सुना है जिन्दगी जिदा दिली का नाम है, मुर्दा दिल क्या खाक जिया करते हैं । मूर्दा दिल समाज की नजरों में तो सफल हो सकते हैं लेकिन वास्तव में वे असफल होते हैं । जो जिन्दा दिल जीते हैं उन पर कई कठिनाईयां आती हैं । यह तो साफ है । ऐसे क्षणों में जरुरत है अपनी शक्तियों को बिखरने न दिया जाए और एकजुट होकर काम किया जाए । अपने उददेश्यों की प्राप्ति के लिए एक दूसरे में पूर्ण विश्वास रखा जाए ।
****
भावनाओं और प्रेम का उत्तर प्रेम ही तो होता है । कई बार लगता है क्या जीवन केवल प्रेम ही नहीं हो सकता ? जहां कोई नफरत का भाव न हो, कहीं कोई उत्पात न हो । हो सकता है । यह सम्भव है कि हम केवल प्रेम करें । यह तभी हो सकता है जब हम बुदिध के तल पर सोचना छोडें । यह हो सकता है यदि हम एक दूसरे के लिए जिएं । ईश्वर का साया उन्हीं लोगों पर छाया रहता है जो जीवन को प्रेम मानते हैं और सभी से प्रेमपूर्ण होते हैं । मैंने सुना है प्रेम में आदमी आदमी नहीं परम आत्मा हो जाता है ?
कई बार आपको लगता होगा कि आप जीवन के बारे में कुछ ज्यादा ही सोचते हैं । बातें तो करते हैं कि केवल आज के बारे में ही सोचो, भविष्य की सोच बेकार है, लेकिन आप देखते हैं कि कभी कभी आप ही भविष्य की कल्पनाओं में उलझ जाते हैं । यह कोई ठीक बात नहीं है । एक आधारभूत आत्मविश्वास की कमी है, यह उसका अप्रत्यक्ष रुप है । कभी कभी तो आपका आत्मविश्वास इतना डांवाडोल हो जाता होगा कि स्वयं ही आत्मविश्लेषण करने लगते होगे कि क्यों टूट जाता है मेरा विश्वास । कुछ करने की भावना, कुछ पाने की भावना आकर क्यों चली जाती है ? हां, एक बेसिक समझ की बात आपमें जरुर है, वह सभी में होती है । बस जरुरत है उसको समझने की । आपमें और मुझमें हर विषय पर विचार क्षमता रखते हैं ।
****
जीवन के कई रुप हैं और ज्यादातर बनावटी । कभी कभी ऐसे नकली, झूठे, दिखावटी और बनावटी रुप को देखकर बेहद अफसोस होता होगा और आप विरोध भी करते होंगे । लेकिन अपने बीच निराशा पाते ही ऐसे बनावटी समाज को स्वीकार करना मजबूरी बन जाती है । बेमन से । कभी कभी यह बनावटीपन अच्छा भी लगता है । सोचते होंगे यदि बनावटीपन में में आत्मसंतुष्टि मिले, खुद को भी और दूसरों को भी तो इसमें बुरा क्या है ? जैसे दुनिया जी रही है, वैसे ही हम जिए जाएं ? हमेशा भविष्य की सुरक्षा की कल्पना से भयभीत होकर ।
*****
कह दो जो कहना है सुना दो जो सुनाना है सुन लूंगा आज मैं तुम्हारी नजर की जुबा अगर कोई शिकवा है कोई शिकायत है तो आज कह दो सुन लूंगा तुम्हें मौन में
***
किसी का ठीक से पेश न आना, एकदम मौन हो जाना, किसी प्रियजन के आंसू हों या किसी दूसरे के दिल में एक पीडा उत्पन्न करने लगते हैं । हम विचलित हो उठते हैं ।
सिनेमा परदे पर मार्मिक सीन देकर आंसू निकल आते हैं । दूसरे का दर्द अपनी आंखों से देखकर अपना समझ लेते हैं । कोई उखडा उखडा सा पेश आता है तो विचलित हो उठते हैं हम । तनाव से ग्रस्त हो उठते हैं, दुख से भर जाते हैं । सब कुछ काटने को दौडता है । चारों ओर निराशा ही दिखती है । अपने को अकेला पाते हैं । प्रश्न उठता है – जीवन का मकसद क्या है ? शायद जीवन का मकसद ढूंढना ही जीवन का मकसद है ।
****
अपनी निज सरलता की भावना, त्याग की सोच जीत लेती है बाजी । प्रेम की राह में सब भूला दिया जाता है । देकर ही सब मिल जाता है । शब्द मिट जाते हैं, नजर की जुबा बोलती है ।
सोचता हूं कुछ सोचना है न सोचता हूं
न सोचा है पता नहीं क्या सोचना है एक पीडा है बिलखती तडपती यही सोच सोच कर सोचता हूं कुछ सोचना अर्थहीन है यही सोच सोचने को मजबूर करती है कहीं तुम गलत तो नहीं ?
मुलाकातें और बढते दिव्य स्वप्न एक अनोखा कौतूहल प्रस्तुत करते हैं । वायदे एक आश्वासन देते हैं और आश्वासन आशा का मंत्र । आशा पूर्ण होने पर सुख की अनुभूति होती है और अपूर्णता की दशा में दुख । यहीं से जीवन के दोनों रुपों को जाना और पहचाना जाता है ।
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----- उसमें साहस है और कुछ करने की कल्पना भरी भावना भी । वह निडर होकर चलती है और उसे आत्मविश्वास प्राप्त है । मैंने सुना है ऐसे आत्मविश्वासी लोग भले ही तकलीफ दें, परेशानी दें लेकिन विजय ऐसे लोगों की ही होती है । मैंने सुना है जिन्दगी जिदा दिली का नाम है, मुर्दा दिल क्या खाक जिया करते हैं । मूर्दा दिल समाज की नजरों में तो सफल हो सकते हैं लेकिन वास्तव में वे असफल होते हैं । जो जिन्दा दिल जीते हैं उन पर कई कठिनाईयां आती हैं । यह तो साफ है । ऐसे क्षणों में जरुरत है अपनी शक्तियों को बिखरने न दिया जाए और एकजुट होकर काम किया जाए । अपने उददेश्यों की प्राप्ति के लिए एक दूसरे में पूर्ण विश्वास रखा जाए ।
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भावनाओं और प्रेम का उत्तर प्रेम ही तो होता है । कई बार लगता है क्या जीवन केवल प्रेम ही नहीं हो सकता ? जहां कोई नफरत का भाव न हो, कहीं कोई उत्पात न हो । हो सकता है । यह सम्भव है कि हम केवल प्रेम करें । यह तभी हो सकता है जब हम बुदिध के तल पर सोचना छोडें । यह हो सकता है यदि हम एक दूसरे के लिए जिएं । ईश्वर का साया उन्हीं लोगों पर छाया रहता है जो जीवन को प्रेम मानते हैं और सभी से प्रेमपूर्ण होते हैं । मैंने सुना है प्रेम में आदमी आदमी नहीं परम आत्मा हो जाता है ?
कई बार आपको लगता होगा कि आप जीवन के बारे में कुछ ज्यादा ही सोचते हैं । बातें तो करते हैं कि केवल आज के बारे में ही सोचो, भविष्य की सोच बेकार है, लेकिन आप देखते हैं कि कभी कभी आप ही भविष्य की कल्पनाओं में उलझ जाते हैं । यह कोई ठीक बात नहीं है । एक आधारभूत आत्मविश्वास की कमी है, यह उसका अप्रत्यक्ष रुप है । कभी कभी तो आपका आत्मविश्वास इतना डांवाडोल हो जाता होगा कि स्वयं ही आत्मविश्लेषण करने लगते होगे कि क्यों टूट जाता है मेरा विश्वास । कुछ करने की भावना, कुछ पाने की भावना आकर क्यों चली जाती है ? हां, एक बेसिक समझ की बात आपमें जरुर है, वह सभी में होती है । बस जरुरत है उसको समझने की । आपमें और मुझमें हर विषय पर विचार क्षमता रखते हैं ।
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जीवन के कई रुप हैं और ज्यादातर बनावटी । कभी कभी ऐसे नकली, झूठे, दिखावटी और बनावटी रुप को देखकर बेहद अफसोस होता होगा और आप विरोध भी करते होंगे । लेकिन अपने बीच निराशा पाते ही ऐसे बनावटी समाज को स्वीकार करना मजबूरी बन जाती है । बेमन से । कभी कभी यह बनावटीपन अच्छा भी लगता है । सोचते होंगे यदि बनावटीपन में में आत्मसंतुष्टि मिले, खुद को भी और दूसरों को भी तो इसमें बुरा क्या है ? जैसे दुनिया जी रही है, वैसे ही हम जिए जाएं ? हमेशा भविष्य की सुरक्षा की कल्पना से भयभीत होकर ।
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कह दो जो कहना है सुना दो जो सुनाना है सुन लूंगा आज मैं तुम्हारी नजर की जुबा अगर कोई शिकवा है कोई शिकायत है तो आज कह दो सुन लूंगा तुम्हें मौन में
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किसी का ठीक से पेश न आना, एकदम मौन हो जाना, किसी प्रियजन के आंसू हों या किसी दूसरे के दिल में एक पीडा उत्पन्न करने लगते हैं । हम विचलित हो उठते हैं ।
सिनेमा परदे पर मार्मिक सीन देकर आंसू निकल आते हैं । दूसरे का दर्द अपनी आंखों से देखकर अपना समझ लेते हैं । कोई उखडा उखडा सा पेश आता है तो विचलित हो उठते हैं हम । तनाव से ग्रस्त हो उठते हैं, दुख से भर जाते हैं । सब कुछ काटने को दौडता है । चारों ओर निराशा ही दिखती है । अपने को अकेला पाते हैं । प्रश्न उठता है – जीवन का मकसद क्या है ? शायद जीवन का मकसद ढूंढना ही जीवन का मकसद है ।
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अपनी निज सरलता की भावना, त्याग की सोच जीत लेती है बाजी । प्रेम की राह में सब भूला दिया जाता है । देकर ही सब मिल जाता है । शब्द मिट जाते हैं, नजर की जुबा बोलती है ।
सोचता हूं कुछ सोचना है न सोचता हूं
न सोचा है पता नहीं क्या सोचना है एक पीडा है बिलखती तडपती यही सोच सोच कर सोचता हूं कुछ सोचना अर्थहीन है यही सोच सोचने को मजबूर करती है कहीं तुम गलत तो नहीं ?
क्या आप अपनी कमियां सुनकर दूसरों की प्रशसा या सम्मान करने का साहस रखते हैं ?
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प्रत्येक आदमी में अच्छे गुण और अच्छी भावना भी होती है । तभी तो जीवन में अच्छे पल बीतते हैं । बदलाव भी आता है । अच्छे पल बुरे पलों में बदलते हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि अब अच्छे पल आयेंगे ही नहीं ।
****
आप देखेंगे कि जब भी आप अपनी छोटी सी दुनिया में मस्त चाल से रहेंगे तो आपको किसी प्रकार की पीडा या दुख नहीं होगा । आप अपने बीच पूर्णता का अनुभव कर सकेंगे । लेकिन आपकी परेशानी तब अवश्य ही बढ जाती होगी जब आप संसार की दौड को देखकर भागने लगते हैं । तब आपको लगेगा मानो आप दौड में पीछे ही रह गये हैं । सफलता और सुखी जीवन के प्रयास तो सभी करते हैं, आप भी करते होंगे, लेकिन अंधी दौड ? आपकी दौड दो तरह की हो सकती है । एक, अच्छी से अच्छी नौकरी या काम धन्धा मिल जाए, ज्यादा से ज्यादा पैसे मिल जाएं । दूसरा, मेरा सम्मान हो, इज्जत हो अर्थात पैसा और शोहरत सभी को चाहिए । यह दौड अंतहीन है । कितना ही दौड लो, मंजिल नहीं है । तब प्रश्न उठता है जिस दौड की कोई मंजिल नहीं है, अंत नहीं है तब वह दौड क्यों ? क्यों अपने को कष्टों और दुखों में डाला जाता है ? और और ----- और ।
इसका यह अर्थ नहीं है कि आगे नहीं बढना चाहिए । जहां हो वहीं रुक जाओ । नहीं । अपनी गति से बढो, अपनी शक्ति के अनुसार बढो । जहां कोई थकावट या तनाव न हो । दूसरों को देखकर नहीं अपने को देखकर आगे बढो । यदि हम अपनी शक्तियों को पहचानने लग जाएं तो हमें जरा भी कष्ट नहीं होता ।
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तब आप बहुत खुश होते हैं जब लोग आपको चाहते हैं । आपको प्यार करते हैं । कमियां तो आपके बीच में भी हैं जिन्हें आप दूर करना चाहते हैं । यह कमियां तभी दूर होंगी जब आप अपने बीच गुणों को बढा लेंगे । दूसरों की रफतार तेज है, आपकी अपनी रफतार से । आप पीछे रह जाते हैं और अपने को बीमार समझने लगते हैं । दो ही बात है दूसरा तेज है या आप धीमा हैं । इसको ध्यान से देखना है ।
****
अक्सर आपने देखा होगा कि दूसरों के डायरी लिखने का अन्दाज निराशापूर्ण अथवा रहस्यपूर्ण होता है । डायरी में वे लागे समाज के प्रति अपना रोष प्रकट करते हैं और प्रेम की पूजा करते हैं । वास्तविकता की दुनिया से दूर, अपने भीतरी व्यक्त्वि से, एक कल्पना की दुनिया में खो जाने में उन्हें एक विशेष आनन्द का अहसास होता है । इसको ही वे डायरी लिखना समझते हैं । किन्तु वक्त के एक झोंके के साथ ही कल्पनाओं का महल टूटता है और पाते हैं चारों ओर सुनसान रेगिस्तान । अपने को अकेला महसूस करते हैं । कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो डायरी लिखने का अर्थ समझते हैं अपनी प्रेमिका या प्रेमी के साथ बीते क्षणों का व्याख्यान । अपने प्रियतम के बीच अंलकारों और उपमाओं का एक अन्तहीन सिलसिला । टूट जाता है यह सब पत्तों के महल की तरह । जिन्दगी की कुछ ऐसी वास्तविकताएं भी होती हैं जो डायरी के पन्नों में नहीं आती । कुछ ऐसे सवाल जिन पर समय पर विचार नहीं होता । तब, देर हो जाती है और डायरी के अंतिम पन्नों में दुखद यादों का एक धाराप्रवाह वर्णन शुरु हो जाता है ।
मैं समझता हूं डायरी लिखना मतलब अपने भावों को, विचारों को जैसा सोचा,समझा, जाना बस लिख डालो ।जब पीडा हो तब भी लिखो और जब खुशी हो तब भी लिखो, बिना सोचे समझे कि क्या लिखा जा रहा है । मेरा अपना विचार है कि वह अच्छा लेखक नहीं है जो सजाकर संवारकर लिखता है । बस,लिखा । लेखक का अर्थ है लिखनेवाला । बिना किसी पक्षपात के, बिना किसी धारणा के । पढनेवाला सिर्फ पढता रह जाए और पढता ही जाए ।
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कोई किसी को प्रभावित नहीं कर सकता । हां, एक रास्ता है – दबाव का । शक्ति से दूसरे को अपना प्रभाव दिखाएं । हो सकता है कि इस विधि से दूसरा अंधेरे में भटकने से रुक जाए लेकिन इससे दूसरे का व्यक्त्वि शून्य हो जाएगा । तब वह भयभीत हो जाता है । गलती तो कोई भी कर सकता है । हर कोई गलती करता है । तुम उसे सुधार नहीं सकते । वह खुद सुधरेगा । तुम्हें तो केवल सुन सकता है । तुम तो केवल संकेत मात्र हो सकते हो । दूसरा रुके या न रुके, यह उसका फैसला है । जब एक अंधेरे से भटक जाए तभी उसे प्रकाश का आभास होगा । तुम प्रकाश देना ।
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प्रत्येक आदमी में अच्छे गुण और अच्छी भावना भी होती है । तभी तो जीवन में अच्छे पल बीतते हैं । बदलाव भी आता है । अच्छे पल बुरे पलों में बदलते हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि अब अच्छे पल आयेंगे ही नहीं ।
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आप देखेंगे कि जब भी आप अपनी छोटी सी दुनिया में मस्त चाल से रहेंगे तो आपको किसी प्रकार की पीडा या दुख नहीं होगा । आप अपने बीच पूर्णता का अनुभव कर सकेंगे । लेकिन आपकी परेशानी तब अवश्य ही बढ जाती होगी जब आप संसार की दौड को देखकर भागने लगते हैं । तब आपको लगेगा मानो आप दौड में पीछे ही रह गये हैं । सफलता और सुखी जीवन के प्रयास तो सभी करते हैं, आप भी करते होंगे, लेकिन अंधी दौड ? आपकी दौड दो तरह की हो सकती है । एक, अच्छी से अच्छी नौकरी या काम धन्धा मिल जाए, ज्यादा से ज्यादा पैसे मिल जाएं । दूसरा, मेरा सम्मान हो, इज्जत हो अर्थात पैसा और शोहरत सभी को चाहिए । यह दौड अंतहीन है । कितना ही दौड लो, मंजिल नहीं है । तब प्रश्न उठता है जिस दौड की कोई मंजिल नहीं है, अंत नहीं है तब वह दौड क्यों ? क्यों अपने को कष्टों और दुखों में डाला जाता है ? और और ----- और ।
इसका यह अर्थ नहीं है कि आगे नहीं बढना चाहिए । जहां हो वहीं रुक जाओ । नहीं । अपनी गति से बढो, अपनी शक्ति के अनुसार बढो । जहां कोई थकावट या तनाव न हो । दूसरों को देखकर नहीं अपने को देखकर आगे बढो । यदि हम अपनी शक्तियों को पहचानने लग जाएं तो हमें जरा भी कष्ट नहीं होता ।
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तब आप बहुत खुश होते हैं जब लोग आपको चाहते हैं । आपको प्यार करते हैं । कमियां तो आपके बीच में भी हैं जिन्हें आप दूर करना चाहते हैं । यह कमियां तभी दूर होंगी जब आप अपने बीच गुणों को बढा लेंगे । दूसरों की रफतार तेज है, आपकी अपनी रफतार से । आप पीछे रह जाते हैं और अपने को बीमार समझने लगते हैं । दो ही बात है दूसरा तेज है या आप धीमा हैं । इसको ध्यान से देखना है ।
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अक्सर आपने देखा होगा कि दूसरों के डायरी लिखने का अन्दाज निराशापूर्ण अथवा रहस्यपूर्ण होता है । डायरी में वे लागे समाज के प्रति अपना रोष प्रकट करते हैं और प्रेम की पूजा करते हैं । वास्तविकता की दुनिया से दूर, अपने भीतरी व्यक्त्वि से, एक कल्पना की दुनिया में खो जाने में उन्हें एक विशेष आनन्द का अहसास होता है । इसको ही वे डायरी लिखना समझते हैं । किन्तु वक्त के एक झोंके के साथ ही कल्पनाओं का महल टूटता है और पाते हैं चारों ओर सुनसान रेगिस्तान । अपने को अकेला महसूस करते हैं । कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो डायरी लिखने का अर्थ समझते हैं अपनी प्रेमिका या प्रेमी के साथ बीते क्षणों का व्याख्यान । अपने प्रियतम के बीच अंलकारों और उपमाओं का एक अन्तहीन सिलसिला । टूट जाता है यह सब पत्तों के महल की तरह । जिन्दगी की कुछ ऐसी वास्तविकताएं भी होती हैं जो डायरी के पन्नों में नहीं आती । कुछ ऐसे सवाल जिन पर समय पर विचार नहीं होता । तब, देर हो जाती है और डायरी के अंतिम पन्नों में दुखद यादों का एक धाराप्रवाह वर्णन शुरु हो जाता है ।
मैं समझता हूं डायरी लिखना मतलब अपने भावों को, विचारों को जैसा सोचा,समझा, जाना बस लिख डालो ।जब पीडा हो तब भी लिखो और जब खुशी हो तब भी लिखो, बिना सोचे समझे कि क्या लिखा जा रहा है । मेरा अपना विचार है कि वह अच्छा लेखक नहीं है जो सजाकर संवारकर लिखता है । बस,लिखा । लेखक का अर्थ है लिखनेवाला । बिना किसी पक्षपात के, बिना किसी धारणा के । पढनेवाला सिर्फ पढता रह जाए और पढता ही जाए ।
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कोई किसी को प्रभावित नहीं कर सकता । हां, एक रास्ता है – दबाव का । शक्ति से दूसरे को अपना प्रभाव दिखाएं । हो सकता है कि इस विधि से दूसरा अंधेरे में भटकने से रुक जाए लेकिन इससे दूसरे का व्यक्त्वि शून्य हो जाएगा । तब वह भयभीत हो जाता है । गलती तो कोई भी कर सकता है । हर कोई गलती करता है । तुम उसे सुधार नहीं सकते । वह खुद सुधरेगा । तुम्हें तो केवल सुन सकता है । तुम तो केवल संकेत मात्र हो सकते हो । दूसरा रुके या न रुके, यह उसका फैसला है । जब एक अंधेरे से भटक जाए तभी उसे प्रकाश का आभास होगा । तुम प्रकाश देना ।
Saturday, July 31, 2010
मां अपने बेटे का विवाह बहुत चाह और खुशियों से करती है, यह जानकर भी कि मेरा बेटा अपनी पत्नी से प्रेम करेगा । यही कारण है कि मां बेटे के प्रेम में दूरी बढ जाती है । मां भूल जाती है कि यह प्रेम की धारा आगे बढेगी । लेकिन मां का सोचना है – बेटा विवाह के बाद बदल गया है । लेकिन स्वाभाविक प्रक्रिया को तो समझना होगा । अपनी निगाहें पीछे उठाकर देखेंगे तो पायेंगे कि हमारे पिता के समय भी यह सवाल उठा था । लेकिन मां की ममता इस सत्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं ।
****
स्वाभिमान क्या है ? इसको ठीक से समझने के लिए कोई निश्चित मापदण्ड तो है नहीं । स्वाभिमान का अर्थ कहीं हमारा परोक्ष अंहकार तो नहीं । मैं मानता हूं कि हर व्यक्ति में स्वाभिमान होता है, होना भी चाहिए, लेकिन एक बात जरुर है, स्वाभिमान केवल अपने तक सीमित होता है । वह दूसरे से जुडा हुआ नहीं होता । कोई हमारे स्वाभिमान को डिगा नहीं सकता । स्वाभिमान पर चोट तभी पडती है जब हमारा स्वाभिमान कमजोर होता है अथवा हम उसे चोट पहुंचाने वाले काम करने लगते हैं । मैं शराब नहीं पीता हूं, कोई कहे – शराब पीओ । मैं मना कर देता हूं । तब वह मुझे जबरदस्ती बलपूर्वक शराब पिलाता है । ऐसे में मेरे स्वाभिमान पर चोट पहुंचेगी । यदि मेरा स्वाभिमान कमजोर हुआ तो मैं उसके कहने पर शराब पीनेू लग जाऊंगा और यदि मैंने उसके बलपूर्वक कहने पर भी शराब नहीं पी तो समझ सकता हूं कि मेरा स्वाभिमान मजबूत है । हर व्यक्ति अपने बीच स्वाभिमान की भावना रखता है । अगर आपको कोई ऐसा काम कहा जाता है जो आपकी अंतर्रात्मा के विरुद्व है तो समझना कि आपके स्वाभिमान पर चोट की जा रही है । उसे बचाना है या नहीं, तुम पर निर्भर है । लेकिन यह मत सोचिए कि फलां फलां जगह मेरा इतना सम्मान होता है, अमुक अमुक बात होन पर मेरे स्वाभिमान पर चोट पहुंचती है ।
****
हर व्यक्ति के अन्दर छिपा है एक प्रभावशाली व्यक्त्वि । उसे निखारना चाहिए । अपने बीच एक योग्यता होनी चाहिए कि दूसरा आपकी बात को समझ सके । मात्र बुरा मानने से, नाराज होने से, नफरत करने से, नुकसान पहुंचाने से कुछ भी न होगा । बात करना तो सभी जानते हैं लेकिन किस समय कैसी बात करनी चाहिए, यह बहुत कम लोग जानते हैं । अपने व्यक्त्वि को वास्तविक रुप देना ही श्रेष्ठ है ।
****
लडकियों में ज्यादा सहनशीलता होती है । उनके चेहरे पर एक सादगी की लालट देखने को मिल जाती है जो लडके के चेहरे पर कम ही होती है । इसके अलावा लडकियां उन लडकों को ज्यादा पसन्द करती हैं जो बहुत ही सौम्य, शांत एवं आदरसूचक पेश आता हो । लडकियां नहीं चाहती कि लडकों में कोई उथल पुथल जैसी भावना हो, सरल और शिष्टाचार जैसे गुण रखनेवालों को ही महत्व देती हैं ।
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पिछले दिनों मैंने वैवाहिक जीवन एवं व्यक्ति की नैचर पर चर्चा की । मैंने पाया कि ज्यादातर लोग हताश हुए पडे हैं । चेहरे पर मुस्कराहट और अन्दर पीडा । सभी पीडित हैं इस दौड में । लेकिन दौड रहे है। मैंने पूछा – क्यों ? तो उनका कहना था – यह सब सोचने का समय ही कहां है । मैंने यह भी अनुभव किया है कि व्यक्ति के बीच समझ की कमी है । एक बार समझ का विकास होने गे तो जीवन में आनन्द आने लगता है ।
****
हर आदमी को पता चल जाता है कि उसके बीच क्या क्या कमजोरी है । यदि उन कमियों को दूर करने के लिए भरसक प्रयत्न किए जाएं तो सम्भव है कि जल्दी ही अच्छा समय आ जाए । अक्सर लोग विवाह के प्रति सशंकित रहते हैं कि विवाह के बाद क्लह होते हैं । पति पत्नी के विचारों में एकरुपता न होने की वजह से दोनों अपने अपने अधिकारों के लिए लडते ही रहते हैं और कर्तव्यों को भूल जाते हैं लेकिन यदि आपस में भरपूर प्रेम दिया जाए तो झगडों को मिटाया जा सकता है ।
****
हमारे मनोभाव भी अजीब हैं । हमेशा रंग बदलते रहते हैं । कभी अच्छे तो कभी बुरे । कई बार हम ऐसे ऐसे छपे विचार पढ लेते हैं जो वास्तविकता के धरातल पर सम्भव से प्रतीत नहीं होते । जो है उसे स्वीकार क्यों नहीं करता है व्यक्ति ? हर व्यक्ति में अवगुण हैं, इसको स्वीकार करना ही होगा ।अगर गुण की आशा रखकर स्वयं अवगुण की ओर बढ जाना है तो यह केवल पागलपन है । जिनमें आत्मविश्वास की कमी होती है, वे ही दिग्भ्रमित होते हैं । ऐसे में उसे भटकने से कोई नहीं बचा सकता । हां, केवल एक संकेत दिया जा सकता है, एक इशारा किया जा सकता है । रुको । आगे खतरा है । ऐसे में यदि बढनेवाला रुक जाए तो ठीक वरना वह अंधेरे में भटक ही जाएगा । कोई किसी को रोक नहीं सकता ।
****
कई बार हमारे बीच विचारों की आंधी चलने लगती है । कई बार हम अपने को बहुत अच्छा और सफल व्यक्त्वि समझने लगते हैं और कभी कभी इसके विपरीत । जैसे कोई गरीब सपने में बैठा बैठा अपने को राजा समझ बैठा हो और नींद खुलते ही पुन अपने को भिखारी समझ बैठा हो ।
****
हर व्यक्ति में कमियां हैं, आपमें में भी हैं, मुझमें में भी है लेकिन हम मानते नहीं हैं । अपने बीच कई कमियां हैं, लेकिन अंहकार है कि यह बात मानने को तैयार नहीं । यदि गहराई से विचार करेंगे तो पायेंगे आप उतने सफल और प्रसन्न नहीं हैं जिस हिसाब से आप समझते हैं ।
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स्वाभिमान क्या है ? इसको ठीक से समझने के लिए कोई निश्चित मापदण्ड तो है नहीं । स्वाभिमान का अर्थ कहीं हमारा परोक्ष अंहकार तो नहीं । मैं मानता हूं कि हर व्यक्ति में स्वाभिमान होता है, होना भी चाहिए, लेकिन एक बात जरुर है, स्वाभिमान केवल अपने तक सीमित होता है । वह दूसरे से जुडा हुआ नहीं होता । कोई हमारे स्वाभिमान को डिगा नहीं सकता । स्वाभिमान पर चोट तभी पडती है जब हमारा स्वाभिमान कमजोर होता है अथवा हम उसे चोट पहुंचाने वाले काम करने लगते हैं । मैं शराब नहीं पीता हूं, कोई कहे – शराब पीओ । मैं मना कर देता हूं । तब वह मुझे जबरदस्ती बलपूर्वक शराब पिलाता है । ऐसे में मेरे स्वाभिमान पर चोट पहुंचेगी । यदि मेरा स्वाभिमान कमजोर हुआ तो मैं उसके कहने पर शराब पीनेू लग जाऊंगा और यदि मैंने उसके बलपूर्वक कहने पर भी शराब नहीं पी तो समझ सकता हूं कि मेरा स्वाभिमान मजबूत है । हर व्यक्ति अपने बीच स्वाभिमान की भावना रखता है । अगर आपको कोई ऐसा काम कहा जाता है जो आपकी अंतर्रात्मा के विरुद्व है तो समझना कि आपके स्वाभिमान पर चोट की जा रही है । उसे बचाना है या नहीं, तुम पर निर्भर है । लेकिन यह मत सोचिए कि फलां फलां जगह मेरा इतना सम्मान होता है, अमुक अमुक बात होन पर मेरे स्वाभिमान पर चोट पहुंचती है ।
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हर व्यक्ति के अन्दर छिपा है एक प्रभावशाली व्यक्त्वि । उसे निखारना चाहिए । अपने बीच एक योग्यता होनी चाहिए कि दूसरा आपकी बात को समझ सके । मात्र बुरा मानने से, नाराज होने से, नफरत करने से, नुकसान पहुंचाने से कुछ भी न होगा । बात करना तो सभी जानते हैं लेकिन किस समय कैसी बात करनी चाहिए, यह बहुत कम लोग जानते हैं । अपने व्यक्त्वि को वास्तविक रुप देना ही श्रेष्ठ है ।
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लडकियों में ज्यादा सहनशीलता होती है । उनके चेहरे पर एक सादगी की लालट देखने को मिल जाती है जो लडके के चेहरे पर कम ही होती है । इसके अलावा लडकियां उन लडकों को ज्यादा पसन्द करती हैं जो बहुत ही सौम्य, शांत एवं आदरसूचक पेश आता हो । लडकियां नहीं चाहती कि लडकों में कोई उथल पुथल जैसी भावना हो, सरल और शिष्टाचार जैसे गुण रखनेवालों को ही महत्व देती हैं ।
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पिछले दिनों मैंने वैवाहिक जीवन एवं व्यक्ति की नैचर पर चर्चा की । मैंने पाया कि ज्यादातर लोग हताश हुए पडे हैं । चेहरे पर मुस्कराहट और अन्दर पीडा । सभी पीडित हैं इस दौड में । लेकिन दौड रहे है। मैंने पूछा – क्यों ? तो उनका कहना था – यह सब सोचने का समय ही कहां है । मैंने यह भी अनुभव किया है कि व्यक्ति के बीच समझ की कमी है । एक बार समझ का विकास होने गे तो जीवन में आनन्द आने लगता है ।
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हर आदमी को पता चल जाता है कि उसके बीच क्या क्या कमजोरी है । यदि उन कमियों को दूर करने के लिए भरसक प्रयत्न किए जाएं तो सम्भव है कि जल्दी ही अच्छा समय आ जाए । अक्सर लोग विवाह के प्रति सशंकित रहते हैं कि विवाह के बाद क्लह होते हैं । पति पत्नी के विचारों में एकरुपता न होने की वजह से दोनों अपने अपने अधिकारों के लिए लडते ही रहते हैं और कर्तव्यों को भूल जाते हैं लेकिन यदि आपस में भरपूर प्रेम दिया जाए तो झगडों को मिटाया जा सकता है ।
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हमारे मनोभाव भी अजीब हैं । हमेशा रंग बदलते रहते हैं । कभी अच्छे तो कभी बुरे । कई बार हम ऐसे ऐसे छपे विचार पढ लेते हैं जो वास्तविकता के धरातल पर सम्भव से प्रतीत नहीं होते । जो है उसे स्वीकार क्यों नहीं करता है व्यक्ति ? हर व्यक्ति में अवगुण हैं, इसको स्वीकार करना ही होगा ।अगर गुण की आशा रखकर स्वयं अवगुण की ओर बढ जाना है तो यह केवल पागलपन है । जिनमें आत्मविश्वास की कमी होती है, वे ही दिग्भ्रमित होते हैं । ऐसे में उसे भटकने से कोई नहीं बचा सकता । हां, केवल एक संकेत दिया जा सकता है, एक इशारा किया जा सकता है । रुको । आगे खतरा है । ऐसे में यदि बढनेवाला रुक जाए तो ठीक वरना वह अंधेरे में भटक ही जाएगा । कोई किसी को रोक नहीं सकता ।
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कई बार हमारे बीच विचारों की आंधी चलने लगती है । कई बार हम अपने को बहुत अच्छा और सफल व्यक्त्वि समझने लगते हैं और कभी कभी इसके विपरीत । जैसे कोई गरीब सपने में बैठा बैठा अपने को राजा समझ बैठा हो और नींद खुलते ही पुन अपने को भिखारी समझ बैठा हो ।
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हर व्यक्ति में कमियां हैं, आपमें में भी हैं, मुझमें में भी है लेकिन हम मानते नहीं हैं । अपने बीच कई कमियां हैं, लेकिन अंहकार है कि यह बात मानने को तैयार नहीं । यदि गहराई से विचार करेंगे तो पायेंगे आप उतने सफल और प्रसन्न नहीं हैं जिस हिसाब से आप समझते हैं ।
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Sunday, July 25, 2010
विवाह से एक दिन पूर्व यौन संबंध सामाजिक अपराध है । एक अनैतिकता । विवाह के एक दिन बाद यौन संबंध सामाजिक अपराध नहीं है, अनैतिकता नहीं है । अर्थात व्यक्ति की बाहरी जिन्दगी समाज के तथाकथित नियमों के अनुसार चलती है । मानसिक और अन्दरुनी जीवन भी समाज के असूलों के अनुरुप होता ही सत्य है ।
हम चाहे कितना ही आधुंनिक बनने का दावा कर लें, कितना ही विदेशी पहनावा, संगीत व साहित्य को अपना लें, लेकिन हमारे अन्दर रुढिवादिता का कुरुप पुरुष छिपा रहता है । आधुनिकता और प्राचीनता का ऐसा रुप है, हम जिसे मध्य भी नहीं कह सकते ।
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जीवन से हास्य रस तो मानो खत्म ही हो गया है । चारों ओर उदास व नीरस चेहरे जब भी हंसने को जी चाहा, लेकिन चारों ओर वीरान चेहरे देखकर लगा – कहीं कुछ गलत तो नहीं करने जा रहे ?
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दो जनों की अंडरस्टेंडिंग पर निर्भर करता है कि स्थिति सामान्य हो । तू मेरी मान, मैं तेरी – झगडा खत्म । तू गलत, मैं ठीक –झगडा शुरु । देने पर ही मिलता है । सही रास्ता क्या है ? बार बार असफलता मिलती है तो निराशा आती है । शायद जो असफलता देखी, वह सही रास्ता नहीं था । अभी और प्रयास करने होंगे । इतना तो पता चल गया – जो देखा, असफलता के रुप में, वह सही रास्ता नहीं था ।
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मैं तुम्हारे दुख में शामिल तो हो सकता हूं । दवाई लाने पर दवाई ला सकता हूं, सेवा करने पर सेवा कर सकता हूं, लेकिन तुम दुखी होवोगे तो मैं दुखी नहीं हो पाऊंगा ।
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जीवन में बनाए गए सारे रिश्ते नाते एक अस्थाई समझौता है । एक हाथ ले, एक हाथ दे । इससे ज्यादा कुछ नहीं । जो अपना होने का दावा करते हैं, चतुर व्यापारी हो सकते हैं ।
कई बार तो सचमुच लता है कि मानो जीवन एक पहेली र्है । एक अनबूझ पहली । चारों ओर बनावटीपन । तनाव । जितना सुलझाने का प्रयास उतनी ही ज्यादा अनबुझ । विचारों की भाग दौड । उठक पठक है । मैं । तू । वो । अंहकार । आकांक्षा के पहाड । जैसे पहाड टूट पडा हो । गहराईयां और ज्यादा गहराईयां । स्टाप । गेट आउट । चले जाओ सब । मुझे अकेला छोड दो । ओफ । हम डायरी लिखते हैं, लेकिन डरते भी हैं । अपने मनोभावों को स्पष्ट और सत्य नहीं लिखते हैं । सोचते हैं हमारे मनोभावों को अपनों ने देख लिया तो ? वे नाराज न हो जाएं । सच की बात लिखना आसान नहीं । सच कडवा होता है ।सच की परछाईयां ही प्रकट होती हैं । अर्द्वसत्य भी नहीं । सत्य अन्दर ही अन्दर तडपता रहता है ।
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कई बार ऐसी बातें की जाती हैं कि मुझे झूठी शान, झूठी प्रतिष्ठा से कोई लगाव नहीं । मैं सादापन पसन्द हूं । लेकिन जब वास्तविकता के धरातल पर देखते हैं तो पाते हैं कि एक बार तो सादापन देखकर मस्तिष्क झन्ना उठता है । सादापन ऐसा लगता है मानो हमारी कोई इज्जत नहीं है । हम महसूस करते हैं जैसे यह कहीं हमारा अपमान तो नहीं । हो सकता है इस यात्रा के शुरु शुरु में ऐसा होता हो ।
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मां बाप अपने बच्चे को बिल्कुल स्वतंत्रता नहीं देना चाहते । पहले वह अपने बच्चे पर अधिकारपूर्ण व्यवहार करते हैं । अपनी बात को, अपने विचारों को बच्चों पर लादा जाता है । बच्चा विरोध करता है । तब, मां बाप बच्चे के प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार करने लगते हैं । बच्चा अपनी स्वतंत्रता चाहता है । मां बाप बच्चे को स्वतंत्रता देने की बजाए स्वच्छंदता की ओर धकेल देते हैं, मानो बच्चे से कोई संबंध ही न हो । बच्चा अपने विचारों की अभिव्यक्ति चाहता है । अपना जीवन खुद जीना चाहता है लेकिन मां बाप का व्यवहार बच्चों के प्रति दबावपूर्ण अथवा उपेक्षापूर्ण रहता है । यहीं कारण है कि बच्चा मां बाप के प्रति पूर्णत प्रेमपूर्ण नहीं हो पाता ।
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हम चाहे कितना ही आधुंनिक बनने का दावा कर लें, कितना ही विदेशी पहनावा, संगीत व साहित्य को अपना लें, लेकिन हमारे अन्दर रुढिवादिता का कुरुप पुरुष छिपा रहता है । आधुनिकता और प्राचीनता का ऐसा रुप है, हम जिसे मध्य भी नहीं कह सकते ।
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जीवन से हास्य रस तो मानो खत्म ही हो गया है । चारों ओर उदास व नीरस चेहरे जब भी हंसने को जी चाहा, लेकिन चारों ओर वीरान चेहरे देखकर लगा – कहीं कुछ गलत तो नहीं करने जा रहे ?
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दो जनों की अंडरस्टेंडिंग पर निर्भर करता है कि स्थिति सामान्य हो । तू मेरी मान, मैं तेरी – झगडा खत्म । तू गलत, मैं ठीक –झगडा शुरु । देने पर ही मिलता है । सही रास्ता क्या है ? बार बार असफलता मिलती है तो निराशा आती है । शायद जो असफलता देखी, वह सही रास्ता नहीं था । अभी और प्रयास करने होंगे । इतना तो पता चल गया – जो देखा, असफलता के रुप में, वह सही रास्ता नहीं था ।
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मैं तुम्हारे दुख में शामिल तो हो सकता हूं । दवाई लाने पर दवाई ला सकता हूं, सेवा करने पर सेवा कर सकता हूं, लेकिन तुम दुखी होवोगे तो मैं दुखी नहीं हो पाऊंगा ।
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जीवन में बनाए गए सारे रिश्ते नाते एक अस्थाई समझौता है । एक हाथ ले, एक हाथ दे । इससे ज्यादा कुछ नहीं । जो अपना होने का दावा करते हैं, चतुर व्यापारी हो सकते हैं ।
कई बार तो सचमुच लता है कि मानो जीवन एक पहेली र्है । एक अनबूझ पहली । चारों ओर बनावटीपन । तनाव । जितना सुलझाने का प्रयास उतनी ही ज्यादा अनबुझ । विचारों की भाग दौड । उठक पठक है । मैं । तू । वो । अंहकार । आकांक्षा के पहाड । जैसे पहाड टूट पडा हो । गहराईयां और ज्यादा गहराईयां । स्टाप । गेट आउट । चले जाओ सब । मुझे अकेला छोड दो । ओफ । हम डायरी लिखते हैं, लेकिन डरते भी हैं । अपने मनोभावों को स्पष्ट और सत्य नहीं लिखते हैं । सोचते हैं हमारे मनोभावों को अपनों ने देख लिया तो ? वे नाराज न हो जाएं । सच की बात लिखना आसान नहीं । सच कडवा होता है ।सच की परछाईयां ही प्रकट होती हैं । अर्द्वसत्य भी नहीं । सत्य अन्दर ही अन्दर तडपता रहता है ।
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कई बार ऐसी बातें की जाती हैं कि मुझे झूठी शान, झूठी प्रतिष्ठा से कोई लगाव नहीं । मैं सादापन पसन्द हूं । लेकिन जब वास्तविकता के धरातल पर देखते हैं तो पाते हैं कि एक बार तो सादापन देखकर मस्तिष्क झन्ना उठता है । सादापन ऐसा लगता है मानो हमारी कोई इज्जत नहीं है । हम महसूस करते हैं जैसे यह कहीं हमारा अपमान तो नहीं । हो सकता है इस यात्रा के शुरु शुरु में ऐसा होता हो ।
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मां बाप अपने बच्चे को बिल्कुल स्वतंत्रता नहीं देना चाहते । पहले वह अपने बच्चे पर अधिकारपूर्ण व्यवहार करते हैं । अपनी बात को, अपने विचारों को बच्चों पर लादा जाता है । बच्चा विरोध करता है । तब, मां बाप बच्चे के प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार करने लगते हैं । बच्चा अपनी स्वतंत्रता चाहता है । मां बाप बच्चे को स्वतंत्रता देने की बजाए स्वच्छंदता की ओर धकेल देते हैं, मानो बच्चे से कोई संबंध ही न हो । बच्चा अपने विचारों की अभिव्यक्ति चाहता है । अपना जीवन खुद जीना चाहता है लेकिन मां बाप का व्यवहार बच्चों के प्रति दबावपूर्ण अथवा उपेक्षापूर्ण रहता है । यहीं कारण है कि बच्चा मां बाप के प्रति पूर्णत प्रेमपूर्ण नहीं हो पाता ।
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झूठी शान और प्रतिष्ठा के लिए कितनी चिन्ताएं और परेशानियां पैदा कर लेते हैं हम । कहीं दूसरे को बुरा न लगे । लोग क्या कहेंगे ? इसी छटपटाहट में तनाव से ग्रस्त हैं हम । और तब समाधान खोजते हैं बाहर से, धन से ।
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कभी कभी हमारे बीच इतना उत्साह और आत्मबल उत्पन्न हो जाता है कि अनुभव होता है जीवन सुन्दर है । और कभी कभी इसके विपरीत । तडप, जीवन के प्रति निराशा । शायद यह सच ही किसी न कहा है जीवन दुख सुख का चक्र है । जीवन के हर क्षण में दो पहलू हैं ------
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मैंने सुना है विवाह के बाद सास बहू का संघर्ष चलता रहता है । यह संघर्ष भी स्वाभाविक सा है । झगडा, ईर्ष्या,तुनुकमिजाजी,द्वेष,अंहकार कारण कोई भी हो सकता है । इन दोनों के संघर्ष में तकलीफ होती है पतिदेव को । मां की सुनता है तो पत्नी नाराज । पत्नी की सुनता है तो मां नाराज । दोनों की न सुनें तो दोनों नाराज ।
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आज विक्षिप्तता का बादल तेजी से बढता ही जा रहा है । इसको रोका है रिश्तों ने । अगर रिश्ते न होते तो बादल बिजली बनकर सामने जरुर आते ।
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एक प्रश्न है । क्या प्रतिभा ईश्वरीय देन है ? इस बारे में कई लोगों ने कई बार सोचा । किसी का कुछ होना या बनना क्या व्यक्ति के प्रयासों का परिणाम है अथवा प्रतिभा ईश्वर की देन है ? किसी का धर्म में रुचि लेना, किसी का राजनीति में, किसी का सामाजिक कार्य में अथवा किसी का बेईमानी,बदमाशी, उच्छंख्लता में – यह सब स्वाभाविक है अथवा ईश्वर की देन । अभिनय के क्षेत्र में, शिक्षा के क्षेत्र में, कला के क्षेत्र में योग्यता व्यक्ति के परिश्रम का परिणाम है या ईश्वर का जन्मजात प्रतिभा गुण ? कई बार हम देखते हैं कि कुछ लोगों का स्वभाव बहुत सुन्दर होता है, आकर्षक होता है, कुछ का बदसूरत, गलत और गन्दा व्यवहार । क्या यह सब स्वाभाविक होता है ? यदि नहीं तो क्या अपनी नेचर को बदला जा सकता है ? हो सकता है किसी खास वातावरण,परिस्थिति एवं मार्गप्रदर्शक का प्रभाव ऐसा हो ? लेकिन कई बार माहौल एवं मार्गदर्शन होने पर भी वह नहीं होता है । एक कक्षा में पढ रहे बच्चे – कुछ प्रथम स्थान पर और कुछ असफल । शायद यह प्रश्न हमेशा बना रहेगा ------ शायद इसका उत्तर यथोचित नहीं ।
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मैंने एक सुन्दर तस्वीर बनाई थी, जिसे उसने पसन्द किया था । सबने पसन्द किया था । बाद में मैने ही उस तस्वीर को बिगाड दिया था, बदसूरत बना दिया था । सुन्दरता खत्म कर दी थी, मधुरता मिटा दी थी जिसे उसने नापसन्द किया था । उसने बुरी सी सूरत बनाकर कहा था यह क्या कर दिया तुमने ? मैंने कहा – मैंने इसे सुन्दर बनाया था, मैंने इसे बदसूरत किया था, मैं ही इसे सुन्दर बनाऊंगा । सच । हम ही सुन्दर तस्वीर बनाते हैं, बाद में खुद ही बदसूरत कर देते हैं, सुन्दर बनाने के लिए ।
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एक प्रश्न का उत्तर एक नहीं, अनेक हैं । उतने, जितने तुम चाहो । सभी बदले बदले, उलझे सुलझे । अच्छे बुरे । छोटे बडे । रचनात्मक विध्वंशात्मक लेकिन ठीक क्या है ? सच क्या है ? खोजना कठिन लेकिन असम्भव नहीं । मन के बदलते ही हमारे उत्तर भी बदल जाते हैं । प्रश्न एक है उत्तर अनेक । दूरी अनन्त है ।
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चलते विचारों का दमदम मधुमक्खी की तरह घूम रहा है, अपना कारवां ढूढ रहा है । ये कारवां एक दो दिन का नहीं, आगे बढ जाना है । अपना काम शुरु कर देना है । सुख दुख, हंसना, रोना लेकिन उसे अपना काम करना है, चलते चलते विचारों का दमदम मधुमक्खी की तरह घूम रहा है, अपना कारवां ढूंढ रहा है ।
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कभी कभी हमारे बीच इतना उत्साह और आत्मबल उत्पन्न हो जाता है कि अनुभव होता है जीवन सुन्दर है । और कभी कभी इसके विपरीत । तडप, जीवन के प्रति निराशा । शायद यह सच ही किसी न कहा है जीवन दुख सुख का चक्र है । जीवन के हर क्षण में दो पहलू हैं ------
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मैंने सुना है विवाह के बाद सास बहू का संघर्ष चलता रहता है । यह संघर्ष भी स्वाभाविक सा है । झगडा, ईर्ष्या,तुनुकमिजाजी,द्वेष,अंहकार कारण कोई भी हो सकता है । इन दोनों के संघर्ष में तकलीफ होती है पतिदेव को । मां की सुनता है तो पत्नी नाराज । पत्नी की सुनता है तो मां नाराज । दोनों की न सुनें तो दोनों नाराज ।
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आज विक्षिप्तता का बादल तेजी से बढता ही जा रहा है । इसको रोका है रिश्तों ने । अगर रिश्ते न होते तो बादल बिजली बनकर सामने जरुर आते ।
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एक प्रश्न है । क्या प्रतिभा ईश्वरीय देन है ? इस बारे में कई लोगों ने कई बार सोचा । किसी का कुछ होना या बनना क्या व्यक्ति के प्रयासों का परिणाम है अथवा प्रतिभा ईश्वर की देन है ? किसी का धर्म में रुचि लेना, किसी का राजनीति में, किसी का सामाजिक कार्य में अथवा किसी का बेईमानी,बदमाशी, उच्छंख्लता में – यह सब स्वाभाविक है अथवा ईश्वर की देन । अभिनय के क्षेत्र में, शिक्षा के क्षेत्र में, कला के क्षेत्र में योग्यता व्यक्ति के परिश्रम का परिणाम है या ईश्वर का जन्मजात प्रतिभा गुण ? कई बार हम देखते हैं कि कुछ लोगों का स्वभाव बहुत सुन्दर होता है, आकर्षक होता है, कुछ का बदसूरत, गलत और गन्दा व्यवहार । क्या यह सब स्वाभाविक होता है ? यदि नहीं तो क्या अपनी नेचर को बदला जा सकता है ? हो सकता है किसी खास वातावरण,परिस्थिति एवं मार्गप्रदर्शक का प्रभाव ऐसा हो ? लेकिन कई बार माहौल एवं मार्गदर्शन होने पर भी वह नहीं होता है । एक कक्षा में पढ रहे बच्चे – कुछ प्रथम स्थान पर और कुछ असफल । शायद यह प्रश्न हमेशा बना रहेगा ------ शायद इसका उत्तर यथोचित नहीं ।
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मैंने एक सुन्दर तस्वीर बनाई थी, जिसे उसने पसन्द किया था । सबने पसन्द किया था । बाद में मैने ही उस तस्वीर को बिगाड दिया था, बदसूरत बना दिया था । सुन्दरता खत्म कर दी थी, मधुरता मिटा दी थी जिसे उसने नापसन्द किया था । उसने बुरी सी सूरत बनाकर कहा था यह क्या कर दिया तुमने ? मैंने कहा – मैंने इसे सुन्दर बनाया था, मैंने इसे बदसूरत किया था, मैं ही इसे सुन्दर बनाऊंगा । सच । हम ही सुन्दर तस्वीर बनाते हैं, बाद में खुद ही बदसूरत कर देते हैं, सुन्दर बनाने के लिए ।
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एक प्रश्न का उत्तर एक नहीं, अनेक हैं । उतने, जितने तुम चाहो । सभी बदले बदले, उलझे सुलझे । अच्छे बुरे । छोटे बडे । रचनात्मक विध्वंशात्मक लेकिन ठीक क्या है ? सच क्या है ? खोजना कठिन लेकिन असम्भव नहीं । मन के बदलते ही हमारे उत्तर भी बदल जाते हैं । प्रश्न एक है उत्तर अनेक । दूरी अनन्त है ।
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चलते विचारों का दमदम मधुमक्खी की तरह घूम रहा है, अपना कारवां ढूढ रहा है । ये कारवां एक दो दिन का नहीं, आगे बढ जाना है । अपना काम शुरु कर देना है । सुख दुख, हंसना, रोना लेकिन उसे अपना काम करना है, चलते चलते विचारों का दमदम मधुमक्खी की तरह घूम रहा है, अपना कारवां ढूंढ रहा है ।
Wednesday, July 21, 2010
अपने बीच अच्छे परिवर्तन लाने की इच्छा हो तो परिवर्तन लाए जा सकते हैं । जैसा भी हम सोचते हैं, वह हो सकता है यदि हम विषय का रचनात्मक पाजिटिव पहलू सोचते हैं । घरवालों के प्रति हमारा व्यवहार अच्छा हो तो जरुरी है कि हम अपने परिवारजनों के प्रति प्रेम से रहें । बडों का आदर करें । कई बार घरवालों से विवाद हो सकता है । सभी अपने अपने अधिकार की बातें करने लगते हैं, खासतौर से मां बाप और पत्नी । मां को अपने बच्चे से ज्यादा उम्मीदें होती हैं । वह चाहती है कि मेरा बेटा या बेटी मेरी आशाओं के अनुरुप ही कार्य करें । वह मां बाप अपने अच्चों से खुश रहते हैं जिनके बच्चे अपने माता पिता के विचारों के अनुरुप ढल जाते हैं । मैं यह बात अपने अनुभव से लिख रहा हूं । मैंने जब भी अपने माता पिता की आशाओं के अनुरुप कार्य किया, उन्हें बहुत प्रसन्नता हुई । मैंने कोई तोहफा लाकर नहीं दिया, बस उनकी बात को सुना एवं उदारवादी विचार प्रकट किए । मैंने यह भी देखा कि यदि हम अपने मां बाप का सम्मान करते हैं तो वे भी हमारे विचारों का सम्मान करते हैं । हमारी सारी इच्छाओं की पूर्ति भी करने को तैयार हो जाते हैं । मां का दिल और बाप का दिल इतना कोमल होता है कि छोटी छोटी बाधाओं में भी टूटने को हो जाता है । मां बाप कहते है मेरे बच्चे ही तो मेरी सम्पत्ति हैं । वे अपनी इस सम्पत्ति को भरा भरा एवं खुश देखना चाहते हैं । मैं उदारवादी विचारों का हूं । मैं नई पीढी की भावनाओं को समझता हूं लेकिन जब नई पीढी के अपनी ही सारी मर्जी चलाना चाहें तो मैं अनुदार विचारों का हो जाता हूं । इसलिए मैं स्वीकार करता हूं कि मेरे बीच नये और पुराने का ऐसा समावेश है कि कई बार दूसरों को ताज्जुब होता है । नए पुराने में मैंने ऐसा सामंज्स्य बांधा है कि कहीं भी टकराव नहीं होता है ।
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हर कोई चाहता है कि उसकी पत्नी उसके तथा उसके परिवारजनों के विचारों को अपना ले । लेकिन ऐसा होता नहीं है ।
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यदि नये लोग यह समझ लें कि हम पुराने लोगों को बदल सकते हैं, एकदम एक साथ नहीं बदल कर धीरे धीरे बदल सकते हैं, यह आत्मविश्वास की भावना की जीत के रुप में बदलने लगती है ।
जो अशांत हैं और अपनी मर्जी में रहता है और अपने बीच जो मैं का भाव रखता है, वह क्यों किसी के प्रति इतना समर्पित हो । उसको अपने तरीके से जीने का पूरा हक है । क्यों आशा करते हो कि वह हर बार तुम्हारा सम्मान ही करे, तुम्हें अपनी आंखों में बसाकर ही रखें ? क्या यह जरुरी है कि हर बार कोई आपका ही इंतजार करता रहे ? कई बार दोतरफा विचार आते हैं । हो सकता है कि कोई मित्र परेशानी में हो और ऐसे आलम में उसने आपको कुछ तीखा कह दिया हो । आपको ज्यादा गौर नहीं करना चाहिए । जैसे ही उसकी परेशानी खत्म होगी, वह पुन आपके साथ अच्छा व्यवहार करना आरम्भ कर देगा । यह जरुरी तो नहीं कि आप हर बार उससे अच्छे बर्ताव की उम्मीद करें ? आखिर वह भी तो इंसान है, उसके बीच भी अच्छी बुरी भावनाएं हैं, वह कोई मशीन थोडे ही है कि जो हर बार एक सा परिणाम दे । केवल मशीन ही एक सा परिणाम दे सकती है । हो सकता है उसने अपनी बात पर गौर न किया हो । उसे पता न चला हो कि आपके साथ क्या व्यवहार कर दिया जो आपको अजीब लगा ।कुछ भी हो सकता है । लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि हर व्यक्ति में दो रुप होते हैं – एक अच्छा, एक बुरा । एक रुप ऐसा है कि जिसमें दूसरे की भावनाएं आपके प्रति प्रेमपूर्ण होती हैं, आदरपूर्ण होती है ।
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एक पल तो आप घबरा जाते हैं ।न जाने क्या क्या कल्पनाएं करने लग जाते हैं । विवाह के बाद पति पत्नी के बीच झगडे क्या होते हैं ? हो सकता है कि आपका मित्र आपसे जो व्यवहार कर रहा है, वह आपकी समझ से परे हो । आपसे कोई गलती हुई होगी तभी तो आपका मित्र आपसे कटु व्यवहार करता है, अपनी प्रतिक्रिया प्रकट करता है । अपने दोष को पहचानने का प्रयास करना चाहिए । आप अपने को दिलासा दीजिए और होशपूवर्क विचार कीजिए और अपने बीच ऐसा भाव उत्पन्न कीजिए जिससे तथ्यों की गहराई तक पहुंचा जा सके ।
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तुम दो हो । तीसरा नहीं आना चाहिए । तीसरा कोई भी हो सकता है, कोई स्त्री या पुरुष ही नहीं बल्कि कोई भी हो सकता है । मां बाप, बहन भाई,दोस्त, हजारों रिश्ते । ****
आदमी चाहे कितना ही बोलता हो, चिल्लाता हो, अंहकार में डूब रहा हो, घमंड करता हो, अपने शरीर का, शक्ति का, अपने स्वास्थ्य का, अपनी सुन्दरता का, डिंगे हांकता हो । बीमार होने पर सब खत्म हो जाता है । बीमार मानसिक रुप से भी हो सकता है और शारीरिक रुप से भी ।
**** औरत की समझ भी अपने स्तर की ही होती है । कैसी ? यदि औरत पर पुरुष अधिकारपूर्ण व्यवहार करता है तो औरत कहती है अत्याचार किया जा रहा है और यदि पुरुष स्वतंत्रता देता है तो कई बार औरत स्वतंत्रता का नाजायज फायदा उठाने लगती है ।
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हर कोई चाहता है कि उसकी पत्नी उसके तथा उसके परिवारजनों के विचारों को अपना ले । लेकिन ऐसा होता नहीं है ।
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यदि नये लोग यह समझ लें कि हम पुराने लोगों को बदल सकते हैं, एकदम एक साथ नहीं बदल कर धीरे धीरे बदल सकते हैं, यह आत्मविश्वास की भावना की जीत के रुप में बदलने लगती है ।
जो अशांत हैं और अपनी मर्जी में रहता है और अपने बीच जो मैं का भाव रखता है, वह क्यों किसी के प्रति इतना समर्पित हो । उसको अपने तरीके से जीने का पूरा हक है । क्यों आशा करते हो कि वह हर बार तुम्हारा सम्मान ही करे, तुम्हें अपनी आंखों में बसाकर ही रखें ? क्या यह जरुरी है कि हर बार कोई आपका ही इंतजार करता रहे ? कई बार दोतरफा विचार आते हैं । हो सकता है कि कोई मित्र परेशानी में हो और ऐसे आलम में उसने आपको कुछ तीखा कह दिया हो । आपको ज्यादा गौर नहीं करना चाहिए । जैसे ही उसकी परेशानी खत्म होगी, वह पुन आपके साथ अच्छा व्यवहार करना आरम्भ कर देगा । यह जरुरी तो नहीं कि आप हर बार उससे अच्छे बर्ताव की उम्मीद करें ? आखिर वह भी तो इंसान है, उसके बीच भी अच्छी बुरी भावनाएं हैं, वह कोई मशीन थोडे ही है कि जो हर बार एक सा परिणाम दे । केवल मशीन ही एक सा परिणाम दे सकती है । हो सकता है उसने अपनी बात पर गौर न किया हो । उसे पता न चला हो कि आपके साथ क्या व्यवहार कर दिया जो आपको अजीब लगा ।कुछ भी हो सकता है । लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि हर व्यक्ति में दो रुप होते हैं – एक अच्छा, एक बुरा । एक रुप ऐसा है कि जिसमें दूसरे की भावनाएं आपके प्रति प्रेमपूर्ण होती हैं, आदरपूर्ण होती है ।
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एक पल तो आप घबरा जाते हैं ।न जाने क्या क्या कल्पनाएं करने लग जाते हैं । विवाह के बाद पति पत्नी के बीच झगडे क्या होते हैं ? हो सकता है कि आपका मित्र आपसे जो व्यवहार कर रहा है, वह आपकी समझ से परे हो । आपसे कोई गलती हुई होगी तभी तो आपका मित्र आपसे कटु व्यवहार करता है, अपनी प्रतिक्रिया प्रकट करता है । अपने दोष को पहचानने का प्रयास करना चाहिए । आप अपने को दिलासा दीजिए और होशपूवर्क विचार कीजिए और अपने बीच ऐसा भाव उत्पन्न कीजिए जिससे तथ्यों की गहराई तक पहुंचा जा सके ।
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तुम दो हो । तीसरा नहीं आना चाहिए । तीसरा कोई भी हो सकता है, कोई स्त्री या पुरुष ही नहीं बल्कि कोई भी हो सकता है । मां बाप, बहन भाई,दोस्त, हजारों रिश्ते । ****
आदमी चाहे कितना ही बोलता हो, चिल्लाता हो, अंहकार में डूब रहा हो, घमंड करता हो, अपने शरीर का, शक्ति का, अपने स्वास्थ्य का, अपनी सुन्दरता का, डिंगे हांकता हो । बीमार होने पर सब खत्म हो जाता है । बीमार मानसिक रुप से भी हो सकता है और शारीरिक रुप से भी ।
**** औरत की समझ भी अपने स्तर की ही होती है । कैसी ? यदि औरत पर पुरुष अधिकारपूर्ण व्यवहार करता है तो औरत कहती है अत्याचार किया जा रहा है और यदि पुरुष स्वतंत्रता देता है तो कई बार औरत स्वतंत्रता का नाजायज फायदा उठाने लगती है ।
Wednesday, July 14, 2010
हर व्यक्ति में कई गुण होते हैं, अच्छे रुप होते हैं, अच्छी समझ होती है । लेकिन हमें ध्यान रखना चाहिए कि हर व्यक्ति में अवगुण भी होते हैं, समझ की कमी भी होती है । अब देखना यह है कि हम अपने बीच कितना सुन्दर रुप देख पाते हैं ? हर कोई गलती भी करता है और हर कोई पश्चाताप भी । तभी तो कहते हैं हर व्यक्ति के अन्दर एक सॉफट कार्नर होता है, जो भावनामय है ।
**** आज हमारा समाज प्रगति के पथ पर बढता जा रहा है । समाज में जीवन जीने की शैली बदल रही है, लेकिन जयशंकर प्रसाद की अबला वहीं की वहीं है । उसकी जिम्मेदारी व कर्तव्य में जरुर परिवर्तन आये हैं किन्तु उसके प्रति असहनीय बोल प्रताडना व अत्याचार जस के तस हैं । विवाह से पहले मां बाप के संरक्षण में स्वावलम्बी लडकी के जीवन में अवश्य मूलभूत परिवर्तन दिखते हैं । वह जब विवाह के बाद अपने ससुराल पहुंचती है तब उसकी स्थिति वे पर पानी की बूंदों की भांति थिरकती है – कभी ससुराल वालो के दबाव में और कभी पति के दबाव में । मन मुटाव, विचारों का अनमेल होना, स्वभावच की विचित्रिता तो चलती है किन्तु प्रताडना व दुर्व्यवहार की कद से पार सीमा की स्थिति में क्या किया जाए ? अब सवाल यह है कि परिवार में सास ससुर, ननद देवर का व्यवहार नववधु के प्रति कटुता या व्यंग्यपूर्ण हो तो ऐसी स्थिति में क्लह तो होगा ही । किन्तु माना जाता है कि पति की समझदारी, सूझबूझ, आपसी समझौते की भावना आदि ऐसे रास्ते हैं जिनसे समस्यों का समाधान हो सकता है । किन्तु उसके बावजूद भी स्थिति गम्भीर हो जाती है तो पति पत्नी अलग रहकर अपनी डगमगाती जिन्दगी को संवार लेते हैं और बाद में थोडे समय बाद थोडे बहुत संशय के मध्य दुबारा से लडकी का ससुराल में आना जाना शुरु हो जाता है । किन्तु कई बार लडकी की किस्मत का पास बहुत ही उलटा हो जाता है । सुसराल के सभी सदस्यों के साथ साथ पति भी उनके साथ मिल जाता है । वह सात फेरों और कस्मे वादे भूलकर यही आदेश देने लगे – जो मेरी मां कहती है वह ठीक है और बाकी सब गलत । तब लडकी अजीब संशय में डूब जाती है । बात बात में मेरी मां, मेरी बहन, मेरे पिता कहकर अपनी पत्नी का अपमान करते रहने से लडकी के मन में एक किनकर्तव्यविमुढ की स्थिति बन जाती है । लडका अपने कर्तव्यों से दूर होकर मस्त हो जाता है । ऐसे में परिवार और विवाहित जीवन में तनाव और क्लेश आ जाता है । ऐसे में मासूम बच्चे की स्थिति का अंदाज नहीं लगाया जा सकता । नौकरी और घर की की दौड में वह भला अपने बच्चे की क्या देखभाल करेगी ? ऐसे में परिवार के लोग उस मासूम की क्या देखभाल करेंगे ? यदि पति भी अपने बच्चे के लिए अपने कर्तव्यों के प्रति बेरुख हो जाए तो वह स्त्री क्या करे ? कहां जाए ? क्या यूं ही जिन्दगी को तनाव और क्लेश के वातावरण में सहती रहे ? क्या वह आत्महत्या कर लें ?
क्या आपके आप इस समस्या का उत्तर है ?
मंजू की कलम से
एक दूसरे को समझने व समझाने से ही सभी समस्याओं का हल मिल सकता है । एक पक्ष अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व द्वारा, एक अच्छे एवं प्रभावशाली तरीके से दूसरे को समझाए तो समस्यां का समाधान निकल सकता है । आपसकी एकता ही आपके कष्टों का, रुकावटों को दूर कर सकती है और आप सफलता पा सकते हैं । पति पत्नी के बीच एकता है तो कोई उन्हें तोड नहीं सकता । तोडने के लिए लोग आयेंगे । वे लोग कोई भी हो सकते है। । रिश्ते नाते, मित्र संबंधी । यदि अपने बीच ही सन्देह का भाव होगा तो जीवन की यात्रा कठिन हो जाएगी ।
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यह कैसे हो सकता है कि कोई आपसे हंसी मजाक करे और आपके स्वाभिमान पर चोट हो जाए ? यह कैसे हो सकता है कि एक बात अकेले में की जाए तो गलत नहीं है और यदि वह बात दूसरों के सामने की जाए तो आपका अपमान हो जाएगा, आपके स्वाभिमान पर चोट हो जाएगी ? क्यों जोड लेते है। हम अपने को दूसरों से ? क्यों इतनी परवाह करते हैं दूसरों की ? छोडों इन बातों को । बस, अपने बीच प्रेमपूर्ण भावना होनी चाहिए । दूसरे क्या सोचते है।, बेवकूफ हैं, उन्हें सोचने दो । हां, एक दूसरे को समझ दे सकते है।, अपने विचार बता सकते हैं ।
आप अवश्य ही उन लोगों का ज्यादा सम्मान करते हैं जो अपनी बात प्रभावपूर्ण ढंग से करते हैं, लेकिन रोब नहीं जमाते, जिद नहीं करते । आपको अवश्य ही उन लोगों से नफरत होगी जो अपनी जिद के बल पर सबक सिखाने की कोशिश में लगे रहते हैं । स्वाभाविक है कि आप उन लोगों को प्रेम नहीं कर पाते, बल्कि कभी कभी तो आपके मन में भी दूसरे को सबक सिखाने की भावना उठती होगी ? जो आपके लिए त्याग करता है, आप उससे भी बडा त्याग करने के लिए तैयार रहते हैं ।
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**** आज हमारा समाज प्रगति के पथ पर बढता जा रहा है । समाज में जीवन जीने की शैली बदल रही है, लेकिन जयशंकर प्रसाद की अबला वहीं की वहीं है । उसकी जिम्मेदारी व कर्तव्य में जरुर परिवर्तन आये हैं किन्तु उसके प्रति असहनीय बोल प्रताडना व अत्याचार जस के तस हैं । विवाह से पहले मां बाप के संरक्षण में स्वावलम्बी लडकी के जीवन में अवश्य मूलभूत परिवर्तन दिखते हैं । वह जब विवाह के बाद अपने ससुराल पहुंचती है तब उसकी स्थिति वे पर पानी की बूंदों की भांति थिरकती है – कभी ससुराल वालो के दबाव में और कभी पति के दबाव में । मन मुटाव, विचारों का अनमेल होना, स्वभावच की विचित्रिता तो चलती है किन्तु प्रताडना व दुर्व्यवहार की कद से पार सीमा की स्थिति में क्या किया जाए ? अब सवाल यह है कि परिवार में सास ससुर, ननद देवर का व्यवहार नववधु के प्रति कटुता या व्यंग्यपूर्ण हो तो ऐसी स्थिति में क्लह तो होगा ही । किन्तु माना जाता है कि पति की समझदारी, सूझबूझ, आपसी समझौते की भावना आदि ऐसे रास्ते हैं जिनसे समस्यों का समाधान हो सकता है । किन्तु उसके बावजूद भी स्थिति गम्भीर हो जाती है तो पति पत्नी अलग रहकर अपनी डगमगाती जिन्दगी को संवार लेते हैं और बाद में थोडे समय बाद थोडे बहुत संशय के मध्य दुबारा से लडकी का ससुराल में आना जाना शुरु हो जाता है । किन्तु कई बार लडकी की किस्मत का पास बहुत ही उलटा हो जाता है । सुसराल के सभी सदस्यों के साथ साथ पति भी उनके साथ मिल जाता है । वह सात फेरों और कस्मे वादे भूलकर यही आदेश देने लगे – जो मेरी मां कहती है वह ठीक है और बाकी सब गलत । तब लडकी अजीब संशय में डूब जाती है । बात बात में मेरी मां, मेरी बहन, मेरे पिता कहकर अपनी पत्नी का अपमान करते रहने से लडकी के मन में एक किनकर्तव्यविमुढ की स्थिति बन जाती है । लडका अपने कर्तव्यों से दूर होकर मस्त हो जाता है । ऐसे में परिवार और विवाहित जीवन में तनाव और क्लेश आ जाता है । ऐसे में मासूम बच्चे की स्थिति का अंदाज नहीं लगाया जा सकता । नौकरी और घर की की दौड में वह भला अपने बच्चे की क्या देखभाल करेगी ? ऐसे में परिवार के लोग उस मासूम की क्या देखभाल करेंगे ? यदि पति भी अपने बच्चे के लिए अपने कर्तव्यों के प्रति बेरुख हो जाए तो वह स्त्री क्या करे ? कहां जाए ? क्या यूं ही जिन्दगी को तनाव और क्लेश के वातावरण में सहती रहे ? क्या वह आत्महत्या कर लें ?
क्या आपके आप इस समस्या का उत्तर है ?
मंजू की कलम से
एक दूसरे को समझने व समझाने से ही सभी समस्याओं का हल मिल सकता है । एक पक्ष अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व द्वारा, एक अच्छे एवं प्रभावशाली तरीके से दूसरे को समझाए तो समस्यां का समाधान निकल सकता है । आपसकी एकता ही आपके कष्टों का, रुकावटों को दूर कर सकती है और आप सफलता पा सकते हैं । पति पत्नी के बीच एकता है तो कोई उन्हें तोड नहीं सकता । तोडने के लिए लोग आयेंगे । वे लोग कोई भी हो सकते है। । रिश्ते नाते, मित्र संबंधी । यदि अपने बीच ही सन्देह का भाव होगा तो जीवन की यात्रा कठिन हो जाएगी ।
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यह कैसे हो सकता है कि कोई आपसे हंसी मजाक करे और आपके स्वाभिमान पर चोट हो जाए ? यह कैसे हो सकता है कि एक बात अकेले में की जाए तो गलत नहीं है और यदि वह बात दूसरों के सामने की जाए तो आपका अपमान हो जाएगा, आपके स्वाभिमान पर चोट हो जाएगी ? क्यों जोड लेते है। हम अपने को दूसरों से ? क्यों इतनी परवाह करते हैं दूसरों की ? छोडों इन बातों को । बस, अपने बीच प्रेमपूर्ण भावना होनी चाहिए । दूसरे क्या सोचते है।, बेवकूफ हैं, उन्हें सोचने दो । हां, एक दूसरे को समझ दे सकते है।, अपने विचार बता सकते हैं ।
आप अवश्य ही उन लोगों का ज्यादा सम्मान करते हैं जो अपनी बात प्रभावपूर्ण ढंग से करते हैं, लेकिन रोब नहीं जमाते, जिद नहीं करते । आपको अवश्य ही उन लोगों से नफरत होगी जो अपनी जिद के बल पर सबक सिखाने की कोशिश में लगे रहते हैं । स्वाभाविक है कि आप उन लोगों को प्रेम नहीं कर पाते, बल्कि कभी कभी तो आपके मन में भी दूसरे को सबक सिखाने की भावना उठती होगी ? जो आपके लिए त्याग करता है, आप उससे भी बडा त्याग करने के लिए तैयार रहते हैं ।
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Monday, July 12, 2010
कई बार तो ऐसा लगता है कि हम अपनी जरुरत से 75 प्रतिशत ज्यादा बोलते हैं और 75 प्रतिशत ही ज्यादा सोचते हैं । जरुरी नहीं है कि हम प्रत्येक विषय पर बोलें । जरुरी नहीं है। कि हम हर विषय पर जानकाकरी रखते हों, या हर विषय पर सोचें । यह भी जरुरी नहीं है कि हम जिन विषयों पर आज और अभी सोच रहे हैं वह जरुरी है आज और अभी । यह भी हो सकता है कि हम उन विषयों पर सोचते हों जो जरुरी नहीं हैं बल्कि निरर्थक हैं । लेकिन एक बात तो माननी होगी कि हमें ऐसा लगता है कि जब हम बोलते हैं तो लगता है कि ज्यादा बोल करहे हैं और जब हम चुप हो जाते हैं तो लगता है कि कम बोल रहे हैं या चुप रहना भी अच्छा नहीं लगता । कहीं ऐसा तो नहीं कि हम अकेलेपन से घबरा जाते हों ? अकेलापन देखकर हमें डर लगता हो इसलिए हम भीड में चले जाते हैं ? दोस्तों से मिलते हैं, बातचीत करने लग जाते हैं, शोर मचाते हैं, दूसरों की बुराई करने लग जाते हैं, यानि वह सब कार्य करने शुरु कर देते हैं जिससे अकेलापन समाप्त हो जाए, अकेलेपन का सामना न करना पडे ? इसका मतलब तो यह हुआ कि हम अन्दर से तो खोखले हैं ? अन्दर से भयभीत हैं ? हम अपने को अकेीला पाते हैं तो अन्दर छिपा डर हमको खाने को दौडता है ? उस डर का सामना न करना पडें चलो कुछ न कुछ बोलकर उस भय को दबा दें, छुंपा दे । कहा जाता है कि बोलने से और सोचने से हमारी एकत्रित ऊर्जा नष्ट होती है । ज्यादा बोलने अथवा ज्यादा सोचने से हमारी रचनात्मक एनर्जी पर बुरा प्रभाव पडता है । ****
जीवन के किसी भी मोड पर कौन व्यक्ति एक नयी राह, एक नयी चेतना का अहसास करवा दे, कोई नहीं बता सकता । यदि हम ध्यान में लगे रहें तो ज्ञात होता है कि दिन में ऐसे कई अवसर आते हैं जब हम कुछ सीख सकते हैं । जो कुछ करना है, हमें ही करना है । कल कर लेंगे, बाद में कर लेंगे, बहाने हैं और अपने साथ बेईमानी है । जो कुछ करना है आज ही और अभी करना है, इसी वक्त । एक स्वामी जी ने बताया – आदमी की बातें एक पैसे की भी नहीं हैं । यदि कोई कहे तो मैं यही कहूंुगा कि नहीं । एक पैसा ज्यादा है । कुछ भी कीमत नहीं है । एक मौन हो, यही सबसे कीमती है । जो विचार हमारे हैं, हम शब्दों में तो बता ही नहीं सकते, बल्कि जो कुछ बताना चाहते हो, जो हमारे विचार हैं, उन पर भी पानी पड जाता है, जब हम बोलकर अपने विचारों को किसी दूसरे को बताने की कोशिश करते हैं । यदि किसी से अपने विचार कहने भी हैं तो मौन में कह सकते हैं ।
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हर तकलीफ एक सन्देश लेकर आती है, एक नए जीवन का । जीवन का सुख क्या है, दुख के क्षणों में पता चलता है, उससे पहले नहीं । मछली को नहीं पता कि सागर क्या है । लेकिन जब बाहर निकाल दिया जाए सागर से, मछली को, तब पता चलता है कि सागर क्या है ।
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मैनें एक जगह पढा था आप भी विचार कीजिए ------ ज्ञान प्राप्ति के लिए अध्ययन सुख प्राप्ति के लिए व्यवसाय संतोष प्राप्ति के लिए परोपकार ईश्वर प्राप्ति के लिए प्रार्थना स्वास्थ्य प्राप्ति के लिए व्यायाम में अपना समय लगाएं, समय का सदुपयोग करें ।
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हम अपने जीवनकाल में जो भी काम करते हैं उनका शीघ्र प्रभाव हमारे ऊपर पडता है । हमारे अनुभव खुशी से भरे भी हो सकते हैं और गम से भरे भी । यदि हम प्रसन्न हैं, अपने जीवन में एक संतोष की झलक पाते है। तब हम कह सकते हैं कि हम समय का सदुपयोग कर रहे है। । यदि हम बडे बडे पद पा लें, बहुत ज्यादा धनी बन जाएं और जीवन की सभी भौतिक वस्तुओं को एकत्र कर लें और खूब दिखावटी मान सम्मान हो, लेकिन हम अपने अन्दर से संतोष का भास न पाएं, हृदय में एक प्यास हो तो हम कह सकते हैं कि हम समय का सदुपयोग नहीं कर रहे हैं । ****
दूसरे क्या सोचते हैं और कैसा सोचते हैं यह सोचना उनका काम है । कोई हमें छोटा कहता है या बडा, विरोध पैदा न करो । कोई भगवान कहे तो कहो – मुझे तो ज्ञान नहीं, यह सोचना तुम्हारा काम है । कोई शैतान कहे तो कहो – मुझे तो ज्ञान नहीं, यह तो सोचना तुम्हारा काम है । वह अपने को समझ नहीं लेना चाहिए जो दूसरा कह दे । भगवान जो करता है अच्छा करता है । हर काम के पीछे कहीं न कहीं सच होता है, अच्छाई होती है । दूसरे शब्दों में स्वीकार का भाव आना चाहिए ।
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ध्यान रखना चाहिए कि सफलता केवल परिश्रम से ही नहीं मिलती । सफलता के लिए परिश्रम जरुरी है किन्तु पर्याप्त नहीं । उसके लिए व्यावहारिक ज्ञान, सूझबुझ,धैर्य, आत्मविश्वास, एकाग्रता आदि कई गुणों का होना जरुरी है । गलत ढंग से, काम का बिना समझे, उचटे मन से, उददेश्य की स्पष्ट जानकारी पाए बिना कितना ही थका देने वाला परिश्रम किया जाए तो भी सफलता मिलती है, सम्भव नहीं । इस तरह के आवश्यक गुणों के अभाव में मेहनत करते रहने वाले को सफलता नहीं मिलती तो कहा जाता है कि पिछले जन्म के कर्मों के कारण ईश्वर के भाग्य विधान से उसे सफलता नहीं मिली है – इसे ध्यान में रखना होगा ।
परिस्थितियों का बारीकी से अध्ययन करने और तदनुसार निर्णय लेने की शक्ति का इस्तेमाल यह मानसिक क्षमता सभी में होती है । परिस्थितियों का बारीकी से अध्ययन करने और समझने से उपयुक्त निर्णय लेने में भूल नहीं होती । इसलिए ऐसी भूल से बचा जाए तो अधिकत्तर काम में हाथ लगाते ही वह पूरा होने लगता है । अभ्यास और प्रयोगों से हर चीज में निखार लाया जा सकता है । आत्मविश्वास बढाने वाली पुस्तकों का अध्ययन, आशावादी दृष्टिकोण, विधायक चिन्तन जैसे अभयास इस क्षमता को बढाते हैं । आत्मविश्वास बढाने के लिए आटो सजेशन भी एक प्रभावशाली उपाय है । जिन गुणों की कमी महसूस की जाती है उनके बारे में बार बार सोचना और अपने में उन गुणों का विकास करना ही आटो सजेशन है ।
जीवन के किसी भी मोड पर कौन व्यक्ति एक नयी राह, एक नयी चेतना का अहसास करवा दे, कोई नहीं बता सकता । यदि हम ध्यान में लगे रहें तो ज्ञात होता है कि दिन में ऐसे कई अवसर आते हैं जब हम कुछ सीख सकते हैं । जो कुछ करना है, हमें ही करना है । कल कर लेंगे, बाद में कर लेंगे, बहाने हैं और अपने साथ बेईमानी है । जो कुछ करना है आज ही और अभी करना है, इसी वक्त । एक स्वामी जी ने बताया – आदमी की बातें एक पैसे की भी नहीं हैं । यदि कोई कहे तो मैं यही कहूंुगा कि नहीं । एक पैसा ज्यादा है । कुछ भी कीमत नहीं है । एक मौन हो, यही सबसे कीमती है । जो विचार हमारे हैं, हम शब्दों में तो बता ही नहीं सकते, बल्कि जो कुछ बताना चाहते हो, जो हमारे विचार हैं, उन पर भी पानी पड जाता है, जब हम बोलकर अपने विचारों को किसी दूसरे को बताने की कोशिश करते हैं । यदि किसी से अपने विचार कहने भी हैं तो मौन में कह सकते हैं ।
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हर तकलीफ एक सन्देश लेकर आती है, एक नए जीवन का । जीवन का सुख क्या है, दुख के क्षणों में पता चलता है, उससे पहले नहीं । मछली को नहीं पता कि सागर क्या है । लेकिन जब बाहर निकाल दिया जाए सागर से, मछली को, तब पता चलता है कि सागर क्या है ।
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मैनें एक जगह पढा था आप भी विचार कीजिए ------ ज्ञान प्राप्ति के लिए अध्ययन सुख प्राप्ति के लिए व्यवसाय संतोष प्राप्ति के लिए परोपकार ईश्वर प्राप्ति के लिए प्रार्थना स्वास्थ्य प्राप्ति के लिए व्यायाम में अपना समय लगाएं, समय का सदुपयोग करें ।
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हम अपने जीवनकाल में जो भी काम करते हैं उनका शीघ्र प्रभाव हमारे ऊपर पडता है । हमारे अनुभव खुशी से भरे भी हो सकते हैं और गम से भरे भी । यदि हम प्रसन्न हैं, अपने जीवन में एक संतोष की झलक पाते है। तब हम कह सकते हैं कि हम समय का सदुपयोग कर रहे है। । यदि हम बडे बडे पद पा लें, बहुत ज्यादा धनी बन जाएं और जीवन की सभी भौतिक वस्तुओं को एकत्र कर लें और खूब दिखावटी मान सम्मान हो, लेकिन हम अपने अन्दर से संतोष का भास न पाएं, हृदय में एक प्यास हो तो हम कह सकते हैं कि हम समय का सदुपयोग नहीं कर रहे हैं । ****
दूसरे क्या सोचते हैं और कैसा सोचते हैं यह सोचना उनका काम है । कोई हमें छोटा कहता है या बडा, विरोध पैदा न करो । कोई भगवान कहे तो कहो – मुझे तो ज्ञान नहीं, यह सोचना तुम्हारा काम है । कोई शैतान कहे तो कहो – मुझे तो ज्ञान नहीं, यह तो सोचना तुम्हारा काम है । वह अपने को समझ नहीं लेना चाहिए जो दूसरा कह दे । भगवान जो करता है अच्छा करता है । हर काम के पीछे कहीं न कहीं सच होता है, अच्छाई होती है । दूसरे शब्दों में स्वीकार का भाव आना चाहिए ।
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ध्यान रखना चाहिए कि सफलता केवल परिश्रम से ही नहीं मिलती । सफलता के लिए परिश्रम जरुरी है किन्तु पर्याप्त नहीं । उसके लिए व्यावहारिक ज्ञान, सूझबुझ,धैर्य, आत्मविश्वास, एकाग्रता आदि कई गुणों का होना जरुरी है । गलत ढंग से, काम का बिना समझे, उचटे मन से, उददेश्य की स्पष्ट जानकारी पाए बिना कितना ही थका देने वाला परिश्रम किया जाए तो भी सफलता मिलती है, सम्भव नहीं । इस तरह के आवश्यक गुणों के अभाव में मेहनत करते रहने वाले को सफलता नहीं मिलती तो कहा जाता है कि पिछले जन्म के कर्मों के कारण ईश्वर के भाग्य विधान से उसे सफलता नहीं मिली है – इसे ध्यान में रखना होगा ।
परिस्थितियों का बारीकी से अध्ययन करने और तदनुसार निर्णय लेने की शक्ति का इस्तेमाल यह मानसिक क्षमता सभी में होती है । परिस्थितियों का बारीकी से अध्ययन करने और समझने से उपयुक्त निर्णय लेने में भूल नहीं होती । इसलिए ऐसी भूल से बचा जाए तो अधिकत्तर काम में हाथ लगाते ही वह पूरा होने लगता है । अभ्यास और प्रयोगों से हर चीज में निखार लाया जा सकता है । आत्मविश्वास बढाने वाली पुस्तकों का अध्ययन, आशावादी दृष्टिकोण, विधायक चिन्तन जैसे अभयास इस क्षमता को बढाते हैं । आत्मविश्वास बढाने के लिए आटो सजेशन भी एक प्रभावशाली उपाय है । जिन गुणों की कमी महसूस की जाती है उनके बारे में बार बार सोचना और अपने में उन गुणों का विकास करना ही आटो सजेशन है ।
• हम लोग अपनी छोटी छोटी असफलताओं से घबराकर अपने को असफल घोषित कर देते हैं । जैसे चारों ओर निराशा के अलावा कुछ भी नहीं । कई बार हम देखते हैं कि दूसरे लोग हमारे प्रति एक अच्छी छवि रखते हैं, हमारे व्यक्ति से प्रभावित होते हैं और उन्हें हमसे मिलकर प्रसन्नता होती है । बहुत अच्छी बात है कि यदि लोग हमारे बीच कुछ अच्छा देखते हैं । लेकिन मजेदार बात तब और ही हो जाती है जब हम ही अपने को असफल और निराश समझते हैं । प्रश्न यह उठता है कि यह दोहरी स्थिति क्यों है ? लोग हमें अच्छा और सफल कहें और हम अपने को बुरा और असफल समझें – एक बात तो माननी ही होगी कि अपने बीच ही कुछ कमी होती है । किसी ने बताया है हम सुबह उठते हैं तो तरो ताजा होते हैं, बाद में कामकाज में लग जांए तो ठीक, अगर खाली बैठे तो अपनी छुटपुट समस्याएं याद आती हैं, हम अपने को असफल समझने लग जाते हैं । इसलिए यह भी जरुरी है कि अपने को बिजी रखो ।
• सुख और दुख की शुरुआत अपने अन्दर से ही शुरु होती है और अपने अन्दर से ही समाप्त होती है । यदि अपने को समझ लिया जाए तो सारा संसार समझ में आने लगता है । यह सच है कि निन्दा करना एक अवगुण है । यदि निन्दा का भाव ही उत्पन्न ही न किया जाए तो चारों ओर विधायक सोचने की क्षमता में वृद्वि होती है ।
अपने बारे में पुनर्विचार एवं साक्षी का भाव रखना चाहिए । जब हम ध्यानपूर्वक हो जाते हैं तो हमें अनुभव होता है जैसे संसार आनन्द है । एक मन होकर हम प्रार्थनापूर्ण हो जाएं तो द्वंद्व की स्थिति समाप्त होती है । दृदय के तल पर जीने से ही प्रेम का अहसास होता है । प्रेमपूर्ण होने के लिए मन से ऊपर उठना पडता है । अपने बीच एक सुन्दर फूल का स्मरण करते ही फूल बन जाइए । एक रसपूर्ण और तेजस्व की तरह स्वामी हो जाओ । यही जीवन की वास्तविकता है । अपनी भावनाओं से भी अहिंसक होने में ही जीवन का आनन्द है । मन, वचन और कर्म से अहिंसक होना ही सही मार्ग है ।
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हम एक उपन्यास पढ रहे हो, यदि उसी उपन्यास के सामने उसी घटनाक्रम को टेलिविजन पर दिखा दिया जाए तो उपन्यास स्वयं ही छूट जाता है । इसी प्रकार यदि अपने अन्दर की अनन्त शक्तियों का पता चल जाए तो बाहर की दौड स्वयं ही समाप्त होने लगती है या यूं कमह लीजिए वह दौड खत्म हो जाती है । क्या हमें इस बात का अहसास है कि एक व्यक्ति में बहुत सी शक्तियां होती हैं । लगता तो कुछ ऐसा है कि एक व्यक्ति अपनी शक्तियों का अपने पूरे जीवन में 50 प्रतिशत भी प्रयोग में नहीं लाता है । यदि उन तमाम शक्तियों को पूरी लगन के साथ ध्यान में लगाया जाए तो सम्भवत व्यक्ति वह सब कर सकता है जो वह चाहता है । जैसे शेर हमारे पीछे हो, हम भागेंगे, इतनी तेज कि किसी तरह भी सोचा ही नहीं होगा कि हम इतनी तेज भी भाग सकते हैं । जैसे एग्जाम के दिनों में कोई विदयार्थी अपनी पढाई की गति दोगुनी कर देता है । यदि प्रतिपल मेहनती और चुस्त बना जाएतो कोई सन्देह नहीं कि सफलता व खुशहाली जीवन में पूरी तरह न छा जाए ।
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क्या हमारे पास फालतू समय है कि हम लोगों को खुश करने में ही अपना समय बिता दें ? लोग कहीं नाराज न हो जाएं इसलिए हम अपना मूल्यावान समय बेकार की बातचीत में लगा दें, लोगों को खुश करने में कहीं ऐसा न हो कि बहुत देर हो जाए और बाद में हमें लगे कि मैंने तो अपना समय खो दिया है ? यह सत्य है कि लोगों की हमारे प्रति धारणा अच्छी है – बुरी है । लेकिन इनका क्या मूल्य है ? कोई मूल्य नहीं है । कोई किसी को अच्छा इसलिए कहता है कि दूसरा उसके अनुसार आचरण करता है, वैसा ही करता है जैसा वह चाहता है । इसलिए अच्छा कहने वाले को अच्छा लगता है । बुरा इसलिए कहते हैं कि वे लोग जिनकी इच्छानुसार हम आचरण नहीं कर पाते । तो क्या यह सत्य कहा जा सकता है कि हम अच्छे हो या बुरे, इसका निर्णय दूसरे लोग करें ? क्या इसलिए कि लोग हमें कठपुतली की तरह नचाएं ? क्या इसका यह मतलब नहीं कि तुम क्या हो इसका निर्णय खुद कर सकें । हम स्वयं अनुभव करें कि हम कौन है ? इसका आभास करें, इसको अनुभव करें कि मैं कौन हूं । जनाव, वही कीजिए जो आपकी आत्मा कहती है, वह नहीं जो लोग कहते है। ****
केवल लोगों के बीच ही अपने को छोड देने से क्या वास्तविक आनन्द का अनुभव हो सकता है ? क्या लोगों के निर्णयों को ही सत्य माना जा सकता है ? हम अपने प्रति क्या सोचते हैं, उसकी कीमत कुछ भी नहीं ? कोई नया कदम उठाते हैं, तभी हम नया कदम उठाते हैं जब उसे ठीक समझते हैं, वरना शुरु करने का सवाल ही नहीं था । तब यह कैसे कहा जा सकता है कि दूसरों द्वारा कही गई बातें सत्य है, दूसरे कैसे कह सकते हैं कि हमारा उठाया गया कदम गलत है ?
• सुख और दुख की शुरुआत अपने अन्दर से ही शुरु होती है और अपने अन्दर से ही समाप्त होती है । यदि अपने को समझ लिया जाए तो सारा संसार समझ में आने लगता है । यह सच है कि निन्दा करना एक अवगुण है । यदि निन्दा का भाव ही उत्पन्न ही न किया जाए तो चारों ओर विधायक सोचने की क्षमता में वृद्वि होती है ।
अपने बारे में पुनर्विचार एवं साक्षी का भाव रखना चाहिए । जब हम ध्यानपूर्वक हो जाते हैं तो हमें अनुभव होता है जैसे संसार आनन्द है । एक मन होकर हम प्रार्थनापूर्ण हो जाएं तो द्वंद्व की स्थिति समाप्त होती है । दृदय के तल पर जीने से ही प्रेम का अहसास होता है । प्रेमपूर्ण होने के लिए मन से ऊपर उठना पडता है । अपने बीच एक सुन्दर फूल का स्मरण करते ही फूल बन जाइए । एक रसपूर्ण और तेजस्व की तरह स्वामी हो जाओ । यही जीवन की वास्तविकता है । अपनी भावनाओं से भी अहिंसक होने में ही जीवन का आनन्द है । मन, वचन और कर्म से अहिंसक होना ही सही मार्ग है ।
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हम एक उपन्यास पढ रहे हो, यदि उसी उपन्यास के सामने उसी घटनाक्रम को टेलिविजन पर दिखा दिया जाए तो उपन्यास स्वयं ही छूट जाता है । इसी प्रकार यदि अपने अन्दर की अनन्त शक्तियों का पता चल जाए तो बाहर की दौड स्वयं ही समाप्त होने लगती है या यूं कमह लीजिए वह दौड खत्म हो जाती है । क्या हमें इस बात का अहसास है कि एक व्यक्ति में बहुत सी शक्तियां होती हैं । लगता तो कुछ ऐसा है कि एक व्यक्ति अपनी शक्तियों का अपने पूरे जीवन में 50 प्रतिशत भी प्रयोग में नहीं लाता है । यदि उन तमाम शक्तियों को पूरी लगन के साथ ध्यान में लगाया जाए तो सम्भवत व्यक्ति वह सब कर सकता है जो वह चाहता है । जैसे शेर हमारे पीछे हो, हम भागेंगे, इतनी तेज कि किसी तरह भी सोचा ही नहीं होगा कि हम इतनी तेज भी भाग सकते हैं । जैसे एग्जाम के दिनों में कोई विदयार्थी अपनी पढाई की गति दोगुनी कर देता है । यदि प्रतिपल मेहनती और चुस्त बना जाएतो कोई सन्देह नहीं कि सफलता व खुशहाली जीवन में पूरी तरह न छा जाए ।
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क्या हमारे पास फालतू समय है कि हम लोगों को खुश करने में ही अपना समय बिता दें ? लोग कहीं नाराज न हो जाएं इसलिए हम अपना मूल्यावान समय बेकार की बातचीत में लगा दें, लोगों को खुश करने में कहीं ऐसा न हो कि बहुत देर हो जाए और बाद में हमें लगे कि मैंने तो अपना समय खो दिया है ? यह सत्य है कि लोगों की हमारे प्रति धारणा अच्छी है – बुरी है । लेकिन इनका क्या मूल्य है ? कोई मूल्य नहीं है । कोई किसी को अच्छा इसलिए कहता है कि दूसरा उसके अनुसार आचरण करता है, वैसा ही करता है जैसा वह चाहता है । इसलिए अच्छा कहने वाले को अच्छा लगता है । बुरा इसलिए कहते हैं कि वे लोग जिनकी इच्छानुसार हम आचरण नहीं कर पाते । तो क्या यह सत्य कहा जा सकता है कि हम अच्छे हो या बुरे, इसका निर्णय दूसरे लोग करें ? क्या इसलिए कि लोग हमें कठपुतली की तरह नचाएं ? क्या इसका यह मतलब नहीं कि तुम क्या हो इसका निर्णय खुद कर सकें । हम स्वयं अनुभव करें कि हम कौन है ? इसका आभास करें, इसको अनुभव करें कि मैं कौन हूं । जनाव, वही कीजिए जो आपकी आत्मा कहती है, वह नहीं जो लोग कहते है। ****
केवल लोगों के बीच ही अपने को छोड देने से क्या वास्तविक आनन्द का अनुभव हो सकता है ? क्या लोगों के निर्णयों को ही सत्य माना जा सकता है ? हम अपने प्रति क्या सोचते हैं, उसकी कीमत कुछ भी नहीं ? कोई नया कदम उठाते हैं, तभी हम नया कदम उठाते हैं जब उसे ठीक समझते हैं, वरना शुरु करने का सवाल ही नहीं था । तब यह कैसे कहा जा सकता है कि दूसरों द्वारा कही गई बातें सत्य है, दूसरे कैसे कह सकते हैं कि हमारा उठाया गया कदम गलत है ?
व्यक्ति जो सोचता है वैसा ही होता है, जरुरी नहीं । जो नहीं सोचा होता है वह भी हो जाता है । तब सोचने लगता है कि यह तो मैंने सोचा ही नहीं था । किसी से साधारण सी मित्रता शुरु होती है कोई ज्यादा रुचि भी नहीं लेते है । किन्तु एकाएक कुछ घटनाक्रम के साथ समय बदलता है । जिसपर हम सोचने लगते हैं । भावनाओं के आगे सचमुच बुद्वि बिल्कुल काम नहीं करती । कह सकते हैं प्रेम के आगे किसी का कोई बल नहीं चलता । यह कैसे और कैसे हो जाता है इसको समझना आसान नहीं लगता । अपने को सम्भाल पाना मुश्किल । दो मिनट के लिए बुदिध को पीछे हटाकर देखें तो क्या देखेंगे ? भावनाओं को समझकर एक विचार की दृष्टि देखें तो हृदय के तल पर क्या निकलता है ? क्या स्नेह और प्रेम की धारा में बुदिध, समाज को ताक पर रख दिया जाता है ? अपने पुराने सिदधांतों पर सन्देह और उन्हें तोडा मरोडा जा सकता है ? वैसे एक प्रश्न तो उठता ही होगा क्यों करता है कोई किसी के लिए इतना ? कैसे करने लग जाता है ? क्या व्यक्ति खुद कर सकता है ऐसा ? यदि आदमी खुद चाहे तो क्या ऐसा कर सकता है ? उत्तर एक ही होगा – नहीं, कदापि नहीं ।
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दूसरों का व्यवहार और हावभाव देखकर हमको प्रेरणा मिलती है । मन में उच्च व्यक्त्वि की सफलता के बारे में जिज्ञासा पैदा होती है । वैसा ही अपनाने को चित चाहता है । यह भी सच है कि कुछ चेहरे नकली होते है । अन्दर का खोखलापन शीघ्र प्रकट होने लगता है । एक सीखने की भावना होनी चाहिए, नकल की नहीं । न ईष्या की न तडप की । जीवन तो जीने के लिए है । निराशा के वातावरण में निर्णय नहीं लेना चाहिए । हृदय में संतोष एवं उत्साह का भाव उत्पन्न कर बात करनी चाहिए । दूसरों की आंखों में आंखे डालकर देखो और बात करो । एक आत्मसंतोष और प्रेमपूर्ण होने का आभास होगा । गांधी ने लिखा है सही और संयमपूर्ण बातचीत करने के लिए अल्पभाषी होना जरुरी है ।
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यह कोई प्रवचन नहीं है । सीधी सी बात है । दो बातें ध्यान में रखनी चाहिए । एक, दूसरे के बारे में कभी भी बुरे विचार न रखें । दूसरा, यह कभी भी न सोचें कि जीवन समाप्त हो गया है । आज और अभी जो कुछ है, वही सच है । जो होना है वह होना ही है, तब चिन्ता क्यों ? जीना है जीओ, आज और अभी । हंसते हंसते जीना है । ****
जैसे कोई किसी को दुख नहीं दे सकता वैसे ही कोई किसी को सुख भी नहीं दे सकता । सुख दुख का आधार अपने अन्दर से ही शुरु होता है और अपने अन्दर से ही खत्म होता है । यदि जीवन में दुख व कठिनाईयां हैं तो उनका कारण हम ही हैं और यदि जीवन में सुख व खुशियां हैं तो कारण हम ही हैं ।बस, अपनी शक्तियों को तीव्र बनाने का प्रयास होना चाहिए । लेकिन तुमने देखा होगा जब जीवन में खुशियां आती हैं तो उनका श्रेय हम अपने को देते हैं और जब जीवन में दुख आते हैं तो उनका कारण दूसरों पर थोप देते हैं । अपने को एकाग्रचित करना होगा । टोटल एक जगह होना होगा । अपनी शक्तियों को विसर्जित नहीं करना चाहिए । इधर उधर बांटना नहीं है । एक जगह एकत्र करना होगा । लडना भी नहीं है । लडने से कोई हल नहीं होगा । हां, प्रयास करना चाहिए बार बार ।
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जो भी उलझन है उसे देखने की कोशिश करो । मूड आफ हो जाता है, पढाई और काम में जी नहीं लगता, गुस्सा आ जाता है, सफलता नहीं मिलती है, चारों ओर निराशा लगती है, सफलता नहीं मिलती, ध्यान करने को जी नहीं चाहता या उस ओर ज्यादा ध्यान जाता है जो शुभ नहीं है, तब एक ही उपाय है – देखो । साक्षी भाव से और ध्यानपूर्वक । मन और अपनी इन्दिरयों को शांत और एकरुपता में देखकर । तब हम पाएंगे एक ऐसी तस्वीर जो होनी तो चाहिए किन्तु है नहीं । बिल्कुल शांत होकर देखना है, जागकर देखना है । धीरे धीरे सभी उलझने गायब होने लगेगीं । यदि लडने की कोशिश न हो तो उचित है । यदि चित शांत है तो बाहरी दौ्ड की जरुरत समाप्त होने लगती है ।
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जिन्दगी को सुन्दर तो हम बना सकते हैं । किसी और की नहीं बल्कि अपनी ही । तब देर क्यों ? क्या सोच रहे हैं ? क्या सुख कल मिलेगा ? नहीं । जिन्दगी के प्रत्येक पल को धन्यवाद के भाव से जीओ । पूरे उत्साह और उन्मुक्तता से । मामला बातचीत का हो या अन्य कोई, पढाई का हो या कामकाज का, हर पल को खुशी खुशी जीना है । जीवन के सभी रसों से वाकिफ होना है । देखना होगा कि हम में वह सब कुछ करने की क्षमता है जो दूसरों में है । प्रत्येक व्यक्ति में स्वामी बनने की क्षमता है यानि स्वयं का मालिक । बस संकल्प और साधना से गुजरना होगा । प्रत्येक पल जागरुक होकर जीना होगा ।
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ओशो रजनीश ने लिखा है – मैं जीवन के सभी रहस्य तुम्हें बता सकता हूं, तुम जीवन के सभी रहस्यों को जान सकते हो, लेकिन उनका प्रयोग करना, उनकी खोज करना तुम्हें ही होगा । केवल जीवन के रहस्यों को ही जान लेना काफी न होगा, उनको प्रयोग करना या जानना तुम्हारा काम है । इसलिए अपने को जानिए । हम अनुभव करेंगे कि जीवन में कोई समस्या नहीं होती है जिसकी वजह से परेशान होना पडे । अगर यह कहा जाए कि सभी समस्याओं को सुलझा लिया तो थोडा अजीब लगेगा, लेकिन हम कहें कि हमने अनुभव किया है कि मैं अपना मार्गदर्शक स्वयं बनने के लिए तैयार हूं, यदि कोई समस्या है तो उसका समाधान भी है । यदि समस्या उत्पन्न होती है तो उसका समाधान तुरन्त खोजा जा सकता है । परेशानी या चिन्ता का सवाल ही खत्म हो जाता है । अपने को जीना है अपने बीच अकेले रहकर । अपने माहौल में जीना है, सुन्दर जीवन बनाकर ।
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दूसरों का व्यवहार और हावभाव देखकर हमको प्रेरणा मिलती है । मन में उच्च व्यक्त्वि की सफलता के बारे में जिज्ञासा पैदा होती है । वैसा ही अपनाने को चित चाहता है । यह भी सच है कि कुछ चेहरे नकली होते है । अन्दर का खोखलापन शीघ्र प्रकट होने लगता है । एक सीखने की भावना होनी चाहिए, नकल की नहीं । न ईष्या की न तडप की । जीवन तो जीने के लिए है । निराशा के वातावरण में निर्णय नहीं लेना चाहिए । हृदय में संतोष एवं उत्साह का भाव उत्पन्न कर बात करनी चाहिए । दूसरों की आंखों में आंखे डालकर देखो और बात करो । एक आत्मसंतोष और प्रेमपूर्ण होने का आभास होगा । गांधी ने लिखा है सही और संयमपूर्ण बातचीत करने के लिए अल्पभाषी होना जरुरी है ।
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यह कोई प्रवचन नहीं है । सीधी सी बात है । दो बातें ध्यान में रखनी चाहिए । एक, दूसरे के बारे में कभी भी बुरे विचार न रखें । दूसरा, यह कभी भी न सोचें कि जीवन समाप्त हो गया है । आज और अभी जो कुछ है, वही सच है । जो होना है वह होना ही है, तब चिन्ता क्यों ? जीना है जीओ, आज और अभी । हंसते हंसते जीना है । ****
जैसे कोई किसी को दुख नहीं दे सकता वैसे ही कोई किसी को सुख भी नहीं दे सकता । सुख दुख का आधार अपने अन्दर से ही शुरु होता है और अपने अन्दर से ही खत्म होता है । यदि जीवन में दुख व कठिनाईयां हैं तो उनका कारण हम ही हैं और यदि जीवन में सुख व खुशियां हैं तो कारण हम ही हैं ।बस, अपनी शक्तियों को तीव्र बनाने का प्रयास होना चाहिए । लेकिन तुमने देखा होगा जब जीवन में खुशियां आती हैं तो उनका श्रेय हम अपने को देते हैं और जब जीवन में दुख आते हैं तो उनका कारण दूसरों पर थोप देते हैं । अपने को एकाग्रचित करना होगा । टोटल एक जगह होना होगा । अपनी शक्तियों को विसर्जित नहीं करना चाहिए । इधर उधर बांटना नहीं है । एक जगह एकत्र करना होगा । लडना भी नहीं है । लडने से कोई हल नहीं होगा । हां, प्रयास करना चाहिए बार बार ।
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जो भी उलझन है उसे देखने की कोशिश करो । मूड आफ हो जाता है, पढाई और काम में जी नहीं लगता, गुस्सा आ जाता है, सफलता नहीं मिलती है, चारों ओर निराशा लगती है, सफलता नहीं मिलती, ध्यान करने को जी नहीं चाहता या उस ओर ज्यादा ध्यान जाता है जो शुभ नहीं है, तब एक ही उपाय है – देखो । साक्षी भाव से और ध्यानपूर्वक । मन और अपनी इन्दिरयों को शांत और एकरुपता में देखकर । तब हम पाएंगे एक ऐसी तस्वीर जो होनी तो चाहिए किन्तु है नहीं । बिल्कुल शांत होकर देखना है, जागकर देखना है । धीरे धीरे सभी उलझने गायब होने लगेगीं । यदि लडने की कोशिश न हो तो उचित है । यदि चित शांत है तो बाहरी दौ्ड की जरुरत समाप्त होने लगती है ।
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जिन्दगी को सुन्दर तो हम बना सकते हैं । किसी और की नहीं बल्कि अपनी ही । तब देर क्यों ? क्या सोच रहे हैं ? क्या सुख कल मिलेगा ? नहीं । जिन्दगी के प्रत्येक पल को धन्यवाद के भाव से जीओ । पूरे उत्साह और उन्मुक्तता से । मामला बातचीत का हो या अन्य कोई, पढाई का हो या कामकाज का, हर पल को खुशी खुशी जीना है । जीवन के सभी रसों से वाकिफ होना है । देखना होगा कि हम में वह सब कुछ करने की क्षमता है जो दूसरों में है । प्रत्येक व्यक्ति में स्वामी बनने की क्षमता है यानि स्वयं का मालिक । बस संकल्प और साधना से गुजरना होगा । प्रत्येक पल जागरुक होकर जीना होगा ।
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ओशो रजनीश ने लिखा है – मैं जीवन के सभी रहस्य तुम्हें बता सकता हूं, तुम जीवन के सभी रहस्यों को जान सकते हो, लेकिन उनका प्रयोग करना, उनकी खोज करना तुम्हें ही होगा । केवल जीवन के रहस्यों को ही जान लेना काफी न होगा, उनको प्रयोग करना या जानना तुम्हारा काम है । इसलिए अपने को जानिए । हम अनुभव करेंगे कि जीवन में कोई समस्या नहीं होती है जिसकी वजह से परेशान होना पडे । अगर यह कहा जाए कि सभी समस्याओं को सुलझा लिया तो थोडा अजीब लगेगा, लेकिन हम कहें कि हमने अनुभव किया है कि मैं अपना मार्गदर्शक स्वयं बनने के लिए तैयार हूं, यदि कोई समस्या है तो उसका समाधान भी है । यदि समस्या उत्पन्न होती है तो उसका समाधान तुरन्त खोजा जा सकता है । परेशानी या चिन्ता का सवाल ही खत्म हो जाता है । अपने को जीना है अपने बीच अकेले रहकर । अपने माहौल में जीना है, सुन्दर जीवन बनाकर ।
व्यक्ति जो सोचता है वैसा ही होता है, जरुरी नहीं । जो नहीं सोचा होता है वह भी हो जाता है । तब सोचने लगता है कि यह तो मैंने सोचा ही नहीं था । किसी से साधारण सी मित्रता शुरु होती है कोई ज्यादा रुचि भी नहीं लेते है । किन्तु एकाएक कुछ घटनाक्रम के साथ समय बदलता है । जिसपर हम सोचने लगते हैं । भावनाओं के आगे सचमुच बुद्वि बिल्कुल काम नहीं करती । कह सकते हैं प्रेम के आगे किसी का कोई बल नहीं चलता । यह कैसे और कैसे हो जाता है इसको समझना आसान नहीं लगता । अपने को सम्भाल पाना मुश्किल । दो मिनट के लिए बुदिध को पीछे हटाकर देखें तो क्या देखेंगे ? भावनाओं को समझकर एक विचार की दृष्टि देखें तो हृदय के तल पर क्या निकलता है ? क्या स्नेह और प्रेम की धारा में बुदिध, समाज को ताक पर रख दिया जाता है ? अपने पुराने सिदधांतों पर सन्देह और उन्हें तोडा मरोडा जा सकता है ? वैसे एक प्रश्न तो उठता ही होगा क्यों करता है कोई किसी के लिए इतना ? कैसे करने लग जाता है ? क्या व्यक्ति खुद कर सकता है ऐसा ? यदि आदमी खुद चाहे तो क्या ऐसा कर सकता है ? उत्तर एक ही होगा – नहीं, कदापि नहीं ।
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दूसरों का व्यवहार और हावभाव देखकर हमको प्रेरणा मिलती है । मन में उच्च व्यक्त्वि की सफलता के बारे में जिज्ञासा पैदा होती है । वैसा ही अपनाने को चित चाहता है । यह भी सच है कि कुछ चेहरे नकली होते है । अन्दर का खोखलापन शीघ्र प्रकट होने लगता है । एक सीखने की भावना होनी चाहिए, नकल की नहीं । न ईष्या की न तडप की । जीवन तो जीने के लिए है । निराशा के वातावरण में निर्णय नहीं लेना चाहिए । हृदय में संतोष एवं उत्साह का भाव उत्पन्न कर बात करनी चाहिए । दूसरों की आंखों में आंखे डालकर देखो और बात करो । एक आत्मसंतोष और प्रेमपूर्ण होने का आभास होगा । गांधी ने लिखा है सही और संयमपूर्ण बातचीत करने के लिए अल्पभाषी होना जरुरी है ।
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यह कोई प्रवचन नहीं है । सीधी सी बात है । दो बातें ध्यान में रखनी चाहिए । एक, दूसरे के बारे में कभी भी बुरे विचार न रखें । दूसरा, यह कभी भी न सोचें कि जीवन समाप्त हो गया है । आज और अभी जो कुछ है, वही सच है । जो होना है वह होना ही है, तब चिन्ता क्यों ? जीना है जीओ, आज और अभी । हंसते हंसते जीना है । ****
जैसे कोई किसी को दुख नहीं दे सकता वैसे ही कोई किसी को सुख भी नहीं दे सकता । सुख दुख का आधार अपने अन्दर से ही शुरु होता है और अपने अन्दर से ही खत्म होता है । यदि जीवन में दुख व कठिनाईयां हैं तो उनका कारण हम ही हैं और यदि जीवन में सुख व खुशियां हैं तो कारण हम ही हैं ।बस, अपनी शक्तियों को तीव्र बनाने का प्रयास होना चाहिए । लेकिन तुमने देखा होगा जब जीवन में खुशियां आती हैं तो उनका श्रेय हम अपने को देते हैं और जब जीवन में दुख आते हैं तो उनका कारण दूसरों पर थोप देते हैं । अपने को एकाग्रचित करना होगा । टोटल एक जगह होना होगा । अपनी शक्तियों को विसर्जित नहीं करना चाहिए । इधर उधर बांटना नहीं है । एक जगह एकत्र करना होगा । लडना भी नहीं है । लडने से कोई हल नहीं होगा । हां, प्रयास करना चाहिए बार बार ।
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जो भी उलझन है उसे देखने की कोशिश करो । मूड आफ हो जाता है, पढाई और काम में जी नहीं लगता, गुस्सा आ जाता है, सफलता नहीं मिलती है, चारों ओर निराशा लगती है, सफलता नहीं मिलती, ध्यान करने को जी नहीं चाहता या उस ओर ज्यादा ध्यान जाता है जो शुभ नहीं है, तब एक ही उपाय है – देखो । साक्षी भाव से और ध्यानपूर्वक । मन और अपनी इन्दिरयों को शांत और एकरुपता में देखकर । तब हम पाएंगे एक ऐसी तस्वीर जो होनी तो चाहिए किन्तु है नहीं । बिल्कुल शांत होकर देखना है, जागकर देखना है । धीरे धीरे सभी उलझने गायब होने लगेगीं । यदि लडने की कोशिश न हो तो उचित है । यदि चित शांत है तो बाहरी दौ्ड की जरुरत समाप्त होने लगती है ।
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जिन्दगी को सुन्दर तो हम बना सकते हैं । किसी और की नहीं बल्कि अपनी ही । तब देर क्यों ? क्या सोच रहे हैं ? क्या सुख कल मिलेगा ? नहीं । जिन्दगी के प्रत्येक पल को धन्यवाद के भाव से जीओ । पूरे उत्साह और उन्मुक्तता से । मामला बातचीत का हो या अन्य कोई, पढाई का हो या कामकाज का, हर पल को खुशी खुशी जीना है । जीवन के सभी रसों से वाकिफ होना है । देखना होगा कि हम में वह सब कुछ करने की क्षमता है जो दूसरों में है । प्रत्येक व्यक्ति में स्वामी बनने की क्षमता है यानि स्वयं का मालिक । बस संकल्प और साधना से गुजरना होगा । प्रत्येक पल जागरुक होकर जीना होगा ।
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ओशो रजनीश ने लिखा है – मैं जीवन के सभी रहस्य तुम्हें बता सकता हूं, तुम जीवन के सभी रहस्यों को जान सकते हो, लेकिन उनका प्रयोग करना, उनकी खोज करना तुम्हें ही होगा । केवल जीवन के रहस्यों को ही जान लेना काफी न होगा, उनको प्रयोग करना या जानना तुम्हारा काम है । इसलिए अपने को जानिए । हम अनुभव करेंगे कि जीवन में कोई समस्या नहीं होती है जिसकी वजह से परेशान होना पडे । अगर यह कहा जाए कि सभी समस्याओं को सुलझा लिया तो थोडा अजीब लगेगा, लेकिन हम कहें कि हमने अनुभव किया है कि मैं अपना मार्गदर्शक स्वयं बनने के लिए तैयार हूं, यदि कोई समस्या है तो उसका समाधान भी है । यदि समस्या उत्पन्न होती है तो उसका समाधान तुरन्त खोजा जा सकता है । परेशानी या चिन्ता का सवाल ही खत्म हो जाता है । अपने को जीना है अपने बीच अकेले रहकर । अपने माहौल में जीना है, सुन्दर जीवन बनाकर ।
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दूसरों का व्यवहार और हावभाव देखकर हमको प्रेरणा मिलती है । मन में उच्च व्यक्त्वि की सफलता के बारे में जिज्ञासा पैदा होती है । वैसा ही अपनाने को चित चाहता है । यह भी सच है कि कुछ चेहरे नकली होते है । अन्दर का खोखलापन शीघ्र प्रकट होने लगता है । एक सीखने की भावना होनी चाहिए, नकल की नहीं । न ईष्या की न तडप की । जीवन तो जीने के लिए है । निराशा के वातावरण में निर्णय नहीं लेना चाहिए । हृदय में संतोष एवं उत्साह का भाव उत्पन्न कर बात करनी चाहिए । दूसरों की आंखों में आंखे डालकर देखो और बात करो । एक आत्मसंतोष और प्रेमपूर्ण होने का आभास होगा । गांधी ने लिखा है सही और संयमपूर्ण बातचीत करने के लिए अल्पभाषी होना जरुरी है ।
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यह कोई प्रवचन नहीं है । सीधी सी बात है । दो बातें ध्यान में रखनी चाहिए । एक, दूसरे के बारे में कभी भी बुरे विचार न रखें । दूसरा, यह कभी भी न सोचें कि जीवन समाप्त हो गया है । आज और अभी जो कुछ है, वही सच है । जो होना है वह होना ही है, तब चिन्ता क्यों ? जीना है जीओ, आज और अभी । हंसते हंसते जीना है । ****
जैसे कोई किसी को दुख नहीं दे सकता वैसे ही कोई किसी को सुख भी नहीं दे सकता । सुख दुख का आधार अपने अन्दर से ही शुरु होता है और अपने अन्दर से ही खत्म होता है । यदि जीवन में दुख व कठिनाईयां हैं तो उनका कारण हम ही हैं और यदि जीवन में सुख व खुशियां हैं तो कारण हम ही हैं ।बस, अपनी शक्तियों को तीव्र बनाने का प्रयास होना चाहिए । लेकिन तुमने देखा होगा जब जीवन में खुशियां आती हैं तो उनका श्रेय हम अपने को देते हैं और जब जीवन में दुख आते हैं तो उनका कारण दूसरों पर थोप देते हैं । अपने को एकाग्रचित करना होगा । टोटल एक जगह होना होगा । अपनी शक्तियों को विसर्जित नहीं करना चाहिए । इधर उधर बांटना नहीं है । एक जगह एकत्र करना होगा । लडना भी नहीं है । लडने से कोई हल नहीं होगा । हां, प्रयास करना चाहिए बार बार ।
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जो भी उलझन है उसे देखने की कोशिश करो । मूड आफ हो जाता है, पढाई और काम में जी नहीं लगता, गुस्सा आ जाता है, सफलता नहीं मिलती है, चारों ओर निराशा लगती है, सफलता नहीं मिलती, ध्यान करने को जी नहीं चाहता या उस ओर ज्यादा ध्यान जाता है जो शुभ नहीं है, तब एक ही उपाय है – देखो । साक्षी भाव से और ध्यानपूर्वक । मन और अपनी इन्दिरयों को शांत और एकरुपता में देखकर । तब हम पाएंगे एक ऐसी तस्वीर जो होनी तो चाहिए किन्तु है नहीं । बिल्कुल शांत होकर देखना है, जागकर देखना है । धीरे धीरे सभी उलझने गायब होने लगेगीं । यदि लडने की कोशिश न हो तो उचित है । यदि चित शांत है तो बाहरी दौ्ड की जरुरत समाप्त होने लगती है ।
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जिन्दगी को सुन्दर तो हम बना सकते हैं । किसी और की नहीं बल्कि अपनी ही । तब देर क्यों ? क्या सोच रहे हैं ? क्या सुख कल मिलेगा ? नहीं । जिन्दगी के प्रत्येक पल को धन्यवाद के भाव से जीओ । पूरे उत्साह और उन्मुक्तता से । मामला बातचीत का हो या अन्य कोई, पढाई का हो या कामकाज का, हर पल को खुशी खुशी जीना है । जीवन के सभी रसों से वाकिफ होना है । देखना होगा कि हम में वह सब कुछ करने की क्षमता है जो दूसरों में है । प्रत्येक व्यक्ति में स्वामी बनने की क्षमता है यानि स्वयं का मालिक । बस संकल्प और साधना से गुजरना होगा । प्रत्येक पल जागरुक होकर जीना होगा ।
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ओशो रजनीश ने लिखा है – मैं जीवन के सभी रहस्य तुम्हें बता सकता हूं, तुम जीवन के सभी रहस्यों को जान सकते हो, लेकिन उनका प्रयोग करना, उनकी खोज करना तुम्हें ही होगा । केवल जीवन के रहस्यों को ही जान लेना काफी न होगा, उनको प्रयोग करना या जानना तुम्हारा काम है । इसलिए अपने को जानिए । हम अनुभव करेंगे कि जीवन में कोई समस्या नहीं होती है जिसकी वजह से परेशान होना पडे । अगर यह कहा जाए कि सभी समस्याओं को सुलझा लिया तो थोडा अजीब लगेगा, लेकिन हम कहें कि हमने अनुभव किया है कि मैं अपना मार्गदर्शक स्वयं बनने के लिए तैयार हूं, यदि कोई समस्या है तो उसका समाधान भी है । यदि समस्या उत्पन्न होती है तो उसका समाधान तुरन्त खोजा जा सकता है । परेशानी या चिन्ता का सवाल ही खत्म हो जाता है । अपने को जीना है अपने बीच अकेले रहकर । अपने माहौल में जीना है, सुन्दर जीवन बनाकर ।
कुछ लोग अच्छे होते हैं और कुछ लोग अच्छे नहीं होते हैं । यह भी सच है कि यह हमारे देखने का नजरिया है । हम देखते हैं कि लडकियों में ज्यादा सहजता,सरलता है, बनिस्बत लडकों के । हमें देखना होगा कि हम कैसे हैं, हमारा व्यक्तित्व कैसा है ? व्यक्तित्व एक ही होना चाहिए । दोनों होना ठीक नहीं । साफ पानी में गन्दा पानी मिला दो या गन्दे पानी में साफ पानी, कोई फर्क नहीं पडता – परिणाम गंदा ही हैं ।
अगर यह कहा जाए कि कम बोलने वाले अच्छे हैं, यह सोचना गलत होगा । यह ठीक भी नहीं कहा जा सकता । सुन्दर खिला हुआ चेहरा, हंसता हंसाता चेहरा सबको अच्छा लगता है, गम्भीर चेहरा कैसे सुन्दर हो सकता है ? अगर यह कहा जाए कि हंसो उस समय जब हंसना उचित हो । गम्भीर उसस समय रहो, जब जरुरत हो – यही ठीक है । यह भी सोचने पर ही निर्भर है ।
याद रखो – सारी बातें एक खास व्यक्ति के लिए नहीं होती । अलग अलग बातें अलग अलग लोगों के लिए होती हैं । हम गलती से सभी बातें अपने लिए समझ बैठते है। । इसलिए ध्यानपूर्णक समझना जरुरी है । समझ का ऊंचे स्तर पर होना जरुरी है ।
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जीवन को ऐसे जिओ जैसे जीवन एक नाटक है और हम अभिनय कर रहे हैं । एक अभिनय, एक झूठ है सब कुछ । पल पल का जीना । तब दुख का सवाल ही पैदा नहीं होता । ऐसा कुछ भी नहीं जिसकी वजह से उत्तेजना हो । जरुरी है समझ हो । एक बार समझ में आ जाए तो सब कुछ मिल जाता है । क्या चीज अच्छी है और क्या बुरी, क्या जरुरी है और क्या नहीं, समझ आ जाता है, दोहरी स्थिति रह ही नहीं जाती ।
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जीवन का अनुभव देखा होगा आपने । कई बार मांगने से कुछ नहीं मिलता और कई बार बिना मांगे ही बहुत कुछ मिल जाता है । तब कोई मांग न रखते हुए ही जीआ जाए तो कैसा रहेगा ? सुना है सफलता ही असफलता की सीढी है । जब तक किसी एक कार्य के प्रति सफलता प्राप्त नहीं हुई है तब तक सफलता प्राप्त करने के लिए एक उत्सुकता बनी रहती है, एक इंतजार होता है । किन्तु क्या हम नहीं महसूस करतेू कि सफलता मिल जाने पर कोई उत्साह नहीं रह जाता है । ऐसा लगने लगता है जैसे कुछ हुआ ही न हो । ऐसा लगता है कि जैसे सफलता की वह उत्तेजना, उत्साह है ही नहीं जो सफलता पाने से पहले था । तब यह क्या है ? क्या हम सफलता पाने की कामना छोड दें ? यह भी बहुत विडम्बनापूर्ण होगा । तब मान लीजिए, हम उनके प्रति बहुत प्रेम प्रदर्शित करते हैं, उन्हें बहुत चाहते हैं, उनके व्यक्त्वि से प्रभावित होते हैं, लेकिन जब उनके निकट आते हैं तो क्या वह प्रेम, वह आकर्षण, वह उत्साह रह जाता है ? नहीं । ****
हम लोग हमेशा ईश्वर से कुछ न कुछ मांगते ही रहते हैं । ईश्वर कितना ही दे दे, कम लगता है । दूसरों के क्षणिक आराम को देखकर ईर्ष्या से भर जाते हैं । हमेशा आगे आने वाले समय में सुख मिल जाने की कल्पना करते हैं । लेकिन क्या ऐसा होता है ? जितना हमें मिला है, उसका आभास किया है ? जितना भगवान ने दिया है उसका धन्यवाद किया ? कभी ईश्वर को धन्यवाद के भाव से याद किया है ? कभी झूम झूम कर नाचा है ? कभी अहो भाव से निकला – तेरा लाख लाख शुक्र । मैं बहुत ही प्रसन्न हूं ।
कभी कभी भय से पीडित होकर मानसिक तनाव से ग्रस्त हो जाना, जीवन के उतार चढाव का ही एक रुप तो है । अपने को समझने का असफल प्रयास किया जाता है । मन का डर न जाने कितनी कोरी कल्पनाओं का जाल बुन लेता है, इस पर कभी विचार किया है ? भयग्रस्त व्यक्ति किस प्रकार अपनी शक्तियों को खो देता है, अपना विकास होने पर एक बंदिश लगा देता है, जबकि भय निर्मूल है । एक खौफ और संशक्ति वातावरण क्यों आ जाता है ? अगर हम चाहें भय से छुटकारा पा सकते हैं ? हां, यदि धन्यवाद का भाव हो । एक पूजा का भाव हो, जो है जैसा है, स्वीकार है । ऐसा ही होना था, ऐसा ही हो रहा है । धीरे धीरे भय समाप्त होने लगेगा । जो हो भी नहीं रहा है, हुआ भी नहीं है, मात्र होने की कल्पना से भयग्रस्त होकर वर्तमान के सुन्दर पलों को नष्ट करना कहां तक सार्थक है ? जो होगा, वह होगा, लेकिन यह क्यों भय किया जाता है कि जो आप सोच रहे हैं, वही होगा – क्या मालूम वैसा न हो ?
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यदि हमारे बीच शैक्षिक योग्यताएं कम हैं तो निराश नहीं होना चाहिए । अपने बीच आत्मविश्वास को जागृत करके हम सफलता पा सकते हैं । बस आशा और विश्वास की यात्रा जारी रहनी चाहिए । ****
भविष्य की सुरक्षा की भावना और भय की भावना में क्या अन्तर है ? क्या इसको आसानी से समझा जा सकता है ? शायद नहीं । भविष्य की सुरक्षा का लबादा ओढकर कहीं हम भय की भावना से तो नहीं जी रहे ? कल का क्या भरोसा, हम रहें न रहें, यह सोच रहे या न रहे, तब वर्तमान के क्षणों में आनन्द क्यों नहीं आ पाते ? अगर हम अपने बीते हुए समय पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार करें तो पायेंगे कि हम हमेशा ही भविष्य की सुरक्षा से ही जीते रहे हैं, हमेशा भविष्य की सुरक्षा ने हमें भयभीत बना दिया है और हम वर्तमान के क्षणों को पूर्णत वंचित हो जाते हैं ।
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दूसरों से प्रश्न पूछना भी एक कला है । अपनी बात में एक ऐसा आकर्षण हो कि दूसरा बात को समझे, न कि मुंह चिढाकर हमें ही जलीकटी सुना दे । दूसरों से प्रश्न पूछकर, अपनी जिज्ञासा प्रकट करके उसके मन को टटोलें । हो सकता है जीवन के सत्य से परिचित हो सको । प्रश्न पूछना बुरा नहीं है लेकिन गलत ढंग से पूछा गया प्रश्न बुरा है ।
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दौड कितनी भी दौड ली जाए, अन्त में पायेंगे एक ठहराव । रुको । और आगे नहीं । कुछ नहीं । अब और ज्यादा दौडा नहीं जाता । अब आराम चाहिए । शांति और संतोष चाहिए । अब ऊंचे ऊंचे महल नहीं सादापन चाहिए । जो जैसा है ठीक है । सुन्दर है । अब कोई इच्छा नहीं है । सब कुछ मिल गया है । अब मस्तिष्क को आराम देना है । सभी सुखों का रास्ता मिल गया है जो अपने अन्दर से शुरु होता है । अब धीरे धीरे चलने को जी चाहता है । अब भागने की चाह नहीं है । सादे विचार, बातचीत,खाना पीना,पहनना,मधुर व धीमी गति से ।
अगर यह कहा जाए कि कम बोलने वाले अच्छे हैं, यह सोचना गलत होगा । यह ठीक भी नहीं कहा जा सकता । सुन्दर खिला हुआ चेहरा, हंसता हंसाता चेहरा सबको अच्छा लगता है, गम्भीर चेहरा कैसे सुन्दर हो सकता है ? अगर यह कहा जाए कि हंसो उस समय जब हंसना उचित हो । गम्भीर उसस समय रहो, जब जरुरत हो – यही ठीक है । यह भी सोचने पर ही निर्भर है ।
याद रखो – सारी बातें एक खास व्यक्ति के लिए नहीं होती । अलग अलग बातें अलग अलग लोगों के लिए होती हैं । हम गलती से सभी बातें अपने लिए समझ बैठते है। । इसलिए ध्यानपूर्णक समझना जरुरी है । समझ का ऊंचे स्तर पर होना जरुरी है ।
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जीवन को ऐसे जिओ जैसे जीवन एक नाटक है और हम अभिनय कर रहे हैं । एक अभिनय, एक झूठ है सब कुछ । पल पल का जीना । तब दुख का सवाल ही पैदा नहीं होता । ऐसा कुछ भी नहीं जिसकी वजह से उत्तेजना हो । जरुरी है समझ हो । एक बार समझ में आ जाए तो सब कुछ मिल जाता है । क्या चीज अच्छी है और क्या बुरी, क्या जरुरी है और क्या नहीं, समझ आ जाता है, दोहरी स्थिति रह ही नहीं जाती ।
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जीवन का अनुभव देखा होगा आपने । कई बार मांगने से कुछ नहीं मिलता और कई बार बिना मांगे ही बहुत कुछ मिल जाता है । तब कोई मांग न रखते हुए ही जीआ जाए तो कैसा रहेगा ? सुना है सफलता ही असफलता की सीढी है । जब तक किसी एक कार्य के प्रति सफलता प्राप्त नहीं हुई है तब तक सफलता प्राप्त करने के लिए एक उत्सुकता बनी रहती है, एक इंतजार होता है । किन्तु क्या हम नहीं महसूस करतेू कि सफलता मिल जाने पर कोई उत्साह नहीं रह जाता है । ऐसा लगने लगता है जैसे कुछ हुआ ही न हो । ऐसा लगता है कि जैसे सफलता की वह उत्तेजना, उत्साह है ही नहीं जो सफलता पाने से पहले था । तब यह क्या है ? क्या हम सफलता पाने की कामना छोड दें ? यह भी बहुत विडम्बनापूर्ण होगा । तब मान लीजिए, हम उनके प्रति बहुत प्रेम प्रदर्शित करते हैं, उन्हें बहुत चाहते हैं, उनके व्यक्त्वि से प्रभावित होते हैं, लेकिन जब उनके निकट आते हैं तो क्या वह प्रेम, वह आकर्षण, वह उत्साह रह जाता है ? नहीं । ****
हम लोग हमेशा ईश्वर से कुछ न कुछ मांगते ही रहते हैं । ईश्वर कितना ही दे दे, कम लगता है । दूसरों के क्षणिक आराम को देखकर ईर्ष्या से भर जाते हैं । हमेशा आगे आने वाले समय में सुख मिल जाने की कल्पना करते हैं । लेकिन क्या ऐसा होता है ? जितना हमें मिला है, उसका आभास किया है ? जितना भगवान ने दिया है उसका धन्यवाद किया ? कभी ईश्वर को धन्यवाद के भाव से याद किया है ? कभी झूम झूम कर नाचा है ? कभी अहो भाव से निकला – तेरा लाख लाख शुक्र । मैं बहुत ही प्रसन्न हूं ।
कभी कभी भय से पीडित होकर मानसिक तनाव से ग्रस्त हो जाना, जीवन के उतार चढाव का ही एक रुप तो है । अपने को समझने का असफल प्रयास किया जाता है । मन का डर न जाने कितनी कोरी कल्पनाओं का जाल बुन लेता है, इस पर कभी विचार किया है ? भयग्रस्त व्यक्ति किस प्रकार अपनी शक्तियों को खो देता है, अपना विकास होने पर एक बंदिश लगा देता है, जबकि भय निर्मूल है । एक खौफ और संशक्ति वातावरण क्यों आ जाता है ? अगर हम चाहें भय से छुटकारा पा सकते हैं ? हां, यदि धन्यवाद का भाव हो । एक पूजा का भाव हो, जो है जैसा है, स्वीकार है । ऐसा ही होना था, ऐसा ही हो रहा है । धीरे धीरे भय समाप्त होने लगेगा । जो हो भी नहीं रहा है, हुआ भी नहीं है, मात्र होने की कल्पना से भयग्रस्त होकर वर्तमान के सुन्दर पलों को नष्ट करना कहां तक सार्थक है ? जो होगा, वह होगा, लेकिन यह क्यों भय किया जाता है कि जो आप सोच रहे हैं, वही होगा – क्या मालूम वैसा न हो ?
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यदि हमारे बीच शैक्षिक योग्यताएं कम हैं तो निराश नहीं होना चाहिए । अपने बीच आत्मविश्वास को जागृत करके हम सफलता पा सकते हैं । बस आशा और विश्वास की यात्रा जारी रहनी चाहिए । ****
भविष्य की सुरक्षा की भावना और भय की भावना में क्या अन्तर है ? क्या इसको आसानी से समझा जा सकता है ? शायद नहीं । भविष्य की सुरक्षा का लबादा ओढकर कहीं हम भय की भावना से तो नहीं जी रहे ? कल का क्या भरोसा, हम रहें न रहें, यह सोच रहे या न रहे, तब वर्तमान के क्षणों में आनन्द क्यों नहीं आ पाते ? अगर हम अपने बीते हुए समय पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार करें तो पायेंगे कि हम हमेशा ही भविष्य की सुरक्षा से ही जीते रहे हैं, हमेशा भविष्य की सुरक्षा ने हमें भयभीत बना दिया है और हम वर्तमान के क्षणों को पूर्णत वंचित हो जाते हैं ।
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दूसरों से प्रश्न पूछना भी एक कला है । अपनी बात में एक ऐसा आकर्षण हो कि दूसरा बात को समझे, न कि मुंह चिढाकर हमें ही जलीकटी सुना दे । दूसरों से प्रश्न पूछकर, अपनी जिज्ञासा प्रकट करके उसके मन को टटोलें । हो सकता है जीवन के सत्य से परिचित हो सको । प्रश्न पूछना बुरा नहीं है लेकिन गलत ढंग से पूछा गया प्रश्न बुरा है ।
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दौड कितनी भी दौड ली जाए, अन्त में पायेंगे एक ठहराव । रुको । और आगे नहीं । कुछ नहीं । अब और ज्यादा दौडा नहीं जाता । अब आराम चाहिए । शांति और संतोष चाहिए । अब ऊंचे ऊंचे महल नहीं सादापन चाहिए । जो जैसा है ठीक है । सुन्दर है । अब कोई इच्छा नहीं है । सब कुछ मिल गया है । अब मस्तिष्क को आराम देना है । सभी सुखों का रास्ता मिल गया है जो अपने अन्दर से शुरु होता है । अब धीरे धीरे चलने को जी चाहता है । अब भागने की चाह नहीं है । सादे विचार, बातचीत,खाना पीना,पहनना,मधुर व धीमी गति से ।
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